शनिवार, 29 अक्टूबर 2011

मनुष्य बना कर रखना तुम

तानाशाह का अंत
का अंत समय था
अंतिम क्षण मन में
सोच रहा था
क्यों इर्ष्या,द्वेष,अहम्
अहंकार में
व्यर्थ किये करोड़ों क्षण
छोड़ जाऊंगा पीछे अब
मनों में
खट्टी यादें लोगों के
याद कर
जिन्हें तिलमिलायेंगे वो
खुल कर गाली देंगे
चीख चीख कर मेरा सत्य
संसार को बताएँगे
मेरी कब्र पर
एक फूल भी ना चढ़ाएंगे
धन दौलत सब पीछे रह
जायेगी
परिवार की दुर्गती होगी
क्यों समझ नहीं आया
जीवन भर
निरंतर
भटकता रहा खुदा के
पथ से
अहम्, अहंकार ताकत ने
मुझ को
मनुष्य से राक्षस बनाया
अब आँख मुंदने वाली है
अंतिम दुआ मान लो
मालिक
जन्म फिर से अवश्य देना
पर सम्राट नहीं बनाना तुम
अपनों से दूर ना होने देना
अहम् अहंकार से दूर
रखना
मनुष्य बना कर
रखना तुम


(लीबिया के तानाशाह शासक,कर्नल गद्दाफी की मौत पर)

आगे क्या होने वाला है ?

उम्र ढलने लगी थी
झुर्रियां बढ़ने लगी थी
सोच कांपने लगा था
विचारों का मंथन
त्वरित गति से
होने लगा था
आगे क्या होने वाला है ?
साफ़ दिखने लगा था
एक अजीब सा भय
मन में घर करने लगा
जीवन डगर
समाप्त होने का समय
अब दूर ना था
क्या होगा ?
कब अंत आयेगा ?
क्यों मनुष्य को
फिर लौटना पड़ता है
निरंतर मष्तिष्क में
सवाल कचोटने लगा
क्या करूँ
जिससे अंत समीप
ना आये
बहुत सहा जीवन में
जैसा चाहा
वैसा मिला नहीं
फिर भी जीने की चाह
कम ना हुयी
परमात्मा अब पहले से
अधिक याद आने लगा
अधिक से अधिक

जी सकूँ
जाऊं भी तो चुपके से
पता भी ना चले
नाम मात्र भी

कष्ट ना सहना पड़े
रात सोऊँ सवेरे
जागूँ ही नहीं
यही सोच बार बार
मन में
आने लगा था


डा.राजेंद्र तेला,"निरंतर"
"GULMOHAR"
H-1,Sagar Vihar
Vaishali Nagar,AJMER-305004
Mobile:09352007181

गुरुवार, 27 अक्टूबर 2011

ऐसे थे हमारे हैड साहब !

