बुधवार, 30 नवंबर 2011

क्षणिकाएं


बड़े अरमानों से

बड़े अरमानों से
हमने उन्हें फूल
भेंट किये
भोलेपन से वो
पूछने लगे
कहाँ से खरीदे ?
हमें भी किसी
ख़ास को देने हैं
बहुत शिद्दत से
बताने लगे
****
अन्धेरा

लोग घरों को रोशन
करते हैं
दिल-ओ-दिमाग में
अन्धेरा रखते हैं
****
मैं चाहूँ तो हो जाए

मैं चाहूँ हो जाए
कोई और चाहे
तो क्यों हो जाए
****
ज्यादा देने के लिए

ज्यादा देने के लिए
कम लेना सीखो
जो मिले उसे
खुशी से कबूल
कर लो
****
कुर्सी के लिए

सब कुर्सी के लिए
लड़ते
उससे कोई नहीं
पूछता
उस पर बैठने वाला
कैसा होना चाहिए
****
प्रेम की परिणीति

प्रेमियों के
प्रेम की परिणीति
प्रेमी प्रेमिका
दोनों की बेचैनी
****
देता इश्वर है

देता इश्वर है
खाते,पचाते,
भोगते,हम हैं
फिर कहते
हमारा है
****
सहानभूती

सहानभूती के
दो शब्द दिल को
राहत देते हैं
उसमें भी लोग
कंजूसी करते हैं
****
दुविधा

दुविधा मैं पैदा हुआ
दुविधा में जीता रहा
दुविधा में मर गया
करूँ ना करूँ
के जाल में फंसा रहा
****
सामंजस्य बिठाओ

सामंजस्य बिठाओ
नहीं तो विद्रोह करो
या फिर सहन करो

क्या मुझ से पूछ कर,तुमने मुझे जन्म दिया ?
क्या मुझ से पूछ कर
तुमने मुझे जन्म दिया ?
दुनिया में लाने से पहले
तुमने किस से पूछा
बेटे ने ,पिता से
क्रोध में प्रश्न किया
व्यथित पिता से
रहा ना गया
आँखों में आंसू लिए
सहमते हुए उत्तर दिया
जब राम,कृष्ण,बुद्ध,
महावीर के पिता ने
किसी से नहीं पूछा
मैं किस से पूछता ?
मैंने केवल संसार के
नियम का पालन किया
परमात्मा की
इच्छा का सम्मान किया
अगर मुझे पता होता
तुम्हारे जैसी
संतान का पिता
कहलाना पडेगा
संतान के हाथों निरंतर
प्रताड़ित होना पडेगा
परमात्मा के नियम को
तोड़ देता
विवाह के बंधन में
कभी नहीं बंधता
इस तरह
अपने खून के हाथों
हर दिन तिल तिल कर
ना मारा जाता
तुम अपनी संतान से
पूछ कर उसे जन्म देना
वो पूछे तो
खुशी से सुन लेना
उत्तर में
उसे शाबाशी देना

इश्वर भक्ती में डूबा रहा

प्यासे को
पानी नहीं पिलाया
भूखे को
भोजन नहीं कराया
निरंतर
इश्वर भक्ती में डूबा रहा
स्वर्ग के
सपने देखता रहा
परमात्मा ने
भक्ती का प्रसाद दिया
मरणोपरांत उसे
नरक में बसा दिया

कितना भी दूर रहो नज़रों से

कितना भी
दूर रहो नज़रों से
हमें दिल के पास
पाओगे
हम कद्रदां तुम्हारे
इतने बेदिल नहीं
रुसवा
हो जाएँ तुमसे
निरंतर तुम्हें मंजिल
समझा
तुम्हें पाए बिना कैसे
रास्ते से भटक जाए

बराबरी

ऊंचे आसन पर
बैठ कर
धर्म गुरु प्रवचन
देते हैं
सब से बराबरी का
व्यवहार करो
*****
फुर्सत

हर आदमी
हंसना चाहता है
मगर रोने से
फुर्सत नहीं मिलती
*****
मेरा दुःख

हर आदमी सोचता
मेरा दुःख सबसे
ज्यादा
****
गति

घायल की
गति घायल जाने
जो मर गया
उसकी
गति कौन जाने ?
****
डाक्टर

इंतज़ार बीमार का
करता
इलाज बीमारी का
करता
****
भूख

भूख इंसान की
सबसे बड़ी बीमारी
अगर भूख नहीं होती
कोई भूखा नहीं रहता
झगडा फसाद कभी
नहीं होता
हर शख्श प्रेम से
रहता
(पेट,धन,पद,बल,काम,
ख्याती और की भूख)
****
ज़ल्दी

यात्रियों को
मंजिल पर
पहुँचने की ज़ल्दी
पहुँच गए तो घर
लौटने की ज़ल्दी
*****
जिसे मिल जाता

जिसे मिल जाता
वो खुश होता
मौत के बारे में ऐसा
कोई ना कहता
****
इतिहास

इतिहास
भविष्य के लिए
आगाह करता है
विडंबना है
कोई ध्यान नहीं
देता
****
ख्याति

इंसान की ख्याति
उसके पहुँचने से पहले
पहुँचती
उसके जाने के बाद भी
रहती
****

हाइकु

क्यों लिखू हाइकु
जब क्षणिका मेरे पास
क्यों लूं उधार
जब मेरी अपनी
मेरे साथ

अब तसल्ली मुकाम मेरा

अब ना पाने की
ख्वाइश
ना रोने की ज़रुरत
मुझको
ना ग़मों की दहशत
ना मंजिल की तलाश
मुझको
अब तसल्ली मुकाम
मेरा
खुश हूँ उसमें
जो मिला,ना मिला
निरंतर ज़िन्दगी में
मुझको

क्या क्या छुपाऊँ ?

क्या क्या
छुपाऊँ ?
कब तक
छुपाऊँ?
किस किस से
छुपाऊँ ?
क्या झूठ का
आवरण ना हटाऊँ
मन की व्यथा
बढाऊँ
कभी चैन ना पाऊँ
निरंतर
बेचैन जीऊँ
संसार से बेचैन
जाऊं

धूल के कण से कण मिला

धूल के
कण से कण मिला
मिलकर गुबार बना
तेज़ हवाओं ने उसे
बवंडर बना दिया
धूल का कण
अहम् अहंकार से
भर गया
अपने को शक्तिशाली
समझने लगा
संसार को अपने
अधीन करने की इच्छा में
वीभत्स रूप दिखाने लगा
जो भी सामने आया
उसे ढक दिया
अपने रंग में रंग दिया
इंद्र ने आकाश से देखा
धूल का मंतव्य समझ गया
घमंड को तोड़ने
वर्षा को भेज दिया
वर्षा ने भी रूप अपना
दिखाया
शीतल जल से
बवंडर को ठंडा किया
उसके घमंड को
शांती से दबा,धूल को
पानी में बहा दिया
दुनिया को दिखा दिया
अहम् अहंकार का
स्थान नहीं दुनिया में
ठंडक से
अग्नि भी कांपती
शांती निरंतर
विनाश से बचाती
(धूल से मेरा अभिप्राय ,
निकम्मे,भ्रष्ट एवं निम्न स्तर और सोच वाले
व्यक्तियों से है ,
जो येन केन प्रकारेण,राजनीती की सीढियां चढ़ कर,
सत्ता के गलियारों में पहुँचते हैं
और सब कुछ अपने अधीन करने का प्रयास करते हैं,
वर्षा के ठन्डे पानी से अभिप्राय,
सब्र से जीने वाली जनता से है ,
प्रजातंत्र में ,जनता उन्हें ठन्डे तरीके से
चुनाव के समर में उखाड़ फैंकती है)

राम -कृष्ण दोनों ने कहा

राम ने नहीं कहा
मंदिर में बिठाओ
मुझको
कृष्ण ने नहीं कहा
मंदिर में सजाओ
मुझको
राम-कृष्ण
दोनों ने कहा
मंदिर की
आवश्यकता नहीं
हमको
निरंतर दिल में
बसाओ हमको

हँसमुखजी का पड़ोसी से झगडा हो गया(हास्य कविता)

पतले दुबले हँसमुखजी का
मोटे गैंडे जैसे पड़ोसी से
झगडा हो गया
पड़ोसी ने उन्हें उड़ता हुआ
तिनका कह दिया
हँसमुखजी का
चेहरा लाल हो गया
उनका पुरुषत्व जाग गया
क्रोध में उन्होंने पड़ोसी को
धरती का बोझ करार दे दिया
पड़ोसी की पत्नी ने सुना,तो
वो भी मैदान में कूद पडी
पती को यथा शरीर तथा नाम
देने से बिफर गयी
पड़ोसी के बोलने के पहले ही
उसने हंसमुखजी को जवाब दे दिया
धरती के बोझ होगे तुम
हँसमुखजी की पत्नी कम नहीं थी
कोई महिला
उसके पती को कुछ कह दे
बर्दाश्त नहीं हुआ
उसने लपक कर पड़ोसी को
उड़ता हुआ तिनका कह दिया
बस हाहाकार मच गया
पड़ोसन बोली ठीक से बात करो
इतने मच्छर जैसे भी नहीं हैं कि
इन्हें उड़ता हुआ तिनका कहो
बात बढ़ती गयी
दूसरा पड़ोसी सारी बात
सुन रहा था
उससे रहा नहीं गया
वो बीच में कूदा,
दोनों को शांत किया
फिर हँसमुखजी की पत्नी से बोला
आप इन्हें उड़ता हुआ तिनका
मत कहिये ,
पड़ोसी की पत्नी को कहा
आप हँसमुखजी को
धरती का बोझ नहीं कहिये
दोनों में राजीनामा कराया
दोनों ने हाथ मिलाया
पहले रहते थे
निरंतर वैसे ही रहने लगे
लोग हँसमुखजी को
उड़ता हुआ तिनका
पड़ोसी को
धरती का बोझ
कहने लगे

मनोरंजन, हँसमुखजी, हँसी, हास्य कविता, हास्य रचना हास्य

क्यों कहते हो ?मुझसे वादा करो
क्यों कहते हो ?
मुझसे वादा करो
कभी ना छोड़ोगे मुझको
मरते दम तक साथ दोगे
क्यूं बहम रखते हो?
हमारी मोहब्बत पर
यकीन रखो
फिर भी दिल ना माने तो
दुआ खुदा से करो
साथ देंगे तुम्हारा
जब तक खुदा चाहेगा
गर फैसला कर लिया
उसने
दुनिया से जाना हमको
सुकून हमें भी नहीं
मिलेगा
दिल हमारा भी रोयेगा
निरंतर
तुमसे मिलने का इंतज़ार
करता रहेगा

हमसे रहा ना गया

हमसे रहा ना गया
उनकी तारीफ़ में
एक शेर पढ़ दिया
उन्होंने उसे
इज़हार-ऐ-मोहब्बत
समझ
हमसे मुंह फिरा लिया
कैसे समझाऊँ उन्हें ?
इज़हार-ऐ-मोहब्बत नहीं
इज़हार-ऐ-इज्ज़त थी
इज्ज़त बख्शना भी
गुनाह हो गया
हकीकत बयान करना
दर्द-ऐ-दिल बन गया
डा.राजेंद्र तेला,"निरंतर"
"GULMOHAR"
H-1,Sagar Vihar
Vaishali Nagar,AJMER-305004
Mobile:09352007181

शनिवार, 26 नवंबर 2011

बिगाड के डर से ईमान की बात नही कहोगे ?


