गुरुवार, 29 दिसंबर 2011

ग्लास चिल्ड्रन


टोकियों में जंमें, दाईसाकु इकेदा सोका गाक्काई के सम्मानीय अध्यक्ष और
सोका गाक्काई इन्टरनेषनल के अध्यक्ष हैं. बौद्ध धर्म के अगुआ, लेखक, कवि
और षिक्षाविद के रूप में एवं बौद्ध धर्म प्रेरित मानवतावाद को केन्द्र में रखकर
उन्होंने षांति, पर्यावरण और षिक्षा के क्षेत्रों में अनेक महत्वपूर्ण कदम उठाये हैं
और इन विषयों पर विष्वविद्यालयों में भाषण दिये हैं. साथ ही वे कई राष्ट्ीय
अंतर्राष्ट्ीय नेताओं और दुनियाके सांस्कृतिक अगुआओं और षिक्षाविदों से
संवादरत रहे हैं. सन 1983 में उन्हें ‘यूनाइटेड नेषन्स पीस अवार्ड’ से
सम्मानित किया गया हैहिन्दुस्तान
में अपनी कई यात्राओं के दौरान, श्री इकेदा ने श्री जयप्रकाष
नारायण, श्री राजीव गांधी और भूतपूर्व राष्ट्पति के, आर. नारायणन से विचारों
का आदान प्रदान किया है और तहे दिल से हमारी समूची पृथ्वी पर षांति और
संपन्नता स्थापित करने के लिए बातचीत की है. उन्हें दुनिया के कई
विष्वविद्यालयों ने सम्मानित ‘डाक्टरेट’ और ‘प्रोफेसरषिप’ से नवाजा है, जिसमें
दिल्ली विष्वविद्यालय द्वारा सम्मानी ‘डाक्टरेट ऑफ लैटर्स’ भी षामिल हैंइन्होंने
सौ से भी अधिक पुस्तकें लिखी हैं, जिनमे षामिल है, उपन्यास ‘दी
हयूमन रिवोल्यूषन’ और ‘चूज लाइफ’, प्रसिद्ध इतिहासकार ए.जे. टॉयन्बी से
संवाद, ‘अपनी दुनिया आप बदलिये’ इत्यादिप्रस्तुत
लेख उनकी पुस्तक ‘ग्लास चिल्डरन’ से अनुवादित है जिसमें कई
वर्षों पूर्व लिखे गये छोटे छोटे निबंध है जिनमें से कुछ ‘वर्ल्ड ट्ब्यिून प्रेस’ द्वारा
सन 1973 में प्रकाषित किये गए थेहमारे
देष की नवयुवक पीढी द्वारा आए दिन आत्महत्याओं का सहारा
लेना समसामयिक समस्या हैं. आपके माध्यम से इस समस्या एवं उसके
निराकरण हेतु प्रयास किया जाय तो उचित होगा. इसी प्रसंग में यह अनुवादित
लेख आपके विचारार्थ प्रस्तुत हैंनाजुक
बच्चें ं
लेखक: दाईसाकु इकेदा
हम सभी नव वर्ष का स्वागत हर्षोल्लास से करते हैे. हालांकि प्रत्येक
युवक-युवतियां, स्त्री-पुरूष एवं बच्चों-बूढों की खुषियां अलग अलग प्रकार की
होती है लेकिन सभी की भावनाओं में खुषियों का इजहार रहता हैं विषेषकर
छोटेंछोटें बच्चें इस अवसर पर स्वप्रेरणा से मंगलमय नववर्ष की कामना करते हैंकुछ
लोग इस त्योैहार का लुत्फ उठाने अपने परिवार के साथ विभिन्न
स्थानों का भ्रमण करते हेै तो कुछ घर मंे ही रहकर अपने परिवार के साथ
खुषियां मनाते हेैं. टीवी के विभिन्न चैनल भी इस अवसर पर अपने अपने
विषेष कार्यक्रम दिखाते हैं. ऐसेही एक मौके पर जब मैं अपने परिवार के साथ
खुषियां बांट रहा हंू तो मैं सोचता हंू कि कितना अच्छा हो कि इस मौके पर
हम एक दूसरे को कोई षिक्षाप्रद लोककथा-कहानी सुनाएं मसलन टॉलस्टाय की
‘मूर्ख ईर्ववान’ की कहानी को ही लें. अगर ऐसी ही मिलती जुलती कहानियां सर्वत्र
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कहीजाय तो जिस तरह के सामाजिक ताने-बाने में आज हम जी रहे है उससे
कही बेहतर वातावरण का निर्माण हमारे इर्द-गिर्द हो सकता हैं. मैं सोचता हूं कि
‘मूर्ख ईर्ववान’ एक ऐसी अमर कथा है जिसकी सर्वत्र आज भी उतनी ही
प्रासंगिकता है जितनी की पहले कभी थीहो
सकता है कि हममें से कई लोगों को यह कहानी पहले से ही ज्ञात होइसके
अनुसार एक देष में एक समृद्ध किसान परिवार में तीन लडकें थे. ईवान
उसमें सबसे छोटा था. उससे छोटी एक गूंगी बहन भी थी. सबसे बडा लडका
सैनिक था. उसकी षादी एक ऐष्वर्यषाली परिवार में हुई थी जो हर बात में
अपनी धाक रखना चाहता था. मंझलें पुत्रका ध्यान हरदम रू.पैसों की तरफ
रहता था. इसके विपरीत ईवान हरवक्त साधारण वेषभूषा में रहता हुआ अपनी
छोटी बहन का ध्यान रखताथा औेर चुपचाप अपनी खेतीबाडी में लगा रहता थासमय
गुजर रहा था लेकिन इस परिवार की खुषी चारजनों के एक
राक्षसदल को नागवार गुजरी. यह चारों हरदम इस युक्ति में लगे रहते थे कि
ईवान और उसके भाइयों में किसी तरह भी मनमुटाव हो औेर उनका परिवार
बर्बाद हो जाय. कहानी तो विस्तार में है लेकिन उसका सारंाष यह है कि ईवान
के दोनो बडे भाई तो राक्षसों की बातों में आ गए लेकिन ईवान पर उनकी बातों
का कोई असर नही हुआ फलस्वरूप जीत ईवान की ही हुई. हालांकि ईवान
दुनियादारी से अनभिज्ञ था लेकिन उसका हर काम सच्चाई एवं ईमानदारी से
प्रेरित होता था. कोई उसके साथ कितनाही दगा करें यह जान लेने पर भी वह
गुस्सा नही करता था उल्टे पलटकर उदारतापूर्वक उसे कहता ‘अरे भाई ! तुम्हें
ऐसा नही करना चाहिए था.’ ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे उसका जंम दूसरों के
प्रति क्षमाभावना प्रदर्षित करने के लिए ही हुआ था. इतनाही नही वह धैर्यवान
भी था और कैसी भी कठिन परिस्थितियां हो उससे वह डिगनेवाला नही था,
सचमुच में वह लोककथाओं का नायक था.
ऐसे ही मिलते जुलते चरित्रवान, जो कभी निराष ना हो, जापान की
कथा-कहानियों में भी मिलजायेंगे. हालांकि ईवान समाजके बनावटी एवं
आडम्बरपूर्ण सामाजिक जीवन के विरूद्ध संघर्ष करनेवाला नायक था लेकिन मेरा
मानना है कि ऐसे चरित्र आधुनिक समाज में कम ही देखने में आते हेैंजैसाकि
हम सबका मानना है कि षिक्षा सिर्फ ऐसी ही नही होनी चाहिए
कि वह बच्चों को एक डरपोक एवं सांचे में ढले हुए सिक्कें की तरह बनायें
बल्कि वह उनको सहिष्णुता, मिलनसारिता एवं आगे बढने की ललक इत्यादि गुणों
से भरपूर बनानेवाली हो. कहने का तात्पर्य यह है कि वह उनमें ईवान जेैसी
ईमानदारी एवं अपने कार्य के प्रति लगन सिखाएंमुझ
े यह देखकर बहुत दुख होता है कि आजकल नवयुवकों-युवतियांे द्वारा
आत्महत्याओं की संख्या बढती जा रही है. कुछ नवयुवक छोटी छोटी बातों से
परेषान होकर घर से भाग जाते है जबकि कइयों को हरदम तरह तरह की
मानसिक चिंताएं घेरे रहती है. लगता है जापान अपनी महत्वता और विष्वास
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खोता जा रहा हेैं. हमारे नवयुवक हमसे दूर होते जा रहे हैंे. इससे हमारे
जापानी सामाज के भविष्य पर भी असर हो रहा है. क्या जापान के वयस्क
लोगों की असफलताओं का असर हमारे नवयुवकों पर भी पड रहा हेै ?
आजकल के नवयुवकों की मुसीबतों के सामने जल्दी ही झुकने की प्रवृति को देख
देखकर मेरे हृदय में बहुत पीडा होती हेै. ऐसा लगता है मानो ये लोग कांच के
बने हुएुए है.ै इनमे दृढता नामकी कोई चीज नही है. ऐसा लगता है कि वे कभी
भी टूट जायेंगे. इसके लिए समाज पर दोषारोपण करना सहज है परन्तु ऐसा
करने से देष का भविष्य नही सुधर जायेगा बल्कि हमें यह देखना होगा कि
गलती कहां है ? औेर हमें इसे दुरस्त करना होगानवय
ुवकों को इतना कमजोर किसने बनाया है ? उन्हें ऐसा क्या
पढाया-लिखाया जा रहा हेै कि वे जीवन की वास्तविकताओं से पलायन कर रहे
है ? इन सब के क्या कारण है ? और कैसे हमें इन्हें सुधारना है ? समाजके
बडें बूडढों को इन सब प्रष्नों पर गम्भीरता से सोचना चाहिए अब केवल चिकनी
चुपडी या थोथी बातों से काम नही चलेगा बल्कि इन समस्याओं पर समुचित
ध्यान देना होगाइस
विषय में एक षिक्षाविद ने मुझे बताया कि आजकल के बच्चें अपनी
रोजमर्रा की जिन्दगी में काफी लापरवाह होते जा रहे है. कुछही बच्चें ऐसे है जो
छोटें छोटें औजार मसलन कैंची अथवा घरेलू चाकू का अच्छी तरह से इस्तैमाल
करना जानते है. बाजार में आधुनिक षार्पनर आजाने से उन्हें चाकूसे पेंसिल
छीलने की आवष्यकता ही नही पडती. इसी तरह उनको कांट छांटकर कोई वस्तु
बनाने के लिए कैंची की आवष्यकता नही होती क्योंकि आजकल बाजार में