हमारे दफ्तर के बड़े बाबूजी यानि हैड साहब यथा नाम तथा गुण थे। हैड साहब नौकरी लगने के दिनों से ही हर काम में अपनी दिमागी कसरत किया करते थे। अक्सर सरकारी कार्यालय की परम्परा के अनुसार नए-नए लगे बाबुओं को रिसिप्ट-डिस्पैच पत्र भेजने व प्राप्त करने के कार्य में लगाया जाता है, इसलिए जब हैड साहब को, हालांकि तब वह हैड नहीं थे, इस काम में लगाया गया तो उन्होंने यहां भी अपना दिल दिमाग एक कर दिया। यहां तक कि उसका असर उनके घर पर भी पडऩे लगा।
एक बार वे किसी के निमंत्रण पर सायंकाल का भोजन करने कहीं गए। जाते वक्त घरवाली से कह गए कि तुम खाना खा लेना। जब वह वापस लौटे तो घरवाली भी खाने के काम से निपट चुकी थी। हैड साहब जब सोने की तैयारी कर रहे थे, तभी उनका कोई मित्र बाहर से उनके घर आ गया। हैड साहब ने औपचारिकतावश उससे खाने का आग्रह किया और इस बाबत अपनी बीवी से बात की। जब उन्हें मालूम हुआ कि बीबी ने कोई रोटी बचा कर नहीं रखी है तो वे काफी नाराज हुए। उन्होंने चिल्ला-चिल्ला कर सारा पास-पड़ौस इकट्ठा कर लिया। उनका कहना था कि जैसे ऑफिस में पत्रों की 'ओसीÓ अर्थात बचा हुआ पत्र रखी जाती है तो घर में भी रोटियों की 'ओसीÓ रखी जानी चाहिए ताकि सनद रहे और वक्त बेवक्त काम आए।
रिसिप्ट-डिस्पैच के बाद उन्हें कार्यालय की लेखा शाखा के बजट बनाने के काम में लगाया गया था। उन्ही दिनों एक अन्य सैक्शन के ऑफीसर ने उन्हें बुला कर पूछा कि तुम क्या काम करते हो? इस पर इन्होंने तत्काल अपनी बुद्धि का परिचय देते हुए उत्तर दिया कि सर! मुझे 'बुडजटÓ (बजट) बनाने का कार्य दिया गया है। ऑफीसर 'बुडजटÓ शब्द सुन कर पहले तो थोड़ा अचकाया लेकिन बाद में उसे जब बात समझ आई तो वह मुस्कराए बिना नहीं रह सका और बोला कि अच्छा-अच्छा आप 'बुडजटÓ बनाते हैं।
पहले नौकरी, फिर शादी की सीढ़ी दर सीढ़ी चढ़ते हुए जब उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई तो उन्होंने बड़े जोश-खरोश से अपने साथियों को दोपहर के खाने पर न्यौता दिया। प्रत्येक को निमंत्रण देते हुए कहा कि कल दोपहर हमारे यहां 'डिनरÓ है, आपको जरूर आना है। इधर दोस्तों ने भी जवाब दिया 'आएंगे भई, जरूर आएंगे. कल आपके यहां 'दोपहर के डिनरÓ पर अवश्य आएंगे।Ó
नौकरी के ही शुरुआती दिनों की बात है। एक बार एक ऑफीसर को किसी सरकारी आदेश की प्रति देखनी थी। उन्होंने अपने हैड साहब को बुला कर कहा कि आप 5 मई 1969 का सर्कुलर लेकर आओ। अब हैड साहब सारे कार्यालय में इधर-उधर खूब घूम लिए लेकिन उन्हें ऐसा कोई भी पत्र नहीं मिला। जो, उनकी समझ से, सर्कुलर यानि गोलाकार हो। सारे सरकारी कागज पत्र आयताकार थे। आखिर हार-थक कर उन्होंने अपनी शंका अपने एक साथी से जाहिर की कि फाइलों में तो सभी पत्र आयताकार है, सर्कुलर तो एक भी पत्र नहीं है, जबकि साहब 5 मई का सर्कुलर मांग रहे हैं। उनके साथी ने मुस्कराते हुए उन्हें समझाया कि सरकार के किसी आदेश विशेष को, जो सब कार्यालयों को भेजा जाता है, उसे सर्कुलर कहते हैं।
एक बार हैडसाहब को बस द्वारा नजदीक ही किसी जगह जाना था। जब उस जगह बस पहुंची, तभी वहां उतरने के लिए वे अपनी सीट से उठे । उसी समय उनके ऑफीसर, जिन्हें अचानक किसी काम से कहीं जाना था। बस में घुसे ऑफीसर ने ज्योंही उन्हें सीट से उठते हुए देखा तो शिष्टाचारवश कन्धा पकड़ क र बैठा दिया कि अरे-अरे बैठो-बैठो। आग्रह के बावजूद ऑफीसर खडे रहे। थोडी देर बाद बस अगले स्टॉप पर पहुंची तो हैड साहब फिर उतरने के लिए अपनी सीट से उठे, लेकिन इस बार फिर ऑफीसर ने उन्हें फिर सीट पर बैठा दिया। जब बस रवाना हुई तो उन्होंने हैड साहब से पूछा, 'आप कहां जा रहे हैं ?Ó इस पर हैड साहब ने बताया, 'मुझे तो पिछले स्टॉप पर ही उतरना था, आपने मुझे जबरदस्ती वापस बैठा दिया।Ó
उन दिनों हैड साहब की पोस्टिंग विभाग के मुख्यालय में थी और विभाग में आमूलचूल परिवर्तन होने वाले थे। विभाग बोर्ड के रूप में बदलने वाला था। जो भी मुख्यालय में आता, बोर्ड की ही चर्चा करता और पूछता कि बोर्ड कब तक बन जायगा। संयोग से उन्ही दिनों मुख्यालय में भंवरलाल नामक कारपेंटर भी काम कर रहा था। उसे चीफ इंजीनियर के कमरे में टांगने हेतु लकड़ी का एक बोर्ड बनाने हेतु कहा गया था। एक रोज बाहर से एक अधिकारी आया और बोर्ड के बारे में पूछने लगाा कि बोर्ड कब तक बनेगा, इस पर हैड साहब ने बताया कि पिछवाड़े भंवरलाल से जाकर पूछ लो कि बोर्ड कब तक बन जाएगा।
हैड साहब अपने ऑफीसरों के आदेशों का पालन करने में बड़े पाबंद थे और अक्षरश: उनका पालन करते थे। एक बार उनके ऑफीसर ने उन्हें किसी दूसरे स्थान से ट्रंक कॉल पर कहा कि मैं बस से आ रहा हंू या तो मैं सायंकाल 6 बजे पहुंचूंगा या रात 9 बजे, इसलिए ड्राइवर को बस स्टैन्ड भेज देना, वह देख लेगा। हैडसाहब ने ड्राइवर को बुला कर आदेश दिया कि तुम्हें साहब को लेने बस स्टैन्ड जाना है तथा साहब ने सायं 6 बजे अथवा रात्रि 9 बजे आने को कहा है। दोनो ही समय जाकर देखना है। ड्राइवर द्वारा यह कहने पर कि मैं 6 बजे साहब को लेने पहुंच जाऊंगा और साहब आ गए तो ठीक वरना 9 बजे जाकर देख लूंगा तो हैड साहब ने उससे कहा कि 6 बजे भी जाना है और 9 बजे भी। चाहे साहब 6 बजे आएं चाहे न आएं। साहब का आदेश है।
समय के साथ साथ हैडसाहब का काम बढऩे लगा। वह अक्सर मिलने-जुलने वालों से कहा करते थे कि मैं आजकल बहुत बूशी (बिजी) हूं।Ó इंगलिश में 'व्यस्तÓ माने 'बिजीÓ इस तरह लिखा जाता है कि कम पढ़ा-लिखा व्यक्ति उसे 'बिजीÓ की जगह 'बूशीÓ पढ़ सकता है। उन्हीं दिनों उनके मातहत एक बाबू को कार्यालय में मच्छर दिखाई दिए। उसने अपनी शिकायत लिख कर हैडसाहब को भिजवा दी। हैडसाहब ने जब यह नोटशीट देखी तो उस पर कई प्रश्न पूछ डाले। मसलन मच्छर एक था या कई थे? वे आज ही दिखाई दिए या पहले भी दिखाई दिए थे? वे गजेटेड थे या नॉन गजेटेड थे? सीधी भर्ती वाले थे या प्रमोटी थे? वे कही से ट्रांसफर होकर तो यहां नहीं आएं? उनकी ज्वायनिंग रिपोर्ट कहां है? कई प्रश्न उन्होंने पूछ डाले और मसला फाइलों में ही दब कर रह गया।
इसी तरह एक बार कार्यालय के रिकार्डकीपर को कार्यालय में एक चूहा दिखाई दिया। उसने पहले तो मौखिक रूप से हैडसाहब को बताया, फिर लिख कर दिया कि रिकार्ड में एक चूहा दिखाई दिया है। अगर वह ऑफिस का रिकार्ड खा गया तो उसकी समस्त जिम्मेवारी आपकी, यानि हैड साहब की होगी। हैड साहब ने इस मामले को गंभीरता से लिया। उन्होंने ऑफीसर को नोटशीट पर लिखकर भेजा कि कार्यालय के रिकार्ड में एक चूहा देखा गया है, हो सकता है कि वहां चूहों ने कोई अवैध कॉलोनी बना ली हो, अत: इस बारे में नगर परिषद तथा यूआइटी को तत्काल कार्यवाही के लिए लिखना उचित होगा। हैडसाहब ने सोचा कि एक बार वहां से जवाब आ जाए तो आगे कार्यवाही करें। इधर दूसरे ही रोज सफाई करते हुए रामू सफाई वाले को रिकार्ड रूम में चूहा दिखाई दिया तो उसने अपनी झाडू से तत्काल उसे ठंडा कर दिया।
कार्यालय की चाहरदिवारी पर प्रवेश हेतु एक बड़ा गेट एवं उसके साथ ही एक छोटा गेट भी था। अकसर बड़े गेट से वाहन एवं छोटे गेट से पैदल लोग प्रवेश किया करते थे। एक बार की बात है कि छोटे गेट की चाबी चौकीदार से खो गई, इसलिए वह उसे खोल नहीं पाया, सिर्फ बड़ा गेट ही खुला था। जब हैड साहब कार्यालय आए तो रोज की तरह उन्होंने छोटे गेट से प्रवेश करना चाहा, लेकिन वह बन्द था। उन्होंने चौकीदार को बुलाया और गेट नहीं खुलने का कारण जानना चाहा। जब चौकीदार ने उन्हें बताया तो उन्होंने कहा कि अब लोग अंदर कैसे आएंगे? इस तरह के सैकड़ों किस्से लिए हैड साहब कुछ ही दिनों पूर्व रिटायर हुए हैं।
-ई. शिव शंकर गोयल,
फ्लैट न. 1201, आई आई टी इंजीनियर्स सोसायटी,
प्लाट न. 12, सैक्टर न.10, द्वारका, दिल्ली- 75.
मो. 9873706333

