जब मुझे स्टेट यानि अमेरिका, स्टैन्डर्ड बढ़ाने हेतु मैं अमेरिका को स्टेट ही कहता हंू, से मेरे पुत्र द्वारा खबर मिली कि मैं अब दादा हो गया हूं तो लगा कि जिन्दगी के सफर में सीनियरिटी की एक पायदान और चढ़ गया, वरना मेरी मां ने तो बचपन में मेरा घरेलू नाम छोट्या उर्फ छोटू रख कर मुझे सबसे 'जूनियरÓ ही बना डाला था। उस वजह से मैं ताजिन्दगी उसके लिए ही क्या, सब के लिए छुटकू ही रहा। यहां तक कि मुझे सरकारी नौकरी में भी किसी ने बड़कू अर्थात 'सीनियरÓ नहीं माना। खूब कोर्ट-कचहरियां कर लीं, कभी सर्विस ट्रिब्यूनल तो कभी कोर्ट, लेकिन नतीजा वही ढ़ाक के तीन पात।
ऐसा कैसे हुआ, वह बातें अब आप न पूछें तो ही ठीक है वर्ना कहीं कुछ कह दिया तो कौन जाने कब मानहानि के दावे के लिए बुलावा आ जाए। यह तो भला हो बैंक और रेलवे का, जिसने बाद में 60 की उम्र में बिना कुछ कहे सुने मुझे 'सीनियर सिटीजनÓ मान लिया, वरना इन्कम टैक्स वाले तो मुझे 65 वर्ष का होने तक इंतजार करवाते रहे। केन्द्र सरकार एक और उसके दोनों विभागों के वरिष्ठ नागरिकता के नियम अलग-अलग, है ना मजेदार बात, लेकिन यही तो अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री की खूबी है!
जब मैंने अपने बचपन के लंगोटिया दोस्त को टेलीफोन पर यह बात बताई कि अब मैं दादा हो गया हूं तो पहले तो वह मानने को ही तैयार नहीं हुआ फिर उसने फोन पर ही मुझे कहा कि तू कभी सुधरेगा या नहीं। इस उम्र में दादागिरी करने की सूझी है? पुलिस को पता लगा तो फिर क्या होगा। मैं उसे बता ही रहा था कि यह बात नहीं है, लेकिन वह कुछ भी सुनने को तैयार नहीं था। वह बोलता रहा कि बस-बस रहने दे। यह उम्र भगवान का नाम लेने की है और तू दादा बन रहा है, कहीं पुलिस ने थाने में बुलवा लिया तो रही सही इज्जत भी मिट्टी में मिल जानी है। घबरा कर मैंने फोन बंद कर दिया।
हां, तो मैं आपको दादा बनने के बारे में बता रहा था। जैसा कि आप स्वयं जानते हैं कि बचपन में बनी धारणा अथवा संस्कार आसानी से नहीं जाते। एक बार जब मैं पांचवी-छठी क्लास में पढ़ा करता था तब हमारे एक सहपाठी के बारे में सुना कि वह दादा बन गया है, परन्तु हम में से कइयों को इस बात पर विश्वास नहीं हुआ, हालांकि हम उसे देखा करते कि वह अक्सर गले में रुमाल बांधे रखता, कभी कमीज अथवा बुशर्ट की कॉलर ऊपर चढ़ाए रखता अथवा उनके ऊपर के एक-दो बटन खुले रख कर घूमा करता। इतना ही नहीं, चलते वक्त हाथों को दोनों ओर फैलाए रखता तथा हरदम लडऩे-झगडऩे को आतुर रहता था। फिर भी हममें से कइयों ने उसे 'दादाÓ की मान्यता नहीं दी, लेकिन एक रोज किसी बात पर मास्साब ने उसकी खूब पिटाई की तो 'कन्फर्मÓ हो गया कि वह वाकई दादा है क्योंकि कहावत है कि 'दादा, मार खावै ज्यादा।