गुरुवार, 17 नवंबर 2011

नज़्म ....आज फिर चांदनी आसमाँ पर खुलकर बिख़री


आज फिर चांदनी आसमाँ पर
खुलकर बिख़री
आज फिर तेरी यादें मेरी आँखों के
पहलू लगकर रात भर जागती रही ,
कुछ अँधेरे मुंह तक
ओढ़कर टीस की चादर
कराहते रहे मेरी सूरत बनकर ,
कुछ आँहें
सर्द मौसम के झोंको की तरह
मेरी रूह को छूकर निकली ,
एक सिहरन जो बची थी ख़यालों में तेरी
वो भी भीतर ही भीतर
उठी और सिहर कर गुज़री ,
जिस्म में दरक आए हो
जैसे कई शीशे के टुकड़े ,
मैने तेरे अहसास को
कुछ इस तरह टूटते देखा ,
कुछ टूटा गुमां तेरे ना होने का भी ,
एक हिस्सा मेरी जिंदगी का वहीँ जा ठहरा
बुझते हुए चरागों की लौ के करीब ,
उफ़ ...........
ये चांदनी क्योंकर आज फिर से
आसमाँ पर इस तरह से खुलकर बिख़री ?
-रजनी मोरवाल
अहमदाबाद

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