गुरुवार, 14 जुलाई 2011

आप हंसेंगे तो नहीं न ?

घटना पुरानी है। एक बार एक इन्सपैक्टर ऑफ स्कूल एक कस्बे में अचानक ही किसी स्कूल का निरीक्षण करने पहुंच गए। वे स्कूल के एक क्लास रूम में गए। वहां पढ़ा रहे मास्Óसाब से उन्होंने पूछा कि आप इस समय बच्चों को क्या पढ़ा रहे हैं? मास्टर साहब ने बताया कि इनको रामायण का ज्ञान कराया है, आज ही समाप्त हुई है। इस बात को सुन कर इन्सपैक्टर साहब बहुत खुश हुए कि चलो कहीं तो देश की संस्कृति की शिक्षा दी जा रही है और उन्होंने विद्यार्थियों की परीक्षा लेने की गरज से एक लड़के से पूछा कि बताओ बेटे! जनक का धनुष किसने तोड़ा? अचानक पूछे गए प्रश्न से लड़का घबरा गया और चुपचाप खड़ा रहा, इस पर इन्सपैक्टर साहब ने उससे पुन: पूछा कि बताओ, धनुष किसने तोड़ा? इस बात पर लडका डर गया और मार पडऩे की भावी आशंका से बचने हेतु उसने अपना सिर दोनों हाथों में छिपा लिया (उस समय अधिकतर बच्चे ऐसे ही किया करते थे) और लगभग मिमियाते हुए उत्तर दिया कि धनुष मैंने तो नहीं तोड़ा, आप चाहे तो किसी को भी पूछ लें। मैं तो जनक को जानता तक नहीं हंू। इस पर इन्सपैक्टर साहब को गुस्सा आ गया और उन्होंने उसी अंदाज में मास्Óसाब की तरफ देखा तो मास्Óसाब ने बड़ी मासूमियत से जवाब दिया कि सर! मेरे ख्याल से भी धनुष इसने नहीं तोड़ा होगा, यह तो क्लास का सबसे शरीफ लड़का है। यह सुन कर तो इन्सपैक्टर साहब का पारा सातवें आसमान पर पहुंच गया और वह मास्Óसाब और लड़के को लेकर हैडमास्टर के कमरे में पहुंच गए और गुस्से में ही सारी घटना उन्हें बताई। हैडमास्टर साहब धर्म-कर्म को मानने वाले शख्स थे। तिलक छापा लगा कर स्कूल आते थे। यह सुन कर उन्होंने लड़के को डांटते हुए कहा कि सच-सच बता कि धनुष किसने तोड़ा? लड़का अपनी बात पर अड़ा रहा एवं भगवान की सौगंध खाकर बोला कि धनुष मैंने नहीं तोड़ा। इस पर हैडमास्टर ने मास्Óसाब से कहा कि इससे गीता पर हाथ रखवा कर कहलवाओ कि धनुष मैंने नहीं तोड़ा? तब मास्टर साहब ने बताया कि सर! गीता तो आज छुटटी पर है। वह स्कूल नहीं आई है। आप कहें तो किसी और लड़की को बुलवा लूं ? इस पर हैडमास्टर साहब अपना सिर खुजलाने लगे और उधर इन्सपैक्टर साहब को काटो तो खून नहीं। उन्होंने हैडमास्टर साहब से कहा कि यह क्या हो रहा है? हैडमास्टर साहब बोले कि आजकल लड़के बहुत झूठ बोलने लगे हैं। नैतिकता का स्तर दिनोंदिन गिरता जा रहा है। मां-बाप के पास बच्चों को नैतिक शिक्षा देने का समय ही नहीं है। फिर कुछ देर ठहर कर वह बोले 'धनुष तो अब टूट ही गया, जो हुआ सो हुआ, ऐसा करते है कि इम्प्रैस्ट, सरकारी खर्च, से उसे ठीक करवा लेते हैं, बात आई-गई हो जायेगी।Ó