अटल बिहारी बाजपेयी के षासन के वक्त की बात हैं. इतिहास,
साहित्य आदि विषयों एवं विभिन्न क्लासों की पाठय पुस्तकों इत्यादि में संघ
परिवार की विचारधारा के अनुरुप धडाधड बदलाव किये जारहे थे, ऐसे ही
एक बदलाव में मुंषी प्रेमचन्द की एक कहानी ‘पंचंच परमेष्ेष्वर’ को पाठय
पुस्तकों से हटा कर बीजेपी की महिला नेत्री श्रीमति कुसुम प्रषाद की कोई
कहानी लगादी गई थी जिस पर राज्य सभा में प्रष्न उठाया गया, तब बहस
के दौरान बोलते हुए बीजेपी नेत्री श्रीमति सुषमा स्वराज ने कम्युनिस्ट सदस्यों
की तरफ मुखातिब होते हुए कहा कि आप लोग कब तक मुंषी प्रेमचन्द को
लिए बैठे रहोगे ? अब उन से आगे बढियें, याने उनके कथानुसार मुंषी प्रेम
चन्द अब प्रासंगिक नही रहेइसमें
सबसे दिलचस्प बात यह रही कि अधिकांष कांग्रेसी तब भी उस
संसदीय बहस में या तो मौन रहे या विषय को घुमाते फिराते रहे जैसे कि
इमराना प्रकरण में उनका रवैया था, किसी भी कांग्रेसी सदस्य ने इस प्रकरण
में स्पष्टरुप से अपनी राय नहीदी और खेद का विषय हैं कि श्री मुलायमसिंह
यादव भी अपने वोट बेैंक बचाने के भ्रम में टालमटोल का रवैया अपनाते
रहेप्रसंगवष
देखें तो मुंषी प्रेमचन्द जी की कहानी ‘पंचंच परमेष्ेष्वर’ आज
भी उतनी ही प्रासंगिक हैं जितनी कि उस समय थी जब इसे लिखा गया थाकहानी
के अनुसार एक गांव के दो प्रभावषाली व्यक्ति, अलगू चौधरी एवं
जुम्मन षेख गहरे दोस्त थे, जुम्मन षेख अपनी बेवा खाला की जमीन हडप
लेता हैं तो खाला औरों के साथ साथ अलगू चौधरी से भी न्याय की गुहार
लगाती हैं, चौधरी पंचायत में अपने मित्र के विरुद्ध बोलने में आनाकानी
करता हैं तो खाला उसे कहती है ं ‘क्या बिगाड के डर से ईर्ममान की बात नही
कहोगेगे ?’ इस ललकार का असर चौधरी पर होता है ं और भरी पंचायत में
उसे न्याय की गुहार सुननी पडती हैं और वह अपने परम मित्र जुम्मन षेख
के विरुद्ध फेैसला देता हैंइमराना
प्रकरण में कांग्रेस की चुप्पी रहस्यमय हैं. वह षाहबानो प्रकरण
में धार्मिक कटटरवादियों के सामने घुटने टेक कर गलती कर चुकी हैं उसने
राजीव गांधी के षासन के दौरान संविधान संषोधन तक करा दिया था. इसी
तरह समाजवादी मुलायमसिंह यादव, दारुल उलूम देवबन्द के फतवें को यह
कह कर उचित ठहरा रहे हैं कि यह विद्वान लोगों द्वारा दिया गया आदेष हैं
इसलिए सही ही होगाइध्
ार संघ परिवार इस प्रकरण की आड में एक बार फिर ‘सामान्य
आचार संहिता’ की बात कर रहा हैं. उसे इमराना से कोई हमदर्दी नही हैं,
उसे अपने छिपे एजेन्डें से मतलब हैं वर्ना पिछले कुछ सालों में राजस्थान एवं
हरियाणा के कई गांवों की विभिन्न खापों, जाति पंचायतों ने अपने अलग
अलग प्रकरण, गुडिया इत्यादि, में महिलाओं कंे विरुद्ध कई फैेसले दिये हैं
जिनके खिलाफ संघ परिवार ने आजतक कुछ नही कहा हैं और कहे भी कैसे
? स्वयं उसकी विचार धारा में ही स्त्री को पुरुष के मुकाबले गौण माना गया
हैं. वह उन सभी धार्मिक ग्रन्थों एवं स्मृतियों की ऐसी सभी बातों का आंख
मीच कर समर्थन करता हैं जिसमे कहा गया है ‘स्त्री षूद्रों न धीयाताम ?’
अर्थात स्त्री और षूद्र को पढाना नही चाहिए ! वजह ? स्त्री और षूद्र को
पढाया जायगा तो वह सेवा के काम के नही रहेंगे, दलील करने लगेंगेवैसे
संघ परिवार के कुछ विद्वानों की दलील हैं कि हमारी संस्कृति में
स्त्री का बहुत उॅचा स्थान था, स्त्री घर की स्वामिनी होती थी, गार्गी आदि
स्त्रियां वेदों की व्याख्या करती थी, लीलावती ने गणित लिखी थी, यह तो
विदेषी संस्कृति का फल था कि स्त्रियों को पराधीन बना दिया गया’ लेकिन
यह विद्वान यह नही बताते कि मनुस्मृति क्या अंग्रेजों या औरंगजेब ने लिखी
थी ? या विवाह में कन्या दान के पुन्य का विधान मुगलों ने किया था ?
इतना तो यह जानते ही है कि दान या मोल तोल कभी स्वतन्त्र व्यक्तियों का
नही किया जा सकतासन
2004 के लोक सभा चुनाव के दौरान उत्तर प्रदेष बीजेपी के
अध्यक्ष विनय कटियार ने श्रीमति सोनिया गॉधी के विदेषी मूल का मुद्धा
उठाते हुए स्त्रियों के प्रति अपनी संकुचित विचार धारा का परिचय दिया था
और कहा था कि क्लियोपेट्ा, गांधारी ;?द्ध इत्यादि की तरह ही सोनिया गांधी
भी अनिष्टकारी हैं और इनके होने से देष में विपत्ति ही आयेगी. श्रीमति
सुषमा स्वराज ने तो यहां तक कह डाला कि अगर श्रीमति सोनिया गांधी ने
राज संभाला तो वह अपने बाल कटवाकर, सफेद साडी पहन लेगी, फर्ष पर
सोयेगी इत्यादि, इत्यादिसन
1962 में चीनी आक्रमण के समय तत्कालीन जनसंघ ने लखनउॅ
मे ं ‘मां के अंांासू’ू’ नाम से एक प्रदर्षनी लगाई थी जिसमें महिलाओं के प्रति
अपमानजनक उद्धरण दिए गए थे, आज भी संघकी विचार धारा में महिलाओं
का कोई स्थान नही है. यह सती होने का तो समर्थन करते हैं परन्तु सता
होने के लिए कुछ नही करतेप्रसिद्ध
लेखिका और कादम्बिनी की संपादक श्रीमति मृणाल पान्डे ने
अपने एक लेख में इसी मनोवृति का उल्लेख करते हुए पौराणिक कथाओं से
कुछ उद्धरण दिये हैं जिसमे उन्होंने परषुराम की माता रेणुका एवं ऋषिपत्नि
अहिल्या का उल्लेख करते हुए प्रष्न उठाया हैं कि इन दोनों का ही षीलभंग
पुरुषों ने किया लेकिन हमारे यह ग्रन्थ पुरुषों की बजाय स्त्रियों को ही क्यों
दंडित करते हैं ? अहिल्या पाषाण क्यों बनी ? जिन्होंने उसका षील भंग
किया उन्हे क्या दंड मिला ? जब तक हम इस मानसिकता का विरोध नही
करेंगे तब तक हम इमराना के स्त्रियोचित हक के पक्ष में आवाज कैसे उठा
पायंेंगे ?
वर्तमान में राजस्थान में घटित भंवरीदेवी प्रसंग में जनता एवं भंवरी के
बिलखते बच्चें कांग्रेस एवं बीजेपी दोनों ही दलों से पूछ रहे है कि ‘क्या
बिगाड के डर से ईर्ममान की बात नही कहोगेगे ?’
-ई. शिव शंकर गोयल,
फ्लैट न. 1201, आई आई टी इंजीनियर्स सोसायटी,
प्लाट न. 12, सैक्टर न.10, द्वारका, दिल्ली- 75.
मो. 9873706333

बुधवार, 23 नवंबर 2011

तू ने हीरा जनम गवायों रे !


मेरे लाडलें को मुझसे सख्त षिकायत हैं. उसका कहना है कि मेरे पिताश्री की वजह
से उसका स्टैन्डर्ड डाउन हुआ हैं. सांयकालीन क्लब की मित्रमंडली तथा ‘जिम’ में उसकी
हंसाई होती हैं. उसकी यह षिकायत इस वजह से नही है कि ‘वह अपने माउथ में चांदंदी
का चम्मच लेकेकर पैदैदा नही हुअुआ’ याकि मैंने उसे किसी इन्टरनेषनल कान्वेंट स्कूल में नही
पढाया जहां उसे ‘जैकैक एन्ड जिल, वैन्ैन्ट अपटू हिल’ तथा ‘बा बा ब्लैकैक षीप, हैवैव यू ऐनेनी
वूलूल’ जैसी कविताएं रटाई जाती. उसका गिला तो कुछ और ही है. उसका ‘फन्डा’ यह है
कि हालांकि मेरे पिताश्री देष की आजादी के पूर्व की पैदाइष है फिर भी उनका नाम उन
स्वतंत्रता संग्राम सैनानियों की लिस्ट में नही है जो सन 1947 के बाद जंम लेकर भी
सैनानियों की पेंषन धडल्ले से उठा रहे हैं. इसको लेकर उसे बडी ग्लानि होती हैं. इन्ही
तथाकथित सैनानियों में से साठ-सत्तर की उम्र के कई ‘योद्धा’ तो भगतसिंह के साथ जेल
में रहने की कसमें खाते फिर रहे है ओैर जहां तहां उस समय के किस्सें कहानियां लोगों को
सुनाते रहते हेै, गोया हूबहू वह घटना उनके सामने ही हुई हो जबकि हकीकत में भगतसिंह
की षहादत को ही 80 वर्ष से उपर हो चुके हैंइतना
ही नही मेरें पुत्रका उलाहना यह भी है कि उसके दोस्तों में उसकी नाक तब
नीची होजाती है जब उनको पता लगता है कि आज तक मेरे घर का टेलीफोन कभी ‘टेपेप’
नही हुआ. उसका कहना है कि इस बात पर उसकी मम्मी को भी किटी पार्टी में कई बार
नीचा देखना पडा हैं. उसे कितने बहानें बनाने पडे यह तो वही जानती हैं. जब तक
टेलीफोन टेप नाहो सभा सोसायटी में रूतबा नही बढतालडकें
का कहना है कि काष ! कभी हमारें यहां सीबीआई या इन्कमटैक्स का छापा
भी पडा होता तो अगले रोज देष के प्रमुख अखबारों में सुर्खियों में पिताजी का नाम होता
औेर उनकी प्रसिद्धि में चार चांद लग जाते और मुझे-यानि मेरे लडकें को- लोग
सभा-सोसाइटी, कैफे आदि में कनखियों से देखते हुए कहते ‘यह उन्ही का लडका है जिनके
यहां सीबीआई का छापा पडा था. परन्तु हाय ! मेरी ऐसी किस्मत कहां ? किसी ‘स्टिंगंग
ऑपॅपरेष्ेषन’ अथवा घोटालें में भी पिताजी का नाम नही हैंमेरा
वत्स अपने मित्रों से अफसोस जाहिर करते हुए कहता फिरता हेै कि मैं जाने
किस मनहूस घडी में पैदा हुआ हूं. घुडदौडवालें, बिग बिजनैसमेन, नेताओं इत्यादि कइयों के
स्विस बैंकों में खातें खुले हुए हैं या वह कोई न कोई घोटाला करके तिहाड जेल जाने का
जुगााड बैठा लेते है लेकिन एक मेरे ‘डैड’ है जो मुझे षर्मिन्दा किए दे रहे है, ना तो स्विस
बैंक में उनका खाता, ना तिहाड की रिहाइष और ना ही दाउद भाई से कोई लिंक, अरे !
बडे राजन से नही तो कम से कम छोटे राजन से तो कोई रिष्ता-नाता होता ताकि उनका
भी रूआब पडता और मेरा भीसुपुत्र
आज तक ये सभी गुनगुन परोक्ष में ही करता रहा हेै लेकिन इस बार वह घर
में अपनी मॉम के सामने फट पडा. उसके हाथ में ताजा अखबार था जिसमें षहर में
‘ऑपरेषन पिंक’ के तहत अतिक्रमण के विषय में समाचार छपे थे और अतिक्रमण करनेवालें
षहर के नामी-गिरामी लोगों के नाम थे. पुत्र का गिला था कि मेैं आज तक सब ज्यादतियां
सह गया ना तो पापा का नाम मुंबई की आदर्ष सोसाइटी घोटालें में आया, न कॉमनवैल्थ
गडबडियों में, नाही टूजी स्पैक्ट्म स्कैन्डल में उनका नाम न उडीसा में नेताओं द्वारा प्लाट
हथियाने में उनका कोई हाथ और ना ही इन्दौर भोपाल में हाउसिंगबोर्ड के फलैट हथियाने में
उनका हाथ हैं. यहां तककि उन्होंने इतनी हिम्मत भी नही दिखाई कि कोई सरकारी अथवा
किसी धार्मिक ट्स्ट की भूमि का ही अतिक्रमण कर लेते. अब मैं अपने मित्रों को कैसे मुंह
दिखाउंगा ? कैसे उनके बीच उठ-बैठ करूंगा ?
उसका यह भी कहना था कि पिताश्री ने कुछ तो सोचा होता. घर में षादी विवाह
होने है. समाज में रूतबा बनाना हैं. लडके का विचार है कि डैड अब भी अपनी आदतों में
सुधार करले तो रही सही उनकी और हमारी जिन्दगी सुधर जायेगी. चुप-चाप किसी इस या
उस राजनीतिक दल में घुसपैठ करके या तो भूमाफिया से जुड जाय या स्मगलिंग का धन्धा
पकडले या कोई घोटाला करके तिहाड हो आए, और कुछ नही तो जुगाड बैठाकर सरकारी
खर्चखातें पर अपना बुत ही खडा करवाले तब जाकर कोई बात बनेगी वरना सब मुझे ही
कहेंगे कि
‘तू ने हीरा जनम गवायों रे ,
मानष, बिन तिहाड जायके’
-ई. शिव शंकर गोयल,
फ्लैट न. 1201, आई आई टी इंजीनियर्स सोसायटी,
प्लाट न. 12, सैक्टर न.10, द्वारका, दिल्ली- 75.
मो. 9873706333