प्लास्टिक के बने बनाये ऐसे टुकडें मिल जाते है जिन्हें जोडकर तरह तरह के
खिलौनें बनाये जा सकते हैे. कहने का तात्पर्य यह है कि आधुनिक सुख
सुविधाओं ने हमारे बच्चों को इन छोटे छोटे औजारों के इस्तैमाल से दूर कर
दिया हैपरन्तु
कुछ षिक्षाविदों का यह भी कहना है कि बच्चों को इन छोटे छोटे
ओैजारों से दूर रहने का एक महत्ती कारण यह भी है कि बच्चों की माताएं
स्वयं ही उनको इन कामों से दूर रखती हैे. उनका कहना है कि अगर बच्चें
इनका इस्तैमाल करेंगे तो उनके चोट लग सकती है. इसका नतीजा यह है कि
बच्चें को अगर कोई फल वगैरह भी खाना है तो उसकी मां उसे छीलकर देती
है. इसमें कोई षक नही कि असावधानीपूर्वक इस्तैमाल करने से चाकू अथवा
कैंची इत्यादि से चोट लग सकती है परन्तु बच्चों को इनसे सावधान करना एक
बात है और उन्हें इस वजहसे कुछ ना करने देना दूसरी बात है. उसी षिक्षाविद
ने मुझे बताया कि जब वह ऐसे बच्चों को देखता है, जिसने कभी किसी फल
वगैरह को इनसे नही छीला, तो उसे बच्चेंकी बजाय उसके माता-पिता की,
जरूरत से ज्यादा परवाह करने की, भावना परही तरस आता हैं4
प्रकृति की ओरसे बच्चें कमजोर पैदा नही होते. यह भी सच है कि
मानवषिषु जंम लेतेही अपने पैरों पर खडा नही हो सकता जैसेकि कई जानवरों
के बच्चें हो जाते है. परन्तु यह भी देखा गया है कि समय पर उचित प्रषिक्षण
देने पर नवजात षिषु भी कम उम्र में ही तैरना सीख सकता हैे. कुछ लोगों का
तो यहां तक कहना है कि बिना प्रषिक्षण के भी नवजात षिषु में इतनी साम्मर्थ
होती है कि वह तैर सकें. यह बात दर्षाती है कि क्रियाषीलता मानव का
स्वाभाविक गुण है. यहां मेरे कहने का यह मतलब बिलकुल नही है कि यह
पढकर लोग अपने नवजात षिषु को तैराने लग जाय. मेरा आषय तो सिर्फ
इतना ही है कि माता-पिता की जरूरत से ज्यादा बच्चों के बचाव की भावना से
उनके नैसर्गिक गुणों पर कुठाराघात होता है जिससे उनका स्वाभाविक विकास
रूक जाता है. नतीजतन ऐसे बच्चें जीवनधारा में अच्छी तरह नही तैर पातेहो
सकता है कि मेरी यह बात कुछ अभिवावकों को अच्छी नही लगे
लेकिन यह भी सच है कि कई मायने में बच्चें इतने आलसी नही होते लेकिन
उनके माता पिता अधिक दुलार में उन्हें ऐसा बना देते हैं. यों वैसे देखा जायतो
आधुनिक जमाने में विज्ञान एवं तकनिकी विकास सम्पूर्ण मानवजाति को ही धीरे
धीरे निकम्मा बना रहा है. हममें से कितने व्यक्ति ऐसे है जिनके पास खुदका
औजारों का किट है जिससे वह मरम्मत का छोटा मोटा काम खुद कर सकें ?
मुझे याद है जब मैं किषोरावस्था में था तब हरदम ही मेरे कही न कही
चोट लगती रहती थी. हालांकि अधिकांष समय मैं पारिवारिक कामों में लगा
रहता परन्तु इसके बावजूद मैं मिटटी कीचड में खेलकूद करता रहता था
नतीजतन मेरे षरीर पर मेरे अन्य साथियों की तरह छोटे मोटे घाव होते रहते
थे. यह वह मुष्किल जमाना था जब अधिकतर लोगों को अपनी वस्तुएं स्वयं
बनानी पडती थी. यही आवष्यकता बच्चों को वस्तुओं के बारे में ज्ञान एवं
उत्साह पैदा करती थी जो आगे चलकर उनकी जिन्दगी में काम आती थीपरन्तु
मुझे आष्चर्य है कि आधुनिक समय की माताएं अपने बच्चों में ज्ञान
एवं उत्साह के लिए क्या कर रही है ? जब बच्चें एक समझदारी की उम्र में आ
जाते हेै तो क्यों नही उन्हें चाकू एवं कैंची जैसी चीजों का भली प्रकार इस्तैमाल
करना सिखाती है. हालांकि साथ ही साथ उन्हें यह भी सिखाना है कि औजारों
का इस्तैमाल करते समय क्या क्या सावधानी रखनी है परन्तु अभिवावक इतना
भी नही करेंगे ओैर इसके बजाय स्वयंही उनका यह काम करते रहेंगे तो यह
उनकी बुद्धिमानी नही कही जायेगीवैसे
देखा जाय तो चाकू या कैंची कोई बहुत बडी बात नही है. असली
बात है इन छोटे छोटे कामों में मातापिता पर निर्भरता. अगर बच्चा जिन्दगी में
छोटी छोटी बातों से भी डरेगा या दिक्कतों से दूर भागेगा या ऐसी आषा रखेगा
कि उसकी मुसीबत को कोई और सहले या कोई औेर आकर उस समस्या को
हल करदे तो ऐसे परिवेष में पला बढा बच्चा बडा होकर जिन्दगी के थपेडों को
आसानी से सहन नही कर पायेगा. रोजमर्रा की जिन्दगी में हम ऐसे कई बच्चों
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को देखते है जो बोर्ड के इम्तहान देने के वक्त या किसी इन्टरव्यू में जाते वक्त
अपने साथ अपने अभिवावकों को ले जाते है. ऐसेही नवयुवकों को जब जिन्दगी
में समस्याएं घेर लेती है तो ना तो वह उससे दूर भाग सकते है ना ही कोई
दूसरा उसे झेल सकता है तो वह घबराजाते हेैं. मैं जब भी किसी नवयुवक द्वारा
आत्महत्या की खबर सुनता हंू तो मुझे लगता है कि मैं एक ऐसे नवयुवक की
खबर सुन रहा हंू जिसे उसके अभिवावक ने कभी जिन्दगी की नाव को खेना
नही सिखायाबडों
को चाहिए कि वह छोटों को अपने पांवों पर खडे होना सिखायेंपुराने
समय से ही बडे बूढें कहते आए है कि ‘अगर आप अपने बच्चों ं को
प्यार करते है तो उन्हें किसी यात्रा पर भेेिजिये’ हालांकि ऐसा कहते वक्त उन्हें
बहुतसी चिंताएं घेरे रहती हैे बावजूद इसके लोग अपने बच्चों को होषियारी
सिखाने हेतु ऐसा करते आए हैंलेकिन
मुझे नही लगता कि आजकल के अभिवावक ऐसा करेंगे. वह
षायद इतनाही करले तो बहुत है कि वह अपने रोजमर्रा की जिन्दगीमें बच्चों को
स्वयं अपना कामकाज करने की आदत डलवाले परन्तु क्या यह सच नही है कि
वह ठीक इसका उल्टा कर रहे है ? वास्तव में होता यह है कि ठीक अलसुबह
वह उसको उसके हाथों से काम करने से रोकते है तो सांयकाल उसको पैरों पर
चलने से निरूत्साहित करते हेैे, दोपहर को उसे धूप से बचाकर रखने की
कोषिष करते है तो रात्रि को ठन्डी हवा से उसका बचाव करते मिलेंगे. कहने
का तात्पर्य यह है कि वह अपने बच्चों को इस तरह बना देते है कि वह पूर्णतः
छुईमुई का पौधा बनकर रह जाता है ओैर इस तरह परवरिष किए हुए बच्चें का
जब जिन्दगी की वास्तविकताओं से सामना होता हेै तो वह कोई कठिनाई के पूरी
तरह से आने के पूर्वही घबरा जाता हैं. अगर अभिवावक ने उसे कठिन
परिस्थितियों में धैर्यपूर्वक उसका सामना करना नही सिखाया है औेर अगर वह
जिन्दगी में विषम परिस्थिति आने पर आत्महत्या की ओर अग्रसर होता है तो
कही न कही इसके लिए उसके मातापिता भी दोषी हैंउदाहरण्
ाार्थ मानलें कि एक छोटा बच्चा चलते चलते गिर पडता हैे औेर
अगर मातापिता में से कोई फौरनही दौडकर उसे उठा लेता है तो मैं इस तरह
के व्यवहार को बहुत अच्छा नही कहूंगा लेकिन अगर वह उस बच्चें को अपनी
हालत पर योंही छोड देते हेै तो वह भी ज्यादा ठीक नही हेै. सही अभिवावक
वह है जो बच्चें के गिरने की चिंता तो करते है लेकिन साथ ही साथ उसे वापस
अपने आप उठने की प्रेरणा भी देते हैं.
एक बच्चा जो इस तरह गिरता हेै उसे कुछ न कुछ दर्द तो होता ही हैे.
ऐसा होने पर सबसे पहले वह चिल्लाने की तैयारी करता हेै परन्तु इसके पहले
वह अपने मातापिता की तरफ देखता हैे. कहने का तात्पर्य यह है कि हालांकि
उसे कष्ट हुआ हेै लेकिन रोने चीखने के पूर्व वह अपने चारों तरफ देखकर यह
अंदाज लगाता है कि उसे चिल्लाना चाहिए या नही. अगर इस समय आप यह
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कहे कि ओह ! इसके चोट लगी है तो वह जरूर रोयेगा लेकिन अगर उसे यह
सुनाई दे कि ‘कोई बात नही तुमतो बहादुर हो’ तो वह षायद नही रोयेगाहालांकि
यह कोई जरूरी नही कि हरदम ऐसा ही होता है.
ृ यहां मैं आपको यह बताना चाहता हूं कि मैंने स्वयं अतयंत व्यस्त रहने
के बावजूद अपने तीनों लडकों की परवरिष कैसे की है. सबसे बडा लडका 24