यह सब देख सुन कर इन्सपैक्टर साहब तो भुनभुनाते हुए चले गए, लेकिन हैड मास्टर साहब को चैन कहां? उनको कुछ कुछ याद आया कि एक धनुष का जिक्र रामायण में भी आया था। इस धनुष ने बड़े-बड़े बखेड़े खड़े किए हैं, जाने कब इससे पिन्ड छूटेगा? आज की घटना से हैडमास्टर साहब की चिन्ता बढती जा रही थी। उन्होंने जिला शिक्षा अधिकारी को फोन पर बता दिया कि सर! ऐसी ऐसी बात हुई है और न तो क्लास के विद्यार्थी और न ही अध्यापक यह बता पाये कि धनुष किसने तोड़ा। इस पर जिला शिक्षा अधिकारी ने जिलाधीश को सूचित कर दिया कि कोई धनुष टूटा है, लेकिन तोडऩे वाले का कुछ पता नहीं पड़ा है, जिन्होंने तत्काल ही जिले में रैड अलर्ट घोषित कर दिया एवं समस्त शिक्षण संस्थाओं में सुरक्षा व्यवस्था के लिए पुलिस का पहरा बैठा दिया गया। साथ ही इधर उन्होंने शिक्षा अधिकारी से इस बाबत विस्तृत रिपोर्ट मांग ली, उधर शिक्षा सचिव को भी सचिवालय में सूचित कर दिया। उधर सचिवालय में शिक्षा सचिव एक फाइल पर 'मोस्ट अर्जन्टÓ का फ्लैग लगा कर मंत्रीजी के पास पहुंचे और उन्हें किसी धनुष टूटने की खबर बताई। उन्होंने भी तत्काल पहले सीएस को एवं फिर सीएम को मोबाइल पर सूचित कर दिया, जो कि उस समय दिल्ली में बड़ी हुकुम के बंगले पर थे। सीएम ने मंत्रीजी को आदेश दिया कि आप तत्काल 'डिजास्टर मैनेजमेन्टÓ की बैठक बुला कर चर्चा शुरू कर दे। कहीं यह आइएसआई अथवा लश्करे तैयबा का कारनामा न हो? उधर प्रिन्ट एवं इलैक्ट्रॉनिक मीडिया को भी कहीं से खबर लग गई। वह भी सक्रिय होकर सनसनी फैलाने लगे। पूरे सचिवालय विशेष कर गृह मंत्रालय में गहरी चिंता व्याप्त हो गई। वहां कागजी घोड़े, फाइलें, दौडऩे लगे। उसी समय एक फाइल पर गृह मंत्रालय से आई यह टिप्पणी उल्लेखनीय थी कि 'धनुष के टूटे हुए अवशेषों का भी पता लगाया जाए, जिससे यह पता लग सके कि वह कहां का बना हुआ था और उसे बनाने में किस-किस चीज का इस्तेमाल हुआ था। विधि मंत्रालय की यह टिप्पणी भी गौरतलब थी कि त्रेता युग की ऐसी ही घटना का केस उसी समय किसी कचहरी में अवश्य ही दायर हुआ होगा और अब वह कलियुग में तो सुनवाई के लिए लग ही गया होगा। उसका भी पता किया जाए ताकि उसमें 'केविटÓ, अग्रिम अर्जी लगाई जा सके। वैसे भी कलियुग का क्या भरोसा, जाने कब प्रलय हो जाए, क्योंकि वैसे भी कतिपय ज्योतिषी एवं टीवी चैनल सनसनी फैलाते हुए समय-समय पर प्रलय होने की घोषणा करते रहते हैं। ऐसे में पता नहीं उस केस का क्या हश्र हो।
उधर जब स्कूल की छुटटी हो गई तो बच्चे अपने-अपने घर चले गए। जिस विद्यार्थी से सवाल पूछा गया था उसने घर आ कर डरते-डरते यह बात अपने माता-पिता को बताई। इस पर बच्चे के पिताजी ने गुस्से में आकर अपनी पत्नी से कहा कि देखा तुमने, आजकल के मास्टर बच्चों को क्या पढ़ा रहे हैं? उन्हें इतना भी नहीं मालुम कि जनक का धनुष किसने तोड़ा, लाओ महाभारत, मैं अभी उसमें से देख कर बताता हूं और लड़के की मम्मी यह बड़बड़ाते हुए घर में महाभारत ढूंढने चल दी कि जाने किस टांड पर रखी हुई है?
