सोमवार, 21 नवंबर 2011

फिर एक और दिन पहना है मेरे चेहरे ने .................



बिखरी हुई ज़ुल्फ़ को
करीने से सजाकर मैंने
महकती सांस मैं
कुछ और इत्र घोला है ,
लबों पर छिड़की है
एक ताज़ा सुर्ख़ लाल हंसी
और पेशानी से बासी
हदों को खोला है |
लो फिर एक और दिन
पहना है मेरे चेहरे ने ,
कि एक और दिन
गुज़रेगा हकीक़त बनकर |
आईने से खुश होने का
वादा करके मेरे ही अक्श ने
मुझसे ही झूठ बोला है |
अभी निकालेंगे मेरे पाँव
घर से मंजिल को ,
शाम सिमटेगी तो फिर
थक कर वापस लौटेंगे ,
सफेद चादरों के
बुत बने से बिस्तर पर ,
ज़िस्म एक लाश क़ी सूरत मैं
बिखर जायेगा .....
रगों में दफ़्न सन्नाटों से
राज़ खोलेगा
और तन्हाई में मुंह डाले
खूब रो लेगा |
गिर के उठेंगे कई ज्वार
तन के दरिया में ,
किसी ठहराव के मुहाने से
लग के रो लेंगे |
लुढ़क जाते हैं कई
दिन इसी तरह थक कर ,
कदीम रातों के तकिये का
सहारा लेकर |
बस एक उम्र है जो
मुसलसल सी चला करती है
साँसों को सीने में दबाये हरदम |
लो फिर एक और दिन
पहना था मेरे चेहरे ने,
कि एक और दिन गुज़ारा
था हकीक़त बनकर .........


(कदीम =पुराने ,मुसलसल =लगातार)
रजनी मोरवाल
अहमदाबाद

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