ख्वाईशें दम तोडती रही


जब भी मिलते
निरंतर कहते हम से
किसी दिन
फुरसत में बात करेंगे
उनकी
फ़ुरसत के इंतज़ार में
उम्र बीत गयी
ना उन्हें फुर्सत मिली
ना हमारी हसरतें
पूरी हुयी
ख्वाईशें
दम तोडती रही
दिल की बात
दिल में रह गयी

क्षणिकाएं -5


मंजिल

मंजिल की तलाश में
ज़िन्दगी गुजर जाती
मिलती किसी को नहीं

चिंतन

चिंतन
बिना जीवन नहीं
जीवन
बिना चिंतन नहीं
एक आगे आगे
दूजा पीछे पीछे

सत्य सुनना

दूसरों का
सत्य सब सुनना
चाहते
खुद का सत्य
छुपा कर रखना
चाहते
सत्य कहना
सत्य जानते हैं
कहने से पहले
तोलते हैं
कहूँ ना कहूँ
के भंवर में
डोलते हैं

बच्चे- बड़े

बच्चे चाहते
बड़े हो जाएँ
बड़े चाहते
बच्चे बन जाएँ
बचपन-बुढापा

बड़े बचपन को
भूल नहीं पाते
बच्चे बुढापे को
समझ नहीं पाते

संतुष्टी से जीवन जीता जाता

सर्दी,गर्मी या हो
वर्षा का मौसम
एक तारा लिए एक साधू
निरंतर
मेरे घर पर आता
एकाग्रचित्त हो मन -लगन
और सहज भाव से
लोक गीत सुना कर
मंत्रमुग्ध करता
कोई दान दक्षिणा दे दे
सहर्ष स्वीकार कर लेता
नहीं दे तो मुंह नहीं
बिचकाता
ना पाने की इच्छा
ना कुछ खोने का भय
बहते पानी सा बहता
रहता
सबकी खुशी में
अपनी खुशी समझता
कुछ नहीं पास उसके
फिर भी संतुष्टी से
जीवन जीता जाता

रेत के घरोंदे

बहुत
समझाता था उसे
सपनों पर
विश्वास मत किया करो
समुद्र किनारे रेत के
घरोंदे मत बनाया करो
कभी कोई तेज़ लहर आयेगी
घर को बहायेगी
अपने सपनों को टूटते देख
तुम व्यथित हो कर
दुःख मनाओगे
बार बार घरोंदे को
याद कर आंसू बहाओगे
घरोंदे बनाने ही हो
तो मेहनत,लगन और सब्र की
सुद्रढ़ नीव से बनाओ
जो आसानी से नहीं टूटे
जीवन भर चैन से रहने दे
समय की तेज़ हवाएं
भाग्य की लहरें
कुछ बिगाड़ ना सके
निश्चिंतता से सो सको
पर कभी
बात नहीं मानी उसने
निरंतर रेत के घरोंदे से
सपनों पर विश्वास
करता रहा
शीघ्र पाने की इच्छा में
उतावलापन दिखाता रहा
जीवन भर
बेघर और असंतुष्ट रहा
असंतुष्ट ही
संसार से विदा हुआ

इसी में खुश रहती हूँ

उसकी
चुनडी, लहंगा
पुराना पैबंद
लगा होता था
पर उसे सूर्ख रंगों की
चूड़ियां
पहनने का शौक था
जब भी आती
कलाईयों में पहनी
चूड़ियों को खनकाती
रहती
एक बार रहा ना गया
उसे कह ही दिया
इतने पैसे चूड़ियों पर
खर्च करती हो
कुछ पैसे कपड़ों पर भी
खर्च कर लिया करो
उसका मुंह रुआंसा हो गया
आँखें भर आयी
कहने लगी बाबूजी
चूड़ियां खरीदती नहीं हूँ
तीसरी गली वाले बाबूजी की
चूड़ियों की दूकान है
वहां झाडू लगाती हूँ
काम के बदले में
पैसे की जगह चूड़ियां
लेती हूँ
रंग बिरंगी चूड़ियां
मुझे गरीबी का
अहसास नहीं होने देती
एक यही इच्छा है
जो पूरी कर सकती हूँ
निरंतर
इसी में खुश रहती हूँ


हँसमुखजी का ज्योतिष प्रेम (हास्य कविता)

हँसमुखजी
ज्योतिष के बारे में
कुछ नहीं जानते थे
पहली बार
ज्योतिषी के पास जन्म पत्री
दिखाने गए
जन्मपत्री देखते ही
ज्योतिषी बोला
आपकी मंगल बहुत भारी है
कन्या के घर में नीच का
बुद्ध बैठा है
चंद्रमा आठवे घर में
सूर्य के साथ है
शनी उच्च का
सातवे घर में अच्छा है
हँसमुखजी बौखलाए
अपने को रोक नहीं सके
फ़ौरन बोले सब बकवास है
मंगल मेरा बेटा है
खिला खिला कर परेशान
हो गए
वज़न बढ़ने का
नाम ही नहीं लेता
भारी कैसे हो गया
कन्या के पती का नाम
श्याम है
नीच बुद्ध राम वहाँ क्या
कर रहा है
मुझे बेवकूफ समझते हो
आठवे घर में शर्माजी
रहते हैं
सूर्य ,चंद्रमा आकाश में
रहते हैं
सूर्य दिन को निकलता है
चंद्रमा रात को
पड़ोसी का नाम शनिशचर है
एक नंबर का पाजी है
वो उच्च का कैसे हो गया
तुम खाली पीली नाटक
कर रहे हो
निरंतर बेवकूफ बना रहे हो
कहते कहते
ज्योतिषी पर टूट पड़े
मैं रोकता जब तक
पीट पीट कर
उसका वर्तमान और भविष्य
दोनों खराब कर दिए

रास्ते अलग क्यों थे ?

दोनों मित्र थे
एक यीशु मसीह को
मानता
चर्च जाता
दूसरा राम-क्रष्ण को
मानता
मंदिर जाता
दोनों निरंतर
इमानदारी से कर्म करते
निश्छल निष्कपट
जीवन जीते
थोड़े अंतराल में
दोनों का निधन हुआ
एक को दफनाया गया
दूजे को जलाया गया
दोनों मित्र स्वर्ग में मिले
तो आश्चर्य में डूब गए
एकटक एक दूजे को
देखने लगे
मन में सोचने लगे
जब मंजिल एक है
तो फिर रास्ते अलग
क्यों थे ?


मैंने भी

सपना देखा था
कोई मुझे भी मिल जाए
अपना जिसे कह सकूँ
साथ हँसू ,साथ घूमूँ
हाथ में हाथ डाल के
छोटा सा संसार हो मेरा
स्वछन्द जिसमें रह सकूँ
खुशी से जी सकूँ
प्यार की निशानी को
जन्म दूं
घर का आँगन जिसकी
किलकारियों से गूंजे
साथ भी मिला ,घर भी मिला
पर सफ़र अधूरा रह गया
काल के क्रूर हाथों से
खुशियों का संसार देखा
ना गया
मेरा देवता मुझसे
छीन लिया
जीवन शून्य हो गया
निरंतर आंसू बहाने के लिए
यादों के सहारे छोड़ दिया
कैसे सहूँ
विछोह प्रियतम का
समझ नहीं पाती हूँ
कसम खाती हूँ
अब ना देखूंगी सपना कभी
हर अबला से कहूंगी
सपनों पर विश्वास ना करे
टूटते हैं तो मौत से कम
नहीं होते सपने
मैंने भी सपना देखा था
कोई मुझे भी मिल जाए
अपना जिसे कह सकूँ ...

धोरों का, महलों का, मेरा राजस्थान

वीरों का,अलबेलों का
धोरों का,महलों का
मेरा राजस्थान
मेलों का,त्योहारों का
रंग रंगीला राजस्थान
जंतर मंतर, आमेर
बढाए जयपुर की शान
सूर्यनगरी जोधपुर
मारवाड़ की आन
झीलों की नगरी उदयपुर
प्रताप जन्म भूमी मेवाड़
गढ़ चित्तोड़ का सुनाता
पद्मनी जौहर की गाथा
पृथ्वीराज नगरी अजमेर में
बसती
ख्वाजा मोईनुद्दीन की
दरगाह
तीर्थ राज़ पुष्कर में स्थित
पवित्र सरोवर,ब्रह्मा मंदिर
शीश नवाता,स्नान करता
सारा हिन्दुस्तान
शूरवीरों की शौर्य गाथाओं का
मेरा राजस्थान
हाडोती कोटा में चम्बल
विराजे
गंगानगर अन्न की खान
ऊंटों का गढ़ बीकानेर
हवेलियाँ देखो शेखावाटी की
भरतपुर में पंछी निहारो
जैसलमेर में सोन किला
घूम घूम कर देखो
मेरा राजस्थान
मीरा डूबी क्रष्ण प्रेम में
दयानंद ने लिया निर्वाण
मकराना का संगेमरमर
ताजमहल की आन
धोलपुर का लाल पत्थर
बढाता लाल किले शान
खनिज संपदाओं से भरा
राजाओं,रजवाड़ों का
मेरा राजस्थान
जन्म भूमी पर मिटने
वालों की
आन,बान,शान का
मेरा राजस्थान

शक और स्वार्थ (काव्यात्मक लघु कथा)

संतानहीन बूढा सेठ
बुढापे से चिंतित था
बुढापा आराम से कटे
कोई सेवा करने वाला
मिल जाए
मन में खोट लिए
निरंतर सोचता था
सेवा करेगा तो ठीक
नहीं तो निकाल बाहर
करूंगा
भाग्य ने साथ दिया
एक रिश्तेदार के
बेटे को गोद ले लिया
उससे सेवा की उम्मीद
करने लगा
गोद लिया बेटा भी
कम नहीं था
वो भी सोचता कब
सेठजी दुनिया से जाएँ
कब वो जायदाद का
मालिक बन जाए
कहीं ऐसा नो हो
सेवा मैं करूँ
सेठजी धन जायदाद
किसी और को दे जाएँ
द्वंद्व में दोनों उलझे रहते
एक दूसरे पर शक करते
निरंतर
नए दांव पैतरे चलते
दिन निकलते गए
सेठजी सेवा की आस में
बीमारी से लड़ते लड़ते
स्वर्ग सिधार गए
सारी जायदाद
अनाथालय को दे गए
गोद लिया बेटा दो बाप
होते हुए भी अनाथ
हो गया
शक और स्वार्थ ने
दोनों को संतुष्ट
नहीं होने दिया

कैसे कहूं उनसे ?

