लौटे हुए बसंत से, खुशबू के आलेख,
मुस्कानों के थे पिता, एक सुघड़ अभिलेख।
मतलब के सबंध थे, रिश्तों की तहसील,
कांधों पर ढोते रहे, पिता नमक की झील।
सम्मुख छोटी रेख के, बड़ी रेख एक खींच,
पिता जीये अपनी तरह, संघर्षों के बीच।
उम्मीदों के फ्रेम में, सपनों की तस्वीर,
पिता नदी से सरल थे, पर्वत से गंभीर।
घर से मीलों दूर जब, मन में घुला विषाद,
पिता समय की धूप में, बरबस आये याद।
दुर्दिन थे घर में सही, हर विपदा की चोट,
आई नही ईमान में, कभी पिता के खोट।
जब-जब अपनों ने किये, पहन नकाब प्रहार,
पिता बहुत बेबस दिखे, बहुत दिखे लाचार।
समीकरण सी जिन्दगी, जीवन कठिन सवाल,
पिता रहें ये सर्वदा, मीठे जल का ताल।
आंखों भर सच्चाइयां, बांहों भर विश्वास,
करुणा की पूंजी रही, सदा पिता के पास।
आतप, दुख, कठिनाइयां, अनगिन मुश्किल क्लेश,
पिता यहां हर दौर में, हंसते रहे दिनेश।
-दिनेश शुक्ल
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