साल का है, मंझला 22का और छोटा 19 वर्ष का है. बडें को आप बुद्धिजीवि
कह सकते है. मंझला उत्साहित एवं हंसमुख है जबकि छोटे को स्कूल के दिनों से
ही नक्षत्र विज्ञान में रूचि है. इस समय वह अपने मित्रों के साथ टोकियो के
दक्षिण में एक द्वीप पर है. उसमे वंषानुगत मछुआरे का खून है. वह समुद्र से
बहुत प्यार करता हैपिछले
मई में एक रोज सुबह सुबह ही वह अपने दोस्तों के साथ समुद्र
की सैर पर निकला लेकिन षीघ्रही उॅची 2 लहरों की चपेट में आने से उनकी
नाव उलट गई और जो बोट उनकी सहायता के लिए पीछे पीछे चल रही थी
उसके इंजिन में उसी वक्त कुछ खराबी आ गई. बच्चें जिन्दगी और मौत के
बीच संघर्ष करते रहे ओैर अंत में वही से गुजर रहे एक जहाज ने उनकी जान
बचाई. इतना कुछ होने के बावजूद मेरे लडके ने घर पर आकर कुछ नही
बताया वहतो उसकी मां ने भांपलिया तब कही जाकर सारी घटना का पता लगा
और उसकी मां ने यह बात मुझे बाद में बताईमुझ
े इस बात से कोई आष्चर्य नही हुआ बल्कि मैं उसकी इस बात से
प्रभावित ही हुआ. मैंने इसके बाद भी कभी यह नही चाहा कि मेरे लडकें कुछ
करने हेतु हरदम मेरी ओर ताकते रहे.
मेरे द्वारा की गई घटनाओं के वर्णन से ऐसा प्रतीत हो सकता है कि
बच्चों की षिक्षा में कही न कही कोई कमी है औेर वह यह कि हममें से
अधिकांष को यही नही मालुम कि आखिर षिक्षा का उद्धेष्य क्या है ? मेरे
विचार से षिक्षा का मूल उद्धेष्य ेष्ेष्य है ‘आत्म निर्भर्ररता’. बच्चें सिर्फ उनके
अभिवावकों की ही धरोहेहर नही है वह समाजकी, राष्ट्क्की सम्पति भी है.ै. उनका
स्वयंकंका एक अलग वर्चसर््स्व है,ै, व्यक्तित्व है जिनका अभी पूर्णर्रूरूपेण विकास नही
हुअुआ हेैे.ै. चूंूंिकि उनकी पूर्ण उन्नति होनेना बाकी है अतः हम सबका कर्तव्य है कि
ऐसे समय में ं उनकी मदद की जाय ओैेरैर इसके लिए जरूरी है कि उन्हें ं
आत्मनिर्भर्ररता की ओर बढने हेतेतु प्रा्रोत्ेत्साहित किया जाय.
जापानी भाषा में षिक्षा का पर्यायवाची षब्द है ‘कइयोकू’ इसमे ‘इयोकू’ का
मतलब है पढाना, उॅचा उठाना. हमारे यहां बसंत ऋतु में बीज बोये जाते हेै
जोकि आगे चलकर पौधें का रूप लेते हैं. किसान उनके आसपास की खरपतवार
को हटाता है, उनको खाद-पानी देता है लेकिन यह तमाम खाद-पानी पौधें स्वयं
जमीन से लेते है. पौधें उगाने का मतलब यह है कि उनके उगने का वातावरण
बनाया जाय ताकि वे स्वयं बडे हो सकें, आत्मनिर्भर बन सकें और इसीसे यह
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जापानी षब्द ‘कयोकू’ बना है जिसका मतलब है कि आत्मनिर्भरता का पाठ
पढानाअगर
हम षिक्षा का मूल उद्धेष्य आत्मनिर्भरता बनाले तो उसके तौरतरीकें
बिलकुल स्पष्ट होजायेंगे. हालांकि इस विषय पर काफी परिचर्चा हुई है कि बच्चों
के विकास हेतु कुछ साहसिक कदम उठाये जाय या कुछ और तरीकें इस्तैमाल
किये जाय. इस बात पर काफी वादविवाद भी हुआ है लेकिन मेरा मानना है कि
तरीकों में भलेही मतभेद की गुंजाइष हो लेकिन उद्धेष्य के प्रति कोई मतभेद नही
हैंषिक्ष्
ाा का मूल उद्धेष्य आत्मनिर्भरता ही है. इस उद्धेष्य की पूर्ती हेतु जहां
बच्चों को सघन प्रषिक्षण दिया जाना चाहिए वहां यह भी आवष्यक है कि हम
उन्हें अपने पैरों पर खडा होने के योग्य बनने के लिए वातावरण भी निर्मित
करें. कहने का तात्पर्य यह है कि जब उनकी स्वयं निर्णय लेने की अवस्था प्राप्त
हो उसके पहले उन्हें कठोर अनुषासन में रखा जाना आवष्यक है. ज्यों2 वह
बडें हो उन्हें स्वयं निर्णय लेने की प्रेरणा देनी चाहिए.
परन्तु बहुधा वास्तविक जीवन में हमे ठीक इसका उल्टा होता नजर आता
हेै. जब बच्चा छोटा होता है, अभिवावक उसको मनमानी करने देते हैे लेकिन
अचानक ही एक दिन हम उस पर प्रतिबंध थोपने की कोषिष करते है तब तक
बहुत देर होचुकी होती है. ऐसी परिस्थितियों में उसमें आत्मनिर्भरता की भावना
आने की सम्भावना कम ही रहेगीबच्चें
हालांकि छोटे होते है लेकिन उनमें सीखनेकी प्रबल इच्छा होती हैजो
बात कोई वयस्क सीखने में वर्षों लगा देता है एक बच्चा उसे एक दिन में,
एक महीने में अथवा एक साल में ही सीख सकता हैे और चूंकि वह पूर्वाग्रस्त
नही होता इसलिए सीखी गई बात वह हृदय से ग्रस्त कर लेता है जिसे निकालना
बहुत मुष्किल हैंबच्चें
हर बात में और किसी भी बात में दिलचस्पी ले सकते है. उनकी
दिलचस्पी विवेक रहित होती है. यहां अभिवावक उनकी मदद कर सकते हैेबच्चा
जो भी कहता है माता-पिता उसे ध्यानपूर्वक सुनकर उस पर अपनी
प्रतिक्रिया जाहिर कर सकते है कि क्या उसके हित में है और क्या अहित में
और उसी अनुसार कार्यवाही कर सकते हैइस
तरीके से प्रयास करने से बच्चें का दिमाग ढलने लगता है और धीरे
धीरे उसके व्यक्तित्व का विकास होने लगता है. बेषक इसके साथही बच्चें के
स्वयं के जंमजात गुण, वातावरण इत्यादि का प्रभाव भी होगा परन्तु अभिवावकों
का प्रभाव भी काफी महत्वपूर्ण होता हैंअगर
बच्चें को आत्मनिर्भर बनाना है तो उसे इसके लिए समझदारी दी
जानी चाहिए और यह समझदारी आयेगी जानकारी से, इसके लिए उसके
स्वाभाविक गुणों को विकसित करना होगा. निसंदेह यह सब गुण हरदम
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सर्वोत्कृष्ट रूप में प्राप्त नही किए जा सकते लेकिन अच्छे से अच्छा प्राप्त
करनेका प्रयत्न तो किया ही जाना ही चाहिए.
मैं यहां पर जोर देकर कहना चाहूंगा कि अगर आप बच्चें का सर्वांगीण
विकास करना चाहते है तो आपको उसे ऐसा माहौल देना होगा जोकि काम में
दिलचस्पी एवं प्रतिस्पर्द्धा से भरपूर हो ताकि वह स्वयंमेव आनेवाली कठिनाइयों
को पार करना सीखें और आगे बढेंजब
षिक्षा का उद्धेष्य आत्मनिर्भरता होता है तब अनुषासन का एक
अलगही अर्थ होता है. तब वह सिर्फ ‘यह करो, यह मत करो’ तकही सीमित
नही रहता बल्कि वह बच्चें को सकारात्मक सोच के साथ प्रयत्न करते हुए आगे
बढनेकी प्रेरणा देता है. उदाहरणार्थ मानलें बच्चा कोई ऐसा काम कर रहा है
जिससे कि दूसरों को परेषानी हो रही हो तब सिर्फ उसे षाब्दिक रूपसे मना
करने से ही काम नही चलेगा बल्कि उसे यह सिखाना होगा कि वह यह काम
बंद करके सामनेवाले से क्षमा याचना करें तभी वह अपनी आत्मा की आवाज के
अनुसार आगे बढेगाआप
सोच रहे होंगे कि मैंने यह लेख नव वर्ष के उत्सव की बात करते
हुए प्रारम्भ किया था ओैर उसका समापन बालकों की षिक्षा के विषय पर बात
करते हुए कर रहा हूं परन्तु दोनों में संबंध है. जैसेकि नव वर्ष का उत्सव
सालका प्रारम्भ है तो बालकपन जीवन की षुरूआत है. हमें यह नही भूलना
चाहिए कि यह प्रारम्भिक अवस्थाही सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है इसी से संस्कारों
का एक बडा हिस्सा बनता हैंसदा
की भांति इस वर्ष भी संसार में नव वर्ष के महोत्सव मनाएं जायेंगे.
ऐसे समय प्रार्थना करते वक्त हम किसी षैतान से डरकर सिर्फ ऐसी ईष प्रार्थना
में ही ना लगे रहे कि वह हमें अमुक अमुक वरदान देदें ताकि हमें कुछ परिश्रम
नही करना पडे अर्थात परिश्रम से बचाते हुए भाग्य परही निर्भर ना बनादें. हम
ईष्वर से ऐसे समाज के निमार्ण की प्रार्थना करें जहां परिश्रम का महत्व हो, जहां
हर कोई सिर्फ दूसरों की मदद की ओर ही नही ताकता रहे बल्कि अच्छे से
अच्छा ऐसा काम करे जो स्वयंहित के साथ साथ दूसरों के हित का भी हो और
अगर हम ऐसा कर सके तो इस महोत्सव में चार चांद लग जायेंगे
अनुवादक
-ई. शिव शंकर गोयल,
फ्लैट न. 1201, आई आई टी इंजीनियर्स सोसायटी,
प्लाट न. 12, सैक्टर न.10, द्वारका, दिल्ली- 75.
मो. 98737063339

