हॉ भाई, हॉ भाई, टोटा निकला
राजनीति के चक्कर में,
क्यूं भाई क्यूं भाई, टोटा निकला? हॉ भाई, हॉ भाई टोटा निकला.
ज्यादा ज्यादा मिलता भाषण,
थोडा थोडा मिलता राषन,
हम देते दिल्ली का आसन,
वे देते आष्वासन,
बात बडी वो करने वाला,
दिल का कितना छोटा निकला, हॉ भाई, हॉ भाई टोटा निकला
असेम्बली
में झगडें चलते,
आपस के कुछ रगडे चलते,
किसी की ऑखें तनी हुई है,
किसी की ऑखें चढी हुई है,
किसीके हाथ में लाठी देखी,
किसीके हाथ मंे सोटा निकला, हॉ भाई हॉ भाई टोटा निकला.
भारत की है लाज बचाते,
अन्न कमी में चंदा खाते,
कहते है जनता की सत्ता,
जनता का ही खाते भत्ता,
दुबला पतला चुन कर भेजा,
वहॉ से निकला, ताजा मोटा निकला, हॉ भाई हॉ भाई टोटा निकला.
ये भारत का सच्चा बंदा,
इसने कभी न खाया चंदा,
इसके मन में खोट नही हेै,
इसके घर में नोट नही है,
भाई भतीजें, सालों के घर,
षक्कर, सीमेन्ट का कोटा निकला, हॉ भाई हॉ भाई टोटा निकला.
खाली रही गरीब की थाली,
चमचों के मुख छायी लाली,
राजनीति की यही प्रणाली,
यहॉ पर सिक्कें चलते जाली,
हार हार कर सच सच निकला,
हार पहन कर छोटा निकला, हॉ भाई हॉ भाई टोटा निकलाकर्ज
विदेषी बढता जाता,
नया टैक्स जनता पर आता,
अब कि योजना सफल रही है,
अच्छी खासी फसल रही है,
लेकिन जब यह बजट बनाते,
फिर भी कहते टोटा निकला, हॉ भाई हॉ भाई टोटा निकलाजिनको
हमने चुन कर भेजा,
उनके पास नही था भेजा,
वादों को वह कुचल रहा हेै,
क्यूं बातें क्यूं रहा है,
कभी इधर से कभी उधर से,
बे पेन्दी का लोटा निकला, हॉ भाई हॉ भाई टोटा निकला
रचियताः-श्री घनष्याम अग्रवाल
नई गदगुदी पत्रिका
रविवार, 28 अगस्त 2011
शनिवार, 27 अगस्त 2011
सपनों में संसद
एक दिन हम भी ससंद में जा पहुचे सपनों में
चारो और देख कर बैठ गये हम अपनों में
पास में बेठी महिला सांसद
और आँखों में भरा था पानी
क्या हालत बना रखी हे मैडम
इसके पीछे क्या हे कहानी
क्या बात बताऊ कवी राज
सोने की हो गयी रेत
अब पछताए क्या होत हे
चिडिया चुग गयी खेत
भला हो ऐ राजा का
जिसने बड़ा सा भ्रष्टाचार किया
भला हो कलमाड़ी का
जिसने भाजपा में शक्ति संचार किया
हमने भी सोचा था इस मुदे पर
सता का सुख पा लेंगे
राजा और कलमाड़ी जैसे
हम भी गंगा नाह लेंगे
भ्रष्टाचार मिटने का भाषण
लिख लिख कर भर दिया पन्ना
न जाने कहा से आया दुश्मन
मेरा मुदा ले गया अन्ना
सारे सपने धेरे रह गए
कर गया हमको कंगाल
ये कैसे हुवा पूछा हमने काग्रेस से
तो बोले ये अमेरिका की चाल
ये अन्ना कांगेस का कम
और हमारा दुश्मन ज्यादा हे
साथ रहेंगे समर्थन नहीं देंगे
ये काग्रेस से वादा हे
मैंने कहा मैडम काग्रेस और भाजपा
भ्रष्टाचार मिटने की बाते तो कर रहे हे
तो फिर अन्ना और
इस लोकपाल से क्यों डर रहे हे
हम नेताओ की कथनी और करनी में होता हे फरक
भ्रष्टाचार नहीं होगा तो राजनीती हो जायेगी नरक
एसे में कोन मुरख हे जो राजनीती में आयेगे
अन्ना तो हे भूक का आदि नेता यहाँ क्या खायेगे
फिर संसद में नही होंगे नेता
ना होंगे चका चक वोट
उस वक्त तुम्हे हम याद आयगे
याद आएगा मेरा नोट
महेंद्र सिंह भेरुंदा
मो-9983052802
चारो और देख कर बैठ गये हम अपनों में
पास में बेठी महिला सांसद
और आँखों में भरा था पानी
क्या हालत बना रखी हे मैडम
इसके पीछे क्या हे कहानी
क्या बात बताऊ कवी राज
सोने की हो गयी रेत
अब पछताए क्या होत हे
चिडिया चुग गयी खेत
भला हो ऐ राजा का
जिसने बड़ा सा भ्रष्टाचार किया
भला हो कलमाड़ी का
जिसने भाजपा में शक्ति संचार किया
हमने भी सोचा था इस मुदे पर
सता का सुख पा लेंगे
राजा और कलमाड़ी जैसे
हम भी गंगा नाह लेंगे
भ्रष्टाचार मिटने का भाषण
लिख लिख कर भर दिया पन्ना
न जाने कहा से आया दुश्मन
मेरा मुदा ले गया अन्ना
सारे सपने धेरे रह गए
कर गया हमको कंगाल
ये कैसे हुवा पूछा हमने काग्रेस से
तो बोले ये अमेरिका की चाल
ये अन्ना कांगेस का कम
और हमारा दुश्मन ज्यादा हे
साथ रहेंगे समर्थन नहीं देंगे
ये काग्रेस से वादा हे
मैंने कहा मैडम काग्रेस और भाजपा
भ्रष्टाचार मिटने की बाते तो कर रहे हे
तो फिर अन्ना और
इस लोकपाल से क्यों डर रहे हे
हम नेताओ की कथनी और करनी में होता हे फरक
भ्रष्टाचार नहीं होगा तो राजनीती हो जायेगी नरक
एसे में कोन मुरख हे जो राजनीती में आयेगे
अन्ना तो हे भूक का आदि नेता यहाँ क्या खायेगे
फिर संसद में नही होंगे नेता
ना होंगे चका चक वोट
उस वक्त तुम्हे हम याद आयगे
याद आएगा मेरा नोट
महेंद्र सिंह भेरुंदा
मो-9983052802
गुरुवार, 18 अगस्त 2011
सोने का भाव, खा रहा है ताव!