बुधवार, 26 अक्टूबर 2011

केसर की बर्फी

दिवाली के दिनों की बात थी. यह खबर जंगल में आग की तरह फैल गई
कि षहर के पडाव इलाके में केषर की बर्फी पचास रू. किलो मिल रही है, जो
कोई सुनता आष्चर्य प्रकट करता और बरबस उसके मुंह से निकलता अरे !
केषर की बर्फी, वह भी पचास रू. किलो ?
कई लोग एकाएक इस बात को मानने के लिए तैयार ही नही हुए. उनका
कहना था कि ऐसा कैसे हो सकता है ?
कुछ लोग जो हर बात में बाल की खाल निकालते रहते थे उनका कहना
था कि राजनीति की तरह मिठाइयों के भाव इतने नीचे नही गिर सकते कि
केषर की बर्फी पचास रू. किलो बिक जायें. उनका यह भी कहना था कि जब
बाजार में षक्कर ही चालीस-पचास के आसपास मंडरा रही है तो केषर की
बर्फी पचास कैसे मिल सकती है ? कुछ लोग इसे राजनीतिक रंग देने लगेउनका
कहना था कि यह सब वोटों की राजनीति है. सरकार लोगों की
सदभावना प्राप्त करने की कोषिष कर रही है, तो कुछ लोगों का कहना था कि
जब वह घाटा खाकर रेल और बसें चला सकती है, नुकसान उठाकर दो रू.
किलो गेंहू ओैर तीन रू. किलो चावल बेच सकती है तो दिवाली के पवित्र
त्यौहार पर लागों को पचास रू. किलो केसर की बर्फी भी बेच सकती है,
‘लोकप्रिय’ सरकार के लिए सब कुछ सम्भव हैंपहले
यह चर्चा पान एवं नाई की दुकानों, चाय की थडियों, होटलों तथा
विभिन्न हथाइयों पर हुई फिर धीरे धीरे सारे षहर में फैल गई. जो भी सुनता
पहले तो अविष्वास प्रकट करता लेकिन फिर मन ही मन ललचाता कि कही यह
खबर सही ही ना हो ? जल्दी से घर चलकर मुन्ने की मां को बताते है देखें वह
क्या आर्डर देती है क्योंकि बर्फी लाने या ना लाने का फाईनल तो उसे ही करना
हैअब
घर घर में चर्चा होने लगी. षर्माजी की पत्नि ने पडौस की मिसेज
वर्मा को अपनी उॅची आवाज के बल पर खिडकी से ही बेतार का संदेष भेजा ‘
अरी ! सुनती हो, पडाव में केषर की बर्फी पचास रू. किलो मिल रही बताईहमारे
‘यह’ अभी अभी दिलीप नाई की दुकान से सुनकर आए है. तुम भी चाहो
तो वर्माजी को इनके साथ भेज दो, दोनो दो दो किलो ले आएंगे. कहां पडी है
इतनी सस्ती केषर की बर्फी ?
मिसेज वर्मा घर के आंगन में दिवाली के मांडनें रंगोली मांड रही थी
अचकचाकर खिडकी पर आगई औेर आष्चर्य से मिसेज वर्मा की बात सुनने
लगी. बात खत्म होते ही अखबार पढ रहे वर्माजी का अखबार छीनते हुए उन्हें
थैला पकडाकर कहा कि षर्माजी के साथ पडाव जाकर दो किलो केषर की बर्फी
ले आओ, पचास रू. किलो मिल रही हैवर्माजी
अपनी पत्नि की बात सुनकर अवाक रह गए. उन्होने पत्नि को
घूरते हुए कहा कि केषर की बर्फी और पचास रू. किलो ? कही तुम्हारा दिमाग
तो खराब नही हो गया है ? तब मिसेज वर्मा ने उन्हे बताया कि षर्माजी नाई
की दुकान पर बाल कटवाने गए थे वही से सुनकर आए है. अब आप जल्दी
करें कही ऐसा ना हो कि बर्फी खत्म हो जाए.
हर घर में यही चर्चा थी. सेल्स टैक्स ऑफीसर प्यारे मोहन की पत्नि ने
भी अपने पति को ललकारा कि आप घर बैठे बैठे क्या कर रहे है ? पडाव में
केषर की बर्फी पचास रू. किलो मिल रही है औेर आप घर में बैठे है, जाकर
दो एक किलो बर्फी तो ले आओ.
प्यारे मोहनजी ने अपनी असमर्थता जताते हुए कहा कि अपनी सरकारी
गाडी का ड्ाईवर अभीतक आया नही है. आज त्यौहार है षायद देर से आए
और अपनी मारूती में छः महीनें से पेट्ोल नही डलवाया है. पैदल चलते मुझे
षर्म आती हेै मैं बाजार कैसे जाउं ?
उनका यह भी कहना था कि जब हमें दुकानदार मिठाई एवं मेवों के इतने
गिफट दे गए है तो अब और मिठाई की क्या आवष्यकता है ? परन्तु साहब की
पत्नि का कहना था कि जब केसर की बर्फी इतनी सस्ती मिल रही है तो ऐसा
मौका हाथ से क्यों जाने दिया जाय ? जब प्यारे मोहनजी ने उसे समझाया कि
बर्फी मिल नही रही हेै बल्कि बिक रही है औेर उसके लिए पैसे देने पडेंगे तब
कही जाकर उनकी पत्नि ने केषर की बर्फी खरीदने का ईरादा बदलाइस
तरह की हलचल पूरे षहर में थी और कई लोग हाथों में थैला
लटकाये स्कूटर, लूना साइकिल इत्यादि पर पडाव की तरफ भागे चले जा रहे थेसभी
की जुबान पर एक ही बात थी अरे ! इतनी सस्ती बर्फी !
पडाव पहुंचने पर लोगों ने देखा कि चारों तरफ भीड थी और यातायात
व्यवस्था का नामोनिषान तक नही था. चिल्लपों भी मची हुई थी और आस पास
के नाले से गंदगी भी सडक पर आगई थी जिस पर पहले से ही बडे बडे गढढें
थे. इसी सडक के किनारे कई ठेलें खोमचें वाले खडे थे जो कि दिवाली के
अवसर पर अपना अपना सामान बेच रहे थे. उन्ही के बीच एक ठेले पर
षक्कर की बनी रंगीन बर्फियांे का केषर बाई का ठेला भी था जिस पर एक
गत्तें के बोर्ड पर लिखा था ‘बर्फी पचास रू. किलो-मालिक केसरबाई’.
पास जाने पर पता लगा कि वहां पहुंचे ग्राहक षरमा षरमी में उसके ठेले
से बर्फी खरीद रहे थे जबकि पडौस के ठेले पर भुगडामल उसी तरह की बर्फी
के थाल पर बैठी मक्खियों को बार बार उडा रहा था, उसे कोई पूछने वाला तक
न था
षिवषंकर गोयल