यह व्यंग्य लेख सेवानिवृत्त इंजीनियर श्री शिवशंकर गोयल ने भेजा है। उनका संपर्क सूत्र है -फ्लेट नं. 1201, आई आई टी इंजीनियर्स सोसायटी, प्लाट नं. 12, सैक्टर न.10, द्वारका, दिल्ली- 75, मोबाइल नंबर: 9873706333

शनिवार, 9 जुलाई 2011

आडवाणी जी ने किया लोकपाल विधेयक के इतिहास का खुलासा


पिछले कुछ दिनों से लोकपाल विधेयक को बड़ा हल्ला मचा हुआ है। अन्ना हजारे के अनशन के बाद केन्द्र सरकार हालांकि उनकी टीम के साथ प्रभावी लोकपाल विधेयक बनाने को राजी हुई और उस पर बहस भी हुई, मगर सहमति नहीं हुई। विशेष रूप से प्रधानमंत्री, सुप्रीम कोर्ट व सांसदों के मुद्दे पर मतांतर बना हुआ है। ऐसे में अन्ना हजारे ने सभी राजनीतिक दलों से अलग-अलग चर्चा की है। सरकार कह रही है कि वह विधेयक संसद में पेश कर देगी, वहीं पर फैसला होगा। उधर अन्ना हजारे अपनी टीम की ओर से तैयार ड्राफ्ट को ही लागू करवाने के लिए अड़े हुए हैं और आगामी 16 अगस्त से फिर अनशन की चेतावनी दे चुके हैं।
असल में लोकपाल विधेयक का इतिहास काफी पुराना है। कितनी ही बार इस पर चर्चा हो चुकी है, मगर हर बार किसी न किसी वजह से बाधाएं आती रहीं। यह पहला मौका है कि इस पर पूरे देश को जगाने की कोशिश हुई है। आमजन की भी इसमें रुचि जागृत हुई है और वे इसके बारे में जानना चाहते हैं।
भाजपा के वरिष्ठ नेता व पूर्व उप प्रधानमंत्री श्री लाल कृष्ण आडवाणी लोकपाल विधेयक के इतिहास के काफी करीबी गवाह हैं। उन्होंने हाल ही अपने ब्लॉग पर इसका खुलासा किया है। उन्होंने लिखा है कि भारतीय संसद के इतिहास में यही ऐसा विधेयक है, जिसका इतिहास सर्वाधिक इतना उतार-चढ़ाव वाला रहा है।
वे लिखते हैं कि लोकपाल शब्द मूलत: स्वीडन के अम्बुड्समैन का भारतीय संस्करण है, जिसका अर्थ होता है कि जिससे शिकायत की जा सकती हो। अर्थात अम्बुड्समैन वह अधिकारी है, जिसकी नियुक्ति प्रशासन के विरुद्ध शिकायतों की जांच करने हेतु की जाती है।
लोकपाल विधेयक के इतिहास पर प्रकाश डालते हुए आडवाणी जी बताते हैं कि सन् 1966 में तत्कालीन राष्ट्रपति डा. राधाकृष्णन ने प्रशासनिक सुधार आयोग गठित किया था, जिसके अध्यक्ष मोरारजी भाई देसाई थे। इसी आयोग ने लोकपाल गठित करने हेतु कानून बनाने का सुझाव दिया था। उन्हीं के सुझाव पर पहली बार 43 साल पहले चौथी लोकसभा में इस किस्म के विधेयक को पेश किया गया था। तब इसे लोकपाल और लोकायुक्त विधेयक, 1968 के रूप में वर्णित किया गया था। तब से लेकर आज की पंद्रहवीं लोकसभा तक इसका इतिहास काफी उतार-चढ़ाव भरा रहा है, जिसके कि आडवाणी जी गवाह हैं।
आडवाणी जी बताते हैं पहली बार विधेयक को दोनों सदनों की संयुक्त समिति को भेजा गया और समिति की रिपोर्ट के आधार पर विधेयक को लोकसभा ने पारित किया, लेकिन जब विधेयक राज्यसभा में लम्बित था, तभी लोकसभा भंग हो गई और इसलिए विधेयक रद्द हो गया।
पांचवीं लोकसभा में श्रीमती इंदिरा गांधी ने एक बार फिर इस इस विधेयक को प्रस्तुत किया। 6 वर्षों की लम्बी अवधि में यह विचार किये जाने वाले विधेयकों की श्रेणी में पड़ा रहा। सन् 1977 में लोकसभा भंग हो गई और विधेयक भी रद्द हो गया।
इसके बाद सन् 1977 में मोरारजी भाई देसाई की सरकार में यह विधेयक लोकपाल विधेयक, 1977 के रूप में प्रस्तुत किया गया। विधेयक को संयुक्त समिति को भेजा गया जिसने जुलाई, 1978 में अपनी रिपोर्ट सौंप दी। जब विधेयक को लोकसभा में विचारार्थ लाना था, तब लोकसभा स्थगित हो गई और बाद में भंग। और इस प्रकार यह विधेयक भी समाप्त हो गया।