हमारे देश में सोने की बड़ी महिमा है। चाहे वह सोना धातु हो, जिसने सन् साठ के दशक में भूतपूर्व मुख्यमंत्री स्व. मोहनलाल सुखाडिय़ा के समय राजस्थान की छोटी सादड़ी कांड में कई गुल खिलाये थे अथवा आराम का मामला हो, हमारे देश में सोने के भाव हमेशा ही ऊंचे रहे हैं। अब खबर है कि सोने के भाव फिर नई ऊंचाइयां छू रहे हैं और यह हो भी क्यों न यहां तो स्वयं दुनिया के मालिक क्षीर सागर में शेषशैया पर सो रहे हैं तो उनकी प्रजा, जिसको जैसा मौका हाथ लग रहा है, वह वही सो रहा है। मसलन पृथ्वी के दोनों छोरों पर स्थित उत्तरी एवं दक्षिणी धू्रव के कई प्राणी जैसे पोलर बीयर इत्यादि छह-छह महीने सोते हैं। मिश्र के पिरामिडों में ममियां सैकड़ों वर्षों से चिर निद्रा में सो रही हैं तो मेंढ़क इत्यादि प्राणी वर्षा ऋतु के बाद सुषुप्तावस्था में जमीन के अंदर सो जाते हैं। उल्लू दिन में सोते हैं। टिटहरी अपनी टांगें आसमान की तरफ कर के सोती है। देश की भूखी नंगी एवं बेबस जनता का एक हिस्सा बावजूद 'इंडिया शाइनिंगÓ और 'अपना हाथ गरीब के साथÓ के नारों के बीच पानी एवं सीवर के बड़े पाइपों में सोता है। बड़े -बड़े महानगरों में सैकड़ों लोग फुटपाथ और प्लेटफॉर्म पर सोते हैं। और तो और चुनाव हो जाने के बाद हमारे अधिकांश जनप्रतिनिधि तक पांच साल के लिए, जाने कहां जाकर, सो जाते हैं? परन्तु सो जाते हैं यह सच है, जब चारों तरफ सोने का इतना महत्व है तो सोने के भाव बढेंग़े ही।
त्रेताकाल में कुंभकर्ण ने बड़ी तपस्या की। ब्रहमाजी प्रसन्न हो गए. तपस्या करने वालों पर विरन्ची-ब्रहमाजी का वरदहस्त रहता था, सो प्रकट हो गए और कुंभकर्ण से बोले, वत्स! मांग क्या मांगता है? कुंभकर्ण के पास राजपाट, धन-दौलत की तो कोई कमी थी नहीं, भीमकाय शरीर और अतुलित बल था ही, लेकिन मानसिक सोच आसुरी थी तो उसने मांगना तो चाहा एक दिन सोना और 6 महीने जागना, लेकिन ऐन वक्त पर उसकी चाल सरस्वती माता को पता लग गई और वह असुर की जीभ पर आकर बैठ गई नतीजतन कुभकर्ण ने उल्टा मांग लिया कि 6 महीने सोऊं और एक दिन जागूं और इस तरह सोने के बिसर होकर रह गया। जिसने सोने की ठान ली, वह चाहे कुंभकर्ण हो, चाहे प्रशासन उसको जगाना मुश्किल है। आप चाहे तो आजमा कर देख लें। हां, अलबत्ता अन्ना हजारे जैसा आंदोलन चल निकले तो और बात है।
सोनेकी महत्वपूर्ण घटना महाभारत काल में भी हुई है। कौरव एवं पांडव लड़ाई की तैयारी के लिए विभिन्न राजा-महाराजाओं और उनकी सेनाओं को अपनी तरफ करने के लिए रथों पर सवार होकर दौरे कर रहे थे। ठीक वैसे ही जैसे आजकल कई नेता, धार्मिक उन्माद फैलाने और अपना मतलब साधने हेतु सिर पर मुकुट पहन पहन कर रथ यात्राएं निकालते रहते हैं। स्ंायोग से एक दिन अर्जुन एवं दुर्योधन दोनों श्रीकृष्ण के पास पहुंच गए। दुर्योधन थोड़ा पहले पहुंचा, तब श्रीकृष्ण सो रहे थे, इसलिए दुर्योधन उनके सिरहाने जा कर बैठ गया। थोडी देर बाद अर्जुन भी वहां पहुंचा और सोये हुए श्रीकृष्ण के पांवों की तरफ बैठ गया। थोड़ी देर बाद श्रीकृष्ण की नींद खुली तो पहले अर्जुन से दुआ-सलाम हुई और कुशलक्षेम पूछने के बाद उन्होंने सिरहाने की तरफ देखा तो दुर्योधन बैठा था। उससे भी नमस्कार का आदान-प्रदान हुआ। श्रीकृष्ण ने दोनों से ही आने का कारण पूछा। उनके द्वारा बताने पर वे बोले कि चूंकि जागने पर पहले मैंने अर्जुन को देखा है, अत: पहले मांगने का हक उसी का है। अत: या तो वह मुझे मांग ले या मेरी सेना को। दुर्योधन का तर्क था कि चूंकि पहले मैं आया हूं, अत: पहले मांगने का अधिकार मेरा है, लेकिन उस समय श्रीकृष्ण सो रहे थे, इसी सोने की वजह से यह उलटफेर हुआ।
एक पौराणिक कथा के अनुसार राजा नल देश निकाले पर जंगल में थे। तब अपनी पत्नी दमयंती को सोता हुआ छोड़ कर चल दिये थे। इसी वजह से आगे चल कर उन पर कैसी-कैसी विपत्ति आती है, जबकि भिक्षा में मिली सूखी रोटी तक उनके हाथ से नदी में गिर जाती है। अपनी पत्नी यशोधरा को महल में सोता हुआ छोड़ कर सिद्धार्थ (भगवान बुद्ध) चले गए थे। बाद में इस बारे में वह अपनी सखी से उलाहने के रूप में कहती है:-'सिद्ध हेतु स्वामी गए, यह गौरव की बात, पर चोरी-चोरी गए, यही बड़ा आघात। सखी, वह मुझसे कह कर जाते, तो क्या पथ बाधक ही पाते? (साकेत, मैथिलीशरण गुप्त)
ऐसी-ऐसी सोने की कई घटनाएं हमारे धार्मिक और ऐतिहासिक पन्नों पर अंकित हैं, जिन्होंने इतिहास पलट दिया। कुछ समय पूर्व जयपुर, राजस्थान की घटना है, जिसमें राज्य के खादी एवं ग्रामोद्योग बोर्ड के कुछ कर्मचारी जब कार्यालय समय में ही ऑफिस में सोते हुए पाए गए तो तत्कालीन खादी मंत्री श्रीमती गोलमा देवी को कहना पड़ा, 'दफतर में सोबो तो चोखी बात कोनी।Ó परन्तु राज्य सरकार ही क्या केन्द्र सरकार का विश्वास भी सोने में ही है। नहीं तो दिन प्रतिदिन इतने घोटाले क्यों उजागर हो रहे है? इतना भ्रष्टाचार क्यों फैल रहा है? काले धन का इतना शोरशराबा क्यों हो रहा है? इसलिए जब सरकार ही सोने को महत्व दे रही है तो सोने का भाव नई ऊंचाइयां छू जाए तो इसमें आश्चर्य कैसा?
यह व्यंग्य लेख सेवानिवृत्त इंजीनियर श्री शिवशंकर गोयल ने भेजा है। उनका संपर्क सूत्र है -फ्लेट नं. 1201, आई आई टी इंजीनियर्स सोसायटी, प्लाट नं. 12, सैक्टर न.10, द्वारका, दिल्ली- 75, मोबाइल नंबर: 9873706333
बलंग्या
बलंग्या, हां यही नाम था स्कूल के हमारे उस सहपाठी का। सब उसे इसी उपनाम से पुकारते थे, लेकिन यहां आपको इतना बताना जरूरी है कि वर्तमान लंकाई क्रिकेट टीम के खिलाडी मलिंगा से कोई लेना-देना नही है। बलंग्या के परिचय के बगैर अजमेर की तत्कालीन हस्तियों का वर्णन अधूरा ही रह जाता इसलिए भी बलंग्या के बारे में आपको बताना जरूरी समझा गया। और बातों के अलावा उसकी एक खासियत यह भी थी कि शारीरिक कद-काठी में तो वह औरों से उन्नीस ही बैठता था, लेकिन शरारतों में उसका नाम काफी ऊपर था।
कहते हैं कि पूत के पांव पालने में ही दिखाई दे जाते हैं। यही बात बलंग्या पर लागू होती थी। एक ही दृष्टान्त से आप सब कुछ समझ जायेंगे। उसके बचपन में एक बार उसको साथ लेकर उसके मां-बाप किसी सामाजिक समारोह में गए। वहां भीड-भाड़ में वह उनसे बिछुड़ गया। कुछ देर बाद कार्यकर्ता उसको लेकर मंच पर पहुंचे। माइक थामे उद्घोषक ने उसका पता ठिकाना जानने के लिए उससे कई सवाल पूछे, लेकिन क्या मजाल जो बलंग्या ने पूछने वाले को उसके कोई काम की बात बताई हो?
संवाद आप भी देखिये:-
...तुम्हारा क्या नाम है बेटा! उदघोषक ने पूछा।
...बलंग्या. इनका जवाब था।
...तुम्हारे पिताजी का क्या नाम है ?
...पापा।
...तुम कहां रहते हो?
...मम्मी के पास।
...तुम्हारे पिताजी क्या काम करते हैं?