(मार्मिक -हास्य)

कैसे कहूं उनसे ?
बगीचे में
रोज़ क्यों नहीं आती
क्यों कई दिन बाद
झलक अपनी दिखलाती
जब भी उन्हें देखता
मन करता
दौड़ कर गले से
लग जाऊं
कैसे अहसास दिलाऊँ ?
उनका यूँ
कई कई दिन तक
नहीं दिखना
कितनी बेचैनी
पैदा करता दिल में
ना सो पाता,ना जाग पाता
उन्हें देखने की ख्वाइश
क्या नहीं करवाती मुझसे
कैसे समझाऊँ
क्या नहीं
भुगतना पड़ता मुझको
आज दिख जाएँ शायद
उम्मीद में
भरी दोपहर धूप में भी
बगीचे में पहुँच जाता
बगीचे का माली शक से
मुझे देखता
कोई फूल चुराने वाला
समझता
मोहल्ले के लोग
मुझे लफंगा समझते
मेरी तरफ ऊंगली दिखा कर
दूसरों को बताते
कई बार सोचा उनसे
कह ही दूं
मगर हिम्मत ना
कर सका
कुछ भी हो जाए
इस बार होंसला रख
बता ही दूंगा
उनकी सूरत मेरी
दिवंगत माँ से मिलती
उनमें मुझे मेरी माँ
नज़र आती

क्षणिकाएं -6


मजबूरी

करना नहीं चाहता
फिर भी करना पड़ता

अंतर्द्वंद्व

करूँ तो
मन खुश नहीं होगा
नहीं करूँ तो
दूसरों को नाराज़
करना होगा

विडंबना

मैं उन्हें बहन
समझता
वो मुझे शक से
देखती

खुश

मैं रोज़ सपनों में
उनको देख लेता हूँ
थोड़ी देर खुश हो
लेता हूँ

दिल में
दिल में बहुतों के लिए
कुछ होता रहता है
मजबूरी में
इंसान खामोश

रहता है
*****

बदकिस्मती

उनका
इंतज़ार करते करते
सो गया
जब तक जागा
वो आकर चले गए

डा.राजेंद्र तेला,"निरंतर"
"GULMOHAR"
H-1,Sagar Vihar
Vaishali Nagar,AJMER-305004
Mobile:09352007181

सोमवार, 21 नवंबर 2011

फिर एक और दिन पहना है मेरे चेहरे ने .................



बिखरी हुई ज़ुल्फ़ को
करीने से सजाकर मैंने
महकती सांस मैं
कुछ और इत्र घोला है ,
लबों पर छिड़की है
एक ताज़ा सुर्ख़ लाल हंसी
और पेशानी से बासी
हदों को खोला है |
लो फिर एक और दिन
पहना है मेरे चेहरे ने ,
कि एक और दिन
गुज़रेगा हकीक़त बनकर |
आईने से खुश होने का
वादा करके मेरे ही अक्श ने
मुझसे ही झूठ बोला है |
अभी निकालेंगे मेरे पाँव
घर से मंजिल को ,
शाम सिमटेगी तो फिर
थक कर वापस लौटेंगे ,
सफेद चादरों के
बुत बने से बिस्तर पर ,
ज़िस्म एक लाश क़ी सूरत मैं
बिखर जायेगा .....
रगों में दफ़्न सन्नाटों से
राज़ खोलेगा
और तन्हाई में मुंह डाले
खूब रो लेगा |
गिर के उठेंगे कई ज्वार
तन के दरिया में ,
किसी ठहराव के मुहाने से
लग के रो लेंगे |
लुढ़क जाते हैं कई
दिन इसी तरह थक कर ,
कदीम रातों के तकिये का
सहारा लेकर |
बस एक उम्र है जो
मुसलसल सी चला करती है
साँसों को सीने में दबाये हरदम |
लो फिर एक और दिन
पहना था मेरे चेहरे ने,
कि एक और दिन गुज़ारा
था हकीक़त बनकर .........


(कदीम =पुराने ,मुसलसल =लगातार)
रजनी मोरवाल
अहमदाबाद

शनिवार, 19 नवंबर 2011

नज़्म......यादें ..


सुबह-सुबह ही
तेरी याद ने दस्तक देकर
मेरी आँखों मैं
एक सुर्ख ख़्वाब घोला है ,
कुछ किरची हुई यादों ने
अपने होने की निशानी देकर
गुज़रा वक़्त
याद दिलाने की खातिर
मेरी पलकों के किनारे से
मझधार तलक ,
कुछ चुभते हुए आंसुओं की
कतारें फेकीं |
उन्ही आंसुओं के समुन्दर में
डूबकर मैने
कितनी बेजार-सी ,
नामुमकिन-सी
चाह दरकिनार की है |
और.........
यादों के सिरे से जुडकर
कई यादो के सिरे,
यादें बस आती ही रही
और बस आती रही...........
कुछ कल्पनाओं में पगी -सी
यादों ने मुझे नाहक ही रुलाया
बड़ी देर तलक .......
जो हकीक़त नहीं है
फिर भी ......
हकीक़त की तरह
याद आया मुझे और बस
फिर याद आता रहा...........
कुछेक पल जो ख़यालों में,
ख़यालों की तरह ,
बिताये मैने तुम्हारे संग ,
तुम्हारे ही लिए,
अनकहे संवादों में हंसकर,रोकर,
रूठकर और कभी सिसकियों में |
जाने क्यों या रब ............
इन बेवजह-सी यादों के
बेवजह सिलसिले
चले आते हैं ?
अक्सर.............
सिसकते हुए,
तडपते हुए
अपनी ही आँखों से
देखे अपने ही
पास से गुज़रते हुए
ज़नाज़े की तरह |

रजनी मोरवाल
अहमदाबाद

गुरुवार, 17 नवंबर 2011

नज़्म ....आज फिर चांदनी आसमाँ पर खुलकर बिख़री


आज फिर चांदनी आसमाँ पर
खुलकर बिख़री
आज फिर तेरी यादें मेरी आँखों के
पहलू लगकर रात भर जागती रही ,
कुछ अँधेरे मुंह तक
ओढ़कर टीस की चादर
कराहते रहे मेरी सूरत बनकर ,
कुछ आँहें
सर्द मौसम के झोंको की तरह
मेरी रूह को छूकर निकली ,
एक सिहरन जो बची थी ख़यालों में तेरी
वो भी भीतर ही भीतर
उठी और सिहर कर गुज़री ,
जिस्म में दरक आए हो
जैसे कई शीशे के टुकड़े ,
मैने तेरे अहसास को
कुछ इस तरह टूटते देखा ,
कुछ टूटा गुमां तेरे ना होने का भी ,
एक हिस्सा मेरी जिंदगी का वहीँ जा ठहरा
बुझते हुए चरागों की लौ के करीब ,
उफ़ ...........
ये चांदनी क्योंकर आज फिर से
आसमाँ पर इस तरह से खुलकर बिख़री ?
-रजनी मोरवाल
अहमदाबाद

बुधवार, 16 नवंबर 2011

नज़्म ......तुमने देखा है कभी मुझको बेवजह मुस्कुराते हुए ?


तुम्हारे बिना बिताये हुए
वो लम्हें लगता है की जिंदगी,
जेसे गुज़री ही नहीं अब तक..
बस कि थम के रह गई है
बर्फ की बूंदों की तरह बिन टपके
सर्द तन्हाई को लपेटे अपने ज़ेहन में ,
उम्र की ऑंखें कुछ बूढी होकर
जिंदा लम्हों की लकीरें लेकर के
चेहरे पे उतर आयीं हैं |

जिगर के तार अब भी अनायास ही
खिंच जाते हैं जो तेरा ज़िक्र होता है
किसी महफ़िल में |
वो वक़्त जो गुज़र नहीं पाया
गाहे -बगाहे मेरी जुल्फों में ,
स्याह से सफ़ेद होते लम्हों की
कहानी में बेतुकल्लुफ़ -सा
होने लगता है जब कभी ,
तो मैं बड़े करीने से
उसे अपने जुड़े में पिरो लेती हूँ |
नाहक ही जिंदगी के शांत दरिया में ,
समय गुज़ारने की एवज
में फेंकी गई कंकरी भी बेवजह

लहरों के गुमाव से टकराती है
तो चोट खाती है |
कोई आह जो न बिखर जाए
दामन से रिसकर ,
इसलिए मैं हर वक़्त मुस्कुराती हूँ ,
तुमने देखा है कभी मुझको
बेवजह मुस्कुराते हुए ?
अपने ज़ख्मो को बेख़याली से छुपाते हुए?
वो अक्स तुम्हारा ही तो था ...........
टूटे दर्पण में मेरी सूरत ओढ़े |
रजनी मोरवाल,
अहमदाबाद

आवश्यकता से अधिक मिलना विनाशकारी होता


घर के आँगन में
एक पौधा उगा
चेहरा
मुस्कान से भरा
मन में आशाओं का
संसार जगा
एक दिन
फूलों से लदेगा
सारा घर महकेगा
निरंतर
अतिवृष्टी ने हाहाकार
मचाया
पौधा सह ना पाया
समय से पहले
काल कवलित हुआ
मन निराशा में
डूब गया
भूल गया
हर सपना पूरा
नहीं होता
आशा निराशा का
साथ होता
आवश्यकता से
अधिक मिलना
विनाशकारी होता

एक लम्हा वफ़ा का दे दे कोई

आरजू दिल में बसी
एक लम्हा वफ़ा का
दे दे कोई
बीमार -ऐ-दिल को
दवा दे दे कोई
मोहब्बत का जवाब
मोहब्बत से दे दे कोई
टूटे हुए दिल को जोड़ दे
मेरी तरफ नज़रें कर ले
किश्ती को
किनारे लगा दे कोई
दिल को सुकून दे दे
मेरी इल्तजा सुन ले
कोई

मेरा मौन

उनके
अप्रतिम सौन्दर्य से
अभिभूत था
उनसे मिलने से पहले
मन में
सैकड़ों सपने संजोता
क्या क्या कहना है
मष्तिष्क में
सूची बनाता
मिलने पर जुबान को
लकवा मार जाता
मुंह से एक शब्द नहीं
निकलता
उनका निश्छल सरल
व्यवहार
निरंतर मेरे उनके
बीच में आता
मन का मनोरथ
मन में रहता
प्यार ह्रदय में दबा
रहता
मुझे एक शब्द भी
कहने ना देता
केवल मेरा मौन मेरा
साथ देता


तुम्हें देखा तो नहीं

तुम्हें देखा तो नहीं
फिर भी तुम्हें देखा सा
लगता मुझको
पास होने का
अहसास होता मुझको
तुम्हारा नाम मेरे
जहन में रहता
लबों से बुदबुदाता
रहता
ख्यालों में चेहरा
अंदाज़ से बनाता
रहता
नहीं जानता
कब मिलोगे मुझसे
पर निरंतर ख्याल तुम्हारा
सुकून देता मुझे
तुम्हें देखा तो नहीं
फिर भी तुम्हें देखा सा
लगता मुझको

क्षणिकाएं -2

हँसी
हँस तो लिए
हँसाया क्यों नहीं ?
ये भी सोचा कभी
"मैं"
मेरी "मैं" ने
मुझ को मारा
ख्याल करो
तुम्हारी "मैं"
तुम्हें मारेगी
सत्य विचार
सत्य होता है
इसलिए विचार आते हैं
सत्य नहीं होता तो
विचार भी नहीं आते
रोना
आंसूओं का
आँखों से
क्या लेना देना
अंधे भी रोते हैं
भावनाएं
भावनाएं आंसू
बन कर बहती हैं
मनोस्थिती
दर्शाती हैं
सत्य -झूठ
सत्य के बिना
झूठ अर्थहीन
झूठ के बिना
सत्य अर्थहीन
एक दूसरे के बिना
दोनों अस्तित्वहीन