सन् 1980 में गठित सातवीं लोकसभा में ऐसा कोई विधेयक पेश नहीं किया गया। सन् 1985 में, जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे, तब लोकपाल विधेयक नए सिरे से प्रस्तुत किया गया । इसे फिर संयुक्त समिति को सौंप दिया गया। उस समय श्री आडवाणी जी राज्यसभा में विपक्ष के नेता थे। उन्होंने शुरू में ही बता दिया कि दो संयुक्त समितियां पहले ही गहराई से इस विधेयक का परीक्षण कर चुकी हैं। इस व्यापक काम को फिर से करने की आवश्यकता नहीं है, लेकिन समिति ने अपने हिसाब से इसे नहीं माना। तीन वर्षों तक समिति ने शिमला से त्रिवेन्द्रम और पंजिम से पोर्ट ब्लयेर तक पूरे देश का दौरा किया। वास्तव में समिति ने 23 विभिन्न राज्यों तथा केन्द्र शासित प्रदेशों का दौरा किया। समिति का कार्यकाल कम से कम आठ बार बढ़ाया गया और इसकी समाप्ति 15 नवम्बर, 1988 को तत्कालीन गृहराज्य मंत्री चिदम्बरम ने समिति को सूचित किया कि सरकार ने इस विधेयक को वापस लेने का निर्णय किया है। संयुक्त समिति में विपक्ष के सभी सदस्यों पी. उपेन्द्र, अलादी अरुणा, के. पी. उन्नीकृष्णन, जयपाल रेड्डी, सी. माधव रेड्डी, जेनइल आबेदीन, इन्द्रजीत गुप्त, वीरेन्द्र वर्मा और आडवाणी जी के हस्ताक्षरों से युक्त एक असहमति नोट संयुक्त रूप से प्रस्तुत किया गया। उसमें दर्ज किया गय कि आज तक लोकपाल विधेयक के अनेक प्रारूप प्रस्तुत किए जा चुके हैं। 1985 वाला विधेयक विषयवस्तु में नीरस और दायरे में सर्वाधिक सीमितता से भरा है। अत: जब सरकार ने इसे दोनों सदनों की संयुक्त समिति को भेजने का निर्णय लिया तो आडवाणी जी सहित सभी आशान्वित हुए कि सरकार इस विधेयक की अनेक कमजोरियों को सुधारने के लिए खुले रूप से तैयार है।
आडवाणी जी सहित सभी ने बहुमत के इस विचार कि विधेयक को वापस ले लिया जाए से कड़ी असहमति व्यक्त करते हुए कहा कि संयुक्त समिति की तीन वर्षों की लम्बी मेहनत व्यर्थ में खर्चीली कार्रवाई सिध्द होगी। अहसति पत्र में लिखा गया कि शुरुआत से ही सभी इस विचार के थे कि जो विधेयक प्रस्तुत किया गया है, वह अपर्याप्त है। सरकार इससे सहमत नहीं थी और उसके बाद उसने आगे बढऩे का फैसला किया। और अब, तीन वर्षों के बाद, शायद यह इस निष्कर्ष पर पहुंची है कि यह न केवल अपर्याप्त है, अपितु यह इतना खराब भी है कि इसे सुधारा भी नहीं जा सकता। विधेयक की वर्तमान विसंगतियों के बावजूद लोकपाल से, मंत्रियों की ईमानदारी की जांच करने वाले के रूप में आशा की जाती है। पिछले दो वर्षों में उच्च पदों पर भ्रष्टाचार सार्वजनिक बहसों का जोशीला मुद्दा बन चुका है। राज्यों में लोकायुक्त के क्षेत्राधिकार के कामकाज का अध्ययन करके पता चला कि अनेक राज्यों के मुख्यमंत्री लोकायुक्त के क्षेत्राधिकार में आते हैं, अत: आडवाणी जी का यह दृढ़ मत है कि प्रधानमंत्री का पद भी लोकपाल के क्षेत्राधिकार में लाया जाना चाहिए। यह अत्यन्त ही दुख का विषय है कि इस मुद्दे पर लोगों की चिंताओं और हमारी मांग के औचित्य की सराहना करने के बजाय सरकार का रुख इस विधेयक को ही तारपीडो करना तथा इसे वापस लेने की ओर बढऩे वाला है। अत: संयुक्त समिति को जनता की नजरों में गिराना है। उच्च पदों पर बैठे लोगों के विरुद्ध भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों के चलते सरकार की घबराहट को दर्शाता है तथा एक ऐसी संस्था का गठन करने से कतराने को भी, जो उसके लिए चिंता का कारण बन सकती है। सरकार द्वारा अपने कुकर्मों पर पर्दा डालने के लिए के भौंडे सरकारी प्रयासों का हम समर्थन नहीं कर सकते। इसलिए यह असहमति वाला नोट प्रस्तुत है।
आडवाणी जी आगे बताते हैं कि सन् 1989 में राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस चुनाव हार गई। श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह भाजपा और वामपंथी दलों के बाहरी समर्थन से बनी गठबंधन सरकार के प्रधानमंत्री बने। सन् 1989 में इस सरकार द्वारा प्रस्तुत लोकपाल विधेयक में स्वाभाविक रूप से 1988 के संयुक्त असहमति नोट में दर्ज गैर-कांग्रेसी विचारों की अभिव्यक्ति देखने को मिली और प्रधानमंत्री को भी इसके दायरे में लाया गया। तत्पश्चात अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए सरकार द्वारा प्रस्तुत लोकपाल विधेयकों में भी प्रधानमंत्री को इसके दायरे में रखा गया। आडवाणी जी बताते हैं कि उन्हें अच्छी तरह से याद है कि प्रधानमंत्री के रूप में श्री अटल बिहारी वाजपेयी इस पर अडिग थे कि प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे के बाहर नहीं छोड़ा जाना चाहिए।