...जो मम्मी कहती है वह करते हैं।
देखा आपने? कहते हैं कि कुछ जानकार लोगों ने तो तब ही कह दिया था कि बडा होकर ऐसा ही आदमी सरकारी प्रवक्ता बन सकता है। सब कुछ बता दिया और कुछ भी नहीं बताया। वरना आजकल तो बड़े बडे राजनीतिक दलों के अधिकांश प्रवक्ता वातावरण में कड़वाहट घोलते रहते हैं। स्पष्ट है कि जब सामाजिक मंच पर हुई इस खुली पूछताछ का कोई नतीजा नहीं निकला तो मंच से ही फिर ऐलान किया गया कि एक बच्चा खो गया है जो अपना नाम बलंग्या बताता है। जिनका बच्चा है वह आकर ले जाए। थोड़ी देर बाद इनके पिताजी मंच पर आए और उद्घोषक से झगडऩे लगे कि आपने मुझे 'जिनÓ कैसे कहा। सभी इनके पिताजी को समझाने लगे कि आपको जिन नही कहा है। इनका आशय तो यह था कि जिस किसी का भी बच्चा हो वह यहां आकर ले जाए। बडी मुश्किल से वह माने।
बचपन में इनको रामलीलाओं का भी बहुत शौक था। वहां इनको लीलाओं में कम और शैतानियों में ज्यादा मजा आता था। एक बार स्थानीय नया बाजार घास कटला में लीला चल रही थी। एक ब्रेक के दौरान बलंग्या पर्दे के पीछे गया और असमय ही पर्दा उठाने की रस्सी खींच दी। उस समय कलाकार रिलैक्स कर रहे थे। अचानक उठे पर्दे से दर्शक यह देख कर भौंचके रह गए कि रावण और सीता बने पात्र 'शेयरÓ करके बीड़ी पी रहे थे। हालांकि उन दिनों शेयरों के बारे में लोग कम ही समझते थे। खैर, एक जोरदार ठहाका लगा. किसी तरह लाइट बंद करके आयोजकों ने स्थिति को संभाला।
लगे हाथ ही आपको एक घटना और बता दूं। आज लोग भले ही कुछ भी दावा करें लेकिन यह ऐतिहासिक घटना भी हमारे यहां की राम लीला की है। उपरोक्त राम लीला के रावण बनने वाले पात्र को अचानक ही बुलन्दशहर-उत्तर प्रदेश अपने गांव जाना पड़ गया। उस रोज रामायण का रावण-अंगद संवाद होना था। आयोजकों के सामने बड़ी समस्या थी, अब क्या किया जाय? किसी तरह ढंूढ़ कर, समझा-बुझा कर शहर के बाल्या हलवाई को तैयार किया गया। जब लीला चालू हुई तो इस सीन का अवसर भी आया। एक जगह जब रावण-अंगद में परम्परागत संवाद की सीमा लांघते हुए ज्यादा ही गर्मागर्मी होने लगी और रावण ने अंगद से उसका परिचय पूछा तो अंगद ने भी रावण को पूछ लिया कि तुम कौन हो? तो रावण बना पात्र घबड़ा गया और उसने कहा कि 'मैं तो बाल्या हलवाई हूंÓ, इस बात पर जो ठहाका लगा वैसा ठहाका तो आज तक कभी देखने-सुनने में नही आया।
स्थानीय डिग्गी बाजार स्थित रामायण मंडल में प्रतिवर्ष जन्माष्टमी पर कृष्ण जन्म का नाटक दिखाया जाता था। उसमें कलाकार रोबिन मास्टर कंस बना करता था। एक बार की बात है कि नाटक में कंस का दरबार लगा हुआ था और एक राक्षस गाना गा रहा था 'काले कव्वे से भी बढ़ कर, काला मेरा रंग, देखने वाले चहका जाए, अद्भुत मेरा ढंग, कहिये कहिये हुजूर, क्यों कर बुलाया दरबार में जरूर...Ó इतने में ही दर्शकों में बैठा बलंग्या उठा और बोला कि इस कंस को पूछो कि इसने इस राक्षस को यहां क्यों बुलाया है? यह सुनकर सब हंसने लगे।
हर साल नृसिंह चतुर्दशी को स्थानीय नया बाजार में काल्या-लाल्या का मेला भरता आया है। बहुत पहले की बात है, जब प्रहलाद पान वाले को हरिण्यकश्यप बनाया जाता था। उस साल भी यही हुआ। इस लीला में नृसिंह अवतार से पहले हरिण्यकश्यप को तीन-चार व्यक्तियों द्वारा पीछे से पकड़ कर मंच पर कूद-फांद कराई जाती है जो उसके निरकुंश शासन एवं मनमानी का प्रतीक है। हालांकि अब भी कहीं कहीं उसी निरंकुशता की झलक मिलती है, परन्तु अब मंत्रियों को सरे आम कुदाया नहीं जाता। खैर, एक बार कुदाने वालों का रोल बलंग्या को मिल गया। बस फिर क्या था। उसने प्रहलाद पान वाले को जरूरत से ज्यादा ऊचा उछाल दिया। वह तो गनीमत थी कि बाकी लोगों ने वक्त पर उस ऑवर हाईजम्प को संभाल लिया वर्ना उस रोज हरिण्यकश्यप के लिए नृसिंह अवतार की अलग से जरूरत ही नहीं पड़ती।
एक बार हाई स्कूल में हमारी पढ़ाई के दौरान छात्रों की हड़ताल हुई। हममें से अधिकांश को यह पता ही नहीं था कि हड़ताल किस विषय को लेकर है, परन्तु चाहे अनचाहे सभी उसमें शामिल थे। मास्टर भी अंदर ही अंदर खुश थे, परन्तु किसी को कह नहीं रहे थे। अपनी स्कूल की छुट्टी कराने के बाद हम लोगों ने दूसरी स्कूल का रुख किया। इस अभियान में बलंग्या का दो सूत्री कार्यक्रम था। 1. स्कूल पहुंच कर वहां की घंटी बजा देना. 2. स्कूल के समस्त गमलों को तोडऩा और अपने इस अभियान में वह शत-प्रतिशत सफल रहा था। उन्ही दिनों हमारे स्कूल की गोल्डन जुबली मनाई गई। उसमें हॉकी, फुटबॉल, कबड्डी के टूर्नामेन्ट हुए। क्लास कम्पीटीशन हेतु हमारी क्लास की फुटबॉल टीम का चयन होना था। हम सभी इच्छुक लड़के मैदान में पहुंचे। बलंग्या भी उनमें था। हमें बारी-बारी पैनल्टी किक से बॉल गोल में पहुंचानी थी। जब बलंग्या की बारी आई तो उसने अपनी भरपूर शक्ति बॉल में किक लगाई, लेकिन बॉल गोल में पहुंचने की बजाय उसका जूता गोल में पहुंचा और बॉल वहीं पड़ी रही। हालांकि इसे गोल नहीं माना गया फिर भी घटना पर सभी ने ताली बजाई, लेकिन इतना जरूर हुआ कि बलंग्या ने टीम में शामिल होने की फिर जिद्द नहीं की।
ऐसे ही एक और मौके पर हैमर थ्रो (लोहे के एक ठोस गोले को चेन के माध्यम से, घेरे की परिधि में रहते हुए, घुमा कर फेंकना होता है) का ट्रायल चल रहा था। बलंग्या ने भी अपना भाग्य आजमाना चाहा। उसने हैमर उठा कर उसे घुमाया लेकिन उसी दौरान हैमर उसके हाथ से छूट गया और वह वहीं घेरे में गिर गया, लेकिन बलंग्या छिटक कर घेरे से दूर जा पड़ा।
हमारा स्कूल वैसे तो हाई स्कूल था, लेकिन वहां फीस के अलावा कुछ भी 'हाईÓ नहीं था। इंगलिश हमें छठी क्लास से पढ़ाई जाती थी और वह विद्यार्थियों के लिए ही नहीं, पढ़ाने वालें मास्टरों के लिए भी जानलेवा थी। जब कभी कोई कोई मास्टर कहीं अटक जाता तो हमें कहता कि इसे छोड़ दो, यह इम्पोरटैन्ट नही हैं या कहते यह एक्जाम में नहीं आयेगा इत्यादि। यह सुन कर हम सब खुश हो जाते।
एक बार हमारी कक्षा में मास्Óसाब ने आनासागर झील पर दस लाइनें लिख कर लाने का हॉम वर्क दिया। मुझे अच्छी तरह याद है जब मास्Óसाब ने क्लास में बलंग्या की कॉपी खोल कर सबको बताया, जिसमें लिखा था 'ही इज ए बिग लेकÓ, उसका आशय होगा कि वह एक बड़ी झील है। एक बार हमारे इंगलिश के टीचर हमें पढ़ाई के साथ-साथ व्यावहारिक ज्ञान भी दे रहे थे। उसी समय उन्होंने बलंग्या से पूछा कि किसी को यहां बुलाना हो तो कैसे बुलाओगे? तो उसने कहा 'कम हेयरÓ, अब मास्Óसाब ने पूछा कि अगर यह कहना हो कि वहां जाओ तो क्या बोलोगे, तो बलंग्या स्वयं कुछ दूर चला गया और वहां जाकर उसने पुकारा 'कम हेयरÓ।
एक बार की बात है कि टीचर की अनुपस्थिति में बलंग्या क्लास में कोई शैतानी कर रहा था। कुछ देर बाद जब मास्Óसाब आए तो किसी के शिकायत करने पर उन्होंने उसे खूब डांटा। थोडी देर बाद मास्Óसाब जब किसी काम से हैडमास्टर साहब के कमरे में गए तो किसी और वजह से उन्होंने मास्Óसाब से कहा कि बलंग्या को मेरे पास भेजना। मास्Óसाब ने क्लास में आकर बलंग्या को कहा 'यू गो एन्ड रिपोर्ट टू एच एमÓ परन्तु बलंग्या गया ही नहीं। दूसरे रोज एचएम ने मास्Óसाब को दुबारा कहा तो मास्Óसाब ने बलंग्या से पूछा कि तुम्हें मैंने एचएम को जाकर रिपोर्ट करने को कहा था लेकिन तुम गए नहीं। इस पर बलंग्या ने जवाब दिया कि मैं आपकी एचएम से क्या रिपोर्ट करता? मेरी कौन सुनता?