बड़ा चतुर होता है,बाल सुलभ मन

बड़ा चतुर होता है
बाल सुलभ मन
माँ डांटे तो
पिता की गोद में
पिता डांटे तो
माँ की गोद में
दोनों डांटे तो
दादा दादी की
गोद में
जा छुपता है
बाल सुलभ मन
मीठी बातों से
लुभाता है
इच्छाएं पूरी क
रवाता है
बड़ा चतुर होता है
बाल सुलभ मन
बड़ा चंचल होता है
बाल सुलभ मन

अन्धेरा

हम घर
में
चिराग नहीं
जलाते
अन्धेरा
होने पर
उन्हें अपने
घर
बुला लेते
हैं

मेरे मन की जान लो

तुम्हें
कभी देखा नहीं
फिर भी तुम से
प्यार है
पता नहीं
कभी मिलूंगा भी
या नहीं
फिर भी
मन मानता नहीं
निरंतर
तुम्हारे लिए
व्याकुल रहता
कुशलता के लिए
प्रार्थना करता
मेरे मन की
जान लो
बस इतना सा
ख्याल कर लो
कभी मिलो तो
पहचान लेना
मुस्करा कर
देख लेना

वो शादी शुदा थी ,दोनों बच्चों की माँ थी

दर्द बढ़ने लगा
उम्मीद जाने लगी
हसरतों की अर्थी
सजने लगी
उनसे मिलने की
ख्वाइश
दम तोड़ने लगी
तभी वो आ गयी
दोनों बच्चों के साथ थी
हमारी सांसें फिर से
चलने लगी
पूछने पर कहने लगी
वो शादी शुदा थी
दोनों बच्चों की
माँ थी

देवता से दिखते ,गर नाक सीधी होती तुम्हारी (हास्य-प्रेरणास्पद कविता)

ना करो बुराई किसी की
ना दिखाओ आइना
गर कह दिया किसी को
नाक टेढ़ी उसकी
हो जाएगा नाराज़ तुमसे
फिर भी रह ना पाओ
कहना चाहो
तो समझ लो कैसे कहो
नाक टेढ़ी उसकी
ललाट चौड़ा ,काया कंचन सी
केश काले ,रंग गंदुमी ,
चाल ढाल राजाओं की
चेहरा अभिनेताओं सा
लगता तुम्हारा
देवता से दिखते सबको
गर नाक सीधी होती तुम्हारी
(काने को काना मत कहो
काना जाएगा रूठ
बस चुपके से पूछ लो
कैसे गयी थी फूट )


(काने को काना मत कहो

काना जाएगा रूठ

बस चुपके से पूछ लो
कैसे गयी थी फूट )


{शारीरिक कमी,कुदरत की देन होती है,इस पर कटाक्ष करना उचित नहीं }

हम जानते तुम्हारी तकलीफ क्या है
हम जानते तुम्हारी
तकलीफ क्या है
निरंतर मुस्काराता
चेहरा मुरझाया हुआ
क्यूं है ?
दर्द-ऐ दिल से परेशाँ
हो तुम
अपने साहिल से दूर
हो तुम
हम भी गुजर रहे इसी
मुकाम से
दूर हैं अपने साहिल से
फर्क इतना सा है
हमें पता है
हमारे साहिल का
तुम अनजान उस से हो
अब देख नहीं सकते
तुम्हें बदहाली में
बताना ही पडेगा
राज़-ऐ-दिल तुम्हें
तुम्ही हो मंजिल
तुम्ही साहिल हमारे
जब जान ही गए हो
रंजों गम दूर कर लो
हमें कबूल कर लो


ऐ ज़िन्दगी इतना ना झंझोड़

ऐ ज़िन्दगी
इतना ना झंझोड़
जीने का अर्थ ही
ना जान पाऊँ
भूल जाऊं
संसार में आया हूँ
जब से
हिम्मत से लड़ता
रहा हूँ
समझ नहीं सका
अब तक
कैसे हँसते मन से ?
अब तो थम जा
थोड़ा सा
मुझे भी हँसा
जीने का अर्थ
मैं भी समझ जाऊं
कहीं ऐसा ना हो
लड़ना ही भूल जाऊं
समय से पहले ही
थक ना जाऊं
ऐ ज़िन्दगी
इतना ना झंझोड़
जीने का अर्थ ही
ना जान पाऊँ
डा.राजेंद्र तेला,"निरंतर"
"GULMOHAR"
H-1,Sagar Vihar
Vaishali Nagar,AJMER-305004
Mobile:09352007181

क्या करोगे करोगे तुमु मेरी तस्वीर लेकर ?

वो क्या है कि सन साठ के दषक में बनी एक फिल्म में फोटों को लेकर
नायक-नायिका के बीच कव्वाली के माध्यम से मीठी मीठी तकरार चलती है जिसके बोल है
‘क्या करोगेगे तुमुम मेरेरी तस्वीर लेकेकर’ बहुत देर तक तकरार होती हेैं, गिलें षिकवें होते हेैंतब
भी बात नही बनती. उस समय कव्वाली को लेकर मेरें मन में कई बार अपनी फोटों
ख्ंिाचवाने की तलब हुई कि अगर मुझसे ‘कोई’ इस तरह फोटों मांगें तो मैं तो तत्काल देदूं
लेकिन उस वक्त किसी ने मांगी ही नही. बात मन की मन में रह गईपहले
पहल मैंने अपनी फोटों तब खिंचवाई थी जब मुझे हाई स्कूल की परीक्षा का
फार्म भरना था. मैं सजधजकर हुलसा हुलसा पुरानी मंडी में सडक किनारें स्थित कैलाष
फोटों स्टूडियों गया. दुकानदार ने मुझे कैमरें के सामने रखें स्टूल पर बैठाकर दो चार बार
मेरी गरदन दांये, बांये, उपर नीचे की और फिर मेरी फोटों खैंचदी. वही मैंने परीक्षा फार्म
पर चिपकादी.
परीक्षा के समय जब मैं दूसरी स्कूल स्थित परीक्षाकेन्द्र पर गया तो कुछ देर बाद
वही फोटों लगा फार्म लेकर एक परीक्षक वहां आया और बार बार कभी मुझे और कभी
परीक्षाफार्म को देखते हुए बोला कि क्या आपही .......गोयल है ? मेरें द्वारा हामी भरे जाने
पर वह बोला कि आपकी षक्ल फोटों से 100 परसेंट नही मिलरही हैं. इस पर मैंने जवाब
दिया कि कोई बात नही, जितनी मिल रही हेै उतनी मिलादें. अगर 33 परसेंट भी मिल
जायगी तो भी ‘पास’ तो हो ही जाउंगा न ? वैसेभी उससे ज्यादा नम्बर तो मेरें किसी
सब्जेक्टमें आज तक कभी आए ही नही. माध्यमिक षिक्षा बोर्डभी तैतीस परसेंटवालों को
पास करता ही हैं.यह सुनकर वह मुझे ऐसे घूरनेलगा जैसे पुलीसवाला अपराधी को घूरता हैंहाईस्कूल
और फिर डिप्लोमा करने के बाद कुछ दिन यूंही घूमता रहा तो बेकारी में
सबसे सरल रास्ता नेतागिरी लगा. मैं सफेद कुर्ता पायजामा पहनने लगा और जोडतोड
लगाकर एक राजनीतिक दल की हमारी गली की षाखा-कृपया कोई इसे आरएसएस की
षाखा ना समझलें वर्ना दिगविजयसिंहजी पीछे पडने में देर नही करेंगे-का अध्यक्ष बन गयासदा
की भांती उस साल भी वर्षा ऋतु में वृक्षारोपण का बडा हल्ला मचा. वन विभाग के
आंकडें तो खैर लाखों-करोडों को पार कर गए लेकिन हमारा उद्धेष्य सीमित था. हम लोग
तो हाथाजोडी करके पंचकुंड स्थित नर्सरी से कुछ पौधें ले आए और ले देकर स्थानीय
अखबारों में वृक्षारोपण महोत्सव का खूब प्रचार करवाया. नतीजतन कुछ लोग गली के
इकटठे होगए, कुछ राह चलते लोग और कुछ स्कूल जाते बच्चें वहां रूक गए. हमने एक दो
प्रेसफोटोग्राफर एवं पत्रकारों से भी अनुनय-विनय की तो वह भी आगए. उसी समय मैंने
देखा कि घटनास्थल से कुछ दूरी पर गाएं, बकरियां भी खडी थी जो ललचाई नजरों से
लगनेवालें पौधों को देख रही थीपहले
मैंने लिखित भाषण दिया. अधिकांष में तो मैं वही बोला जो मुझे लिखकर
दिया था लेकिन जहां मैंने अपनी तरफ से कुछ मिलाया वही हो हल्ला होगया जोकि लिखित
भाषणवालों के साथ होता आया हैं. यूपी इत्यादि जगहों में आजभी हो रहा हैं. आप आए
दिन अखबारों में पढ ही रहे होंगे. खैर, भाषण समाप्त होने व तालियां बजने के बाद मैंने
एक पौधा लगाया. हालांकि इस काम में मेरे सफेदझक कपडों पर कुछ मिटटी लग गई
जिसका मुझे बहुत अफसोस रहा लेकिन इससे भी ज्यादा मलाल इस बात का रहा कि
ऐनवक्त पर फोटोग्राफर के कैमरे का क्लिक नही होपाया और मेरी फोटों नही छपीउन्हीं
दिनों एक बार पुष्कर मेले में जाने का मौका मिला. वहां दडें पर एक चलते
फिरते स्टूडियोंवाले ने हाथोंहाथ फोटों खैंचने की दुकान लगा रखी थी. उसके पास एक पर्दा
भी था जिसमे एक हवाईजहाज का चित्र लगा हुआ था तथा उसमें बैठने का स्थान कटा
हुआ था ताकि जिसे हवाईजहाज में बैठे हुए फोटों खिंचवानी हो वह पर्दें के पीछे बैठकर
फोटों खिंचवायें तो उसकी फोटों हवाईजहाज में बैठे हुए दिखलाई देगी. मैंने भी इस पोज में
अपनी फोटों खिंचवाई और कइयों को दिखलाई कि ‘किंग फिषर एयरलाईन’ में बैठा हूं
लेकिन लगा कि किसी पर भी प्रभाव नही पडाकुछ
समय बाद जब नौकरी हेतु अर्जी दी तो फार्म के साथ साथ अपनी फोटों भी
भेजी. वहां से यह लिखा हुआ आया कि आप फोटों में अपनी उम्र से दस वर्ष बडे लग रहे
हैं. कही आप ‘ऐजबार’ यानि अधिक उम्र तो नही हैे ? मैंने उनको उत्तर भेजा कि वैसे तो
मेरी उम्र अधिक नही है लेकिन वह फोटों दस वर्ष बाद की लगती है तो इसे सुरक्षित रखलें
क्या पता आपको दस वर्ष बाद अखबारों इत्यादि में देने हेतु मेरी फोटों की जरूरत पड
जाय तब आपको दुबारा मेरी फोटों नही ढंूढनी पडेगीनौकरी
लगते ही रिष्तेदारों तथा षादी करवानेवालें आसपास मंडराने लगे. उनको यह
गंवारा नही कि कोई कुंवारा- कुंवारा ही क्या कुंवारी भी- दो दिन सुख चैन से रहलें. खैर,
दुबला पतला तो था लेकिन फिर भी एक जगह रिष्ता तय होगया. एक रोज सालीजी का
पोस्टकार्ड आयाकि आपकी फोटों भिजवायें. उन दिनों मोबाइल वगैरह तो क्या घरपर भी
फोन की सुविधा नही थी. मैंने अपनी फोटों भिजवाई तो तुरन्तही सालीजी का जवाब आगया
कि हमने आपसे फोटों मांगी थी लेकिन आपने भूलसे अपनी एक्सरे भिजवादी लगती हैं. मैंने
जब अपनी सहेलियों को वह दिखाई तो वे सब हंस पडी और खूब मजाक बनाया. मुझे
काफी षर्मिन्दा होना पडा. जीजाजी ! प्लीज अपनी एक्सरे नही, फोटों भेजिये और इस
चिटठी को ‘तार’ समझियें-मेरा मानना है कि आजकी इस पीढी के अधिकांष लोगों को इस
‘तार’ षब्द का मतलब षायद ही पता होकुछ
वर्षों बाद किसी के उकसावें में आकर हास्य-व्यंग्य संग्रह की एक किताब
छपवाली. जब उसका विमोचन हो रहा था तो वहां एकत्रित हुई भीड में से किसी ने एक
नोटबुक मेरे आगे करदी. यहां मैं आपको बताना चाहता हूं कि मैं हिन्दी-इंगलिष में दिल्ली
से प्रकाषित ‘षंकर्स वीकली का वर्षों पाठक रहा और मुझें उस पत्रिका का प्रतीक चिन्ह, जो
कि एक गधा था, बहुत अच्छा लगता था. हास्य-व्यंग्य का माहौल देखकर मैंने उस व्यक्ति
की नोटबुक पर गधे का स्कैच खैंच दिया तो प्रषंसा करने की बजाय वह बोला सरजी ! मैंने
फोटोग्राफ नही ऑटोग्राफ मांगा था. अब आपही बतायें मैं उसे क्या कहता ?
एक बार एक निकट के रिष्तें की षादी में जाना हुआ. वहां एक मौकें पर बार बार
मेरी फोटों खैंची जाने के लिए बहुत आग्रह किया जाने लगा तो मैंने भी हर बार इठलाकर
कहा कि नही नही क्या करोगे मेरी फाटों खैंचकर ? तो पीछे से किसी ने आवाज लगाई
‘बच्चों को डरायेंगे’.
अब भी जब कोई मुझसे फोटों की मांग करता है तो सोचता हूं कि मैं उसे अपनी
फोटों भिजवातो दूं लेकिन क्या करूं आजकल बच्चें-बडें जो फोटुएं खैंचते है उन कैमरों में
रील नही होती, तो बिना रील की फोटों कैसी आयेगी और केैसे मैं किसी को भेजूंगा ? लेने
वालें भी ऐसी फोटों का क्या करेंगे ? इसीलिए मेरा कहना यही है कि ‘क्या करोगेगे तुमुम मेरेरी
तस्वीर लेकेकर’.
-ई. शिव शंकर गोयल,
फ्लैट न. 1201, आई आई टी इंजीनियर्स सोसायटी,
प्लाट न. 12, सैक्टर न.10, द्वारका, दिल्ली- 75.
मो. 9873706333

