बुधवार, 16 नवंबर 2011

नज़्म ......तुमने देखा है कभी मुझको बेवजह मुस्कुराते हुए ?


तुम्हारे बिना बिताये हुए
वो लम्हें लगता है की जिंदगी,
जेसे गुज़री ही नहीं अब तक..
बस कि थम के रह गई है
बर्फ की बूंदों की तरह बिन टपके
सर्द तन्हाई को लपेटे अपने ज़ेहन में ,
उम्र की ऑंखें कुछ बूढी होकर
जिंदा लम्हों की लकीरें लेकर के
चेहरे पे उतर आयीं हैं |

जिगर के तार अब भी अनायास ही
खिंच जाते हैं जो तेरा ज़िक्र होता है
किसी महफ़िल में |
वो वक़्त जो गुज़र नहीं पाया
गाहे -बगाहे मेरी जुल्फों में ,
स्याह से सफ़ेद होते लम्हों की
कहानी में बेतुकल्लुफ़ -सा
होने लगता है जब कभी ,
तो मैं बड़े करीने से
उसे अपने जुड़े में पिरो लेती हूँ |
नाहक ही जिंदगी के शांत दरिया में ,
समय गुज़ारने की एवज
में फेंकी गई कंकरी भी बेवजह

लहरों के गुमाव से टकराती है
तो चोट खाती है |
कोई आह जो न बिखर जाए
दामन से रिसकर ,
इसलिए मैं हर वक़्त मुस्कुराती हूँ ,
तुमने देखा है कभी मुझको
बेवजह मुस्कुराते हुए ?
अपने ज़ख्मो को बेख़याली से छुपाते हुए?
वो अक्स तुम्हारा ही तो था ...........
टूटे दर्पण में मेरी सूरत ओढ़े |
रजनी मोरवाल,
अहमदाबाद

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