कक्षा सात की भूगोल विषय की क्लास की बात है। एक बार हमारे मास्Óसाब ने बलंग्या से पूछा कि पृथ्वी गोल है, इसके प्रमाण बताओ, तो बलंग्या ने कहा कि साब! मेरे पास एक जासूसी उपन्यास था। एक रोज मेरा एक जिगरी दोस्त मांग कर उसे पढऩे ले गया। देते वक्त मैंने उसे किसी और को देने से मना किया था, लेकिन उसने उस उपन्यास को अपने किसी खास मित्र को पढऩे हेतु दे दिया और कहा कि इसे किसी को मत देना। इसके बावजूद उस लड़के ने उसे किसी और को दे दिया। इस तरह वह किताब घूमते-घूमते फिर मेरे पास आ गई। तभी मैं समझ गया था कि पृथ्वी गोल है। वैसे इसके पहले भी मैंने कई बार देखा कि भक्त लोग मंगलवार को हनुमानजी के मंदिर के बाहर खड़े ठेले वालों से प्रसाद खरीद कर मंदिर में चढ़ाते थे तो कुछ प्रसाद घूम फिर कर वापस ठेलेवालों के पास आ जाया करता था।
ऐसा विक्टोरिया हास्पीटल में भी कई बार हुआ। लोग-बाग मरीज के लिए दवाइयां-इन्जैक्शन-ग्लूकोज इत्यादि खरीद कर ऑपरेशन थियेटर में देकर आते उन्हीं में से कुछ वापस मेडीकल स्टोर पर बिकने हेतु आ जाती थी। इन बातों से सिद्ध होता है कि पृथ्वी गोल है। यह सुनकर मास्Óसाब ने वह चुप्पी साधी कि पीरियड की घन्टी पर ही उनकी चुप्पी टूटी।
एक बार और इन्ही मास्Óसाब ने बलंग्या को क्लास में पूछा कि अच्छा बताओ पृथ्वी से चांद कितना दूर है, तो बलंग्या ने तत्काल सीधा-सपाट जवाब दिया कि जितनी चांद से पृ्थ्वी दूर है उतना ही पृथ्वी से चांद दूर है।
एक रोज इतिहास की क्लास में मास्Óसाब ऐतिहासिक महत्व की इमारतों के बारे में पढ़ा रहे थे। तभी उन्होंने बलंग्या से पूछा कि कुतुबमीनार कहां है? बलंग्या चुपचाप खड़ा रहा। इस पर मास्Óसाब ने फिर कहा कि मैं पूछता हूं कुतुबमीनार कहां है, लेकिन बलंग्या को पता हो तो बताए, वह चुपचाप ही खड़ा रहा तो मास्Óसाब ने कुछ गुस्से में उसे कहा कि तुम घर पर किताब खोल कर नहीं देखते। कल अपने पिताजी को अपने साथ लेकर आना तुम्हारी शिकायत करूंगा। रुआंसा बलंग्या घर आया। घर पर उसके पिताजी अपने एक मित्र के साथ बैठे गप्पें लगा रहे थे। उसके पिताजी ने जब उसे देखा तो उससे पूछा कि क्या बात है तो बलंग्या ने उनको क्लास में घटित सारी बात बताई जिसे सुनकर उन्होंने उल्टा बलंग्या को ही डांटा और कहा कि तू ने कुतुबमीनार को कहां छिपा रखा हैं, बताता क्यों नहीं? लेकिन यहां भी बलंग्या ने यही कहा कि कुतुबमीनार मेरे पास नहीं है, आप चाहो तो किसी को पूछ लो। बलंग्या का जवाब सुनकर उसके पिताजी और भी गुस्सा हुए और उसे कहा कि चल तेरी जेबें दिखा। इस पर उसने अपने हाफपेंट की दोनों जेबें उलट कर दिखाई कि वाकई कुतुबमीनार उसके पास नहीं है। यह देखकर उसके पिताजी के मित्र ने दखल देते हुए कहा कि यार! इसके स्कूल के बस्ते में देखो, कहीं इसने कुतुबमीनार वहीं न छिपा रखा हो। इस पर बलंग्या के पिताजी ने उसके बस्ते को उलट कर देखा लेकिन वहां भी उनको कुतुबमीनार नहीं मिली। अब तो सभी को चिंता होने लगी। पिताजी ने कहा कि ऐसे चीजें गायब होने लगीं तो तुम क्या पढ़ाई करोगे? पिताजी के मित्र की तो यह भी सलाह थी कि कुतुबमीनार के गुमने की रिपोर्ट पुलिस में करवा देनी चाहिए ताकि क्लाक टॉवर थाने के हवाले से 'गुमशुदा की तलाशÓ के अन्तर्गत टीवी चैनल पर विज्ञापित हो सके। स्थानीय अखबारों में भी विज्ञापन निकलवा देना चाहिए कि कुतुबमीनार खो गई है, जिस किसी को भी मिले वह निम्न पते पर पहुंचा दे। उसे आने-जाने के खर्च के अलावा उचित इनाम दिया जायगा। इतनी देर बलंग्या गुमसुम बैठा यह सब देखता रहा। इतने में उसकी मां इधर की तरफ निकली और जब उसे पता पड़ा कि बच्चें से कुतुबमीनार खो गई है तो वह बलंग्या से बोली कि कोई बात नहीं, अगली बार जब तू इनके साथ रावण के मेले में जायेगा तो यह तेरे को दूसरी कुतुबमीनार दिला देंगे। अभी तो चलकर रोटी खाले।
यह व्यंग्य लेख सेवानिवृत्त इंजीनियर श्री शिवशंकर गोयल ने भेजा है। उनका संपर्क सूत्र है -फ्लेट नं. 1201, आई आई टी इंजीनियर्स सोसायटी, प्लाट नं. 12, सैक्टर न.10, द्वारका, दिल्ली- 75, मोबाइल नंबर: 9873706333
शनिवार, 6 अगस्त 2011
भंवर बांगा म्है आजोजी!
मैं तो उस घड़ी को कोस रहा हंू, जब नामकरण के समय मां-बाप ने मेरा नाम भंवर रख दिया। इसको लेकर मुझे कई बार गलतफहमियां भी हुई हैं। ऐसे ही एक बार का किस्सा है, मैं घर पर बैठा था। बरसात का मौसम था और पड़ौस से कहीं गानों की मधुर-मधुर आवाजें आ रही थीं। वैसे भी सुहावने मौसम में कोई भी उन गानों अथवा गीतों को सुन कर चुप कैसे बैठ सकता है?
एक गाने के बोल थे 'सावन के झूले पड़े, सैयांजी हमें तुम क्यों भूले पड़ेÓ। इसके बाद दूसरा गाना बजा 'बन्नारे! बांगा म्है झूला डाल्या ...Ó एक नायिका बाग में झूला डाल कर अपने प्रेमी को झूला झूलने हेतु निमंत्रण दे रही है। इसके तत्काल बाद ही एक फिल्मी गीत बजा 'बागों म्है बहारों में, गलियों में चौबारों में, मैं ढूंढूं, तू छिप जाÓ यह सुन कर मैं तन कर बैठ गया लेकिन तभी एक और गीत बजा, 'भंवर बांगा म्है आजो जी......पपहियो बोल्यो जी!Ó नायिका भंवर जी को किसी बाग में बुला रही है और कह रही है कि पपीहा पक्षी भी बोल रहा है। तभी मैंने सोचा कि आज जरूर कोई बात है, वर्ना एक के बाद एक ऐसे शुभ संकेत कैसे आ रहे हैं और इस आखिरी गीत में तो मेरा नाम लेकर ही मुझे बागों में बुलाया जा रहा है। मेरा मन खुद ही बा-बाग हो गया और मैं अपना आपा खो बैठा तथा बाग में जाने की तैयारी करने लगा, लेकिन जब मैं कपड़े पहन कर तैयार हुआ तो सोचने लगा कि मेरे को आखिर किस बाग में बुलाया गया है, यह तो बताया ही नहीं? वैसे होने को जंहागीर तथा शाहजहां का श्रीनगर में शालीमार और निशात बाग बनवाया हुआ है, कहीं उसी में आने का इशारा न हो, लेकिन फिर सोचा, जिस बाग के चारों ओर यदा-कदा गोलियों की आवाजें गूंज जाती हो, भला वहां भंवर जी को कौन बुलायेगा? फिर मेरे दिमाग में आया कि कहीं चंडीगढ़ के पिन्जौर गार्डन का बुलावा तो नहीं है? लेकिन अपने स्टैन्डर्ड को देखते हुए मैंने स्वयं ने ही इस संभावना को खत्म कर दिया। एकबारगी मन में यह भी आया कि कही राष्ट्रपति भवन के मुगल गार्डन का तो बुलावा नहीं है, जहां के रखरखाव पर ही हिन्दुस्तान की गरीब जनता के लाखों रुपए रोज खर्च हो जाते है। लेकिन फिर ख्याल आया कि वह गार्डन तो बकौल भू. पू. मंत्री शशि थरूर 'कैटल क्लासÓ यानि साधारण आदमियों के लिए है ही नहीं, फिर मेरे जैसे को वहां कौन बुलायेगा?