आडवाणी जी ने एक तालिका भी दी है, जिसमें दर्शाया गया है कि सन् 1968 से प्रस्तुत सम्बन्धित विधेयकों में से किन-किन में प्रधानमंत्री को इसके दायरे में रखा गया और किन-किन से बाहर
लोकपाल और लोकायुक्त विधेयक, 1968 नहीं
लोकपाल और लोकायुक्त विधेयक, 1974 नहीं
लोकपाल विधेयक 1977 नहीं
लोकपाल विधेयक 1985 नहीं
लोकपाल विधेयक 1989 हां
लोकपाल विधेयक 1996 हां
लोकपाल विधेयक 1998 हां
लोकपाल विधेयक 2001 हां
टेलपीस (पश्च लेख)
इस तालिका के बाद आडवाणी जी लिखते हैं कि वे चालीस साल से संसद में हैं और सरकार द्वारा बुलाई गई अनगिनत सर्वदलीय बैठकों में भाग ले चुके हैं। गत 3 जुलाई की शाम को प्रधानमंत्री द्वारा आहत बैठक न केवल अनोखी सिध्द हुई और ऐसी भी जो अतीत में कभी देखने को नहीं मिली। कभी भी ऐसा नहीं हुआ कि सर्वदलीय बैठक सरकार की आलोचना करने पर सर्वसम्मत हुई है, जैसी कि पिछले सोमवार को हुआ। लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने विचार-विमर्श की शुरुआत की। उनका भाषण खरा और दमदार था। देश एक मजबूत और प्रभावी लोकपाल चाहता है, लेकिन इस मुद्दे पर सरकार का जो रुख रहा और संसद को एक किनारे कर दिया गया, उसके बचाव में कुछ नहीं कहा जा सकता। प्रचलित संसदीय प्रक्रिया को दरकिनार कर इसने मामले को उलझा दिया और अपने आपको हंसी का पात्र बना दिया। यह सर्वदलीय बैठक इस मुसीबत में से निकलने का प्रयास दिखती थी। बैठक में बोलने वाले सभी सांसदों ने भाजपा नेत्री की बात का समर्थन किया। बैठक में अंतिम वक्ता थे राज्य सभा में विपक्ष के नेता अरूण जेटली। उन्होंने कहा सरकार ने यहां पर विधेयक के दो प्रारूप हमें दिए हैं-एक टीम हजारे द्वारा तैयार और दूसरा पांच मंत्रियों द्वारा तैयार। उन्होंने इस पर जोर दिया कि मंत्रियों वाले प्रारूप ने लोकपाल को एक दब्बू सरकारी व्यक्ति बना दिया। जब सरकार ने संसद में लोकपाल विधेयक प्रस्तुत करे तो वर्तमान प्रारूप् को आमूल चूल बदल देना चाहिए।


-कंवल
प्रकाश किशनानी,
जिला प्
रचार मंत्री, शहर जिला भाजपा अजमेर
निवास-599/9, राजेन्द्रपुरा, हाथीभाटा, अजमेर
फोन-0145-2627999, मोबाइल-98290-70059 फैक्स- 0145-2622590

गुरुवार, 7 जुलाई 2011

भारत को एक रखने के लिए बलिदान हुए मुखर्जी

भारतीय जनसंघ के संस्थापक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने भारत को पूरी तरह एक बनाए रखने के लिए बलिदान दिया था। जम्मू कश्मीर को भी शेष भारत के समान दर्जा दिए जाने के प्रबल पक्षधर डॉ. मुखर्जी पंडित जवाहर लाल नेहरू के मंत्रिमंडल के सदस्य थे। कश्मीर के मामले में नेहरू जी के साथ उनके गंभीर मतभेद थे, जिनकी परिणति पहले उनके इस्तीफे में और फिर 1951 में भारतीय जनसंघ की स्थापना में हुई। जम्मू-कश्मीर में परमिट प्रणाली का विरोध करते हुए वे बिना अनुमति वहां गये और वहीं उनका प्राणान्त हुआ।
डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के पिता श्री आशुतोष मुखर्जी कलकत्ता विश्वविद्यालय के संस्थापक उपकुलपति थे। उनके देहांत के बाद केवल 23 वर्ष की अवस्था में श्यामाप्रसाद जी को वि.वि. की प्रबन्ध समिति में ले लिया गया। 33 वर्ष की छोटी अवस्था में ही वे कलकत्ता वि.वि. के उपकुलपति बने।
डॉ. मुखर्जी ने जम्मू-कश्मीर के भारत में पूर्ण विलय के लिए बलिदान दिया। परमिट प्रणाली का विरोध करते हुए वे बिना अनुमति वहां गये और वहीं उनका प्राणान्त हुआ।
कश्मीर सत्याग्रह क्यों?