शनिवार, 17 दिसंबर 2011

शहर देहली का हाल


'...अब मैं आपको देहली का पूरा पूरा हाल सुनाता हॅू, तब आप स्वयं
समझ सकेंगे कि यह षहर सुंदर है या नही, प्राय: चालीस वर्ष हुए वर्तमान
बादषाह के पिता षाहजहॉ ने अपने स्मृति चिन्ह के लिए पुरानी दिल्ली के निकट
एक नया षहर बसाया और अपने नाम के अनुसार इस षहर का नाम
षाहजहानाबाद व जहानाबाद रखा, इसके राजधानी बनाए जाने का कारण यह
प्रकट किया गया कि गरमी की अधिकता के कारण आगरा बादषाह के रहने योग्य
नही है पर इसके बनाने के लिए सब चीजें पुरानी देहली के आसपास के खंडहरों
में से ली गई है इससे विदेषी आदमियों को पुराने और नए षहर में कोई भेद
नही मालुम होता, भारत में लोग इसे जहानाबाद ही कहते है, पर सरलता के लिए
मैं भी विदेषियों की तरह इन्हें एक ही कहूंगा.
षहर देहली चौरस जमीन पर जमुना के किनारे जो ल्वायर-फ्रांस-नदी के
समान है- चन्द्राकार बसा हुआ हैं. नदी को छोड कर -जिस पर नावों का पुल
बंधा है- बाकी तीनों ओर रक्षा के लिए पक्की षहरपनाह बनी हुई हैं. अगर इन
बुरजों पर से जो षहरपनाह के किनारे सौ सौ कदमों पर बने हुए है या उस
कच्चें पुष्तें पर से, जो चार या पांच फ्रांसीसी फुट उंचा है, देखा जाय तो यह
षहरपनाह बिलकुल ही अपूर्ण है क्योंकि न तो इसके निकट कोई खाई है ओर न
कोई दूसरा रक्षा का उपाय है.
यह षहरपनाह नगर और किलें को घेरे हुए है तथा उसकी लम्बाई इतनी
अधिक नही है जितनी लोग समझते है क्योंकि तीन घन्टे में मैं उसके चारों ओर
फिर आया हॅू, मेरे घोडें की चाल एक फ्रांसीसी लीग या तीन मील प्रति घन्टे से
अधिक न थी, मैं इसमे षहर की आस पास की उन बस्तियों को नही मिलाता जो
बहुत दूर तक लाहौरी दरवाजें की ओर चली गई्र है और न पुरानी देहली के उस
बचे हुए बडे भाग को, और न उन तीन चार बस्तियों को मिलाता हॅू जो षहर के
पास है क्योंकि इन्हें भी उसी में मिला लेने से षहर की लम्बाई इतनी बढ जाती है
कि यदि षहर के बीचो-बीच एक सीधी रेखा खींची जाए तो वह साढे चार मील
से भी अधिक होगी, यद्यपि बाग आदि के बीच में आजाने के कारण मैं नही कह
सकता कि नगर का ठीक ठीक व्यास कितना है फिर भी इसमे सन्देह नही कि वह
बहुत ही अधिक हैकिला
जिसमें षाही महलसरा और मकान है और जिनका वर्णन मैं आगे
चल कर करूंगा अर्द्ध गोलाकार-सा है, इसके सामने जमुना नदी बहती है, किलें
की दिवार और जमुना नदी के बीच में एक बडा रेतीला मैदान है जिसमें हाथियों
की लडाई दिखाई जाती है और अमीरों, सरदारों और हिन्दु राजाओं की फौज
बादषाह को देखने के लिए खडी की जाती है जिन्हें बादषाह महल के झरोखों से
देखा करता हैंकिलें
की दिवार अपने पुराने ढंग के गोल बुर्जों के कारण षहरपनाह से
मिलती-जुलती हैं. यह ईंट और लाल पत्थर की बनी हुई है जो संगमरमर से
मिलता जुलता होता हैं. इसलिए षहरपनाह की अपेक्षा यह अधिक सुन्दर हैं. यह
षहरपनाह से उंची और सुदृढ भी हैं. इस पर छोटी छोटी तोपे चढी हुई है
जिनका मुंह नगर की ओर हैं. नदी की ओर को छोड कर किलें के सब ओर
पक्की और गहरी खाई बनी हुई हैं. इसके बांध भी मजबूत पत्थर के बने हुए हैं.
यह खाई हमेषा पानी से भरी रहती है और इसमे मछलियां बहुत अधिकता से हैे
यद्यपि यह इमारत देखने में बहुत दृढ मालुम होती हेै पर वास्तव में यह दृढ नही
है औेर मेरी समझ में एक साधारण तोपखाना इसे गिरा सकता हैंइस
खाई के निकट एक बडा बाग है जिसमें बहुत सुन्दर और अच्छे फूल
होते हैं. किले की लाल रंग की दिवार के सामने होने के कारण यह बाग बहुत ही
सुन्दर मालुम होता हैं. इसके सामने एक बादषाही चौक है जिसके एक ओर किलें
का दरवाजा हैे और दूसरी ओर षहर के दो बडे बाजार आकर समाप्त हो जाते
है, जो नौकर राजे प्रति सप्ताह यहां चौकी देने आते है उनके खेमें आदि उसी
मैदान में लगाए जाते हैं. इसी स्थान पर तरह तरह की चीजों की बिक्री के लिए
गुजरी लगती हैइन
दो बडे बाजारों की चौडाई जो चांदनी चौक में आ कर मिलते है
पच्चीस या तीस कदम हैं. जहां तक दृष्टि पहुंचती है वे सीधे ही चले जाते हैंइनमें
से जो बाजार लाहौरी दरवाजे की ओर गया है वह बहुत ही लम्बा हैं. दोनों
रास्तों पर मकान तथा इमारतें समान ही हेैं. पेरिस के प्रसिद्ध बाजार पैलेस रायल
की तरह इन बाजारों के दोनों ओर की दुकानें महराबदार है पर इनमें भेद इतना
ही है कि एक तो यह ईटों का बना हुआ है और दूसरे यह एक ही खंड का हैंइन
दुकानों की छतें खास चबूतरों का काम देती हैं. एक भेद और है, पैलेस
रायल की दुकानों के बरामदें ऐसे बने हैे कि इनमें प्रवेष करने पर मनुष्य बाजार
में एक सिरे से दूसरे सिरे तक जा सकता है पर यहां की दुकानों के बरामदें
अलग अलग होते हेै और उनके बीच मे दिवारें बनी होती हैं. दिन के समय यही
बैठकर व्यापारी और सर्राफ अपना अपना काम करते है और ग्राहकों को माल
दिखाते हैं. इन बरामदों के पीछे असबाब आदि रखने के लिए कोठियां बनी हुई है
जिनमें रात के समय सारा असबाब रख दिया जाता हेैं. इनके उपर व्यापारियों के
रहने के लिए मकान बने हुए है जो बाजार में से देखने पर बहुत ही सुन्दर
मालुम होते हैं. यें मकान हवादार होते है और धूल बिलकुल नही आती, यद्यपि
षहर के भिन्न भिन्न भागों में भी दुकानों के उपर इसी प्रकार के मकान होते है
पर वे इतने छोटे और नीचे होते है कि बाजार में से भली भांति दिखाई भी नही
देते, अधिकतर व्यापारी दुकानों पर नही सोते वरन रात को काम कर चुकने पर
अपने अपने मकानों को जो षहर मे होते है, चले जाते हैंइनके
अतिरिक्त पांच और बाजार हैं. यद्यपि इनकी बनावट आदि वैसी ही
हेै पर वे इतने लंबे ओैर सीधे नही हेै और भी छोटे बडे बाजार है जो एक दूसरे
को काटते हुए चले जाते हेै, यद्यपि उनके सामने वाली ईमारत महराब के ढंग की
है तथापि वे ऐसे लोगों के हाथ से बने हुए होने के कारण जिन्हें इमारत के सुडौल
होने का ध्यान ही नही था, इतने सुन्दर, चौडे और सीधे नही है जितने वह
बाजार हेै जिनका वर्णन मैंने अभी किया है.
षहर के गली कूचों में मनसबदारों, हाकिमों और धनिक व्यापारियों के
मकान है और उनसे भी बहुधा अच्छे और सुन्दर है पर ईट या पत्थर के बने
मकान बहुत ही कम और कच्चे या घास फूस के बने अधिक हैं., इतना होने पर
भी वे सुन्दर और हवादार हेै, बहुत से मकानों में चौक और बाग होते हेै जिनमें
सब प्रकार की सुख सामग्री उपलब्ध रहती है, जो मकान घास फूस के बने होते है
वहां भी अच्छी सफेदी की हुई होती हैंअमीरों
के मकान प्राय: नदी के किनारे और षहर के बाहर हैं. इस गरम
देष में वही मकान अच्छा समझा जाता है जिसमें सब प्रकार का आराम मिले और
चारों ओर से विषेषकर उत्तर से अच्छी हवा आती हो, यहां वही मकान अच्छे
कहे जाते है जिनमे एक अच्छा बाग, पेड और दालान के अन्दर या दरवाजे में
छोटे छोटे फव्वारें और तहखाने होंगर्मी
के दिनों में देषी खरबूजें बहुत सस्ते मिलते है पर ये कुछ अधिक
स्वादिष्ट नही होते, हां जिनके बीज ईरान से मंगवाया और बोया जाता है बहुत
अच्छे होते हैंगर्मी
के दिनों में आम यहां बहुत सस्ते और अधिकता से मिलते हैे पर
देहली में जो आम होता हैे वह न तो ऐसा अच्छा ही होता हैे और न बुरा, सबसे
अच्छा आम बंगाल, गोलकुन्डा और गोवा से आता हेै जो वास्तव में बहुत अच्छा
होता हेैं. तरबूज यहां बारहों मास रहता हेै, पर जो तरबूज देहली में पैदा होता हैे
वह नरम और फीका होता हैं.
षहर में हलवाइयों की दुकानें अधिकता से हेै पर मिठाई उनमें अच्छी नही
बनती. उन पर गर्द पडी होती है और मक्खियां भिनभिनाया करती हैं. नानबाई
भी बहुत है पर यहां के तन्दूर हमारे यहां के तन्दूरों से बहुत ही भिन्न और बहुत
बडे होते है और इसी कारण न तो रोटी अच्छी होती है और न भलीभांति सेंकी
हुई पर जो रोटी किलें में बिकती है वह कुछ अच्छी होती हैंजुम्मा
मस्जिद:- किले का वर्णन छोड अब मैं फिर षहर की ओर फिरता हूं
जिसकी दो इमारतों का हाल अभी तक लिखना बाकी हैं. उनमें से एक तो बडी
मस्जिद है जो षहर के बीच में एक उॅची पहाडी पर बनी होने के कारण दूर से
दिखाई देती हैं. इसके बनाने से पहले पहाडी की जमीन बिलकुल साफ और चौरस
खोदी गई थी और चारों ओर मैदान कर दिया गया था जहां चारों ओर से चार
बाजार आकर मिलते है, उनमें से एक तो सदर दरवाजे के सामने है औेर दूसरा
पीछे को और बाकी दोनों ओर के दरवाजे के पास. अन्दर जाने के लिए तीनों
ओर पत्थर की 25-25 सुन्दर सीढियां बनी हुई है और पीछे की ओर साफ
करके पहाडी की उंचाई तक पत्थर लगा दिए गए हेै जिनसे वह इमारत और भी
सुन्दर हो गई हैं. इसके तीनों दरवाजें बहुत सुन्दर लाल पत्थर के बने हुए हैे और
उनके किवाडों पर तांबे या पीतल की पत्तियां जडी हुई है, सुन्दर दरवाजा जिस
पर संगमरमर की छोटी छोटी बुर्जियां बनी हुई है, बहुत ही खूबसूरत हैं. मस्जिद
के पिछले भाग में तीन बडे बडे गुंबद है जो संगमरमर के बने हुए हैं. बीचवाला
गुंबद कुछ अधिक बडा और उंचा हैं. मस्जिद के केवल इसी भाग के उपर छत
बनी हुई है और इसके आगे सदर दरवाजे तक बिलकुल खुला हुआ हैे जो गर्मी
के कारण खुला रखना आवष्यक हैं. मस्जिद के अन्दर संगमरमर ओैर बाहर लाल
पत्थर की सिलें जमीन मे जडी हुई है.
यहां की दूसरी वर्णन करने योग्य इमारत बेगम सराय या कांरवा सराय है
जो षाहजहां की बडी बेटी-बेगम साहिबा, जहांआरा- ने गत लडाई के समय
बनवाई थी. पैलेस रायल की तरह यह भी एक बडी महराबदार चौकोर इमारत हैंइसमें
लगातार कोठडियां बनी हुई है और उनके आगे अलग अलग बरामदें हैं.
यह इमारत दो खंडों की है और नीचे के खंड की तरह उपर के खंड में अलग
अलग कोठरियां और बरामदें हैं. ईरानी तथा विदेषी अमीर व्यापारी इसे सुरक्षित
समझकर यही आ कर ठहरते हैंबस्ती:-
मैं नही कह सकता कि देहली औेर पेरिस की जनसंख्या में क्या
समानता है पर फिर भी मेरी समझ में यदि देहली में पेरिस से अधिक आदमी
नही है तो कम भी नही हैंदेहली
के आसपास की भूमि बहुत ही उपजाउ हैं. इसमें चावल, गेंहू, गन्ना,
नील, मंूग और जौ आदि जो वहां के लोगों का प्रधान भोजन हैे, अधिकता से
उत्पन्न होते हेैं. आगरे की ओर जो सडक गई है उस पर देहली से प्राय: छह
मील पर एक स्थान है जिसे मुसलमान ख्वाजा कुतुबउद्धीन कहते हैं. यहां एक
बहुत ही प्राचीन इमारत है जो कदाचित पहले मंदिर था, जिस पर एक लेख खुदा
है जो बहुत प्राचीन मालुम होता हैं. उसकी लिपि किसी से पढी नही जाती और
उसकी भाषा भारत की सब प्रचलित भाषाओं से भिन्न हैंदेहली
से आगरे तक जो डेढ या पौने दो सौ मील लंबी सडक चली गई है
उस पर फ्रांस की तरह आपको कोई अच्छी बस्ती न मिलेगी हां केवल मथुरा एक
पुराना नगर है जिसमें एक बडा और प्राचीन मंदिर-द्वारकाधीष-अब तक विद्यमान
हैंनेषनल
बुक ट्स्ट, इंडिया द्वारा प्रकाषित 'बर्नियर की भारत यात्राÓ से साभार.
फैंव्किस बर्नियर एम.डी, जोकि पेषें से डाक्टर थे, मुगल बादषाह, षाहजहां के
जीवन के अंतिम चरण-सत्रहवी षताब्दी- में फ्रांस से भारत आए थे. प्रस्तुत वृतांत
उसी पुस्तक से लिया गया हैं. अब जबकि दिल्ली को राजधानी का दर्जा प्राप्त हुए
एक सौ साल-11.12.1911 से- होगए है उसी उपलक्ष में यह 'हाले दिल्लीÓ
आपकी सेवा में प्रस्तुत हैं
-ई. शिव शंकर गोयल,
फ्लैट न. 1201, आई आई टी इंजीनियर्स सोसायटी,
प्लाट न. 12, सैक्टर न.10, द्वारका, दिल्ली- 75.
मो. 9873706333

