यह तो मेरी किस्मत अच्छी थी, जो मुझे द्वारका में आकर रहने का मौका मिला वरना, जिन्दगी में मलाल ही रह जाता। वैसे यहां आकर रहने में यह फायदा है कि आपका स्टैन्डर्ड बढता है। यहां आने से हिन्दुओं के चार धामों- बद्रीनाथ, पुरी, रामेश्वरम और द्वारका में से एक की यात्रा अपने आप ही हो जाती है। एक ओर जहां देश के छोटे-छोटे शहरों, कस्बों में जब कभी कोई हवाई जहाज आकाश में आवाज करता हुआ निकलता है तो बच्चे-बूढ़े सभी आकाश की ओर कौतुहल एवं हसरत भरी निगाहों से देखने लगते हैं, लेकिन यहां द्वारका में रहने वाले तो सौभाग्यशाली हैं, जिन्हें रोजाना ही हर दस-बीस मिनट में एक हवाई जहाज उतरता या चढ़ता हुआ दिखाई दे जाता है। इसलिये लोग तो कहते हैं कि यहां के निवासी किस्मत वाले हैं। कहते हैं कि महाभारत के युद्ध के बाद भगवान श्री कृष्ण भी द्वारका में ही जाकर रहने लगे थे।
यहां ऊंचे-ऊंचे अपार्टमेन्ट्स हैं, जिनके भाव भी ऊंचे हैं और उनके किराये भी ऊंचे हैं। वैसे सरकारी विभागों की मेहरबानी से अधिकांश फ्लैट खाली पड़े हैं। यहां खाने-पीने की चीजों के भावों का अन्दाजा आपको एक बात से लग जायगा। एक बार मैं एक बाजार में एक किरयाने की दुकान पर दालों के भाव लगे देख कर सहम गया। दालें अब किलो के हिसाब से नहीं, बल्कि उनके दाने नग के हिसाब से मिल रहे थे। उदाहरणार्थ अरहर, दाल के दाने दो रुपए दर्जन, मूंग छिलका डेढ़ रुपए दर्जन इत्यादि। यह देख कर मैं घबरा कर आगे बढ गया। फल-सब्जी वाले भी किसी तरह कम नहीं हैं। थोक मंडी से यहां लाते-लाते उनके भाव चौगुने कर देते हैं। पिछले मंगलवार को जब मैं साप्ताहिक सब्जी मंडी गया तो यह देख कर हैरान रह गया कि पालक-मेथी के पत्ते तक गिनती से मिल रहे हैं। मसलन पालक एक रुपए के 5 पत्ते, मेथी एक रुपए के बीस पत्ते इत्यादि-इत्यादि। और जब चलते-चलते एक ठेले वाले से पूछा कि नींबू क्या भाव दिए तो वह बोला बीस रुपए के चार। मैंने उसे कहा भाई! कुछ कम करो तो वह बोला-अच्छा साÓबजी! बीस रुपए के तीन ले जाओ। आस-पास खड़े सभी हंस दिये और मैं भी खिसियानी हंसी हंस कर आगे बढ़ गया।
जानकार लोग बताते हैं कि आम जरूरत की चीजों के भाव बढ़ाने में जहां केन्द्र की सरकार का 'हाथÓ है तो वहीं दिल्ली की 'लोकप्रियÓ सरकार भी इसमें अपना 'हाथÓ बंटा रही है और मजे की बात देखिए कि इस बढ़ती महंगाई से लोगों का ध्यान हटाने हेतु यह लोग तरह-तरह के दूसरे मुद्दे उछालते हैं। द्वारका में बड़े-बड़े 'इन्टरनेशनलÓ स्कूल भी हैं। इन स्कूलों की फीस भारी भरकम होती है। अलबत्ता अधिकांश बच्चों को माक्र्स 90 प्रतिशत से अधिक ही मिलते हैं, चाहे वह पढऩे में कैसा ही हो। यहां कई संस्थाएं इन्टरनेशनल हो रही हैं, जिनके अध्यक्ष-उपाध्यक्ष सब इन्टरनेशनल हैं। दिलचस्प है कि एक मेट्रो स्टेशन के पास पेड़ के नीचे एक नाई ने अपने सैलून का नाम ही 'इन्टरनेशनल कटिंग सैलूनÓ रख दिया है। यहां के अधिकांश सैलून भी अन्तर्राष्ट्रीय हैं क्योंकि उनके रेट्स भी उसी स्तर के हैं।