भारत स्वतन्त्र होते समय अंग्रेजों ने सभी देशी रियासतों को भारत या पाकिस्तान में विलय अथवा स्वतन्त्र रहने की छूट दी। इस प्रक्रिया की देखभाल गृहमंत्री सरदार पटेल कर रहे थे। भारत की प्राय: सब रियासतें स्वेच्छा से भारत में मिल गयीं। शेष हैदराबाद को पुलिस कार्यवाही से तथा जूनागढ़, भोपाल और टोंक को जनदबाव से काबू कर लिया; पर जम्मू-कश्मीर के मामले में पटेल कुछ नहीं कर पाये क्योंकि नेहरू जी ने इसे अपने हाथ में रखा।
मूलत: कश्मीर के निवासी होने के कारण नेहरू जी वहां सख्ती करना नहीं चाहते थे। उनके मित्र शेख स्वतंत्र जम्मू-कश्मीर के प्रधान बनना चाहते थे, दूसरी ओर वह पाकिस्तान से भी बात कर रहे थे। इसी बीच पाकिस्तान ने कबाइलियों के वेश में हमला कर घाटी का 2/5 भाग कब्जा लिया। यह आज भी उनके कब्जे में है और इसे वे 'आजाद कश्मीरÓ कहते हैं।
नेहरू की ऐतिहासिक भूल
जब भारतीय सेनाओं ने कबायलियों को खदेडऩा शुरू किया, तो नेहरू जी ने ऐतिहासिक भूल कर दी। वे 'कब्जा सच्चा, दावा झूठाÓ वाले सामान्य सिद्धांत को भूलकर जनमत संग्रह की बात कहते हुए मामले को संयुक्त राष्ट्र संघ में ले गये। सं.रा. संघ ने सैनिक कार्यवाही रुकवा दी। नेहरू ने राजा हरिसिंह को विस्थापित होने और शेख अब्दुल्ला को अपनी सारी शक्तियां सौंपने पर भी मजबूर किया।
शेख ने शेष भारत से स्वयं को पृथक मानते हुए वहां आने वालों के लिए अनुमति पत्र लेना अनिवार्य कर दिया। इसी प्रकार अनुच्छेद 370 के माध्यम से उन्होंने राज्य के लिए विशेष शक्तियां प्राप्त कर लीं। अत: आज भी वहां जम्मू-कश्मीर का हल वाला झंडा फहरा कर कौमी तराना गाया जाता है।
जम्मू-कश्मीर के राष्ट्रवादियों ने 'प्रजा परिषदÓ के बैनर तले रियासत के भारत में पूर्ण विलय के लिए आंदोलन किया। वे कहते थे कि विदेशियों के लिए परमिट रहें; पर भारतीयों के लिए नहीं। शेख और नेहरू ने इस आंदोलन का लाठी-गोली के बल पर दमन किया; पर इसकी गरमी पूरे देश में फैलने लगी। 'एक देश में दो विधान, दो प्रधान, दो निशान- नहीं चलेंगेÓ के नारे गांव-गांव में गूंजने लगे। भारतीय जनसंघ ने इस आंदोलन को समर्थन दिया। डॉ. मुखर्जी ने अध्यक्ष होने के नाते स्वयं इस आंदोलन में भाग लेकर बिना अनुमति पत्र जम्मू-कश्मीर में जाने का निश्चय किया।
जनसंघ के प्रयास
इससे पूर्व जनसंघ के छह सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल को कश्मीर जाकर परिस्थिति का अध्ययन भी नहीं करने दिया गया। वस्तुत: शेख ने डॉ. मुखर्जी सहित जनसंघ के प्रमुख नेताओं की सूची सीमावर्ती जिलाधिकारियों को पहले से दे रखी थी, जिन्हें वह किसी भी कीमत पर वहां नहीं आने देना चाहते थे। यद्यपि अकाली, सोशलिस्ट तथा कांग्रेसियों को वहां जाने दिया गया। कम्युनिस्टों ने तो उन दिनों वहां अपना अधिवेशन भी किया। स्पष्ट है कि नेहरू और शेख को जनसंघ से ही खास तकलीफ थी।