शुक्रवार, 16 दिसंबर 2011

जियारत में हास्य


हमारें देष में विभिन्न स्थानों पर भिन्न भिन्न किवदंतियां प्रचलित हैं. मसलन
राजस्थान के हाडौती क्षेत्र के बारें में मषहूर है कि त्रेतायुग में जब श्रवणकुमार अपने
माता-पिता को कांवड में बैठाकर तीर्थयात्रा करवाता हुआ उधर से गुजरा तो उसे झुंझलाहट
आगई. कहते है कि उसने कांवड जमीन पर रखदी और चल दिया लेकिन ज्योंहि वह उस
क्षेत्र के बाहर आया उसे अपनी जिम्मेवारी का अहसास हुआ औेर वह वापस कांवड लेकर
यात्रा पर रवाना हुआ. कई संत यह बात पंचवटी के लिए भी कहते है जहां सतयुग में
भवानी ने षिवजी की बात नही मानी औेर त्रेता में सीता माता ने मारीच प्रकरण में लक्षमण
की बात की उपेक्षा की. कहते है कि यही बात अजमेर षहर के लिए कही जाती हैं कि कोई
भी व्यक्ति चाहे वह यहां तिजारत-व्यापार-करने आएं चाहे जियारत-धार्मिकयात्रा-और चाहे
घूमने वह अपने साथ चंद लहमें मुस्कराहट के लाता भी है और अपनों परायों में बांटने हेतु
यहां से तवर्रूख-प्रसाद-के रूप में ले भी जाता हैंहर
साल यहां प्रसिद्ध सूफीसंत ख्वाजा मोइनुद्धीन चिष्ती का उर्स होता है जिसमें
भाग लेने हेतु दूर दूर से जियारती आते हैं. एक बडा जत्था पाकिस्तान से भी आता हैं जिसे
पुरानीमंडी के एक स्क्ूल में ठहराया जाता हैं. यह बात पाकिस्तान जाकर बताने पर वहां
कइयों को इस बात का गिला-षिकवा रहता है कि भारत की हकूमत हमारें लोगों को नई की
बजाय ‘पुरानीमंडी’ में क्यों ठहराती हैं ?
सन 1965 में भारत-पाक के बीच दूसरा युद्ध हुआ था. उस लडाई में पाकिस्तान
को सबसे ज्यादा नुकसान खेमकरण सैक्टर में हुआ. उसे जान माल का तो नुकसान हुआ
ही भारतीय फौज ने अमेरिका निर्मित उसके कई पैटन टैंक जब्त कर लिए जबकि वहां की
हकूमत ने अवाम को यह बताया कि भारत ने हमारें पैटन टैंक चुरा लिए हैं. खैर, ऐसा ही
एक टैंक अजमेर में बजरंग गढ के नीचे प्रदर्षन हेतु रखा गया हैं. एक बार उर्स के मौकें
पर आया पाकिस्तानी जियारतियों का दल जब बारादरी पर घूमते 2 बजरंग गढ के नीचे से
निकला तो उसे वहां पैटन टैंक दिखाई दिया. उनमें से कइयों का माथा ठनका, अरे !
इन्होंने तो हमारा टैंक चुराकर सरेआम यहां रखा हुआ है, ‘चोरी और सीना जोरी’ चलकर
पुलीस में ‘काबिल तव्वजों इत्तला’ यानि एफआईआर लिखवानी चाहिए. बाद में उस दल के
नेताने उन्हें किसी तरह समझाया कि चोरीकी रपट उस थाने में होती है जहां से माल गया
है अतः रपट यहां नही पाकिस्तान में होगी और पुलीस चाहेगी तो तफसीस-जांच- भी वही
होगी, तब कही वह माने.
यह तब की बात है जब रेडियों ही ज्यादा चलते थे. टीवी का प्रचलन ज्यादा हुआ
नही था. उन्ही दिनों जब एक पत्रकार पाकिस्तान की यात्रा पर गया तो उसने वहां देखा कि
घर घर रेडियों पर दिल्ली स्टेषन चल रहा हैं. पाकिस्तानियों का भारत के प्रति प्रेम देखकर
वह बडा खुष हुआ. उसने जिज्ञासावष एक व्यक्ति से इसका कारण पूछा तो उसने बताया
कि हमारें हुक्मरान का यह कहना है कि हम भारत का वैसे तो कुछ बिगाड नही सकते, इस
तरह दिल्ली स्टेषन बजा बजाकर कम से कम उनकी बिजली तो खर्च करही सकते हैं.
1971 की जंग की बात हेैं. वैसेतो जनरल याहियाखां को पीने पिलाने वगैरह से ही
कहां फुरसत थी फिर भी एक रोज उन्होंने अपना रेडियो सुन लिया तो जनरल टिक्काखां
को फोन लगाया और बोले कि अपना रेडियो ये क्या खबरें दे रहा है कि भारत की दो
राजधानियों में दहषत बैठी हुई है ? इस तरह की गलतियों से हमारी जगहंसाई होती हैंइस
पर टिक्काखां ने उत्तर दिया ‘आपने ही स्टेंडिग ऑर्डर दे रखा है कि दुष्मन का
नुकसान बताते वक्त दो से गुणा कर दिया करोजब
टीवी का जमाना आया तो षुरू षुरू में पाकिस्तान में अधिकतर की यह ख्वाइष
थी कि ‘कष्मीर की कली’ पिक्चर देखने को मिल जाय क्योंकि वैसे तो इस जंम में कष्मीर
की झलक देखने को मिलना मुष्किल ही हेै इस बहाने कम से कम कष्मीर तो देख ही लेंगेवैसे
भी भारत सरकार हमें कष्मीर का वीजा तो कभी देती नही जबकि हमारें नौजवान जो
पीओके के मुजफराबाद, गिलगित और चित्राल के कैम्प अटैन्ड करके आएं हेै, हमेषा कहते
रहते है कि कष्मीर जाने के लिए वीजा की नही ऐके 47 की जरूरत होती हैं, हमतो वही
लेकर आते-जाते हैंउर्स
के दौरान दरगाह के आस पास के इलाकों में होटलें, रेस्टोरेन्टस दिनरात खुले
रहते हैं. इनकी खास बात यह है कि इनमें खाने का ‘मीनू’ होटल के अंदर कार्ड पर नही
दुकान के बाहर लगे बोर्ड परही लिखा रहता हैं. एक बार कुछ पाकिस्तानी जायरीन बाहर
बोर्ड पर ‘कष्मीरी पुलाव’ लिखा देखकर होटल मकीना पहुंचें. पहले उन्होंने एक प्लेट ‘मटन
पुलाव’ का आर्डर दिया. जब बैरा ‘मटन पुलाव’ लेकर आया तो उन्होंने देखा कि उसमें
सिर्फ चावल ही चावल है, मटन का एक भी दाना नही हैं. जायरीनों ने बैरे से इसकी
षिकायत की तो वह बोला कि इसको यहां ‘मटन पुलाव’ ही कहते हैं. आप नाम पर मत
जाइये, अगर आप कष्मीरी पुलाव मंगायेंगे तो इसका मतलब यह थोडे ही है कि मैं उसमें
आपको कष्मीर डालकर ला दूंगा. कष्मीर को लेकर यहां भी उन जायरीनों को बडी निराषा
हुई. यहतो बाद में नयाबाजार से उन्होंने एक के दो देकर जब तथाकथित ‘कष्मीरीषाल’
खरीदी तब उन्हें लगा कि पाकिस्तान जाकर बताने के लिए कष्मीर नामकी कोई चीज तो
मिली.
यह तबकि बात है जब तक अमेरिका ने पाकिस्तान की फौजी छावनी एबटाबाद में
ओसामा बिन लादेन का ‘षिकार’ नही किया था. हुआ यहकि उर्स में लंगरखाने की गली
स्थित होटल सकीना में जायरीन बैठे हुए थे. खाना-पीना चल रहा था. संयोग की बात है
कि उस होटल में एक षामलाल नामक बैरा भी काम करता था. जब जायरीन खा-पी चुके
तो वह लोग उठकर मैनेजर के पास गए और पेमेंट बाबत पूछने लगे तो मैनेजर ने वही से
बैरे को आवाज लगाई ‘ओ सामा बिल लादें’ उसका इतना कहना था कि होटल में
अफरा-तफरी मच गई. कोई इधर भाग रहा है कोई उधर. जब कुछ देर बाद लोगों को
असल बात समझ आई तब षांति हुई. पुलीस तो इस घटना के काफी देर बाद आईपाकिस्तान
का एक मषहूर बैंक है हबीब बैंक. एक बार उनके एक अधिकारी दरगाह
की जियारत करने आए. उन्होंने बातों ही बातों में बताया कि लाहौर में हबीब प्लाजा स्थित
उनके बैंक की रीजनल षाखा में एक क्लर्क बदली होकर आया. उसके पहले वह ग्वालमंडी,
अनारकली, कलमा चौक इत्यादि षाखाओं में काम कर चुका था. रोजाना घर से खाना
बनवाकर लेजाना और दोपहर में अपनी ब्रांच में कही बैठकर खाना खा लेना, यही उसका
रूटिन था. जब रीजनल ऑफिस में ट्ंासफर होगया तो खाना खाने के लिए वह ऑफिस के
कैम्पस में एक पेड की ब्रांच पर बैठकर ही खाना खाता था क्योंकि ब्रांच पर खाना खाने की
आदत हो गई थी, तभी तो कहते है कि आदमी की आदत आसानी से छूटती नही हैं. उसी
अधिकारी ने यह भी बताया कि यहां की हकूमत हमारें साथ भेदभाव बरतती हैं. जब हम
उन्हें हमारें एक सौ रू. देते है तो बदले में वह हमें यहां के पचास रू. देती हैं.
क्वेटा से आए एक बुजुर्ग खां साहब चाय पीते अपने अनुभव एक खादिम से अपने
घर गृहस्थी की बातें करने लगे. बोले, उम्रेदराज होने से याददाष्त कमजोर हो रही हेै, जब
रवाना हो रहा था तब बेगम को जरूरी 2 बातें बतानी थी. परन्तु अखबार वालें का बिल
नही मिल रहा था तो खादिम सैयद हुसैन ने पूछ लिया कि खां साहब ! वहां क्या
अखबारवालें बिलों में रहते है ? लाहौर का ‘डॉन’-इंगलिष डेली-पहले तो ऐसा नही था,
अब क्या होगया हैं ? कहते है कि ‘जीओ’ टीवी भी काफी हिम्मतवाला हैंउर्स
पर जहां दूर दूर से किन्नर, जेबकतरें, फकीर आते है वही बनारस के ठग भी
पीछे नही रहते. इनके अलग अलग क्षेत्रों के लाखों के ठेकें छूटते हैं, जैसे मदारगेट, रेलवें
स्टेषन, बस स्टैन्ड, इंदरकोट एरियां इत्यादि. एक बार मदारगेठ पर चम्पासराय के पास एक
जायरीन घंटाघर को देख रहा था तभी एक ठगने उसके पास आकर पूछा, ‘...भाईजान !
कहां से तषरीफ लारहे हो ?’ ‘...अहमदाबाद से आएं हैं.’ जायरीन बोला.
...अहमदाबाद में कहां ?
...दरियापुर.
...क्या काम करते हो ?
...कपडा मार्किट में अपुनकी दुकान है. ख्वाजाकी मेहरबानी से सब मजे में हैंे
...घंटाघर पसंद आया ?
इस पर जायरीन ने हां भरी तो ठग बोला कि अंग्रेजों के जमाने का हैं. आजकल
ऐसी चीजें मिलती कहां है ? नक्की-पूरें-135 फुट का हैं. खरीदोंगे ? सस्ता लगा देंगेजाय
रीन ने कहा कि ठीक भाव लगाओंगे तो लेलेंगे, पर नाप कर देना पडेगा. भाव तय
होजाने पर जायरीन ने उसे पैसे दे दिए और वह रकम लेकर जाने लगा तो जायरीन ने उसे
कहा नपवायें बिना क्यंाति जाओछो ? इस पर ठग ने कहा कि मैं फीता लेकर आता हूं तब
तक तुम यही रहना, ऐसा नही हो कि पीछे से कही चले जाओ. जायरीन मान गया लेकिन
काफी इंतजार के बाद भी ठग वापस नही लौटाजाय
रीन समझ गया कि वह ठगा गया है फिर भी वह दोतीन रोज और ठहरकर
रोज वहां आता और लोगों से पूछताछ करता लेकिन कोई फायदा नही हुआ. संयोग से एक
दिन वह ठग फिर संचेती होटल के पास दिखाई दे गया. जायरीन ने उसे पकडा और बुरा
भला कहा तो ठग बोला कि उस रोज मैं फीता लेकर आया तब तक आप जा चुके थे. मैं
तो अब भी घंटाघर नापकर देने को तैयार हूं परन्तु आज भी मेरें पास फीता नही हैं. इस
पर जायरीन ने कहा कि ऐम करो तमे यांति ठहरो अणे हूं फीतो लेर आउंछू. ठग उसकी
बात मान गया. कहते है कि उसके बाद दोनों की मुलाकात आजतक नही हुई, उधर घंटाघर
भी उनका इंतजार कर रहा हैं.
एक बार उर्स के मौकें पर कुछ निजि प्रयास से प्रदर्षनी का आयोजन किया गयाआय
ोजकों ने सस्ती दरों पर खाने-पीने के पंडाल एवं दर्षकों को निःषुल्क प्रवेष देने की षर्त
पर नगर परि द से नाममात्र के षुल्क पर पटेल मैदान लेलिया. बाद में उन्होंने ‘मैनेज’
करके प्रर्दषनी में प्रवेष षुल्क लगा दिया. अगली साल जब उन्होंने फिर प्रदर्षनी लगााने हेतु
आवेदन किया तो परि द ने एतराज किया और कहा कि आपको लिखकर देना होगाा कि
प्रवेष मुफत होगा. खैर आयोजकों ने लिखकर दे दिया और प्रदर्षनी चालू होगई. समय रखा
गया दोपहर 3 बजे से रात्रि 11 बजे तकलेकिन परि द अधिकारियों का आष्चर्य का ठिकाना
नही रहा जब उन्होंने देखा कि आयोजकों ने इस बार प्रवेष षुल्क की बजाय बाहर निकलने
का टिकट रखा हैं. अब दर्षकों के सामने दो ही विकल्प रहते थे, यातो रात्रि 11 बजे तक
अंदर ही रहकर कुछ खाया-पीया जाय या टिकट खरीदकर बाहर आया जाय. हां अलबत्ता
उन्होंने इतनी मेहरबानी जरूरकी कि जो कोई खरीदकर कुछ खा-पी लेगा उसे बिल दिखाने
पर ऐक्जिट टिकट नही खरीदना पडेगापाकिस्तान
लौटकर जानेवालें लोग अकसर अपने देष में ही षिकायत करते मिल
जायेंगे कि औरों की तो क्या कहें हमारें अपने आदमी हमसे अच्छा सलूक नही करते. अब
आप देखें जब वापसी में हम दिल्ली हवाई अडडें पर पाकिस्तानी एयरलाइन्स के काउंटर पर
पहुंचे तो वहां लिखा था ‘पीआइये’. जब हम पी आएं तो उहोंने हमें बोर्डिंग पास देने में
आनाकानी की. अब किससे गिला षिकवा करें और किससे नही करें ?
-ई. शिव शंकर गोयल,
फ्लैट न. 1201, आई आई टी इंजीनियर्स सोसायटी,
प्लाट न. 12, सैक्टर न.10, द्वारका, दिल्ली- 75.
मो. 9873706333