सोमवार, 14 नवंबर 2011

बाल दिवस कैसे मनाता ?

जाने क्या सोचकर 14 नवम्बर से कुछ पहले हमारी कॉलोनी के बच्चें मेरे पास आए
ओैर कहा कि अंकल इस बार हम बाल दिवस मनाना चाहते हेैं. मैंने उन्हें कहा कि मनाओ,
खूब मनाओ, किसने मना किया हेै ? आजकल तो मुक्त व्यापार व्यवस्था में हर रोज ही
कोई न कोई दिवस मन ही रहा हैं. फिर बाल दिवस तो हमारे देष में वैसे भी एक
महत्वपूर्ण दिवस है. इस पर वह बोले कि नही अंकल हम जो बाल दिवस मनाना चाहते है
उसमें आपको मुख्य अतिथि बनाना चाहते हैं.
यह सुनकर मैं चौंका. मुझे आज तक किसी ने मुख्य अतिथि तो क्या साधारण
अतिथि के लायक भी नही समझा. मैं स्वयं अपनेआप ही किसी समारोह में चला गया होउॅ
तो और बात हेैं. वहां गया, कुछ देर पीछे की कोई खाली सीट देखकर बैठ गया और जब
उपदेषात्मक भाषण से जी उकता गया तो उठकर चल दिया. खैर, मैंने उन्हें कहा कि आप
लोग मुझे बाल दिवस का मुख्य अतिथि बनाना चाहते है परन्तु मेरे सिर पर बाल तो है ही
नही फिर मैं बाल दिवस का मुख्य अतिथि बनकर क्या करूंगा ? इस पर बच्चें हंसने लगे
औेर एक साथ बोल पडे अंकल यह बाल दिवस सिर के बालोंवाला नही चाचा नेहरू के
जंमदिवसवाला बालदिवस हैं. तब कही जाकर मेरे को बात समझ में आईपहले
जब कोई परीचित कुछ अर्सें बाद मिलता तो पूछता था कि ‘बाल बच्चों के
क्या हाल है ?’ लेकिन अब उम्र के इस पडाव पर ऐसा मौका आने पर पूछता है ‘बच्चें
क्या कर रहे है ?’ यानि हालचाल पूछने में ‘बालों’ की कोई बात ही नही करताआपतो
जानते ही है कि सिर के बालों का सीधा संबंध नाई से भी हैं. पहले मैं बाल
कटवाने हर माह नाई की दुकान जाता था. लेकिन जबसे अमिताभ बच्चन का ‘कौन बनेगा
करोडपति’ ऐपिसोड चला हेै तब से ही नाइयों ने भी धूम मचा दी हैं. वे लोग ऐपीसोड की
तर्ज पर बाल काटने की दरें पहले दुगनी फिर चौगुनीवाली रफतार से बढाते जा रहे हेैं मानो
कांग्रेस और मनमोहनसिंहजी से पुरानी दुष्मनी निकाल रहे हो. जब ऐसा हुआ तो मैंने
उनकी दुकान पर जाने की ‘फ्रिक्वेन्सी’ कम करदी. मैंने सोचा कि मनमोहनसिंहजी अथवा
मॉन्टेकसिंहजी तो आक्सफोर्ड तथा हार्वर्ड यूनिवरसिटी की अपनी पढाई और विष्वबैंक के
अपने कार्यकाल के अनुभव से महंगाई कम करेंगे तब करेंगे क्योंन इसे कम करने की यह
तरकीब आजमाई जाय ? चाहे तो आपभी आजमाकर देखलें, बडे काम का नुस्खा हैंमहंगाई
का कारगर ढंगसे सामना करने का जो एक और गुर मेरे एक मित्र ने मुझे
बताया है वहभी लगे हाथ आपको बता देता हूं. उनके पास एक स्कूटर है. एक बार मैंने
उनसे पेट्ोल-डीजल के बढते दामों की चर्चा की तो बोले मैं तो जबभी पेट्ोलपम्प जाता हूं
तो सेल्समेन से कहता हूं कि सौ रू. का पेट्ोल डालदो. ऐसा पिछले कई सालों से कर रहा
हूं. मैंने तो आज तक एक नया पैसा ज्यादा नही दिया. कौन कहता है कि पेट्ोल महंगा हो
गया ? आपभी चाहे तो आजमा सकते हैंमैं
जिस सैलून पर बाल कटवाने जाता हूं वह नाई मेरे कुर्सी पर बैठते ही ‘मनोहर
कहानियां’ या ‘सत्य कथाओं’ में से कोई सनसनीखेज किस्सा ढंूढकर मुझे सुनाने लगता हैं
अथवा टीवी की विषेष चैनल चला देता है जिसमें छोटी छोटी बातों की भी सनसनी फैलाई
जाती है तथा बादमें बाल काटता हैं. एक बार जिज्ञासावष मैंने उससे पूछा कि वह ऐसा क्यों
करता है ? तो उसने जवाब दिया कि ‘अंकल ! आपके बाल बहुत कम और छोटें है, ऐसे
किस्सें सुनाने से बाल खडे होजाते है जिससे उन्हें काटने में सहुलियत होती है’ मैं इस
रहस्योदघाटन से आष्चर्यचकित रह गयाहालांकि
इससे पहले एक दो बार मैंने नाई से कहाभी कि मेरे तो बाल कम है अतः
कम रेट लगनी चाहिए तो उल्टे वह बोलाकि अंकल मैं तो लिहाज के मारे बोलता नही हूं
वर्ना आपके तो और भी ज्यादा पैसें लगने चाहिए क्योंकि एक एक बाल को ढूंढ ढूंढकर
काटना पडता है. जब मैंने उसकी यह दलील सुनी तो रेट के बारे में उसे कहना ही छोड
दिया क्या पता उसे फिर याद आजाय और वह दाम बढादे तो मेरी महंगाई का सूचकांक तो
उपर चला जायगा न, फिर कौनसा सरकार उसी हिसाब से मेरी पेंषन बढा देगी ? भुगतना
तो मुझे ही पडेगाइसलिए
मैंने तो कॉलोनी के बच्चों को मना कर दिया कि मैं बाल दिवस का मुख्य
अतिथि बनने लायक नही हूं. मेरे को बख्ष दे और किसी नेता को पकडेई.
-ई. शिव शंकर गोयल,
फ्लैट न. 1201, आई आई टी इंजीनियर्स सोसायटी,
प्लाट न. 12, सैक्टर न.10, द्वारका, दिल्ली- 75.
मो. 9873706333