आदमी के ख्याल ही तो हैं, जितने ऊंचे उड़ जाएं, उतने कम है। एक ख्याल यह भी आया कि कहीं पूरब दिशा से बुलावा न आया हो और फौरन ही कलकत्ता के ईडन गार्डन का विचार कौंधा, लेकिन वहां आजकल बंगाल की दीदी का बोलबाला है, जिसे कॉरपोरेट जगत का मीडिया खूब हवा दे रहा है। गोया कि वहां आज तक जो कुछ हुआ गलत ही हुआ हो।
अचानक मुझे विचार आया कि हो न हो मुंबई के ही किसी बाग का बुलावा हो। वैसे भी वहां का नेहरू गार्डन सांझ ढ़लते ही प्यार की पींगें बढ़ाने का उपयुक्त स्थान कहलाता है। लेकिन मुंबई को लेकर मन में उत्साह पैदा नहीं हुआ क्योंकि वहां के प्रसिद्ध शिवाजी पार्क में तो अब राजनीतिक दलों के जो भाषण होते हैं, वह सब सुनत-सुनते लोगों के कान पक गए, सब थोथी बातें!
सुना था कि मैसूर के पास कावेरी नदी पर बने कृष्णार्जुनसागर बांध के पास वृन्दावन गाार्डन है, जहां म्यूजीकल फव्वारे है, लेकिन ऐसी जगह मुझे बुला कर कौन आफत मोल लेगा और चेन्नई में तो 'स्नेक गार्डनÓ यानि सांपों का बाग ही है और आप जानते हैं, ऐसी जगह शृंगार रस में डूबने की नहीं होती।
यों होने को जोधपुर के पास राईका बाग है, लेकिन यह सब राई और बाग दोनो को ही बदनाम करने के लिए काफी है। उधर जयपुर में वास्तुकार विद्याधर का बाग, दुलाराम का बाग, सिसौदिया गार्डन इत्यादि हैं, लेकिन इनमें से अधिकांश आम जनता के लिए है ही नहीं, फिर वहां से बुलावा क्यों कर आयेगा? वैसे भी अजमेर का दौलत बाग और जयपुर का रामनिवास बाग तो सही मायने में अब बाग रहे ही कहां? यों होने को और भी कई बाग हैं। आपको क्या-क्या बताऊं?
ऐसे ही एक-एक कर कई विचार मन में आते रहे। बचपन में संसार के सात आश्चर्य में से एक बेबीलोन के झूलते बाग के बारे में पढ़ा था, लेकिन अब वह सब इतिहास की बातें रह गई हैं। मैं सोच रहा था कि यों होने को लंदन का हाईड पार्क भी है और वहां का ही बुलावा हो तो कैसा अच्छा रहे? विदेश की सैर भी हो जायेगी लेकिन यह सब मन के लड्डू हैं, फीके क्यों रहें।
मैं सोचने लगा कि आखिर किस बाग में जाऊं और मुझे यानि भंवरजी को बाग में ही क्यों बुलाया है? लेकिन फिर ख्याल आया कि प्राचीन काल से ही बाग का महत्व रहा है। चाहे लंका की अशोकवाटिका हो चाहे कोई और कहते हैं कि सृष्टि के प्रारम्भ में आदम और हव्वा को एक फल खाने की प्रेरणा किसी बाग में ही मिली थी। प्रसिद्ध वैज्ञानिक न्यूटन को गुारुत्वाकर्षण के सिद्धांत का ज्ञान बाग में ही सेव गिरने से हुआ था। अंत में मैंने सोचा, हो न हो यह गंगा-यमुना की धरती 'उत्तम प्रदेशÓ में बनने वाले नए नए बागों में से किसी एक का बुलावा होगा, जहां आम जनता की खून पसीने की कमाई के करोड़ों रुपए समाजसेवा में न लगा कर जिन्दा-मृत नेताओं की मूर्तियां लगाने में लगाए जा रहे हैं और तर्क दिया जा रहा है कि जब मनुवादी देवी-देवताओं की मूर्तियां लगा सकते हैं, महात्मा गांधी की मूर्तियां लगा सकते है तो हम 'मनीवादीÓ अपनी मूर्तियां क्यों नहीं लगा सकते? आखिर तर्क ही तो है! इन बातों से मेरा मन खट्टा हो गया और मैंने कहीं भी जाने का विचार त्याग दिया।
यह व्यंग्य लेख सेवानिवृत्त इंजीनियर श्री शिवशंकर गोयल ने भेजा है। उनका संपर्क सूत्र है -फ्लेट नं. 1201, आई आई टी इंजीनियर्स सोसायटी, प्लाट नं. 12, सैक्टर न.10, द्वारका, दिल्ली- 75, मोबाइल नंबर: 9873706333
एक गाने के बोल थे 'सावन के झूले पड़े, सैयांजी हमें तुम क्यों भूले पड़ेÓ। इसके बाद दूसरा गाना बजा 'बन्नारे! बांगा म्है झूला डाल्या ...Ó एक नायिका बाग में झूला डाल कर अपने प्रेमी को झूला झूलने हेतु निमंत्रण दे रही है। इसके तत्काल बाद ही एक फिल्मी गीत बजा 'बागों म्है बहारों में, गलियों में चौबारों में, मैं ढूंढूं, तू छिप जाÓ यह सुन कर मैं तन कर बैठ गया लेकिन तभी एक और गीत बजा, 'भंवर बांगा म्है आजो जी......पपहियो बोल्यो जी!Ó नायिका भंवर जी को किसी बाग में बुला रही है और कह रही है कि पपीहा पक्षी भी बोल रहा है। तभी मैंने सोचा कि आज जरूर कोई बात है, वर्ना एक के बाद एक ऐसे शुभ संकेत कैसे आ रहे हैं और इस आखिरी गीत में तो मेरा नाम लेकर ही मुझे बागों में बुलाया जा रहा है। मेरा मन खुद ही बा-बाग हो गया और मैं अपना आपा खो बैठा तथा बाग में जाने की तैयारी करने लगा, लेकिन जब मैं कपड़े पहन कर तैयार हुआ तो सोचने लगा कि मेरे को आखिर किस बाग में बुलाया गया है, यह तो बताया ही नहीं? वैसे होने को जंहागीर तथा शाहजहां का श्रीनगर में शालीमार और निशात बाग बनवाया हुआ है, कहीं उसी में आने का इशारा न हो, लेकिन फिर सोचा, जिस बाग के चारों ओर यदा-कदा गोलियों की आवाजें गूंज जाती हो, भला वहां भंवर जी को कौन बुलायेगा? फिर मेरे दिमाग में आया कि कहीं चंडीगढ़ के पिन्जौर गार्डन का बुलावा तो नहीं है? लेकिन अपने स्टैन्डर्ड को देखते हुए मैंने स्वयं ने ही इस संभावना को खत्म कर दिया। एकबारगी मन में यह भी आया कि कही राष्ट्रपति भवन के मुगल गार्डन का तो बुलावा नहीं है, जहां के रखरखाव पर ही हिन्दुस्तान की गरीब जनता के लाखों रुपए रोज खर्च हो जाते है। लेकिन फिर ख्याल आया कि वह गार्डन तो बकौल भू. पू. मंत्री शशि थरूर 'कैटल क्लासÓ यानि साधारण आदमियों के लिए है ही नहीं, फिर मेरे जैसे को वहां कौन बुलायेगा?