मंगलवार, 13 दिसंबर 2011

एक फोटो फ्रेम के मुख से

कमरे के कौने में ,
मेज पर पड़े चांदी के
रत्न जडित फोटो फ्रेम
पर दृष्टी पडी
जिसमें मेरे पर दादा की
तस्वीर लगी हुयी थी
मुझे से रहा ना गया
उसे हाथ मैं उठा कर
देखने लगा
ऐसा प्रतीत हुआ मानों
कह रहा हो
मैं सामान्य फोटो फ्रेम
नहीं हूँ
कई दशकों से इस कमरे में
होने वाले
हर कार्य कलाप का गवाह हूँ
चंचल बचपन ,
जोश से भरी
जवानी और थके हुए
झुर्रियां लिए बूढ़े चेहरों की
तसवीरें मैंने ह्रदय से
लगा कर रखी हैं
जो संसार से चले गए
उन्हें भी प्रेम से संजोया है
मेरा स्थान बदलता रहा ,
पर कमरा नहीं बदला
मैंने खामोशी से घर के
लोगों को
बचपन से बुढापे तक
संसार में आते जाते देखा
घर में किसी ने जन्म लिया
या फिर कोई सदा के लिए
चला गया
मुझे भी भरपूर खुशी और
दुःख हुआ
घर के लोगों को हँसते ,
रोते देखा
लड़ते झगड़ते देखा
प्यार मोहब्बत में जीते देखा
जीवन के हर रंग को
समीप से देखा
पता नहीं कब तक देखना है
जब तक
घर में सम्पन्नता है
मुझे पूरी आशा है
कोई मुझे कुछ रूपये
के लिए
अपने से दूर नहीं करेगा
मैं हँस बोल
नहीं सकता तो क्या ?
इस घर को अपना
मानता हूँ
सदा घर की समृद्धी के लिए
परमात्मा से निरंतर प्रार्थना
करता हूँ
किसी और जगह जा कर
मुझे खुशी नहीं मिलेगी
उसकी ह्रदय से
निकली प्यार भरी
बातों ने
मुझे भाव विहल कर दिया
फोटो फ्रेम को मैंने
सीने से लगा दिया


तेरी शादी किसी गधे से कर दूंगा (हास्य कविता)

हँसमुखजी ने
बड़े शौक से गधा पाला
थोड़े दिनों तक तो बहुत
प्यार से रखा
फिर धीरे धीरे उससे
मोह कम हो गया
निरंतर उसे मारने
पीटने लगे
खाने को भी कम देते ,
घर से बाहर निकाल देते
गधा भी ढीठ था
प्रताड़ित होता रहता
भूखा रहता
पर जाने का नाम
ना लेता
पड़ोसी के घोड़े से
देखा ना गया
एक दिन
उसने गधे से कहा
क्यों निरंतर मार खाते हो ?
यहाँ से कहीं चले क्यों
नहीं जाते ?
गधा बोला मन तो
मेरा भी करता है
यहाँ से चला जाऊं
पर हँसमुखजी दिल के
बहुत अच्छे इंसान हैं
क्रोध तो
अपनी लडकी पर भी
करते हैं
उसे कहते हैं
तेरी शादी किसी गधे से
कर दूंगा
बस किसी दिन ज्यादा
भड़क जाएँ
क्रोध में मुझ से
अपनी लडकी की शादी
करवा दें
इसी इंतज़ार में
जाते जाते रुक जाता हूँ