मंगलवार, 25 अक्टूबर 2011

अल बरुनी के समय की दिवाली

ग्यारवी षताब्दी
अल बरुनी ईरानी मूल का मुसलमान था और उसका वास्तविक नाम अबू
रेहमान मुहम्मद इब्न-ए-अहमद था. उसका जन्म 973 ई. में ख्वारिजम
-आधुनिक खींव नगर जोकि उन्नीसवी सदी में मध्य एषिया में तुर्किस्तान का
खान राज्य था, अब यह उजबेकिस्तान में है- के इलाके में हुआ था जिस पर
उस समय तुरान और ईरान के सामानी वंष 874-999 का षासन थानगर
के बाहरी क्षेत्र में जंम होने के कारण उसे अल- बिरुनी की संज्ञा दी गई
और आज वह अपने असली नाम की बजाय इसी नाम से जाना जाता हेै,
बिरुनी फारसी भाषा का षब्द है जिसका अर्थ है ‘बाहर का’.
अल बिरुनी ने गजनी के सुलतान महमूद गजनवी के षासन काल में
‘लगभग 1030 ई’ में हिन्दुस्तान के बारे में ‘किताब फी तहकीक मा लिल हिन्द
मिन मकाला मक्बूला फिल अक्ल-औ-मरजूला’ जिसे आमतौर से
‘किताब-उल-हिन्द’ कहा जाता है की रचना की थी, बाद में इस पुस्तक का
अनुवाद पहले जर्मन भाषा एवं बाद में अंग्रेजी में जर्मन विद्वान एडवर्ड सीसख्
ााउ ‘1845-1930’ ने करके सन 1888 ई. मंे लंदन से प्रकाषित करायाइस
पुस्तक का हिन्दी अनुवाद षान्ता राम ने किया और वह सन 1926-1928
में इंडियन प्रेस लिमिटेड इलाहाबाद से प्रकाषित हुईअल
बरुनी ने पहले तो भारत के बारे में अरबी भाषा में उपलब्ध ग्रन्थों
का अघ्यन किया तथा फिर भारत भ्रमण किया. उस समय भारत में संस्कृत
भाषा का प्रचलन था, किताब लिखते समय उसका कहना था कि ‘हिन्दु लोग धर्म
में हमसे भिन्न है तथा सभी प्रकार के आचार-व्यवहार में, हमारी वेष भूषा और
हमारे रीति रिवाजों से अलग है’ परन्तु इन सब के बावजूद भारत को जानने में
उसकी अपार रुचि थी, इसलिए यहां के रीति रिवाज, धर्म, त्यौेहार इत्यादि का
समुचित अध्यन कर वह उपर वर्णित किताब लिखने में कामयाब हुआकिताब
के अनुसार आज से लगभग एक हजार वर्ष पूर्व हमारे देष में
दिवाली किस रुप में मनाई जाती थी इसी का निम्न लिखित षब्दों में वर्णन कर
रहे है अल बरुनी:-
‘कार्तिक प्रथमा या अमावस्या का दिन जब सूर्य तुला राषि में जाता हैे
‘दिवाली’ कहलाता है. इस दिन लोग स्नान करते है, बढिया कपडें पहनते है,
एक दूसरे को पान सुपारी भेंट देते है, घोडे पर सवार होकर दान देने मंदिर
जाते हेै और एक दूसरे के साथ दोपहर तक हर्षोल्लास के साथ खेलते है. रात्रि
को वे हर स्थान पर अनेक दीप जलाते है ताकि वातावरण स्वच्छ हो जाए. इस
पर्व का कारण है कि वासुदेव ‘उस समय कृष्ण को इसी नाम से पूजा जाता था’
की पत्नि लक्ष्मी, विरोचन के पुत्र बलि को ‘जो सात लोक में बन्दी है’ वर्ष में
एक बार इसी दिन बंधन मुक्त करती है और उसे संसार में विचरण करने की
आज्ञा देती हेै, इसी कारण इस पर्व को ‘बलिराज’ भी कहा जाता हैइसी
मास में जब पूर्णचन्द्र अपनी आदर्षावस्था में होता है वे कृष्ण पक्ष के
सभी दिनों में अपनी पत्नियों का साज सिंगार करते औेर जेवनार देते है’.
षिव षंकर गोयल
फलेट न.1201, आई आई टी
इंजीनियर्स सोसाइटी, प्लाट न.12, सैक्टर 10, द्वारका, दिल्ली 75
टे.011 22743258