आदमी के ख्याल ही तो हैं, जितने ऊंचे उड़ जाएं, उतने कम है। एक ख्याल यह भी आया कि कहीं पूरब दिशा से बुलावा न आया हो और फौरन ही कलकत्ता के ईडन गार्डन का विचार कौंधा, लेकिन वहां आजकल बंगाल की दीदी का बोलबाला है, जिसे कॉरपोरेट जगत का मीडिया खूब हवा दे रहा है। गोया कि वहां आज तक जो कुछ हुआ गलत ही हुआ हो।
अचानक मुझे विचार आया कि हो न हो मुंबई के ही किसी बाग का बुलावा हो। वैसे भी वहां का नेहरू गार्डन सांझ ढ़लते ही प्यार की पींगें बढ़ाने का उपयुक्त स्थान कहलाता है। लेकिन मुंबई को लेकर मन में उत्साह पैदा नहीं हुआ क्योंकि वहां के प्रसिद्ध शिवाजी पार्क में तो अब राजनीतिक दलों के जो भाषण होते हैं, वह सब सुनत-सुनते लोगों के कान पक गए, सब थोथी बातें!
सुना था कि मैसूर के पास कावेरी नदी पर बने कृष्णार्जुनसागर बांध के पास वृन्दावन गाार्डन है, जहां म्यूजीकल फव्वारे है, लेकिन ऐसी जगह मुझे बुला कर कौन आफत मोल लेगा और चेन्नई में तो 'स्नेक गार्डनÓ यानि सांपों का बाग ही है और आप जानते हैं, ऐसी जगह शृंगार रस में डूबने की नहीं होती।
यों होने को जोधपुर के पास राईका बाग है, लेकिन यह सब राई और बाग दोनो को ही बदनाम करने के लिए काफी है। उधर जयपुर में वास्तुकार विद्याधर का बाग, दुलाराम का बाग, सिसौदिया गार्डन इत्यादि हैं, लेकिन इनमें से अधिकांश आम जनता के लिए है ही नहीं, फिर वहां से बुलावा क्यों कर आयेगा? वैसे भी अजमेर का दौलत बाग और जयपुर का रामनिवास बाग तो सही मायने में अब बाग रहे ही कहां? यों होने को और भी कई बाग हैं। आपको क्या-क्या बताऊं?
ऐसे ही एक-एक कर कई विचार मन में आते रहे। बचपन में संसार के सात आश्चर्य में से एक बेबीलोन के झूलते बाग के बारे में पढ़ा था, लेकिन अब वह सब इतिहास की बातें रह गई हैं। मैं सोच रहा था कि यों होने को लंदन का हाईड पार्क भी है और वहां का ही बुलावा हो तो कैसा अच्छा रहे? विदेश की सैर भी हो जायेगी लेकिन यह सब मन के लड्डू हैं, फीके क्यों रहें।
मैं सोचने लगा कि आखिर किस बाग में जाऊं और मुझे यानि भंवरजी को बाग में ही क्यों बुलाया है? लेकिन फिर ख्याल आया कि प्राचीन काल से ही बाग का महत्व रहा है। चाहे लंका की अशोकवाटिका हो चाहे कोई और कहते हैं कि सृष्टि के प्रारम्भ में आदम और हव्वा को एक फल खाने की प्रेरणा किसी बाग में ही मिली थी। प्रसिद्ध वैज्ञानिक न्यूटन को गुारुत्वाकर्षण के सिद्धांत का ज्ञान बाग में ही सेव गिरने से हुआ था। अंत में मैंने सोचा, हो न हो यह गंगा-यमुना की धरती 'उत्तम प्रदेशÓ में बनने वाले नए नए बागों में से किसी एक का बुलावा होगा, जहां आम जनता की खून पसीने की कमाई के करोड़ों रुपए समाजसेवा में न लगा कर जिन्दा-मृत नेताओं की मूर्तियां लगाने में लगाए जा रहे हैं और तर्क दिया जा रहा है कि जब मनुवादी देवी-देवताओं की मूर्तियां लगा सकते हैं, महात्मा गांधी की मूर्तियां लगा सकते है तो हम 'मनीवादीÓ अपनी मूर्तियां क्यों नहीं लगा सकते? आखिर तर्क ही तो है! इन बातों से मेरा मन खट्टा हो गया और मैंने कहीं भी जाने का विचार त्याग दिया।
यह व्यंग्य लेख सेवानिवृत्त इंजीनियर श्री शिवशंकर गोयल ने भेजा है। उनका संपर्क सूत्र है -फ्लेट नं. 1201, आई आई टी इंजीनियर्स सोसायटी, प्लाट नं. 12, सैक्टर न.10, द्वारका, दिल्ली- 75, मोबाइल नंबर: 9873706333
पहले आओ पहले खाओ!
कुछ वर्षों पूर्व तक सभा सोसायटियों के किसी भी उत्सव अथवा शादी-विवाह में कोई जिमणार होती थी तो सब मिल बैठ कर पंगत में खाना खाते थे। वह जमाना 'आर्ट ऑॅफ गिविंगÓ का था यानि लेने की बजाय देने में ज्यादा जोर दिया जाता था और कहा जाता था कि 'जब खाओ सब खाओÓ परन्तु इक्कीसवीं सदी के उदारीकरण के इस दौर में सब कुछ बदल गया है। अब फंडा है 'पहले आओ पहले खाओÓ । शादी विवाह से लेकर सरकारी हलकों तक में, सब जगह, यही हो रहा है और अगर खाने वाला कोई 'राजाÓ भी हो और मंत्री भी हो तो फिर कहना ही क्या? सोने में सुहागा या कह लीजिए 'अपना हाथ जगन्नाथÓ वाली कहावत चरितार्थ हो जाती है। राजा कई तरह के होते हैं। पहले कभी चन्द्रवंशी और सूर्यवंशी राजा होते थे, जो प्रिवीपर्स के साथ ही निबट गए। कई लोग लाड-प्यार में अपने छोटे बच्चों को राजा कह कर पुकारते है तो कई वयस्क भी अपने प्रियजन को राजा संबोधित करते हैं। जैसे फिल्म 'ज्वैल थीफÓ में नायिका अपने नायक देवानन्द को एक गाने में कहती है 'ओ मेरे राजा! देर से आई, फिर भी आई, वादा तो निभाया...Ó वगैरह वगैरह।
हम सब यह भी जानते हैं कि दूल्हे को भी कुछ समय के लिए राजा माना जाता है, चाहे उसे अधिकतर चीजें इधर-उधर से व्यवस्था करके पहनाई हुई होती हैं। एक राजा 'मनका राजाÓ होता है। यह राजा अपनी मनमानी करता है। जो मन में आया सो किया। ऐसे राजा हर जगह मिल जायेंगे। कहने का तात्पर्य यह कि राजा राजा ही होता है, जो कर दे वह कम है, इसलिए हम सब को बुरा नहीं मानना चाहिए कि इस बार दक्षिण के 'राजाÓ ने यह कर दिया, वह कर दिया।
अरे भाई! उनका कहना है कि उसने जो कुछ किया है 'जनता के हित में किया है और पहले जैसा होता आया वैसे किया है। यह कोई आज से थोड़े ही हो रहा है। अकबर-बीरबल के जमाने से होता आया है। आप 'आइने अकबरीÓ उठा कर देख लें। अकबर बादशाह के जमाने की बात है। बादशाह को अपने एय्यारों से पता पड़ा कि उनका एक मुलाजिम बहुत भ्रष्ट है, लेकिन वह किसी बेगम का रिश्तेदार भी है, फिर भी बादशाह 'मजबूरÓ नहीं थे, मजबूत थे इसलिए उस मुलाजिम को उन्होंने बंगाल के सूबेदार के पास भेज दिया और कहा कि इसे ऐसी जगह रखो जो सुनसान हो। सूबेदार ने उसे समुद्र के किनारे पोस्टिंग दे दी और कहा कि तुम वहां जाकर समुद्र की लहरें गिनो। उस कारिन्दे ने बिना आनाकानी के समुद्र के किनारे जाकर अपना चार्ज संभाल लिया। आजकल के कारिन्दों की तरह अड़ा नहीं कि मिनिस्टर की डिजायर लिखवा लाये। खैर थोड़े दिन तो उसे नई जगह जमने और स्थिति का जायजा लेने में लगा, लेकिन फिर उसने अपनी कारगुजारी चालू कर दी। वह उधर से निकलने वाले जहाजों से चौथ वसूली करने लगा। उसका उन्हें कहना था कि चूंकि मैं जनता के हित के लिए, सल्तनत की तरफ से, तैनात हूं और समुद्र की लहरें गिन रहा हूं, लेकिन आपके जहाजों के आने से लहरों की चाल गड़बड़ा गई है, इनकी गिनती में खलल पड़ गया है। अब मैं बादशाह को क्या जवाब दूंगा? आपको भारी हर्जाना देना पड़ेगा. इस बात पर जहाज का कप्तान घबरा जाता और लिफाफे अथवा ब्रीफकेस में कुछ ले देकर मामले को रफा-दफा करता। कहने का तात्पर्य यह है कि वह पानी का राजा था। उसने मामला पानी की लहरों से अपना हिसाब कर लिया। अब इस युग में हवा की लहरों, टूजी स्पैक्ट्म का मामला था। इस राजा ने सब कायदे-कानून हवा में उड़ा कर 'पहले आओ पहले खाओÓ की तर्ज पर सब को निबटा दिया। वैसे भी पांच तत्वों में हवा का महत्व पानी से उपर ही है, नीचे नही है। आप किसी जानकार से पूछ कर देख लें। 'पहले आओ पहले खाओÓ की थ्योरी पर भूतपूर्व एनडीए एवं वर्तमान यूपीए दोनों ही सरकारें एकमत हैं। इस मत को अटलबिहारी जी की सरकार ने चलाया। उसे इन्होंने आगे बढ़ाया। दोनों ने ही जी-जी यानि टूजी स्पैक्ट्म के ठेके इसी प्रणाली को आधार मान कर दिए। अब दोनों एक दूसरे को दोष दे रहे हैं। रही बात उन दरबारियों की, जिनका यह कहना है कि इस घोटाले से देश को कोई हानि नहीं हुई, तो ऐसे दरबारी तो मुगलों के जमाने में भी थे और अब भी हैं। कुछ भी हो जाए यह यहीं कहेंगे कि राजकोश का कुछ नहीं बिगड़ा और इसी बात की इनकी 'फीसÓ है।
यह व्यंग्य लेख सेवानिवृत्त इंजीनियर श्री शिवशंकर गोयल ने भेजा है। उनका संपर्क सूत्र है -फ्लेट नं. 1201, आई आई टी इंजीनियर्स सोसायटी, प्लाट नं. 12, सैक्टर न.10, द्वारका, दिल्ली- 75, मोबाइल नंबर: 9873706333
मो. 9873706333.