Ó यह बात अलग है कि वह मार घर पर, स्कूल में या थाने पर, इनमे से कहां ज्यादा खाता है। दादा लोग सिर्फ दादा ही नहीं कहलाते, 'दादागिरÓ भी कहलाते हैं। इनका पुलिस और नेताओं से सीधा संबंध होता है। जैसे जनप्रतिनिधियों के अपने-अपने क्षेत्र होते हैं, इनके भी अपने इलाके होते हैं, जहां यह रंगदारी, पैसा ऐंठना इत्यादि का कार्य अंजाम देते रहते हैं। कहीं-कहीं चुनाव के दिनों में भी इनकी सेवाएं ली जाती हैं। अक्सर यह लोग माफियों और नेताओं के साथ काम करते हैं। इनकी वजह से उपरोक्त पुरानी कहावत 'दादा, मार खावै ज्यादाÓ धीरे-धीरे पुरानी पड़ती जा रही है और इसकी जगह 'दादा, माल खावै ज्यादाÓ का प्रचलन बढ़ रहा है। तभी तो हम देश के राजनीतिक दृश्य पटल पर नेताओं, अफसरों एवं कतिपय पत्रकारों के साथ-साथ असरदार लोगों, दादाओं के कारनामे देख रहे हैं, जो देश को चूना लगाने में एक-दूसरे से होड़ लगा रहे हैं। भगवान जाने कब ऐसे दादाओं से देश को निजात मिलेगी? इसलिए जब से मैंने यह सुना कि अब मैं दादा हो गया हंू तो मैं सोचता रहता हूं कि यह काम मैं कैसे कर पाऊंगा? मैं डर रहा हूं कि अब मैं क्या करूंगा? मेरे से तो यह सब होगा नहीं। मैं कमीज बुशर्ट के बटन खोल कर कैसे घुमूंगा? मैं बिना पुलिस की मदद के दादा कैसे बनूगां और फिर मेरा तो कोई राजनीति में गॉडफादर भी नहीं है, इसलिए इस बात को छिपाता फिर रहा हूं, लेकिन बीबी-बच्चे समझा रहे हैं कि आपको मूल का ब्याज मिला है। उनका कहना है कि दादा शब्द तो आदर का है। इसे घर-परिवार में जहां पिता के पिता के लिए इस्तैमाल किया जाता है, वहीं यह कहीं-कहीं बड़े भाई के लिए भी प्रयुक्त होता है। महाराष्ट्र में तो इस नाम-पदवी के साथ कई विभूतियां हुई हैं, जैसे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी दादा भाई नौरोजी, न्यायाधिकारी दादा धर्माधिकारी, फिल्मों के दादा फाल्के, जिनके नाम से पुरस्कार दिए जाते हैं। यहां तक कि वहां के मुख्यमंत्री तक बसंत दादा पाटिल हुए हैं, इसलिए कहीं-कहीं दादा शब्द सम्माननीय भी है और जहां दादा का सम्मान है, वहां भला दादी कैसे पीछे रह सकती है। अत: कई पारिवारिक पत्रिकाओं ने अपने अपने पृष्ठों में 'दादी मां के नुस्खेÓ नामक लोकप्रिय स्तम्भ चलाए हुए हैं। अत: आपका यह छिपाव करना गलत है। वे कहते हैं कि 'कहीं कुलड़ी मेंं गुड़ फूटा हैैंÓ अर्थात कहीं कोई ऐसी बात छिपी रही है? लगता है इस बहाने आप इष्ट मित्रों को मिठाई खिलाने से बचना चाहते हैं, परन्तु मेरा कहना है कि ऐसा नहीं है, है ना?
यह व्यंग्य लेख सेवानिवृत्त इंजीनियर श्री शिवशंकर गोयल ने भेजा है। उनका संपर्क सूत्र है -फ्लेट नं. 1201, आई आई टी इंजीनियर्स सोसायटी, प्लाट नं. 12, सैक्टर न.10, द्वारका, दिल्ली- 75, मोबाइल नंबर: 9873706333
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