सोमवार, 24 अक्टूबर 2011

जमूरे के नुस्खें

षहर के भीड भरे इलाकें में पुरानी मंडी की तरफ जो सडक जाती है
उसी चौराहे पर पानी की प्याउ के सामने मजमा लगा हुआ था. भीड ने एक
अर्द्ध गोलाकार घेरा सा बना लिया था. घेरे के बीच में खाली जगह पर एक
12-14 वर्ष का लडका लेटा हुआ था, जिसे एक मैली कुचैली चाद्धर से ढका
हुआ था.
भीड में, बच्चों से लेकर बूढों तक, तरह तरह के लोग थे. थोडी देर बाद
मजमा लगानेवाले ने अपनी विषिष्ट षैली ओैर आवाज में बोलना षुरू किया.
‘मेहरबान, कद्रदान, मुझसे न आपकी जान न पहचान, फिर भी इस पापी पेट
की खातिर आपके मुलक में आपकी खिदमत में पेष हुआ हंू’
कुछ क्षण ठहरकर उसने अपने दाहिने हाथ को मटका कर पांचों अंगुलियों
को सोये हुए लडके की तरफ करते हुए जोर जोर से मंत्र बोला ‘काली
कलकत्तेवाली, तेरा वचन न जाये खाली’ जिसे भीड में उपस्थित सभी लोगों ने
सुना. फिर वह बोला ‘अरे ! जमूरे... बतायेगा ?
चादर ओढकर लेटे हुए जमूरे ने जवाब दिया ...‘बताउंगा’
‘तू कौन ?’
...‘सैमुअल’
‘मैं कौन ?’
...‘पेैड्ो’
‘बतायेगा ?’
‘हां बताउंगा’
तब उस्ताद बने पैड्ो ने लडके से पूछा,
‘बता अफीम का नषा कैसे कम होता हैं ?’
जमूरे ने अपनी पूरी ताकत लगाकर बोलते हुए कहा
‘अरहर के पत्तों का अर्क पिलाने से अफीम का नषा कम हो जाता हेै’
‘और सत्ता का नषा कैसे कम होगा ?’
‘चुनाव के समय सबक सिखाने से तो होता ही हेै कभी कभी तिहाड की
हवा खाने से भी नषा काफूर हो जाता हैं. जमूरा बोलाइस
बात पर भीड ने ठहाका लगाया और छोटे छोटे बच्चें, जो
आगे की तरफ बैठे थे, तालियां बजाने लगे. कुछ बच्चें, जो पास की ही
सरकारी स्कूल की उसी समय छुटटी होने पर जुट गए थे अपने अपने
बस्तों को बजाने लगे. मजमेवालें ने अपनी उॅची आवाज में जोर से बोलते
हुए फिर कहा, ‘साहेबान जमूरा सबका हाल बतायेगा क्योंकि पापी पेट का
सवाल है लेकिन आप लोग सब अपनी अपनी जेब पॉकेट से सावधान
रहें’
उसके इतना कहते ही अधिकांष लोग अपनी अपनी जेबें संभालने
लगे और उधर भीड में खडे जेबकतरों की नजरें खुषी से चमकने लगी.
‘हां तो जमूरे बतायेगा ?’ मजमेवालें ने फिर पूछा.
...‘बतायेगा ओैर जरूर बतायेगा’ जमूरा बोला.
‘ अच्छा बता कोई भाई केलें ज्यादा खा जाए तो ?’
...‘छोटी इलाइची खाएं, सब हजम हो जायेगा.
‘ओैर ज्यादा रिष्वत खाले तो ?’
...‘जेल की हवा खाए सब बराबर हो जायेगा’
मदारी ने फिर पूछा
‘किसी सज्जन ने आम ज्यादा खा लिए हो तो क्या करें ?
...‘आम ज्यादा खा लिए हो तो दो-चार जामुन खा ले या जामुन
ज्यादा खा लिए हो तो आम खालें ’
‘अगर सत्ता ज्यादा भोग ली हो तो ?’
...‘सत्ता ज्यादा भोग ली हो तो विरोध और विरोध ज्यादा भोग
लिया हो तो कोईसा भी रथ लेकर निकल जाय ठीक हो जायेगा.’
भीड की कानाफूसी जब ज्यादा बढने लगी तो मदारी ने अपनी
हथेलियां पीटते हुए जोर से आवाज की और हाथ जोडकर लोगों से कहा
‘ भाई साहब ! अपनी घर गृहस्थी की बातें यहां न करें इसके लिए
आपकी घरवाली घर पर आपका इंतजार कर रही हैं. फिर जमूरे की
तरफ मुखातिब हो कर बोला:-
‘ अरे ! जमूरे किसी ने तरबूज ज्यादा खा लिए हो तो ?’
इस बात पर भीड में से कोई चिल्लाया, ‘तरबूज इतने महंगे हो रहे
है ज्यादा कहां से खा लेगा ?’ परन्तु मदारी ने तुरन्त उस दर्षक को हाथ
जोडते हुए कहा, ‘भाई साहब, क्यों मेरे पेट पर लात मारते है ? आप
तरबूज की बात कर रहे है, कौनसी चीज महंगी नही है ? हर चीज के
भाव आसमान छू रहे है और सरकार पिछले ढाई साल से कह रही है कि
अगले सौ दिन में महंगाई कम होजायेगी. इसलिए मेहरबानी करके आप
जमूरे का जवाब जमूरे को ही देने दें, आपसे पूछंू तब आप बताना.’
फिर उसने जमूरे को ललकारा ‘हंा बेटा बोल’
...‘तरबूज ज्यादा खा लिए हो तो दो माषा काला नमक खाएं’
जमूरा बोला.
‘ओैर गम ज्यादा खा लिया हो तो क्या करें ?’
...‘दो ठहाकें हास्यरस के लगाले अल्लाह ने चाहा तो सब ठीक हो
जायेगाइसी
तरह मदारी और जमूरे के बीच सवालों के आदान प्रदान से
पता लगा कि अगर षराब का नषा ज्यादा चढ गया हो तो दो सेब-
उॅकारजी हलवाई की बेसनवाली सेव नही- फलों वाली सेब, का रस तथा
पैसों का नषा ज्यादा हो गया हो तो दो-एक ऐब का रस पिला दें, नषा
कम हो जायेगाअगर
गन्ना ज्यादा खा लिया हो तो 2-3 बेर खाने से गन्ना हजम
हो जाता है ओैर बेर ज्यादा खा लिया हो तो गन्ना चूसलें. इसी तरह 5
वर्ष जिन्होंने जनता को चूसा हो तो चुनाव के 5 सप्ताह जनता उन्हें
चूसलें सब बराबर हो जायेगाजमूरे
ने पूछने पर यह भी बताया कि मांस या मूली ज्यादा खा लेने
से पेट का अफारा आ गया हो तो गुड खाना चाहिए औेर महंगाई तथा
भ्रष्टाचार ज्यादा हो गया हो तो उधर से ध्यान हटाने के लिए तरह तरह
के षगूफें छोडने चाहिए या कोई रथ लेकर निकल जाना चाहिए.
आगे मदारी अपनी असली बात पर आता लेकिन उसी समय
बाजार में दो सांड आपस में लडते-लडते उधर ही आ गए जिससे मजमा
बीच में ही समाप्त हो गया और सब अपने अपने घर चले गए.
षिव षंकर गोयल

रविवार, 23 अक्टूबर 2011

अनमोल वचन

प्रशंसा सब को अच्छी लगती है,शायद ही कोई होगा जिसे प्रशंसा सुनना अच्छा नहीं लगता है, प्रशंसा आवश्यक है, अच्छे कार्य की प्रशंसा नहीं करना अनुचित है पर ये कतई आवश्यक नहीं है, कि अच्छा करने पर ही प्रशंसा की जाए, प्रोत्साहन के लिए साधारण कार्य की प्रशंसा भी कई बार बेहतर करने को प्रेरित करती है,पर देखा गया है लोग झूंठी प्रशंसा भी करते हैं, खुश करने के लिए या कडवे सत्य से बचने के लिए या दिखावे के लिए। पर इसके परिणाम घातक हो सकते हैं। व्यक्ति सत्य से दूर जा सकता है, एवं वह अति आत्मविश्वाश और भ्रम का शिकार हो सकता है, जो घातक सिद्ध हो सकता है। वास्तविक स्पर्धा में वह पीछे रह सकता है या असफल हो सकता है इसलिए प्रशंसा कब और कितनी करी जाए, यह जानना भी आवश्यक है। साथ ही झूंठी प्रशंसा को पहचानना भी आवश्यक है। इसलिए सहज भाव से संयमित प्रशंसा करें, और सुनें, प्रशंसा से अती आत्मविश्वाश से ग्रसित होने से बचें। प्रशंसा करने में कंजूसी भी नहीं बरतें। * विपत्ती के समय में इंसान विवेक खो देता है, स्वभाव में क्रोध और चिडचिडापन आ जाता है। बेसब्री में सही निर्णय लेना व उचित व्यवहार असंभव हो जाता है। लोग व्यवहार से खिन्न होते हैं, नहीं चाहते हुए भी समस्याएं सुलझने की बजाए उलझ जाती हैं जिस तरह मिट्टी युक्त गन्दला पानी अगर बर्तन में कुछ देर रखा जाए तो मिट्टी और गंद पैंदे में नीचे बैठ जाती है, उसी तरह विपत्ती के समय शांत रहने और सब्र रखने में ही भलाई है। धीरे धीरे समस्याएं सुलझने लगेंगी एक शांत मष्तिष्क ही सही फैसले आर उचित व्यवहार कर सकता है।