हम सब यह भी जानते हैं कि दूल्हे को भी कुछ समय के लिए राजा माना जाता है, चाहे उसे अधिकतर चीजें इधर-उधर से व्यवस्था करके पहनाई हुई होती हैं। एक राजा 'मनका राजाÓ होता है। यह राजा अपनी मनमानी करता है। जो मन में आया सो किया। ऐसे राजा हर जगह मिल जायेंगे। कहने का तात्पर्य यह कि राजा राजा ही होता है, जो कर दे वह कम है, इसलिए हम सब को बुरा नहीं मानना चाहिए कि इस बार दक्षिण के 'राजाÓ ने यह कर दिया, वह कर दिया।
अरे भाई! उनका कहना है कि उसने जो कुछ किया है 'जनता के हित में किया है और पहले जैसा होता आया वैसे किया है। यह कोई आज से थोड़े ही हो रहा है। अकबर-बीरबल के जमाने से होता आया है। आप 'आइने अकबरीÓ उठा कर देख लें। अकबर बादशाह के जमाने की बात है। बादशाह को अपने एय्यारों से पता पड़ा कि उनका एक मुलाजिम बहुत भ्रष्ट है, लेकिन वह किसी बेगम का रिश्तेदार भी है, फिर भी बादशाह 'मजबूरÓ नहीं थे, मजबूत थे इसलिए उस मुलाजिम को उन्होंने बंगाल के सूबेदार के पास भेज दिया और कहा कि इसे ऐसी जगह रखो जो सुनसान हो। सूबेदार ने उसे समुद्र के किनारे पोस्टिंग दे दी और कहा कि तुम वहां जाकर समुद्र की लहरें गिनो। उस कारिन्दे ने बिना आनाकानी के समुद्र के किनारे जाकर अपना चार्ज संभाल लिया। आजकल के कारिन्दों की तरह अड़ा नहीं कि मिनिस्टर की डिजायर लिखवा लाये। खैर थोड़े दिन तो उसे नई जगह जमने और स्थिति का जायजा लेने में लगा, लेकिन फिर उसने अपनी कारगुजारी चालू कर दी। वह उधर से निकलने वाले जहाजों से चौथ वसूली करने लगा। उसका उन्हें कहना था कि चूंकि मैं जनता के हित के लिए, सल्तनत की तरफ से, तैनात हूं और समुद्र की लहरें गिन रहा हूं, लेकिन आपके जहाजों के आने से लहरों की चाल गड़बड़ा गई है, इनकी गिनती में खलल पड़ गया है। अब मैं बादशाह को क्या जवाब दूंगा? आपको भारी हर्जाना देना पड़ेगा. इस बात पर जहाज का कप्तान घबरा जाता और लिफाफे अथवा ब्रीफकेस में कुछ ले देकर मामले को रफा-दफा करता। कहने का तात्पर्य यह है कि वह पानी का राजा था। उसने मामला पानी की लहरों से अपना हिसाब कर लिया। अब इस युग में हवा की लहरों, टूजी स्पैक्ट्म का मामला था। इस राजा ने सब कायदे-कानून हवा में उड़ा कर 'पहले आओ पहले खाओÓ की तर्ज पर सब को निबटा दिया। वैसे भी पांच तत्वों में हवा का महत्व पानी से उपर ही है, नीचे नही है। आप किसी जानकार से पूछ कर देख लें। 'पहले आओ पहले खाओÓ की थ्योरी पर भूतपूर्व एनडीए एवं वर्तमान यूपीए दोनों ही सरकारें एकमत हैं। इस मत को अटलबिहारी जी की सरकार ने चलाया। उसे इन्होंने आगे बढ़ाया। दोनों ने ही जी-जी यानि टूजी स्पैक्ट्म के ठेके इसी प्रणाली को आधार मान कर दिए। अब दोनों एक दूसरे को दोष दे रहे हैं। रही बात उन दरबारियों की, जिनका यह कहना है कि इस घोटाले से देश को कोई हानि नहीं हुई, तो ऐसे दरबारी तो मुगलों के जमाने में भी थे और अब भी हैं। कुछ भी हो जाए यह यहीं कहेंगे कि राजकोश का कुछ नहीं बिगड़ा और इसी बात की इनकी 'फीसÓ है।
यह व्यंग्य लेख सेवानिवृत्त इंजीनियर श्री शिवशंकर गोयल ने भेजा है। उनका संपर्क सूत्र है -फ्लेट नं. 1201, आई आई टी इंजीनियर्स सोसायटी, प्लाट नं. 12, सैक्टर न.10, द्वारका, दिल्ली- 75, मोबाइल नंबर: 9873706333
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थाने में और वह भी पांच दिन!
मैं ईश्वर को हाजिर-नाजिर मान कर और अपने सिर पर हाथ रख कर कहता हूं कि जो कुछ भी कहूंगा सच-सच ही कहूंगा और सच के सिवाय कुछ नहीं कहूंगा। जब सन् 1991 के आम चुनाव में मुझे जोनल मैजिस्टे्ट बना कर पुष्कर भेजा गया तो पूरे पांच दिन वहां के थाने में मेरा मुख्यालय बना कर मुझे वहां रहने को कहा गया। ऐसा मुझे थानों में 'मेरे योग्य सेवाÓ की लगने वाली तख्ती को मद्देनजर रखते हुए कहा गया या इसका कोई और रहस्य था। यह मुझे आज तक पता नहीं पड़ा। वैसे भी किसी शरीफ आदमी का पांच रोज थाने में रहना बहुत बड़ी बात है। आप चाहें तो किसी को पूछ कर देख लें।
जहां तक मेरा सवाल है थानों अथवा कोतवाली में बलात्कार एवं पूछताछ में मौतों की शोहरत तथा उनके बाहर रखी तोपों, जिनका मुंह अक्सर ही आम जनता की तरफ होता है, को देख कर मेरे मन में ऐसी दहशत बैठी हुई है कि अमूमन मेरी उधर देखने की हिम्मत ही नहीं होती। यह तो अच्छा हुआ कि सरकार यानि मेरे बॉस को किसी ने बताया नहीं कि मै पूरे पांच रोज पुष्कर पुलिस थाने में बिता कर आया हूं वर्ना सरकारी कायदे-कानून के मुताबिक मैं सस्पैन्ड यानि मुअत्तिल हो गया होता।
सच कह रहा हूं आपसे! जब पहले पहल मैंने सुना कि मुझे पांच रोज पुलिस थाने में रहना पड़ेगा, तो मेरे होश फाख्ता हो गए। या अल्लाह! मुझे किस पाप की सजा दे रहा है? लम्बी उम्र हो उन दुश्मनों की, जिन्होंने मुझे ऐसी स्थिति में ला पटका कि एक-दो नहीं, पूरे पांच रोज पुलिस थाने में रहना पड़ा, लेकिन अब पछताये होत क्या जब चिडिय़ा चुग गई खेत!