मनोरंजन, हँसमुखजी, हँसी, हास्य कविता, हास्य रचना हास्य
मेरा जूता एक दिन बोला मुझ से
मेरा जूता
एक दिन बोला मुझ से
कब तक घिसोगे मुझको
मेरी प्रार्थना सुन लो
मेरे कष्ट थोड़े कम कर दो
सहने के लिए एक
साथी दे दो
जूते की एक और जोड़ी
खरीद लो
चलते चलते थक गया हूँ
कीचड,गोबर में
सनते,सनते उकता गया हूँ
धूल,मिट्टी से भरता हूँ
उफ़ करे बिना
पथरीले सफ़र पर
चलता हूँ
सर्दी,गर्मी,बरसात में
निरंतर मुझे घसीटते हो
कभी क्रोध दिखाने के लिए
नेताओं पर उछालते हो
कोई झगडा करे तो
निकाल कर मारते हो
मुझे खुश करने के लिए
थोड़ी सी पोलिश
लगाते हो
बदबूदार मोज़े सूंघते
सूंघते
आत्म ह्त्या का मन
करता
मेरी छाती जैसा तला
गम में फट ना जाए
उससे पहले थोड़ा सा
रहम कर दो
जूते की एक और जोड़ी
खरीद लो
सहने के लिए एक
साथी दे दो



नेता सफ़ेद कपडे ही क्यों पहनते (हास्य कविता)
हँसमुखजी
बहुत परेशान थे
समझ नहीं पा रहे थे
उनके देश में नेता सफ़ेद
कपडे ही क्यों पहनते
अपनी परेशानी का ज़िक्र
अपने नेता मित्र से किया
नेता मित्र ने
हँसते हुए जवाब दिया
बड़े भोले हो
इतना भी नहीं समझते
कॉमन सैंस काम में लो
कारण जान लो
हमारे दिल काले,धंधे काले
कारनामे काले,इरादे काले
ज़िन्दगी में
कोई और रंग भी होना
चाहिए
इसलिए कपडे सफ़ेद पहनते
अपने कालेपन को
निरंतर सफ़ेद कपड़ों से
छुपाने की कोशिश
करते



सिर्फ गधे क्यों रेंक रहे हैं
पशु मेले का उदघाटन
करने नेताजी पधारे
उनके आते ही सारे गधे
ढेंचू ढेंचू करने लगे
नेताजी चकरा गए
चमचे से पूछने लगे
बाकी जानवर चुप हैं
सिर्फ गधे क्यों रेंक
रहे हैं
चमचे ने अपने ज्ञान का
परिचय दिया
खुशी खुशी बताने लगा
हुज़ूर गधे
बिरादरी का रिवाज़
निभा रहे हैं
कोई भी जाति भाई
दिखता है
तो स्वागत में निरंतर
रेंक कर अपनत्व का
परिचय देते हैं
खुशी में रेंकते हैं

हँसमुखजी ने प्रेमपत्र लिखा (हास्य कविता)
हँसमुखजी का
हाथ हिंदी में तंग था
फिर भी प्रेमिका को
हिंदी में प्रेम पत्र लिख दिया
तुम मेरी दिल लगी हो
स्वर्गवासी अप्सरा सी
लगती हो
तुम्हारे लिए चाँद तारे
तोड़ कर ला सकता हूँ
कोई नज़रें उठा कर
तुमको देखे ले तो
यमराज की तरह
जान भी ले सकता हूँ
प्रेमिका ने भी प्रेमपत्र का
जवाब प्रेम से दिया
ओ मेरे दिल के चौकीदार
मुझे पाना है तो
तुम्हें भी स्वर्गवासी होना
पडेगा
चाँद तारों को तोड़ने से
पहले
उन्हें छोटा कर पेड़ पर
लटकाना होगा
किसी की जान लेने से पहले
यमराज सा दिखना होगा
विवाह के लिए
भैंसे पर बैठ कर आना
पडेगा
अगला प्रेम पत्र लिखो
उसके पहले हिंदी को
सुधारना होगा


हँसमुखजी का निशाना (हास्य कविता)
हँसमुखजी पोते के साथ
क्रिकेट खेल रहे थे
गेंदबाजी कर रहे थे
गेंद कभी विकेट के
तीन फीट दायें
कभी तीन फीट बायें से
निकल रही थी
पोता परेशान हो गया
कहने लगा
दादाजी आप झूठ
बोलते हैं
एक भी गेंद विकेट पर
सीधे ड़ाल नहीं सकते
लेकिन डींग हांकते हो
आपने जवानी में कई शेर
सटीक निशाने से मारे
हँसमुखजी बोले
तुम आधा गलत
आधा ठीक कहते हो
शेर तो मैंने ही मारे
पर निशाना तब भी
ऐसा ही था
डर नहीं लगे इसलिए
शिकार पर जाने से पहले
जम कर शराब पीता था
नशे में
शेर होता कहीं और था
दिखता कहीं और था
दिखता तीन फीट बायें
होता तीन फीट दायें
शेर को निशाना लगाता
गोली सीधी शेर को
जाकर लगती
तीन फीट का हिसाब
अभी भी चल रहा है
पीना छोड़ दिया है
इसलिए
लाख कोशिशों के बाद भी
गेंद विकेट पर नहीं
लगती

डा.राजेंद्र तेला,"निरंतर"
"GULMOHAR"
H-1,Sagar Vihar
Vaishali Nagar,AJMER-305004
Mobile:09352007181