* मनुष्य निरंतर दूसरों का अनुसरण करता है, उनके जीवन से प्रभावित हो कर या उनके कार्य कलापों से प्रभावित होता है अधिकतर अन्धानुकरण ही होता है। क्यों किसी ने कुछ कहा? किन परिस्थितियों में कुछ करा या कहा कभी नहीं सोचता। परिस्थितियाँ और कारण सदा इकसार नहीं होते, महापुरुषों का अनुसरण अच्छी बात है फिर भी अपने विवेक और अनुभव का इस्तेमाल भी आवश्यक है। यह भी निश्चित है जो भी ऐसा करेगा उसे विरोध का सामना भी करना पडेगा। उसे इसके लिए तैयार रहना पडेगा। अगर ऐसा नहीं हुआ होता तो केवल मात्र एक या दो ही महापुरुष होते। नया कोई कभी पैदा नहीं होता। इसलिए मेरा मानना है जितना ज़िन्दगी को करीब से देखोगे। अपने को दूसरों की स्थिती में रखोगे तो स्थितियों को बेहतर समझ सकोगे, जीवन की जटिलताएं स्वत: सुलझने लगेंगी। - राजेंद्र तेला
* समस्या तभी पैदा होती है जब दिनचर्या का महत्त्व ज्यादा हो जाता है सोच नेपथ्य में रह जाता है, धीरे धीरे खो जाता है, केवल भ्रम रह जाता है भौतिक सुख, अपने से ज्यादा" लोग क्या कहेंगे "की चिंता प्रमुख हो जाते हैं आदमी स्वयं, स्वयं नहीं रहता कठपुतली की तरह नाचता रहता, जो करना चाहता, कभी नहीं कर पाता, जो नहीं करना चाहता, उसमें उलझा रहता, जितना दूर भागता उतना ही फंसता जाता। - राजेंद्र तेला

डा.राजेंद्र तेला,"निरंतर"
"GULMOHAR"
H-1,Sagar Vihar
Vaishali Nagar,AJMER-305004
Mobile:09352007181

गुरुवार, 20 अक्टूबर 2011

लपटया पंडितजी की स्कूल !