पर मेरी असली समस्या तो घर में है। पांच दिन थाने में रहने के कारण अब घर वाली घर में नहीं घुसने दे रही है। सारी रात बीत गई, बोरिये बिस्तर सहित घर के बाहर पड़ा हूं। पांच दिन थाने में रहने के कारण बीबी घर में घुसने ही नहीं दे रही है, जैसे कि एक पिक्चर में चरणदास को पीने की आदत के कारण घर के बाहर रात गुजारनी पड़ी थी। प्रौढ़ व्यक्तियों ने तब यह गाना जरूर सुना होगा:- 'ऐ जी! चरणदास को पीने की जो आदत ना होती, आदत ना होती, तो आज मियां बाहर, बीबी अंदर ना सोती ...Ó
खैर, यह जो हुआ वह तो हुआ, लेकिन आगे न जाने क्या-क्या कहर टूटने
वाला है? मुझे यह भी बात सता रही है कि अब मैं ऊपर जा कर क्या मुंह दिखाऊंगा? उपर से आप मेरा मतलब समझ गए हैं ना? जब वहां डिलिंग असिसटैन्ट चित्रगुप्त के इजलास में पेशी होगी और आवाज पड़ेगी तो क्या जवाब दूंगा? माना कि मुझे वहां-आप समझ तो गए ना कि कहां की बात कर रहा हूं, वकील करने में कोई दिक्कत नहीं आयेगी, लेकिन कौन मेरी बात मानेगा कि मैं तो बेगुनाह था। फकत सरकारी आदेश की वजह से चुनाव के सिलसिले में पांच रोज थाने में रहना पड़ा था और तो और क्या यहां, मृत्युलोक, वाले मुझे छोड़ देंगे? सबसे पहले तो रिश्तेदार, मित्र एवं समाज के लोग ही उंगली उठायेंगे और कहेंगे कि इसने जरूर कुछ किया होगा वर्ना इसे थाने में क्यों रखते। इसकी बात मानने लायक ही नहीं है। मोहल्ले, पास-पड़ौस वाले जीना दुर्भर कर देंगे। कोई पास बैठायेगा नहीं। किसी के घर जाने पर चाय तो क्या पानी तक के लिए पूछेगा नहीं। मैं आगे से इसी पहचान से जाना जाऊंगा 'अरे! वही गोयल साहब, जो सन् 1991 में थाने में पांच रोज रह कर आए थे।Ó बस, एक बार इस तरह के परिचय का लेबल लग गया तो वह जिन्दगी भर की कमाई हो जायेगी।
या अल्लाह! रहम कर और मेरे दामन से यह दाग छुड़ा दे, हालांकि निन्दकों के इस समुद्र में कुछ हितैषी भी हैं, उन्होंने सुझाया था कि जब पुष्कर से वापस आने लगो तो सरोवर में स्नान कर लेना ताकि सारे पाप धुल जाएं, लेकिन मेरा मन नहीं मानता। मैं सोचता हूं अभी तक जितना पाप लोगबाग पुष्कर में स्नान करके छोड़ गए है। उसे भले आदमी टै्रक्टर ट्रालियों में भर कर ले जाते ले जाते थक गए है। अब मैं ही उनका बोझ और क्यों बढ़ाऊं?
यह व्यंग्य लेख सेवानिवृत्त इंजीनियर श्री शिवशंकर गोयल ने भेजा है। उनका संपर्क सूत्र है -फ्लेट नं. 1201, आई आई टी इंजीनियर्स सोसायटी, प्लाट नं. 12, सैक्टर न.10, द्वारका, दिल्ली- 75, मोबाइल नंबर: 9873706333
जहां तक मेरा सवाल है थानों अथवा कोतवाली में बलात्कार एवं पूछताछ में मौतों की शोहरत तथा उनके बाहर रखी तोपों, जिनका मुंह अक्सर ही आम जनता की तरफ होता है, को देख कर मेरे मन में ऐसी दहशत बैठी हुई है कि अमूमन मेरी उधर देखने की हिम्मत ही नहीं होती। यह तो अच्छा हुआ कि सरकार यानि मेरे बॉस को किसी ने बताया नहीं कि मै पूरे पांच रोज पुष्कर पुलिस थाने में बिता कर आया हूं वर्ना सरकारी कायदे-कानून के मुताबिक मैं सस्पैन्ड यानि मुअत्तिल हो गया होता।
सच कह रहा हूं आपसे! जब पहले पहल मैंने सुना कि मुझे पांच रोज पुलिस थाने में रहना पड़ेगा, तो मेरे होश फाख्ता हो गए। या अल्लाह! मुझे किस पाप की सजा दे रहा है? लम्बी उम्र हो उन दुश्मनों की, जिन्होंने मुझे ऐसी स्थिति में ला पटका कि एक-दो नहीं, पूरे पांच रोज पुलिस थाने में रहना पड़ा, लेकिन अब पछताये होत क्या जब चिडिय़ा चुग गई खेत!
पर मेरी असली समस्या तो घर में है। पांच दिन थाने में रहने के कारण अब घर वाली घर में नहीं घुसने दे रही है। सारी रात बीत गई, बोरिये बिस्तर सहित घर के बाहर पड़ा हूं। पांच दिन थाने में रहने के कारण बीबी घर में घुसने ही नहीं दे रही है, जैसे कि एक पिक्चर में चरणदास को पीने की आदत के कारण घर के बाहर रात गुजारनी पड़ी थी। प्रौढ़ व्यक्तियों ने तब यह गाना जरूर सुना होगा:- 'ऐ जी! चरणदास को पीने की जो आदत ना होती, आदत ना होती, तो आज मियां बाहर, बीबी अंदर ना सोती ...Ó
खैर, यह जो हुआ वह तो हुआ, लेकिन आगे न जाने क्या-क्या कहर टूटने
वाला है? मुझे यह भी बात सता रही है कि अब मैं ऊपर जा कर क्या मुंह दिखाऊंगा? उपर से आप मेरा मतलब समझ गए हैं ना? जब वहां डिलिंग असिसटैन्ट चित्रगुप्त के इजलास में पेशी होगी और आवाज पड़ेगी तो क्या जवाब दूंगा? माना कि मुझे वहां-आप समझ तो गए ना कि कहां की बात कर रहा हूं, वकील करने में कोई दिक्कत नहीं आयेगी, लेकिन कौन मेरी बात मानेगा कि मैं तो बेगुनाह था। फकत सरकारी आदेश की वजह से चुनाव के सिलसिले में पांच रोज थाने में रहना पड़ा था और तो और क्या यहां, मृत्युलोक, वाले मुझे छोड़ देंगे? सबसे पहले तो रिश्तेदार, मित्र एवं समाज के लोग ही उंगली उठायेंगे और कहेंगे कि इसने जरूर कुछ किया होगा वर्ना इसे थाने में क्यों रखते। इसकी बात मानने लायक ही नहीं है। मोहल्ले, पास-पड़ौस वाले जीना दुर्भर कर देंगे। कोई पास बैठायेगा नहीं। किसी के घर जाने पर चाय तो क्या पानी तक के लिए पूछेगा नहीं। मैं आगे से इसी पहचान से जाना जाऊंगा 'अरे! वही गोयल साहब, जो सन् 1991 में थाने में पांच रोज रह कर आए थे।Ó बस, एक बार इस तरह के परिचय का लेबल लग गया तो वह जिन्दगी भर की कमाई हो जायेगी।
या अल्लाह! रहम कर और मेरे दामन से यह दाग छुड़ा दे, हालांकि निन्दकों के इस समुद्र में कुछ हितैषी भी हैं, उन्होंने सुझाया था कि जब पुष्कर से वापस आने लगो तो सरोवर में स्नान कर लेना ताकि सारे पाप धुल जाएं, लेकिन मेरा मन नहीं मानता। मैं सोचता हूं अभी तक जितना पाप लोगबाग पुष्कर में स्नान करके छोड़ गए है। उसे भले आदमी टै्रक्टर ट्रालियों में भर कर ले जाते ले जाते थक गए है। अब मैं ही उनका बोझ और क्यों बढ़ाऊं?
यह व्यंग्य लेख सेवानिवृत्त इंजीनियर श्री शिवशंकर गोयल ने भेजा है। उनका संपर्क सूत्र है -फ्लेट नं. 1201, आई आई टी इंजीनियर्स सोसायटी, प्लाट नं. 12, सैक्टर न.10, द्वारका, दिल्ली- 75, मोबाइल नंबर: 9873706333
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