कश्मीर की ओर प्रस्थान
डॉ. मुखर्जी ने जाने से पूर्व रक्षा मंत्री से पत्र द्वारा परमिट के औचित्य के बारे में पूछा; पर उन्हें कोई उत्तर नहीं मिला। इस पर उन्होंने बिना परमिट वहां जाने की घोषणा समाचार पत्रों में छपवाई और 8-5-1953 को दिल्ली से रेल द्वारा पंजाब के लिए चल दिये। दिल्ली स्टेशन पर हजारों लोगों ने उन्हें विदा किया। रास्ते में हर स्टेशन पर स्वागत और कुछ मिनट भाषण का क्रम चला।
इस यात्रा में डॉ. मुखर्जी ने पत्रकार वार्ताओं, कार्यकर्ता बैठकों तथा जनसभाओं में शेख और नेहरू की कश्मीर-नीति की जमकर बखिया उधेड़ी। अम्बाला से उन्होंने शेख को तार दिया, ''मैं बिना परमिट जम्मू आ रहा हूं। मेरा उद्देश्य वहां की परिस्थिति जानकर आंदोलन को शांत करने के उपायों पर विचार करना है।ÓÓ इसकी एक प्रति उन्होंने नेहरू को भी भेजी। फगवाड़ा में उन्हें शेख की ओर से उत्तर मिला कि आपके आने से कोई कार्य सिद्ध नहीं होगा।
गिरफ्तारी
अब डॉ. मुखर्जी ने अपने साथ गिरफ्तारी के लिए तैयार साथियों को ही रखा। 11 मई को पठानकोट में डिप्टी कमिश्नर ने बताया कि उन्हें बिना परमिट जम्मू जाने की अनुमति दे दी गयी है। वे सब जीप से सायं 4.30 पर रावी नदी के इस पार स्थित माधोपुर पोस्ट पहुंचे। उन्होंने जीप के लिए परमिट मांगा। डिप्टी कमिश्नर ने उन्हें रावी के उस पार स्थित लखनपुर पोस्ट तक आने और वहीं जीप को परमिट देने की बात कही।
सब लोग चल दिये; पर पुल के बीच में ही पुलिस ने उन्हें बिना अनुमति आने तथा अशांति भंग होने की आशंका का आरोप लगाकर पब्लिक सेफ्टी एक्ट की धारा तीन ए के अन्तर्गत पकड़ लिया। उनके साथ वैद्य गुरुदत्त, पं0 प्रेमनाथ डोगरा तथा श्री टेकचन्द शर्मा ने गिरतारी दी, शेष चार को डॉ. साहब ने लौटा दिया।
डॉ. मुखर्जी ने बहुत थके होने के कारण सवेरे चलने का आग्रह किया; पर पुलिस नहीं मानी। रात में दो बजे वे बटोत पहुंचे। वहां से सुबह चलकर दोपहर तीन बजे श्रीनगर केन्द्रीय कारागार में पहुंच सके। फिर उन्हें निशातबाग के पास एक घर में रखा गया। शाम को जिलाधिकारी के साथ आये डॉ. अली मोहम्मद ने उनके स्वास्थ्य की जांच की। वहां समाचार पत्र, डाक, भ्रमण आदि की ठीक व्यवस्था नहीं थी।
वहां शासन-प्रशासन के अधिकारी प्राय: आते रहते थे; पर उनके सम्बन्धियों को मिलने नहीं दिया गया। डॉ. साहब के पुत्र को तो कश्मीर में ही नहीं आने दिया गया। अधिकारी ने स्पष्ट कहा कि यदि आप घूमने जाना चाहते हैं, तो दो मिनट में परमिट बन सकता है; पर अपने पिताजी से मिलने के लिए परमिट नहीं बनेगा। सर्वोच्च न्यायालय के वकील उमाशंकर त्रिवेदी को 'बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिकाÓ प्रस्तुत करने के लिए भी डॉ. मुखर्जी से भेंट की अनुमति नहीं मिली। फिर उच्च न्यायालय के हस्तक्षेप पर यह संभव हो पाया।
हत्या का षड्यन्त्र