हां यही नाम था उस स्कूल का जोकि षहर के मध्य घने बसें अंदरूनी ईलाकें में
एक गली में स्थित था. उस स्कूल की यह खूबी थी कि वह अध्यापन के मामलें में ‘वन मेन
षो’ थी. मास्’साब का नाम भी वैसे तो कुछ और ही था लेकिन सब उन्हें लपटया पंडित ही
कहते थे. यह नाम क्यों और कैसे पडा यह आज तक रहस्य ही है हां अब बिना किसी
केन्द्रिय दखल के सीबीआई इसकी जांच करें तो वास्तविकता का पता लग सकता हेैं.
षहर के कई व्यक्ति इसी स्कूल के ‘प्रॉडेक्ट’ हैं. उस समय इस स्कूल में भर्ती होने
के लिए मास्’साब को सवा रू. ओैर नारीयल देना पडता था. यह स्कूल वैसे तो पहाडोंवाली
स्कूल कहलाती थी. ‘पहाडोंवाली स्कूल’ नाम इसलिए पडा कि इसमें पढनेवालें बच्चें रोजाना
सामूहिकरूप स्वर में जोर-जोर से पहाडें यानि टेबल्स, बोलकर याद किया करते थे जिन्हें
पास-पडौसवालें घर बैठे आसानी से सुन सकते थे.
जो विद्याार्थी इस स्कूल से बिना उचित कारण बताए गैरहाजिर होता उसे लेने चार
लडकें उसके घर भेजे जाते जोकि उसके आनाकानी करने पर टांगाटोली करके, यानि चारों
हाथ-पांव पकडकर झुलाते हुए’ लाते थे. मां-बाप का एतराज करना तो दूरकी बात, कही
कोई चूं तक नही करता था. आजकल तो उलट जमाना आगया हैं. क्या मजाल जो मास्टर
किसी बच्चें को थोडासा भी डांटले. सच पूछो तो जहां पहले बच्चें मास्टर से डरते थे
आजकल टीचर बच्चों से डरते हैं. जाने कब कोई किसी नेता, अफसर या मैनेजमेंट के
किसी सदस्य का रिष्तेदार हो ओैर नौकरी से निकलवा दे.
षनिवार को दोपहर खाने की छुटटी के बाद ‘ऐसेम्बली’ होती थी जिसमें सभी बच्चों
को एक गोल घेरे में बैठा दिया जाता औेर उनके बस्तें मास्’साब अपने कब्जे में कर लेते
थे. इसके बाद साधारण ज्ञान, गणित इत्यादि पर आधारित प्रष्न पूछे जाते और जो विद्यार्थी
फटाफट उत्तर बता देता उसे घर जाने की छुटटी देदी जाती.
ऐसे ही एक षनिवार को हमारी ऐसेम्बली हो रही थी. मास्’साब ने सवाल पूछा कि
एक आंख से दस फुट दिखता हेै तो दो आंखों से कितना दिखेगा ? औरों के साथ साथ
उत्तर देने हेतु मैंने भी हाथ खडा किया. संयोग से मास्’साब की नजर मेरे पर पड गईजैसी
मेरी ‘इमेज’ थी उसको देखते हुए उन्हें थोडा आष्चर्य तो हुआ होगा कि ‘इसको’ प्रष्न
का हल इतना जल्दी कैसे आ गया लेकिन नियमानुसार उन्होंने मेरे से कहा कि अच्छा तुम
बताओ. मैंने खडे होकर जवाब दिया कि मास्’साब ! -उन दिनों सर कहने का रिवाज नही
था-एक आंख से दस फुट तो दो आंखों से बीस फुट दिखेगा.
मेरा इतना कहना था कि एक बार तो मास्’साब ने मुझे मेरा बस्ता पकडा दिया और
मैं भी वहां से भागने की फिराक में ही था लेकिन कुछ क्षण बाद मास्’साब को जाने क्या
सूझी कि उन्होंने बस्ता तो वापिस लिया ही मुझे पीछे दिवार के सहारे खडे होने के आदेष दे
दिए. वहां मैं घन्टों खडा रहा तब कही जाकर पिन्ड छूटा. यह खडे होने की आदत वही से
षुरू हुई. बाद में तो राषन की दुकान, बिजली-पानी के बिल जमा कराने, किसी सरकारी
दफतर में कोई काम करवाने इत्यादि के लिए घन्टों खडा रहना पडता था. उसी अनुभव के
दम पर आगे चलकर मैंने एक पार्टी के टिकट पर चुनाव में और सामाजिक संगठनों में भी
कई बार खडे होने की कोषिष की लेकिन कामयाबी नही मिली. लोग कहते ‘तुम्हें कौन वोट
देगा. बात सही भी हैं. खैर,
थोडी देर बाद मास्’साब ने मेरे दोस्त छगन से अगला सवाल पूछा कि अगर मेैं
तुम्हारें पिताजी को पांच हजार रू. दूं तो पांच प्रतिषत ब्याज सहित तीन साल बाद वह मुझे
कितने रू. लौटाएंगे ? इस पर छगन कुछ नही बोला तो मास्’साब ने उसे कहा कि तीन
साल से पढ रहे हो और इतना भी नही जानते ? तो छगन बोला मास्’साब ! मैं तो जानता
हंू लेकिन आप मेरे पिताजी को नही जानते, वह आपको एक पैसा भी वापस लौटानेवाले
नही हेैं.
एक और सवाल पंडितजी ने हमसे पूछा. उन्होंने कहाकि एक काम को एक आदमी
चार रोज में करता है तो चार आदमी उस काम को कितने रोज में करेंगे ? मेरे सहपाठी
कैलाष के हाथ खडा करने पर मास्’साब ने उसे बोलने का ईषारा किया तो वह बोला
‘पंडितजी ! अगर मजदूर कच्ची नौकरीवालें हुए तो एक रोज में ही कर देंगे और अगर
पक्की नौकरीवालें हुए तो चाय-बीडियां पीते रहेंगे और चार रोज में भी खतम नही करेंगे.
ऐसी ऐसेम्बली में कई बार मास्’साब हमें पंचतंत्र इत्यादि की कहानियां जैसे कछुआ
औेर खरगोष, बाप,बेटा और गधे की सवारी, बंदर और मगरमच्छ सुनाते और उसके अंत
में पूछते कि तुम्हें इनसे क्या षिक्षा मिलती हैं ? एक बार उन्होंने हमें प्यासे कव्वें और घडें
की कहानी सुनाई जिसमें प्यासा कव्वा पानी के लिए इधर उधर भटकता है ओैर अंत में उसे
एक मकान की छत पर अधभरा घडा नजर आता है जिसे छोटें छोटें कंकड पत्थर लाकर
वह भरता है और पानी पीकर उड जाता हैं. इस कहानी को सुनाने के बाद मास्’साब ने
पूछा कि बच्चों इससे हमें क्या षिक्षा मिलती है तो मैंने जवाब दिया कि खाओ, पीओ और
खिसकलो. यह सुनकर मास्’साब सहित सारी क्लास ठहाका मारकर हंसने लगी.
एक बार मास्’साब हमें हिन्दी में द्वन्द्व यानि एक दूसरें के विरूद्ध षब्दों के
बारें में बता रहे थे. उन्होंने कई उदाहरण देते हुए हमें बताया जैसे ‘सुख-दुख’, ‘सर्दी-गर्मी’,
‘रात-दिन’, ‘काला-गोरा’ इत्यादि होते है ऐसे ही और उदाहरण देने के लिए कहा तो हमारा
एक सहपाठी झट से बोल पडा सा’ब ! ‘पति-पत्नि’. यह सुनकर पंडितजी मुस्कराने लगे.
ऐसेही एक मौकें पर मास्’साब ने हमसे पूछा कि ऐसा कोई वाक्य बताओ जो दफतर
में बाबू, अदालत में अपराधी और क्लास में विद्यार्थी सबसे ज्यादा इस्तैमाल करते हो. जब
कुछ देर तक कोई नही बोला तो उन्होंने मेरे एक सहपाठी की ओर ईषारा करके पूछा तो
उसने खडे होकर जवाब दिया ‘मुझुे पता नही’ यह सुनकर मास्’साब ने उसे षाबाषी दी और
कहा बिलकुल ठीक !
एक बार एक आदमी अपनी बीबी के कहने पर पडौस की दुकान पर नारियल
खरीदने गया. यह उन दिनों की बात हेै जब नारियल 5-6 आनें में मिल जाता था. घरके
पास ही जो किरयानें की दुकान थी उस दुकानदार ने नारीयल की कीमत छः आनें बताई तो
उस व्यक्ति ने पूछा कि इससे सस्ता कहां मिल सकता है तो दुकानदार ने उसे किरयाने
बाजार जाने हेतु कहा. उस व्यक्ति ने वहां जाकर नारीयल की कीमत पूछी तो व्यापारी ने
बताया कि चारआने का एक नारीयल हैं. अधिक सस्ता मिलने के चक्कर में वह थेक बाजार
में चला गया तो पता पडा कि वहां एक नारीयल की कीमत दो आने ही हैें. अबतो उसका
लालच बढता ही गया ओैर उसने इससे भी सस्ते होने की बात की तो उसे बताया गया कि