शनिवार, 12 नवंबर 2011

बडी कचहरी - छोटी कचहरी

ईष्वर ने जबसे सृष्टि की रचना की न्याय तभी से किसी न किसी रूप में मौजूद
रहा हेैं. तुलसीदासजी ने मानस की रचना तो कलियुग में की लेकिन कथा त्रेतायुग की कहीउसमें
उन्होंने न्याय के लिए यही कहा ‘समरथ को नही दोष्ेष गुसुसांइंईर्’ . फिर ‘जिसकी लाठी
उसकी भैंस’ का जमाना आया और काजीजी न्याय करने लगे. उस काल में काजी इतने
मषहूर होगए कि उनके नाम के मुहावरें बनने लगे. मसलन ‘काजीजी दुबुबले क्यों ं ? षहर के
अंदंदेष्ेषे से’े’ या ‘मियां बीबी राजी तो क्या करेगेगा काजी ? इत्यादि फिर राजाओं का जमाना
आयाकुछ
का कहना है कि वें बडे न्यायप्रिय थे. रजवाडों के समय में न्याय कैसे होता था
इसकी एक छोटीसी मिषाल पेष है. राजस्थान की एक बडी रियासत की हुबहू घटना हैं. एक
समय उस राज्य में ‘दरबार’ के फैसले हेतु काफी फाइलंें इकटठी होने लगी. हालांकि दरबारी
एवं कारिन्दें उन्हें बार बार याद दिलाते रहते थे, ‘बडा हुकुम ! घणी खम्मा ! घणी सारी
फाइलां को ढेर लाग रयोै है जो गरीब परवर से न्याय मांग रही हेै, हुजूर की करौ’ लेकिन
महाराजा साहब को इन कामों के लिए फुर्सत कहां थी. वह कह देते
अरे बाला ! अबार रैबादेै, जद चौको दिन होसी कर देवा फैसलो, कित्तोक तो टैम
लागसी ?-अर्थात जब अच्छा दिन होगा तब फैसला कर देंगे.-
परन्तु धीरे धीरे जब फाइलों का अंबार लग गया तो एक रोज मुंह लगा एक दरबारी
हाथाजोडी करके उन्हें न्यायकक्ष में लेगया. वहां एक बडी मेज पर फाइलों का ढेर रखा हुआ
था. जब महाराजा सिंहासन पर विराज गए तो उन्होंने एक दरबारी से कहा कि ‘आलै म्हारी
छडी और इै ढेर पर मार.’ उस कारिन्दें ने उनके हुकम का पालन किया. इसका नतीजा
यह हुआ कि कुछ फाइलें मेज के दाहिनी ओर गिर गई और कुछ बांयी ओर, इसके बावजूद
कुछ अभागी फाइलें मेज पर ही पडी रह गई.
...अब काई करणों है हुजूर ! कारिन्दें ने पूछने की हिम्मत की.
...करणो कांई है रे, जो अठीनै-दाहिनी तरफ-पडी है बै सगलां जीत गया औेर जो
बठीनै-बांयी तरफ-पडी है बै बापडा-अभागा-सगलां हार गया.-दाहिनी तरफवालें जीत गए
और बांयी तरफवालें हार गए-
...हुजूर ! अै कुछ फाइलां तो अठैही-मेज पर ही- रहगी, ब्याकौ कांई करणो है ?
-जो कुछ फाइलें मेज परही रह गई उनका क्या करना है-
... अरे गेला ! तू गेलो ही रयौ, तू कोनी सुधरै. यांको यान करणो है कि सबानै
साल दो साल की तारीख दे दै. न्याय कोई यांन ही कोनी मिलै, कोई हथेली म्है तो सरसों
उगै कोनी, इमै भी टैम लागेै. समझयो या कोनी समझयो ?-यानि बाकी लोगों को अगली
तारीख देदे. इतना कह कर महाराजा यह कहते हुए चल दिए कि ‘म्हानै अब और टैम
कोनी. और घणो ही काम करबा को है, ओ एकलो काम ही थोडी हेैं.’
बाद में उनकी प्रजा ने जब यह बातें सुनी तो उनमें से जीतनेवालों के उदगार थे कि
वाह ! महाराजा, घणीखम्मा, अन्नदाता कांई न्याय करयौ है, दूध को दूध और पाणी को
पाणी कर दियो जाण हंसो करै है, जदी तो अै राजा सूर्यवंषी-चन्द्रवंषी कहलावै हैें. धन्य
म्हाका भाग जो इस्यां राज म्है पैदा हुया. कलयुग म्है भी सुरग की जाण लागै हैंअंग्रेजों
के समय से ही इस षहर में दो कचहरियां थी. और दूसरी जगह की तरह
मसलन पुरानी दिल्ली की फतेहपुरी स्थित ‘भवानीषंकंकर की कचहरी,’ की तरह उनका
नामकरण नही था. आपको तो पता ही होगा कि भवानीषंकर जसवंतराव होल्कर का वजीर
था जो बाद में अंग्रेजों से मिल गया था. इसी कारण उसकी इतनी प्रसिद्धी है कि कूंचा
घासीराम स्थित उसकी हवेली आज भी ‘नमक हराम की हवेलेली’ के नामसे जानी जाती हैदेख्
ाा आपने, क्या नाम है ? खैर, इस षहर में स्थित यह कचहरियां तो एक छोटी और
दूसरी बडी कचहरी कहलाती हैं. कहते है कि कचहरियां कानून के अनुसार चलती हैं परन्तु
लोगों का कहना है कि यह दोनों कचहरियां तो आज भी वही की वही है जहां सौ साल
पहले थी. यहां वकील अब भी काला कोट पहनकर आते हैं. कहते है कि सन 1694 ईमें
इंगलेंड में क्वीन मेरी का देहांत होगया तब उनके षोक में जिन देषों में अंग्रेजों का राज्य
था वहां की अदालतों में काले कपडें पहनकर आना षुरू हुआ था जो परम्परा के वषाीभूत
होकर आज तक चालू हेैं. भला बताइये कि ऐसी परम्पराएं नही निभाएंगे तो हम दुनियां को
कैसे बतायेंगे कि कभी अंग्रेज हम पर राज्य करते थेदोनों
ही कचहरियों में बडे दिलचस्प मुकदमें आते रहते हैंे. बहुत वर्षों पूर्व की बात
है. बडी कचहरी में एक मुकदमा दाखिल हुआ. उसके अनुसार रामू नामक एक व्यक्ति यात्रा
पर गया. जाने से पहले उसने अपने मित्र ष्यामू को कहा कि मेरे पास 500 रू. है वह
तुम रखलो जब मैं वापस आउॅगा तो लेलूंगा. यह कहकर वह कुछ दिनों के लिए यात्रा पर
चला गया. जब डेढ-दो महीनें बाद वापस लौटा तो उसने ष्यामू से अपने रू. वापस मांगे
लेकिन ष्यामू मुकर गया और रामू से कहा कि कौनसे रू.? मामला अदालत में पहुंचा. जज
ने रामू से कहा कि तुमने रामू को जब रू. दिए थे तब क्या कोई अन्य व्यक्ति भी वहां था
? रामू सीधासादा था बोला हुजूर मैंने रू. एक पेड के नीचे दिए थे, उस समय वहां हम
दोनों के अलावा और कोई नही था. इस पर जज महोदय ने एक योजना बनाई ओैर उसी
अनुसार रामू से कहा कि जाओ और उस पेड से पूछकर आओ कि क्या वह इस केस में
गवाही देगा ? रामू चला गया. जब काफी देर बाद भी वह नही लौटा तो जज ने अदालत
में कहा कि क्या बात हुई रामू अभीतक नही लौटा तो ष्यामूने कहा कि वह अभी से ही
कैसे लौट आयेगा, वहतो अभी वहां तक पहुंचा भी नही होगा. इस बात पर जज ने उसको
पकड लिया और कहा कि तुम्हें कैसे मालूम कि वह पेड यहां से बहुत दूर है ? तुम सच
सच बताओ नही तो मैं तुम्हें कडी से कडी सजा दूंगा इस पर ष्यामू घबडा गया और सच
सच बता दिया. इस तरह पेड की गवाही की युक्ति काम आगई और रामू को उसकी रकम
मिल गई.
षायद इसी से प्रेरणा लेकर यहां के नगर निगम ने अपने मुख्य द्वार के पास स्थित
पेड पर एक बोर्ड लगाया हुआ है जिस पर लिखा है ‘मृतक जानवरों ं की सूचूचना यहां देवेवें’ं’
जबकि हकीकत में अकसर वहां पेड के अलावा और कोई होता ही नही हैं. निगम का
आषय यह रहा होगा कि जब पेड कचहरी में गवाही दे सकता है तो निगम की रिपोर्ट क्यों
नही दर्ज कर सकता हैं ? अवष्य कर सकता हैं और वह भी बिना पगार बढाने की मांग
किए और बिना धरना, प्रदर्षन अथवा हडताल की धमकी दिए.
इसी कचहरी में एक बार बडा दिलचस्प केस आया. वाद के अनुसार एक षाम चार
व्यक्ति दौलतबाग में जूआ खेल रहे थे. एक पुलीसवालें की नजर उनपर पड गई. उसने
उनको रंगे हाथों पकड लिया. उन पर केस दायर हुआ. काफी समय तक मुकदमा चला
और गवाह इत्यादि के बयानों के बाद अभियुक्तों की पेषी हुई. मजिस्ट्ेट ने पहले अभियुक्त
से पूछा:-
...तुम फंला तारीख को बाग में जूआ खेल रहे थे ?
...हुजूर ! पुलीस का यह आरोप गलत हैं. उस तारीख को तो मैं धार्मिक यात्रा पर
रामेष्वरम गया हुआ था. इसका प्रमाण है ‘चारधाम सप्तमपुरुरी यात्रा’ हेतु प्रसिद्ध यात्रा
कम्पनी की यह एलटीसी की रसीद. मैं धर्म-कर्म को माननेवाला व्यक्ति हूं. मुझे इनसे क्या
लेना देना ?
मजिस्ट्ेट महोदय ने उसकी दलीलों से सहमत होते हुए उसे बरी कर दियाअब
दूसरें अभियुक्त की बारी आई. उसने कहा:-
...मैं तो एक लम्बे अर्से से बीमार हूं और इसका प्रमाण है षहर के मषहूर आरएमपी,
‘खानदानी हकीम’ साहब का सार्टिफिकेटमजिस्ट्
ेट महोदय ने कुछ सोचकर उसे भी बरी कर दिया. अब तीसरें का नम्बर आयाउसने
कठघरे में खडे होकर बयान दिया:-
...सा’ब ! मैं एक जिम्मेवार सरकारी कर्मचारी हूं. हाजिरी करने के बाद हमें सुबह से लेकर
रात तक ऑफिस में मौजूद रहना पडता हैं. मैं उस रोज वहां मौजूद था और इसके सबूत
के रूप में यह रहा मेरे बॉस गजेटेड ऑफीसर का उपस्थिति प्रमाण पत्र.
मजिस्ट्ेट साहब के पास इसे भी छोडने के अलावा क्या चारा था ? जब तीनों अभियुक्त
बरी हो गए तो चौथे की बारी आई. उसने अपनी बात रखते हुए मजिस्ट्ेट साहब से कहा
...हुजूर ! जब यह तीनों ही वहां नही थे तो मैं अकेला किसके साथ जूआ खेलता ?
अंततः मजिस्ट्ेट साहब ने उसको भी बरी कर दिया.
षायद इसी से प्रेरणा लेकर देष के कुछ राजनीतिज्ञ ‘नोटेट के बदले वोटेट’ का खेल
खेल गए. अब दोनों ही मुख्य राजनीतिक दलों एवं तथाकथित समाजवादी दल के नेता,
सभी, एक एक करके मना कर रहे है कि ‘खेल’ में हम थे ही नही अर्थात ‘नो वन किल्ड
जेेिसिकालाल’ अब आखिरी बंदा भी इंकार कर देगा कि मैं अकेला किससे नोट लेता ओैर
किसको नोट देता ? इसको कहते है ‘चातुरुरी’ परन्तु इन्होंने षायद यह कहावत नही सुनी है
‘घणी चतुरुराईर्,, खुदुद नै ही खाईर्’’
कचहरी में एक बार ऐडीषनल जज के इजलास में एक केस आया. हुआ यह कि
वरमाजी और षरमाजी के सरकारी बंगलें पास पास ही थे. वरमाजी मलाईदार विभाग में थे
जबकि षरमाजी के यहां छाछ की भी तंगी थी. वरमाजी ने अलग अलग विदेषी नस्ल के दो
कुत्तें पाल रखे थे. वह बडा षोर मचाते थे. षरमाजी को यह सब बडा अखरता थाआपसकी
कुछ कहा-सुनी से जब कोई बात नही बनी तो उन्होंने ऐडीषनल जज की अदालत
में वाद दायर कर दिया. जब मामला सुनवाई हेतु आया तो जज महोदय ने वरमाजी को
पूछा कि आपने कुत्तें पाल रखे है जिनसे पडौसियों की षांती भंग होती है, आपको इस बारें
में क्या कहना है ? वरमाजी गुस्से से भरे हुए थे ही, बोले ‘हम न किसी से कुछ लेते है ना
किसी को कुछ देते है, अपनाही खाते है, अपनाही पीते हैं. हमनें कुत्तें पाले है इसमें दूसरों
को क्या एतराज है ?
...परन्तु दो दो कुत्तों की क्या आवष्यकता है ? जज महोदय ने पूछा.
...वैसे तो एक ही काफी है, हुजूर ! दूसरा तो ऐडीषनल हैं. वरमाजी ने उत्तर दिया.
यह सुनने के बाद जज महोदय ने सामने रखी फाइलों में ऐसी नजर गढाई कि फिर उठाई
ही नही जब तककि सारा इजलास खाली नही हो गयाउन
दिनों की बात है जब अधिकांष लोग कोर्ट कचहरी यातो पैदल जाते थे या तांगें
की सवारी करते थे. एक बार एक वकील साहब कचहरी जा रहे थे. रास्तें में षीतलामाता
के मंदिर के पास एक तेली की घाणी पडती थी. वहां घाणी पर एक बैल, जिसकी आंखों पर
लकडी के टॉपें लगे हुए थे, घाणी के कोल्हू के चारों तरफ चक्कर लगा रहा था. बैल के
गले में घन्टी भी बंधी हुई थी जिसकी आवाज से दूर बैठे तेली को पता चलता रहता था कि
बैल रूका नही, घूम रहा हैं. कौतुहलवष वकील साहब यह सब देख्कर ठिठक कर वही खडे
हो गए. उन्हें वहां देखकर तेली उनके पास आगया और पूछा कि हुकम, क्या बात है ? इस
पर वकील साहब ने उससे कहा कि मानलो यह बैल चलते चलते खडा हो जाय औेर
आवाज करने के लिए अपने गले में बंधी घंटी को घुमाता रहे तो तुमको कैसे पता लगेगा
कि यह घूम रहा है या रूका रूका ही घंटी बजा रहा है. इस पर तेली बोला ‘वकील साहब
वकालात की डिग्री आपने पास की है इस बैल ने नही की हैं. यह कर लेगा जब की तब
देखेंगेउस
जमानें में वकीलों के मुंषी अधिकांष में यातो कोई मियांजी होते थे या माथुर.
यह दोनों ही कौमें उर्दू में माहिर होती थी. मियां अब्दुल वहीद षहर के नामी फौजदारी
वकील, जिनका ऑफिस कडक्का चौक में हुआ करता था, के मुंषी थे. वकील साहब जज
महोदय के दूर के रिष्तें में भानजी दामाद लगते थे इसलिए, कहते है कि, उस समय उनकी
चवन्नी खूब चलती थी. यह निगोडी चवन्नी तो अब जाकर बंद हुई है. उस समय तो खूब
चलती थी आप किसी पुरुराने-यहां पुराने से मेरा आषय अधिक उम्रवालांे से हेै-आदमी को
पूछ सकते हेैंवही
मुंषीजी कचहरी की चाय की थडीपर बिछी मुडिडयों पर बैठे हुए अपने साथियों
को बता रहे थे कि एक बार एक आदमी से आवेष में आकर मर्डर होगया. वह चाहता था
कि उसे फांसी न होकर आजंम कैद होजाय. उसने हमारे वकील साहब से बात की. उन्होंने
उसे आष्वासन दिया कि तुम बेफिक्र रहो, मैं सब संभाल लूंगा. खैर जब फैसला हुआ तो
उस व्यक्ति को आजंम कैद की सजा सुनाई गई. वकील साहब और मैं उससे मिलने जेल
गए. वहां वकील साहब को देखते ही उसने उनका बहुत बहुत षुक्रिया अदा किया. वकील
साहब ने उससे कहा कि तुम बहुत किस्मतवालें हो जो तुम्हारें मन माफिक फैसला होगया
वर्ना जज साहब तो तुम्हें छोडनेवाले थे किसी तरह तुम्हें आजंम कैद करवाई हैंउसी
स्थान पर चाय पीते पीते मुंषी वहीद के दोस्त मुंषी देवकीनन्दन माथुर ने
बताया कि एक बार लालू-राबडीदेवी के राजकाल में हमारें वकील साहब अपने किसी
रिष्तेदार का केस लडने पटना गए. वहां उन्होंने कोर्ट में उस काम के साथ साथ एक
जनहितयाचिका भी दाखिल की कि इस राज्य में बिजली, पानी, षिक्षा, सुरक्षा इत्यादि कुछ भी
नही है. तब जज ने इन्हें कहा कि आप इसकी बजाय जनता को लेकर सडकों पर क्यों
नही आजाते ? यहां सडकें भी कहां है हुजूर ! इन्होंने जज को जवाब दियाकचहरी
में किसी फौजदारी केस की सुनवाई चल रही थी. वकील साहब एक
चष्मदीद गवाह से जिरह कर रहे थे. वाकया था कि गवाह ने मुजरिम-अभियुक्त- को रात्रि
में खून करते देखा था. उसका कहना था कि उस समय घटनास्थल के पास ही पेड पर एक
उल्लू भी था तो वकील साहब ने जोर देकर पूछा कि
... क्या तुमने उल्लू देखा है ?
गवाह सहमकर चुपचाप खडा रहा और इजलास की खिडकी से बाहर की तरफ देखने लगाइस
पर वकील साहब और भी भडक गए और गवाह से कहा
...उधर क्या देख रहे हो, मेरी तरफ देखो.
वकील साहब का इतना कहना था कि कोर्ट में मौजूद सभी लोग मुस्कराने लगे.
एक बार किसी दिवानी मुकदमें में वादी के वकील साहब अपनी जिरह पेष कर रहे
थे और नजीर पर नजीर दिए जा रहे थे. इस पर जज महोदय ने उनसे कहा कि मुझे तो
लग रहा है कि तमाम सबूतों और गवाहों के आधार पर कहा जा सकता हेै कि कसूरवार
आप हीे है, इस पर वादी के वकील ने तैष में आकर कहा कि ‘कौनैन साला कह रहा है ?
इसे सुनकर वहां उपस्थित सभी को बुरा लगा. जज साहब ने भी इसका संज्ञान लेते
हुए एतराज किया और अपने पेषकार से कहा कि वकील साहब को अदालत की मानहानि
का नोटिस दिया जाय. वहां खडे कुछ और वकीलों ने भी अपने साथी को समझाने की
कोषिष की. इस पर उन्होंने पलटा खाते हुए कहा कि मैंने तो यह कहा था कि कौनैनसा ‘ला’
कहता है ?
बाद में वकील साहब की इस दलील को कोर्ट भी मान गया और मामला वही रफा
दफा होगयाइसी
कचहरी की बात हेैं. एक चोरी के केस में एक वयोवृद्ध वकील साहब अभियुक्त
से जिरह कर रहे थे.
वकील:- क्या तुमने चोरी की ?
मुजरिमः- जी साहब
वकील:- अच्छा यह बताओ तुमने चोरी कैसे की ?
मुजरिमः- रहने दीजिए साहब, इस उम्र में आप यह सब सीखकर क्या करेंगे ?
यहां मृत्युलोक में तो कोर्ट कचहरियां होती ही है वहां यानि उपर जाने के बाद भी
वादविवाद चलते रहते हेैं. कहते है कि एक बार स्वर्ग और नरकवालों के बीच साझें की
दीवार को लेकर झगडा होगया. दोनों ही पक्षों का अपना अपना दावा था कि यह हमारी हद
हैं. बहस के दौरान यह बात उठी कि मामलें को अदालत में लेजाया जाय. इस पर
नरकवालों के चेहरें खिल उठे और स्वर्गवालें मायूस हो गए. वहतो बाद में यमदूतों ने
रहस्योदघाटन किया और बताया कि स्वर्ग में तो वकीलों का टोटा है, ढूंढें नही मिलतेउनका
केस लडेगा कौन ?
इस तरह इन दोनोही कचहरियों में मुकदमों के दौरान हंसी-मजाक की बातें भी होती
रहती हैंई.
-ई. शिव शंकर गोयल,
फ्लैट न. 1201, आई आई टी इंजीनियर्स सोसायटी,
प्लाट न. 12, सैक्टर न.10, द्वारका, दिल्ली- 75.
मो. 9873706333