सोमवार, 5 दिसंबर 2011

मुस्कुराइये, क्यों कि अजमेर में पधारे हैं


कहते है कि सीरत अथवा स्वभाव, चाहे किसी का हो, आसानी से बदलता नही हैंइस
विषय में राजस्थानी में एक कहावत बहुत मषहूर है जिसमें कहा गया है कि ‘जी का
पडया स्वभाव जावे जीवसै’ै अर्थात स्वभाव तो अंत तक साथ चलता हैं. अब आप इस षहर
को ही लेवें. यह षहर अपने हंसी मजाक, दिल्लगी से कभी बाज नही आता हैं. यहां जगह
जगह जो इष्तहार, पोस्टर, बोर्ड इत्यादि लगाए जाते है लोगबाग उसमें भी अनाधिकार चेष्टा
करके बदलाव कर देते हैं और अनायास ही हंसी-खुषी का माहौल पैदा होजाता हैं.
एक स्थान पर आसपास के गांववालें बेचने हेतु सरौली-चूसनेवालें-आम लेकर आते
थे और सडक किनारे ढेरी लगाकर बेचा करते थे. एक बार वही पास में ही किसी ने
अपनी मिल्कियत की धाक जमाने हेतु एक रास्ते पर बोर्ड लगा दिया जिस पर लिखा था
‘आम रास्ता नही है’ै’ इस सूचना को किसी मनचले ने बदलकर कर दिया ‘आम सस्ता नही
है’ै’ जब लोगांे ने देखा कि नीचे ढेरी लगाकर किसान आम बेच रहा है और उपर बोर्ड लगा
हुआ है कि आम सस्ता नही है ! तो एक रोज भीड इकटठा होगई. उनमें तरह तरह की
चर्चा चल पडी. इनमें से कुछ का कहना था कि जैसे केन्द्र सरकार फुटकर व्यापार में
वालमार्ट जैसी विदेषी कम्पनियों को लाकर छोटा व्यापार करनेवालों के साथ मखौल कर रही
है ऐसा ही मजाक यहां हो रहा हैं.
एक बार नगर के एक पार्क में परिषद ने बोर्ड लगवा दिया ‘इस पार्क में कुत्ुत्तों का
प्रव्रवेष्ेष वर्जित है’ै’ पता नही इस सूचना को ‘उन्हांेने’ पढा या नही लेकिन उन्होंने आना-जाना
जारी रखा. ठीक भी है चौपाएं है उन्हें कौन समझायें ? इस बारें में कइयों की तो यह राय
थी कि क्या पता उन्हें हिन्दी लिखना पढना आता भी है या नही क्योंकि आजकल चारों
तरफ अंग्रेजी का फैषन चल पडा हैं. खैर, जो भी हो. कुछ दिनों तो यह चलता रहा फिर
एक दिन किसी अधिक समझदार ने इस सूचना के नीचे लिख दिया ‘पढनेवेवाला बेवेवकूफूफ है’ै’.
इतना लिख देने के बाद आते-जाते कई लोग इन लाइनों को पढतो लेते लेकिन ऐसा
दिखाते गोया उन्होंने कुछ पढा ही नही. अब आप जानो कि खामेंखा मूर्ख कौन बनना
चाहेगा ? लेकिन ऐसा ज्यादा दिन नही चला. किसी ने नहलें पर दहला चलाते हुए इस
लाईन के नीचे लिख दिया ‘लिखनेवेवाला बेवेवकूफूफ है’ै’ अब यह पूरा ईष्तहार इस तरह बन
गया:-
‘इस पार्क में ं कुत्ुत्तों ं का प्रव्रवेष्ेष वर्जिर्तत है
पढनेवेवाला मूख्ूर्ख है
लिखनेवेवाला बेवेवकूफूफ है ’
देखा आपने ? कुत्तों पर बात चलते चलते कहां तक आ पहुंची. एक रोज सुबह की
सैर करनेवालों की भीड इस बोर्ड के सामने एकत्रित होगई. अपने देष में बात बिना बात
भीड इकटठा होना आम बात हैं. लोगों का कहना था कि एनडीए षासन के समय साहित्य
में बदलाव की बयार चली थी. उसी कडी में प्रसिद्ध कवियों के दोहें तक बदले जाने लगेवह
क्रम चालू रहा. मसलन पहले कभी एक दोहा हुआ करता था
‘पढोंगंगे लिखोंगंगे तो बनोंगंगे नवाब,
खेलेलोंगंगे कूदूदोंगंगे तो होअेओंगंगे खराब’
अब क्रिकेट के दिवानों ने इसे इस तरह से बदलने की ठानली
‘पढोंगंगे लिखोंगंगे तो रहोंगेंगे बेकेकार,
क्रिक्रकेटेट ही खेलेलोंगंगे तो बनोंगेंगंगे कुछुछ यार’.
वैष्वीकरण, उदारवाद एवं पूंजी के मिश्रण से बेकारी कहां तक पहुंच गई है
इसकी एक झलक एक चाय की थडी पर इस तरह देखने को मिल रही हैं. लिखा
हैः-
‘गुलुलामी की जंजंजीरों ं से,े,
स्वतंत्रंत्रता की षान अच्छीदो-
े-तीन हजार की नौकैकरी से,े,
चाय की दुकुकान अच्छी.’
इस षहर में पानवालें भी तरह तरह के इष्तहार लगाने के आदी रहे हैं. अब आप
षहर के मषहूर कंवरीलाल पानवालें को ही देखें. उसने पहले एक तख्ती टांगी थी जिस पर
लिखा था ‘आज नकद, कल उधार’. चूंकि दिनरात कैंची चलाता रहता था इसलिए थोडे
दिनों बाद इसे बदलकर दूसरी तख्ती लगादी, लिखा ‘उधार मोहेहब्बत की कैैंचंची है’. उस
दुकान पर अकसर एक पंडितजी आया करते थे. वह पान अक्सर उधारी में ही खाया करते
थे. लेकिन धर्मग्रन्थों की उनकी जानकारी की चारों तरफ धाक थी. बातों ही बातों में एक
दिन उन्होंने बताया कि कलियुग तो क्या उधारी का हिसाब किताब तो त्रेतायुग से चला
आरहा हैं. राजा दषरथ ने केकैयी को जो दो वर दिए थे वह उधार रहने दिये. जब राम
का राजतिलक होने लगा तो केकैयी ने मौका देखकर मांग लिए. उनका मानना था कि
उधारी से आप बच नही सकते. मोरारजी देसाई जब वित्तमंत्री थे तब विदेषों से कितना
कितना उधार लाते थेपरन्तु
उधार मांगनेवालों से तंग आकर कंवरीलाल ने थोडें दिनों बाद तीसरा इष्तहार
लगाया ‘उधार मांगंगकर षर्र्मिंदंदा ना करें’ं’ परन्तु मजे की बात देखिये कि जानकार तो रहे दूर
एक रोज एक अन्जान आदमी कंवरीलाल पानवालें के पास आया और कहा कि सौ रू.
उधार देना. कंवरीलाल भौंचक्का होकर उसकी तरफ देखने लगा और बोला कि ‘मैं तो
आपको जानता तक नही’ इस पर वह षख्स बोला कि ‘तभी तो आपसे मांग रहा हूं,
जानकार तो वैसे भी मुझे उधार देते नही’ देखी आपने इस षहर के निवासियों की हंसी
दिल्लगी और दिलेरी ?
यह षहर ज्यादातर नौकरी पेषेवालों का हैं. इसमें भी रोज रोज अप-डाउन करनेवालें
भी खूब हैं. सुबह सुबह ही घर से खाना बनवाकर ले आते हैे औेर दोपहर ऑफिस के
आसपास के किसी रेस्टोरेंट, होटल में बैठकर खाना खा लेते है और आखिर में चाय मंगा
कर घंटों बैठे रहते हैं. इस समस्या से निजात पाने के लिए होटलवालों ने अपने यहां बोर्ड
टंागने षुरू कर दिए जिस पर लिखा था ‘कृप्या यहां अपना खाना मना है’ै’ परन्तु जिसे
होषियारी करनी हो वह अपना रास्ता निकाल लेता हैे जैसे टूजी स्पैक्ट्म घोटालें में हुआलोगों
ने यहां भी अपना हिसाब बैठा लिया. एक रोज दो व्यक्ति होटल में घर का लाया
खाना खा रहे थे. इतने में मैनेजर ने आकर उन्हें टोका और कहा कि आप अपना खाना
यहां नही खा सकते. इस पर उनमें से एक व्यक्ति ने जवाब दिया कि मैं इसका लाया खाना
खा रहा हूं और यह मेरा खाना खा रहा है. माहौल बिगडने से बचाने हेतु मैनेजर बेचारा
चुपचाप अपनी मेज की तरफ चल दिया, क्या कहता ?
अपेक्षाकृत छोटें षहरों में जहां माल संस्कृति नही पनपी है वहां मनोरंजन के लिए
सिनेमा हॉल हैं. ऐसे ही एक स्थान न्यूमैजेस्टिक हॉल की बात हैं. वहां पिक्चर के टिकट
बिकने के समय अकसर बहुत भीड और धक्का-मुक्की होती थी. इसके लिए प्रबंधकों ने
वहां एक बोर्ड टांग दिया. ‘कृप्या टिकट खरीदने के लिए लाईर्नन में लगे’े . संयोग की बात
एक पिक्चर ऐसी आई कि बुकिंग खुलने के बाद भी एक आदमी के अलावा कोई नही
पहुंचा. वह व्यक्ति भी आकर दूर खडा होगया. काफी देर बाद बुकिंग क्लर्क ने उससे पूछा
कि क्या आपको टिकट खरीदना है ? उसके द्वारा हामी भरने पर क्लर्क ने कहा कि फिर
टिकट लेते क्यों नही हो ? तो उसने जवाब दिया कि यहां तो लिखा है कि टिकट खरीदने
के लिए लाईन में लगे, जब लाईन लगेगी तो टिकट लूंगा.
एक बार कोई प्रोग्राम देखने के लिए स्थानीय एडीटोरियम में जाना हुआ. प्रवेष पास
से था. काउन्टर पर मैं कुछ पूछने के लिए गया तो देखा कि वहां बहुत भीड हैं. सभी हॉल
से लौट लौटकर काउंटर पर आ रहे थे. उत्सुकतावष मैंने भी जानना चाहा कि आखिर क्या
बात है ? पता लगा कि वें पूछ रहे थे कि षांति कहां बैठी है ? क्योंकि हॉल में जगह जगह
लिखा है कि ‘कृप्या षांंिति के साथ बैठैठें’ं’. मैं सोचने लगा कि यह प्रॉबलम मेरे साथ तो नही
हेै क्योंकि मैं तो अपनी धर्मपत्नि के साथ था, अकेला होता तो ओैर बात थी.
यह षहर ऐतिहासिक एवं धार्मिक स्थल होने के साथ साथ पर्यटन के लिए भी मषहूर
हैं. इसलिए यहां धर्मषालाएं भी हैं ओैर होटलें भी. हालांकि अब कुछ धर्मषालाएं होटलों में
तब्दील होती जा रही है लेकिन फिर भी धर्मषालाओं में ठहरने का अपना महत्व हैं. मुझे
यह बात पता नही थी वहतो बातों ही बातों में एक दिन एक धार्मिक प्रकृति के व्यक्ति ने
मुझे बताई. उसका कहना था कि धर्मषालाओं में उपर जाने के लिए अकसर लिखा हुआ
मिलेगा ‘जीने का रास्ता’ जबकि होटलों में आप पायेंगे ‘लिफट यानि उपर जाने का रास्ता’
दोनों ही बातों का आध्यात्मिक महत्व हैं. समझाने के बावजूद बहुधा ऐसी गूढ बातें मेरी
समझ में नही आती.
एक सरकारी विभाग के कार्यालय में कामकाज कम ही था इसलिए बाबू वगैरह जब
राजनीति एवं क्रिकेट की बातें करते करते उकता जाते तो साहब के पीए के कमरें में जाकर
मौसम अथवा पिक्चर संबंधी बातें करने लगते या और कोई टॉपिक पकड लेते. वही चाय,
मूंगफली इत्यादि मंगवा लेते. इससे पीए के कामकाज में भी दखल होता. एक रोज उसने
अपने कमरें मंे एक तख्ती टांगदी लिखा ‘यहां फालतू ना बैठैठे’. कमचारियों को यह नागवार
गुजरा. उनमें से एक कर्मचारी इस सूचना में से ‘ना’ षब्द को उठाकर नगर के बडे
हस्पताल लेगया. अब यहां रह गया ‘यहां फालतू बैठैठे’ उधर हस्पताल में जहां लिखा था ‘चुपुप
रहिये’ उसकी जगह अब होगया ‘चुपुप ना रहिये’े’, इतना ही नही किसी मनचले ने इसके नीचे
ही दीवार पर ही कोयले से लिखकर पूरा संदेष यों कर दिया
‘चुपुप ना रहिये
‘कहिए जी कुछुछ तो कहिए’
ऐसेसी भी क्या बात है ?’.
एनडीए षासन की बात हैं. एक बार एक सरकारी कार्यालय में एक छुटभैयें नेताजी
मिल गए. वह पहले दुसरें दलकी सरकार के साथ थे परन्तु सत्ता बदलते ही रातोरात इधर
आगए. कहने लगे उस सरकार ने गरीबी हटाने के लिए क्या किया, सिर्फ जगह जगह
‘गरीबी हटाओ’े’ के बोर्ड लगा दिए. क्या मिट गई गरीबी ? उस दिन जरा ज्यादा ही जोष में
थे. आगे कहने लगे अब हम भ्रष्टाचार सहन नही करेंगे. उपर से आदेष हुए है इसलिए
हर कार्यालय में ऑफीसर के कमरें में तख्तियां लगवाई हैं. उनके जाने के बाद उत्सुकतावष
मेैं साहब के चैम्बर मंे देखने गया. सामने ही बडे बडे अक्षरों में लिखा था ‘रिष्वत दे ना
लेनेना पाप है’ पढकर मैं मुस्कराएं बगैर नही रह सका. सोचने लगा क्या भूलसे पेंटर से यह
गलती हुई है या जानबूझकर किया गया कोई ‘छिपा एजेंडा’ हैंकुछ
लोगों की हंसी दिल्लगी की इंतहा देखिए. एक ठाकुर साहब के लडके की षादी
थी. ठाकुर साहब ने निमंत्रण पत्र में ही लिखवा दिया कि ‘कृप्या बारात में दारू पीकर नही
आएं’ इसकी क्या वजह थी अब इस पचडें में आप पडकर क्या करंेगे ? जब लोगांे को यह
कार्ड मिले तो उन्होंने तरह तरह के अनुमान लगाने षुरू कर दिए. मसलन एक सज्जन का
अनुमान था कि आजकल विवाह आदि में दारू इत्यादि का प्रचलन बढने से खूब धमाल होने
लगे हेै षायद इसीलिए ठाकुर साहब ने यह सब किया है जबकि ठाकुर साहब के रिष्तेदार
रामसिंहजी का दूसरा ही अनुमान था. उनका मानना था कि घर से पीकर आने के लिए
इसलिए मना किया होगाा कि जब बारात में खूब पीने पिलाने को मिलेगा ही तो नाहक घर
से पीकर आने की क्या जरूरत है ?
रेलवे में पहले यह स्लोगन लिखा मिलता था ‘रेलेलवे आपकी सम्पति है कृपया इसका
समुुिचित ढंगंग से इस्तैमैमाल करें’ं . लोगों ने इस ‘आपकी’ का कुछ और ही मतलब निकाल
लिया और जहां मौका देखा वही बल्ब निकाल लिया, कही टॉयलेट का षीषा लेगए. अब
रेलवे कारखाने में तैयार डिब्बों में यह नया स्लोगन लिखना षुरू किया है ‘कृपया कोचेच एवं
षौचैचालय को साफ रखने में हमारी मदद करें’ं परन्तु किसी ने इसमें सुधार करके यों कर
दिया ‘कृपया कोचेच एवं षौचैचालय को साफ करने में ें हमारी मदद करें’ं’.
यों होने को ‘कानूनून के सामने सब बराबर है’ै’, थानों पर लिखा ‘मेरेरे योग्ेग्य सेवेवा’,
‘दहेजेज लेनेना अपराध है’ै’ ‘यहां थूकूकना मना है’ै’ आदि स्थायी, वैधानिक नारंे भी है जो सिर्फ
देखने के काम आते हैंइसलिए
अब नगरवासियों एवं निगम को कुछ वर्षेंा पूर्व पुज्य श्री मोरारीबापू का पटेल मैदान
में कथा करते वक्त दिया गया यह सुझाव मानकर हिन्दी, इंगलिष, तमिल, कष्मीरी एवं
मणिपुरी भाषा में रेलवे स्टेषन, बस स्टैन्ड तथा षहर के प्रमुख 2 चौराहों पर निम्नलिखित
बैनर अवष्य लगाने चाहिए.
मुस्कुराइये, क्यों कि आप अजमेर में पधारे हैं
-ई. शिव शंकर गोयल,
फ्लैट न. 1201, आई आई टी इंजीनियर्स सोसायटी,
प्लाट न. 12, सैक्टर न.10, द्वारका, दिल्ली- 75.
मो. 9873706333