जंगल में लगे पेड पर उसे मुफत में ही नारीयल मिल सकता है तो हुलसा हूलसा वह जंगल
में पहुंचकर एक पेड पर चढ गया और एक नारीयल को पकडकर खैंचने लगा तभी तने
परसे उसके पैर फिसल गए और वह नारीयल के सहारे पेड पर लटक गयाअबतो
वह ‘बचाओ बचाओ’ की आवाजें लगाकर चिल्लाने लगा. संयोग से उसी
समय एक उॅट सवार उधर से निकल रहा था. उस व्यक्ति ने उस उॅट सवार से कहा कि
मुझे बचाओ मैं तुम्हें ढेरसारे पैसे दूंगा तो वह सवार तैयार होगया लेकिन जैसेही उसने पेड
के नीचे आकर उस व्यक्ति के पांव पकडे उसका उॅट बिदक कर नीचे से निकल गया. इसी
तरह पहले एक घोडेंवाला और फिर एक गधेवाला वहां आया औेर उनके साथ लटक गयाअब
सभी लोगों ने उस व्यक्ति को कहा कि तुम नारीयल को छोडना मत उल्टे हम तुम्हें
पैसे देंगे. वह आदमी लालची तो था ही अति उत्साह में आकर दोनों हाथों को फैलाकर
बोला क्या इतने पैसे ? तभी सारे लोग धडाम से नीचे गिरेय
ह कहानी आजभी उतनी ही सही है जितनी तब थी. हम देख ही रहे है कि दक्षिण
के राजाने लालच में अपनी और अपने साथियों की क्या हालत बनादी है पैसों के लालच में
ज्योंहिे नारीयल उसके हाथ से छूटेगा तो सब संगी-साथी धडाम से नीचे गिरेंगे.
एक बार पंडितजी ने हमारे को एक पहेलीनुमा चुटकुला सुनाया. एक बार उनके एक
मित्र दिल्ली के सुन्दरनगर स्थित चिडियाघर देखने गए. वहां एक जगह उन्होंने क्या नजारा
देखा कि एक बाडें में बहुतसे जानवर खडे है और गधे के अलावा सभी हंस रहे हेैं. संयोग
की बात कि उसी मित्र को पांच रोज बाद फिर वहां जाना पडा. इस बार उसने देखा कि
बाकी जानवर तो चुपचाप खडे है लेकिन वह गधा हंस रहा हेैं. यह बात सुनाकर पंडितजी
ने हमें पूछा कि बताओ बच्चों ! ऐसा क्यों हुआ ?
जब हममें से कोई नही बता पाया तो उन्होंने ही कहा कि उनके उस मित्रने
चिडियाघर के परिचायक से पूछा कि मैं पांच रोज पहले आया था तो गधे के अलावा सभी
हंस रहे थे और आज आया तो गधा अकेला हंस रहा है, क्या बात है ? इस पर परिचायक
ने बताया कि मैंने पांच रोज पहले इनको एक चुटकुला सुनाया था जिसे सुनकर बाकी
जानवर तो उसी समय हंस दिए लेकिन गधे को आज समझ में आया है इसलिए वह अब
हंस रहा हैं.
मुझे अच्छी तरह याद है कि एक बार मास्’साब कृष्ण जंमाष्टमी पर हम सबको
बैठाकर सूरदासजी का वह पद सुना रहे थे जिसमे माखन चोरी पकडे जाने पर बालकृष्ण
यषोदा मैया को अपनी सफाई देते है और कहते है कि ‘मैया मोरी मैं नही माखन खायो’
मैया यषोदा पहले तो मानती नही हैे, बालकृष्ण को डांटती हैे, डपटती हैे तो बालकृष्ण कहते
है कि मैं तो सुबह होते ही गायों को लेकर ग्वालबाल के संग मधुवन में चला गया था और
सांयकाल होने के बाद वापस आया हूं, फिरभी वह नही मानती है तो रूअंासा होकर कहता
है कि अपनी लकुटियां संभाल, अब मैं गाएं चराने नही जाउॅगा, तुने मुझे बहुत नाच नचाया
है’ तब यषोदा प्रेम में विहल होकर बालकृष्ण को अपने गले लगा लेती हैं. परन्तु हमारे
पंडितजी ने सूरदास रचित इस पद की अंतिम लाईन का अपना ही अर्थ करते हुए हमें
बताया कि बाबा सूरदासजी ने यषोदा को गले लगा लिया.‘...बरबस कंठ लगायौ’.
मास्’साब कभी कभी पहेलियां भी पूछते थे. मसलन एक बार उन्होंने हमसे पूछा कि
चीनी में रेत मिल जाय तो वह आसानी से कैसे अलग होगी ? इस पर हमारें एक सहपाठी
ने बताया कि साब ! इसको चीटियों के बिल के पास डालदो. चीटियां चीनी चीनी ले जायेगी
ओैर रेत वही छूट जायेगी, किसी और को कोई चिंता करने की जरूरत नही हैंहमारें
मास्’साब ‘षेर-बकरी और घास’ की यह पहेली भी खूब पूछते थे. एक किसान
को यह तीनों चीजें लेकर नदी पार करनी थी. नाव में उसके साथ कोई सी एक चीज जा
सकती थी. अगर वह पहले घास लेजाता है तो पीछे से षेर बकरी को खा जायेगा जैसे
उदारवादी व्यवस्था में होरहा हैं, बडे बडे मॉल छोटे दुकानदारों को निगल रहे है और अगर
किसान षेर लेजाता है तो बकरी सारा चारा चट कर जायेगी जैसे बिहार में असरदार लोग
भैंस का चारा चट कर गए थे. अब किसान क्या करें ? वह पहले बकरी को परले पार
लेजाकर छोडता है और वापस आकर षेर को लेजाकर छोड आता है और बकरी को वापस
लेआता है. फिर पहले घास और अंत में बकरी को लेजाता हैं.
एक और पहेली वह अकसर पूछा करते थे. ‘दो मां दो बेटी, चली बाग को जाय,
तीन नींबू लेलिए कितने कितने खाय ?’ हमारें लिए यह बडी जटिल समस्या थी जैसे
आजकल केन्द्र के सामने तेलंगाना की है. चार महिलाएं और नींबू सिर्फ तीन, परन्तु हमारे
मास्’साब इसे आसानी से सुलझा देते थे. कहते, महिलाएं तीन ही हैंं. सुनने में चार हैं. एक
लडकी, उसकी मां और उसकी नानी. मतलब दो मां है और दो ही बेटियां है, तीनों को
एक एक नींबू मिल जायेगा. मास्’साब अकसर कहा करते थे कि अगर कोई समस्या है तो
उसका समाधान भी हैं. उनका कहा आजभी उतना ही प्रासंगिक हैे जितना उस समय थाचाहे
कष्मीर समस्या हो चाहे तेलंगाना समस्या, सबका हल हेै, इन्हें समस्या तो राजनीतिज्ञों
ने बना रखा हैं.
एक बार उन्होंने हमें एक बहुत ही दिलचस्प किस्सा, जिसमें पहेली भी षामिल थी,
सुनाया. एक बार एक गांव में एक जमींदार की मृत्यु होगई. अपनी वसीयत में वह लिख
गया कि मेरे पास जो 19 उॅट हेै उन्हें ऐसे बांटा जाय कि आधे उॅट मेरी पत्नि को, 1/4
मेरे बेटे को और 1/5 मेरी बेटी को मिल जाय. कुछ दिनों बाद गांव पंचायत बैठी और
बहुत बहस हुई. धरने, वाकआउट भी हुए लेकिन नतीजा कुछ नही निकला. इनमें से कुछ
लोग, जो खाप पंचायत के नाम पर अपनी मनमानी करते थे औेर खुदको कानून से उपर
समझते थे, मरने-मारने पर उतारू होगए, कुछ उॅटों को काटने-पीटने की बातें करने लगेजब
गांवकी संसद यानि पंचायत और एक्जीक्यूटिव -पंच,प्रधान,पटवारी- किसी से भी कुछ
नही हुआ तभी संयोग से एक उॅट सवार उधर से निकला. उसने पूछा कि मामला क्या है ?
पंचों ने बताया तो उसने कुछ सोचा और फिर बोलाकि सारें उॅटों को यहां लाओ, फिर
उसमें अपना एक उॅट मिलाकर बोला कि कुल कितने उॅट हुए ? लोगों ने गिने कुल बीस
थे. उसने आधे यानि दस जमींदार की पत्नि को दे दिए. 1/4 यानि 5 उसके लडके को दे
दिए और 1/5 अर्थात 4 उसकी लडकी को सौंप दिए. बाकी रह गया एक उॅट जिसे वह
लेकर आया था, वही लेकर सबको राम राम कहता हुआ वह वहां से चल दिया. हमारें
मास्’साब का कहना था कि समस्या को हल करने के लिए कभी कभी परम्परा से हटकर भी
सोचना पडता हैं. बस, उसे हल करने की नियत होनी चाहिए.
-ई. शिव शंकर गोयल,
फ्लैट न. 1201, आई आई टी इंजीनियर्स सोसायटी,
प्लाट न. 12, सैक्टर न.10, द्वारका, दिल्ली- 75.
मो. 9873706333