शुक्रवार, 11 नवंबर 2011

फूल तो बहुत देखे अब तक



फूल तो बहुत देखे
अब तक
पर तुम्हारी सी
महक नहीं थी उनमें
साज़ तो बहुत सुने
तुम्हारी आवाज़ सी
खनक नहीं थी उनमें
चेहरे भी बहुत देखे
पर तुम्हारी सी
खूबसूरती नहीं थी उनमें
दिल बहुतों से लगाया
पर मन भरा नहीं उनसे
निरंतर भटकता रहा
पर मुकाम मिला नहीं
अब तक
जब से तुम्हें देखा
मंजिल
नज़र आ गयी मुझे
अब तुम्हारे बिना
सुकून
मिलेगा नहीं मुझे

अजीब हालात हैं

अजीब हालात हैं
सामने लोग
वाह वाह करते
पीठ पीछे हाय हाय
करते
दिल में नफरत का
अम्बार
लगा कर रखते
निरंतर
चेहरे को मुस्कारहट
से सजा कर रखते
मन में रोते रहते
ज़िन्दगी बर्बाद करते
रहते

नजाकत

उनकी
नजाकत का
अंदाज़ तो देखिए
उन्होंने
एक तितली को
छू लिया
हाथ में ज़ख्म
हो गया
निरंतर
मुस्काराता चेहरा
गम में डूब गया

दिल कभी ना मिलेंगे

मैं आप नहीं हूँ
आप मैं नहीं हैं
मैं
मैं रहना चाहता हूँ
आप
आप रहना चाहते हैं
यही तो समस्या है
जब तक
"मैं" आप नहीं
बनूंगा
आप "मैं" नहीं
बनेंगे
दिल कभी ना मिलेंगे
समस्या
समस्या ही रहेगी

वक़्त इतना

बेरहम क्यूं हो गया
क्यूं ठहर गया
खुदा जाने
दुआ भी करता हूँ ,
इबादत भी करता हूँ
फिर क्यों नहीं सुनता
खुदा जाने
कब तक करेगा हैरान
मर मर कर जिलाएगा
खुदा जाने
कब तक रुलाएगा
कब चेहरे पर मुस्कान
लाएगा
खुदा जाने
निरंतर सब्र रख रहा हूँ
सब्र का सिला देगा या नहीं
खुदा जाने
कब तक इम्तहान लेगा
यकीं उस पर बरकरार रखेगा
खुदा जाने
कब तक मेरी नियत ना
समझेगा
मुझे ना पहचानेगा
पहचानेगा ज़रूर एक दिन
कब पहचानेगा ये भी
खुदा जाने


कभी हम खुद को ही बहला लिया करते

कभी हम खुद को ही
बहला लिया करते
शीशे में
अपना अक्स देख कर
खूब मुस्कराया करते
अपने
खूबसूरत चेहरे पर
इतराया करते
जो खुले आम नहीं
कह पाते
निरंतर अकेले में
कह लिया करते
खुद की नादानियों पर
खुद को
डांट दिया करते
चाहने वालों को
ख़्वाबों में देख लिया
करते
दिल के अरमान
ख़त में लिख कर
खुद ही पढ़ लिया करते
कभी हम खुद को ही
बहला लिया करते

गर तूँ बेदिल होता

निरंतर
तेरा ये हाल
ना होता
गर तूँ बेदिल होता
तेरा दिल किसी को
देख कर ना धड़कता
ना किसी पर जाँ
निसार करता
ना बेकरार रहता
ना यादों में खोता
ना रातों को जागता
ना दिल से दिल
लगाता
ना बार बार टूटता
बिना मोहब्बत करे
जीता रहता
ज़िन्दगी का मकसद
भूल जाता
खुशकिस्मत समझ
खुद को
तूँ मोहब्बत की कीमत
समझता

मेरी कुंठा

मेरी कुंठा
बदहजमी करती
उल्टी सी
बाहर निकलने को
मचलती रहती
तड़पती रहती
कलम के जरिये
कह सुन कर
प्रेम से,क्रोध से
सोचे,बिना सोचे
मेरी भी कोशिश
निरंतर चलती रहती
पर क्या करूँ ?
बामुश्किल
एक निकलती
दूसरी घर बनाती
ख़त्म होने का नाम
ना लेती
मेरे व्यक्तित्व को
तार तार करती
मुझे उलझाए
रखती
डा.राजेंद्र तेला,"निरंतर"
"GULMOHAR"
H-1,Sagar Vihar
Vaishali Nagar,AJMER-305004
Mobile:09352007181

गुरुवार, 3 नवंबर 2011

मन सिर्फ मिलने से नहीं मिलते


मन सिर्फ मिलने से नहीं मिलते

उनसे बात करता हूँ

तो पता नहीं क्यों

अपने राज़ खोलने

लगता हूँ

वो भी ध्यान से

सुनते है

फिर धीरे से कहते है

सब्र रखो

सब ठीक होगा

मुझे लगता है

कभी मिले नहीं

फिर भी

वो मुझे समझते हैं

मन सिर्फ मिलने से

नहीं मिलते

निरंतर इस सत्य पर

विश्वास बढाते हैं




मैं फिर सोच में डूब गया........

अलसाया सा

मूढे पर बैठा था

सोच में डूबा था

चिड़िया की चहचाहट

ने ध्यान भंग किया

नज़रें उठायी

देखा तो रोशनदान पर

चिड़िया तन्मयता से

घोंसला बना रही थी

उसके सीधेपन पर

ह्रदय में दुःख होने लगा

लोगों ने निरंतर

बड़े पेड़ों

उनपर लगने वाले

घोंसलों को नहीं छोड़ा

अनगिनत पक्षियों को

बेघर किया

रोशनदान में लगे घोंसले

को कौन छोड़ेगा?

एक दिन इसे भी बेघर

होना पडेगा

अस्तित्व के लिए

लड़ना पडेगा

मैं फिर सोच में

डूब गया........


डा.राजेंद्र तेला,"निरंतर"
"GULMOHAR"
H-1,Sagar Vihar
Vaishali Nagar,AJMER-305004
Mobile:09352007181