19-20 जून की रात्रि में डॉ. मुखर्जी की पीठ में दर्द एवं बुखार हुआ। दोपहर में डॉ. अली मोहम्मद ने आकर उन्हें 'स्टैप्टोमाइसिनÓ इंजैक्शन तथा कोई दवा दी। डॉ. मुखर्जी ने कहा कि यह इंजैक्शन उन्हें अनुकूल नहीं है। अगले दिन वैद्य गुरुदत्त ने इंजैक्शन लगाने आये डॉ. अमरनाथ रैना से दवा के बारे में पूछा, तो उसने भी स्पष्ट उत्तर नहीं दिया।
इस दवा से पहले तो लाभ हुआ; पर फिर दर्द बढ़ गया। 22 जून की प्रात: उन्हें छाती और हृदय में तेज दर्द तथा सांस रुकती प्रतीत हुई। यह स्पष्टत: दिल के दौरे के लक्षण थे। साथियों के फोन करने पर डॉ. मोहम्मद आये और उन्हें अकेले नर्सिंग होम ले गये। शाम को डॉ. मुखर्जी के वकील श्री त्रिवेदी ने उनसे अस्पताल में जाकर भेंट की, तो वे काफी दुर्बलता महसूस कर रहे थे।
23 जून प्रात: 3.45 पर डॉ. मुखर्जी के तीनों साथियों को तुरंत अस्पताल चलने को कहा गया। वकील श्री त्रिवेदी भी उस समय वहां थे। पांच बजे उन्हें उस कमरे में ले जाया गया, जहां डॉ. मुखर्जी का शव रखा था। पूछताछ करने पर पता लगा कि रात में ग्यारह बजे तबियत बिगडऩे पर उन्हें एक इंजैक्शन दिया गया; पर कुछ अंतर नहीं पड़ा और ढाई बजे उनका देहांत हो गया।
अंतिम यात्रा
डॉ. मुखर्जी के शव को वायुसेना के विमान से दिल्ली ले जाने की योजना बनी; पर दिल्ली का वातावरण गरम देखकर शासन ने उन्हें अम्बाला तक ही ले जाने की अनुमति दी। जब विमान जालन्धर के ऊपर से उड़ रहा था, तो सूचना आयी कि उसे वहीं उतार लिया जाये; पर जालन्धर के हवाई अड्डे ने उतरने नहीं दिया। दो घंटे तक विमान आकाश में चक्कर लगाता रहा। जब वह नीचे उतरा तो वहां खड़े एक अन्य विमान से शव को सीधे कलकत्ता ले जाया गया। कलकत्ता में दमदम हवाई अड्डे पर हजारों लोग उपस्थित थे। रात्रि 9.30 पर हवाई अड्डे से चलकर लगभग दस मील दूर उनके घर तक पहुंचने में सुबह के पांच बज गये। इस दौरान लाखों लोगों ने अपने प्रिय नेता के अंतिम दर्शन किये। 24 जून को दिन में ग्यारह बजे शवयात्रा शुरू हुई, जो तीन बजे शवदाह गृह तक पहुंची।
इस घटनाक्रम को एक षड्यन्त्र इसलिए कहा जाता है क्योंकि डॉ. मुखर्जी तथा उनके साथी शिक्षित तथा अनुभवी लोग थे; पर उन्हें दवाओं के बारे में नहीं बताया गया। मना करने पर भी 'स्टैऊप्टोमाइसिनÓ का इंजैक्शन दिया गया। अस्पताल में उनके साथ किसी को रहने नहीं दिया गया। यह भी रहस्य है कि रात में ग्यारह बजे उन्हें कौन सा इंजैक्शन दिया गया?
उनकी मृत्यु जिन संदेहास्पद स्थितियों में हुई तथा बाद में उसकी जांच न करते हुए मामले पर लीपापोती की गयी, उससे कई सवाल खड़े होते हैं। यद्यपि इस मामले से जुड़े प्राय: सभी लोग दिवंगत हो चुके हैं, फिर भी निष्पक्ष जांच होने पर आज भी कुछ तथ्य सामने आ सकते हैं।
-कंवल प्र
काश किशनानी,
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