डीडीए द्वारा स्थापित इस उपनगरी में हर चीज ऊंची यानि भारी है। अब आप पीने के पानी को ही लें। यहां का पानी भी गुणों में बहुत भारी है। अगर तकनीकी भाषा में कहे तो इसका टीडीएस अर्थात टोटल डिजोल्वड सोलिड दिल्ली के किसी भी क्षेत्र के मुकाबले कहीं ज्यादा है। उसकी वजह से सरकार का जल बोर्ड डर के मारे इधर तो कुछ कर नहीं रहा, बल्कि 'यमुना में जान डालनेÓ का अभियान चला रहा है। यहां के निवासियों का भी स्टैन्डर्ड कोई कम नहीं है। यहां सभा-सोसाइटी में 'फाइनलÓ शब्द को 'फिनालेÓ ही बोला जाता है।
आसपास के क्षेत्रों से अथवा बाहर के किसी प्रान्त से आकर यहां बसने वाले जयकिशन नामक व्यक्ति यहां आते आते मि. जैक्सन हो जाते हैं और बात-बात में इंगलिश बोल कर अपने हाव-भाव दर्शाते हैं। जाहिर है कि बिना नाम बदले स्टैन्डर्ड कैसे बढ़ेगा? कहना पड़ेगा कि जहां दिल्ली का कतिपय इलाका 'ल्यूटियंस जोनÓ कहलाता है तो द्वारका कम से कम 'लुटियन जोनÓ तो है ही। आप भी मानते हैं ना?
और अधिक आपको क्या बतायें, आदमी तो आदमी यहां मच्छरों तक की साइज भी अपेक्षाकृत और जगहों से बड़ी है। कद-काठी में कोई इनसे टक्कर ले सकता है तो तराई इलाके के मच्छर ही ले सकते हैं। इसलिए यहां के लोगों को बीमारियां भी बड़ी-बड़ी ही होती हैं। किसी को सर्दी-जुखाम नहीं होता। या तो डेंग्यू होगा या कोई ज्यादा माडर्न हुआ तो उसे स्वाइन फ्लयू होगा। यहां बुखार होने पर किसी को भी टैम्प्रेचर 104-105 से कम नहीं होता। इन बीमारियों के मुकाबले हेतु आस पास बड़े-बड़े इंटरनेशनल निजी अस्पताल हैं, जहां कहते हैं कि मरीज को बिना क्लोरोफार्म सुंघाए ही ऑपरेशन किए जाते हैं। पूछने पर एक जानकार ने बताया कि इसके लिए उनके पास सीधा सा तरीका है। वह ऑपरेशन टेबल पर ही मरीज को बिल पकड़ा देते हैं, जिसे देखते ही वह बेहोश हो जाता है यानि बिना हींग-फिटकरी लगे ही रंग चौखा आ जाता है।
खुशी की बात यह है कि यहां के अधिकांश लोग खुशमिजाज हैं और जिनके पास बाइक या कारें हैं, वह अधिकांशत: तेजी से दौड़ाते हैं क्योंकि कोई रोक-टोक करने वाला नहीं है। जैसे एक विशेष ब्रांड के च्यवनप्राश में सोना-चांदी की कमी नहीं होती है, यहां द्वारका में भी 'सोनाÓ 'चांदीÓ की कमी नहीं है। जहां पुलिस वालों का ध्यान अपराधों की रोकथाम की बजाय थाने में 'सोनेÓ की तरफ है, वहीं दूसरी ओर चोरों एवं झपटमार बाइक सवारों की 'चांदीÓ हो रही है।
यह व्यंग्य लेख सेवानिवृत्त इंजीनियर श्री शिवशंकर गोयल ने भेजा है। उनका संपर्क सूत्र है -फ्लेट नं. 1201, आई आई टी इंजीनियर्स सोसायटी, प्लाट नं. 12, सैक्टर न.10, द्वारका, दिल्ली- 75, मोबाइल नंबर: 9873706333
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें