गुरुवार, 20 अक्टूबर 2011

लपटया पंडितजी की स्कूल !

हां यही नाम था उस स्कूल का जोकि षहर के मध्य घने बसें अंदरूनी ईलाकें में
एक गली में स्थित था. उस स्कूल की यह खूबी थी कि वह अध्यापन के मामलें में ‘वन मेन
षो’ थी. मास्’साब का नाम भी वैसे तो कुछ और ही था लेकिन सब उन्हें लपटया पंडित ही
कहते थे. यह नाम क्यों और कैसे पडा यह आज तक रहस्य ही है हां अब बिना किसी
केन्द्रिय दखल के सीबीआई इसकी जांच करें तो वास्तविकता का पता लग सकता हेैं.
षहर के कई व्यक्ति इसी स्कूल के ‘प्रॉडेक्ट’ हैं. उस समय इस स्कूल में भर्ती होने
के लिए मास्’साब को सवा रू. ओैर नारीयल देना पडता था. यह स्कूल वैसे तो पहाडोंवाली
स्कूल कहलाती थी. ‘पहाडोंवाली स्कूल’ नाम इसलिए पडा कि इसमें पढनेवालें बच्चें रोजाना
सामूहिकरूप स्वर में जोर-जोर से पहाडें यानि टेबल्स, बोलकर याद किया करते थे जिन्हें
पास-पडौसवालें घर बैठे आसानी से सुन सकते थे.
जो विद्याार्थी इस स्कूल से बिना उचित कारण बताए गैरहाजिर होता उसे लेने चार
लडकें उसके घर भेजे जाते जोकि उसके आनाकानी करने पर टांगाटोली करके, यानि चारों
हाथ-पांव पकडकर झुलाते हुए’ लाते थे. मां-बाप का एतराज करना तो दूरकी बात, कही
कोई चूं तक नही करता था. आजकल तो उलट जमाना आगया हैं. क्या मजाल जो मास्टर
किसी बच्चें को थोडासा भी डांटले. सच पूछो तो जहां पहले बच्चें मास्टर से डरते थे
आजकल टीचर बच्चों से डरते हैं. जाने कब कोई किसी नेता, अफसर या मैनेजमेंट के
किसी सदस्य का रिष्तेदार हो ओैर नौकरी से निकलवा दे.
षनिवार को दोपहर खाने की छुटटी के बाद ‘ऐसेम्बली’ होती थी जिसमें सभी बच्चों
को एक गोल घेरे में बैठा दिया जाता औेर उनके बस्तें मास्’साब अपने कब्जे में कर लेते
थे. इसके बाद साधारण ज्ञान, गणित इत्यादि पर आधारित प्रष्न पूछे जाते और जो विद्यार्थी
फटाफट उत्तर बता देता उसे घर जाने की छुटटी देदी जाती.
ऐसे ही एक षनिवार को हमारी ऐसेम्बली हो रही थी. मास्’साब ने सवाल पूछा कि
एक आंख से दस फुट दिखता हेै तो दो आंखों से कितना दिखेगा ? औरों के साथ साथ
उत्तर देने हेतु मैंने भी हाथ खडा किया. संयोग से मास्’साब की नजर मेरे पर पड गईजैसी
मेरी ‘इमेज’ थी उसको देखते हुए उन्हें थोडा आष्चर्य तो हुआ होगा कि ‘इसको’ प्रष्न
का हल इतना जल्दी कैसे आ गया लेकिन नियमानुसार उन्होंने मेरे से कहा कि अच्छा तुम
बताओ. मैंने खडे होकर जवाब दिया कि मास्’साब ! -उन दिनों सर कहने का रिवाज नही
था-एक आंख से दस फुट तो दो आंखों से बीस फुट दिखेगा.
मेरा इतना कहना था कि एक बार तो मास्’साब ने मुझे मेरा बस्ता पकडा दिया और
मैं भी वहां से भागने की फिराक में ही था लेकिन कुछ क्षण बाद मास्’साब को जाने क्या
सूझी कि उन्होंने बस्ता तो वापिस लिया ही मुझे पीछे दिवार के सहारे खडे होने के आदेष दे
दिए. वहां मैं घन्टों खडा रहा तब कही जाकर पिन्ड छूटा. यह खडे होने की आदत वही से
षुरू हुई. बाद में तो राषन की दुकान, बिजली-पानी के बिल जमा कराने, किसी सरकारी
दफतर में कोई काम करवाने इत्यादि के लिए घन्टों खडा रहना पडता था. उसी अनुभव के
दम पर आगे चलकर मैंने एक पार्टी के टिकट पर चुनाव में और सामाजिक संगठनों में भी
कई बार खडे होने की कोषिष की लेकिन कामयाबी नही मिली. लोग कहते ‘तुम्हें कौन वोट
देगा. बात सही भी हैं. खैर,
थोडी देर बाद मास्’साब ने मेरे दोस्त छगन से अगला सवाल पूछा कि अगर मेैं
तुम्हारें पिताजी को पांच हजार रू. दूं तो पांच प्रतिषत ब्याज सहित तीन साल बाद वह मुझे
कितने रू. लौटाएंगे ? इस पर छगन कुछ नही बोला तो मास्’साब ने उसे कहा कि तीन
साल से पढ रहे हो और इतना भी नही जानते ? तो छगन बोला मास्’साब ! मैं तो जानता
हंू लेकिन आप मेरे पिताजी को नही जानते, वह आपको एक पैसा भी वापस लौटानेवाले
नही हेैं.
एक और सवाल पंडितजी ने हमसे पूछा. उन्होंने कहाकि एक काम को एक आदमी
चार रोज में करता है तो चार आदमी उस काम को कितने रोज में करेंगे ? मेरे सहपाठी
कैलाष के हाथ खडा करने पर मास्’साब ने उसे बोलने का ईषारा किया तो वह बोला
‘पंडितजी ! अगर मजदूर कच्ची नौकरीवालें हुए तो एक रोज में ही कर देंगे और अगर
पक्की नौकरीवालें हुए तो चाय-बीडियां पीते रहेंगे और चार रोज में भी खतम नही करेंगे.
ऐसी ऐसेम्बली में कई बार मास्’साब हमें पंचतंत्र इत्यादि की कहानियां जैसे कछुआ
औेर खरगोष, बाप,बेटा और गधे की सवारी, बंदर और मगरमच्छ सुनाते और उसके अंत
में पूछते कि तुम्हें इनसे क्या षिक्षा मिलती हैं ? एक बार उन्होंने हमें प्यासे कव्वें और घडें
की कहानी सुनाई जिसमें प्यासा कव्वा पानी के लिए इधर उधर भटकता है ओैर अंत में उसे
एक मकान की छत पर अधभरा घडा नजर आता है जिसे छोटें छोटें कंकड पत्थर लाकर
वह भरता है और पानी पीकर उड जाता हैं. इस कहानी को सुनाने के बाद मास्’साब ने
पूछा कि बच्चों इससे हमें क्या षिक्षा मिलती है तो मैंने जवाब दिया कि खाओ, पीओ और
खिसकलो. यह सुनकर मास्’साब सहित सारी क्लास ठहाका मारकर हंसने लगी.
एक बार मास्’साब हमें हिन्दी में द्वन्द्व यानि एक दूसरें के विरूद्ध षब्दों के
बारें में बता रहे थे. उन्होंने कई उदाहरण देते हुए हमें बताया जैसे ‘सुख-दुख’, ‘सर्दी-गर्मी’,
‘रात-दिन’, ‘काला-गोरा’ इत्यादि होते है ऐसे ही और उदाहरण देने के लिए कहा तो हमारा
एक सहपाठी झट से बोल पडा सा’ब ! ‘पति-पत्नि’. यह सुनकर पंडितजी मुस्कराने लगे.
ऐसेही एक मौकें पर मास्’साब ने हमसे पूछा कि ऐसा कोई वाक्य बताओ जो दफतर
में बाबू, अदालत में अपराधी और क्लास में विद्यार्थी सबसे ज्यादा इस्तैमाल करते हो. जब
कुछ देर तक कोई नही बोला तो उन्होंने मेरे एक सहपाठी की ओर ईषारा करके पूछा तो
उसने खडे होकर जवाब दिया ‘मुझुे पता नही’ यह सुनकर मास्’साब ने उसे षाबाषी दी और
कहा बिलकुल ठीक !
एक बार एक आदमी अपनी बीबी के कहने पर पडौस की दुकान पर नारियल
खरीदने गया. यह उन दिनों की बात हेै जब नारियल 5-6 आनें में मिल जाता था. घरके
पास ही जो किरयानें की दुकान थी उस दुकानदार ने नारीयल की कीमत छः आनें बताई तो
उस व्यक्ति ने पूछा कि इससे सस्ता कहां मिल सकता है तो दुकानदार ने उसे किरयाने
बाजार जाने हेतु कहा. उस व्यक्ति ने वहां जाकर नारीयल की कीमत पूछी तो व्यापारी ने
बताया कि चारआने का एक नारीयल हैं. अधिक सस्ता मिलने के चक्कर में वह थेक बाजार
में चला गया तो पता पडा कि वहां एक नारीयल की कीमत दो आने ही हैें. अबतो उसका
लालच बढता ही गया ओैर उसने इससे भी सस्ते होने की बात की तो उसे बताया गया कि
जंगल में लगे पेड पर उसे मुफत में ही नारीयल मिल सकता है तो हुलसा हूलसा वह जंगल
में पहुंचकर एक पेड पर चढ गया और एक नारीयल को पकडकर खैंचने लगा तभी तने
परसे उसके पैर फिसल गए और वह नारीयल के सहारे पेड पर लटक गयाअबतो
वह ‘बचाओ बचाओ’ की आवाजें लगाकर चिल्लाने लगा. संयोग से उसी
समय एक उॅट सवार उधर से निकल रहा था. उस व्यक्ति ने उस उॅट सवार से कहा कि
मुझे बचाओ मैं तुम्हें ढेरसारे पैसे दूंगा तो वह सवार तैयार होगया लेकिन जैसेही उसने पेड
के नीचे आकर उस व्यक्ति के पांव पकडे उसका उॅट बिदक कर नीचे से निकल गया. इसी
तरह पहले एक घोडेंवाला और फिर एक गधेवाला वहां आया औेर उनके साथ लटक गयाअब
सभी लोगों ने उस व्यक्ति को कहा कि तुम नारीयल को छोडना मत उल्टे हम तुम्हें
पैसे देंगे. वह आदमी लालची तो था ही अति उत्साह में आकर दोनों हाथों को फैलाकर
बोला क्या इतने पैसे ? तभी सारे लोग धडाम से नीचे गिरेय
ह कहानी आजभी उतनी ही सही है जितनी तब थी. हम देख ही रहे है कि दक्षिण
के राजाने लालच में अपनी और अपने साथियों की क्या हालत बनादी है पैसों के लालच में
ज्योंहिे नारीयल उसके हाथ से छूटेगा तो सब संगी-साथी धडाम से नीचे गिरेंगे.
एक बार पंडितजी ने हमारे को एक पहेलीनुमा चुटकुला सुनाया. एक बार उनके एक
मित्र दिल्ली के सुन्दरनगर स्थित चिडियाघर देखने गए. वहां एक जगह उन्होंने क्या नजारा
देखा कि एक बाडें में बहुतसे जानवर खडे है और गधे के अलावा सभी हंस रहे हेैं. संयोग
की बात कि उसी मित्र को पांच रोज बाद फिर वहां जाना पडा. इस बार उसने देखा कि
बाकी जानवर तो चुपचाप खडे है लेकिन वह गधा हंस रहा हेैं. यह बात सुनाकर पंडितजी
ने हमें पूछा कि बताओ बच्चों ! ऐसा क्यों हुआ ?
जब हममें से कोई नही बता पाया तो उन्होंने ही कहा कि उनके उस मित्रने
चिडियाघर के परिचायक से पूछा कि मैं पांच रोज पहले आया था तो गधे के अलावा सभी
हंस रहे थे और आज आया तो गधा अकेला हंस रहा है, क्या बात है ? इस पर परिचायक
ने बताया कि मैंने पांच रोज पहले इनको एक चुटकुला सुनाया था जिसे सुनकर बाकी
जानवर तो उसी समय हंस दिए लेकिन गधे को आज समझ में आया है इसलिए वह अब
हंस रहा हैं.
मुझे अच्छी तरह याद है कि एक बार मास्’साब कृष्ण जंमाष्टमी पर हम सबको
बैठाकर सूरदासजी का वह पद सुना रहे थे जिसमे माखन चोरी पकडे जाने पर बालकृष्ण
यषोदा मैया को अपनी सफाई देते है और कहते है कि ‘मैया मोरी मैं नही माखन खायो’
मैया यषोदा पहले तो मानती नही हैे, बालकृष्ण को डांटती हैे, डपटती हैे तो बालकृष्ण कहते
है कि मैं तो सुबह होते ही गायों को लेकर ग्वालबाल के संग मधुवन में चला गया था और
सांयकाल होने के बाद वापस आया हूं, फिरभी वह नही मानती है तो रूअंासा होकर कहता
है कि अपनी लकुटियां संभाल, अब मैं गाएं चराने नही जाउॅगा, तुने मुझे बहुत नाच नचाया
है’ तब यषोदा प्रेम में विहल होकर बालकृष्ण को अपने गले लगा लेती हैं. परन्तु हमारे
पंडितजी ने सूरदास रचित इस पद की अंतिम लाईन का अपना ही अर्थ करते हुए हमें
बताया कि बाबा सूरदासजी ने यषोदा को गले लगा लिया.‘...बरबस कंठ लगायौ’.
मास्’साब कभी कभी पहेलियां भी पूछते थे. मसलन एक बार उन्होंने हमसे पूछा कि
चीनी में रेत मिल जाय तो वह आसानी से कैसे अलग होगी ? इस पर हमारें एक सहपाठी
ने बताया कि साब ! इसको चीटियों के बिल के पास डालदो. चीटियां चीनी चीनी ले जायेगी
ओैर रेत वही छूट जायेगी, किसी और को कोई चिंता करने की जरूरत नही हैंहमारें
मास्’साब ‘षेर-बकरी और घास’ की यह पहेली भी खूब पूछते थे. एक किसान
को यह तीनों चीजें लेकर नदी पार करनी थी. नाव में उसके साथ कोई सी एक चीज जा
सकती थी. अगर वह पहले घास लेजाता है तो पीछे से षेर बकरी को खा जायेगा जैसे
उदारवादी व्यवस्था में होरहा हैं, बडे बडे मॉल छोटे दुकानदारों को निगल रहे है और अगर
किसान षेर लेजाता है तो बकरी सारा चारा चट कर जायेगी जैसे बिहार में असरदार लोग
भैंस का चारा चट कर गए थे. अब किसान क्या करें ? वह पहले बकरी को परले पार
लेजाकर छोडता है और वापस आकर षेर को लेजाकर छोड आता है और बकरी को वापस
लेआता है. फिर पहले घास और अंत में बकरी को लेजाता हैं.
एक और पहेली वह अकसर पूछा करते थे. ‘दो मां दो बेटी, चली बाग को जाय,
तीन नींबू लेलिए कितने कितने खाय ?’ हमारें लिए यह बडी जटिल समस्या थी जैसे
आजकल केन्द्र के सामने तेलंगाना की है. चार महिलाएं और नींबू सिर्फ तीन, परन्तु हमारे
मास्’साब इसे आसानी से सुलझा देते थे. कहते, महिलाएं तीन ही हैंं. सुनने में चार हैं. एक
लडकी, उसकी मां और उसकी नानी. मतलब दो मां है और दो ही बेटियां है, तीनों को
एक एक नींबू मिल जायेगा. मास्’साब अकसर कहा करते थे कि अगर कोई समस्या है तो
उसका समाधान भी हैं. उनका कहा आजभी उतना ही प्रासंगिक हैे जितना उस समय थाचाहे
कष्मीर समस्या हो चाहे तेलंगाना समस्या, सबका हल हेै, इन्हें समस्या तो राजनीतिज्ञों
ने बना रखा हैं.
एक बार उन्होंने हमें एक बहुत ही दिलचस्प किस्सा, जिसमें पहेली भी षामिल थी,
सुनाया. एक बार एक गांव में एक जमींदार की मृत्यु होगई. अपनी वसीयत में वह लिख
गया कि मेरे पास जो 19 उॅट हेै उन्हें ऐसे बांटा जाय कि आधे उॅट मेरी पत्नि को, 1/4
मेरे बेटे को और 1/5 मेरी बेटी को मिल जाय. कुछ दिनों बाद गांव पंचायत बैठी और
बहुत बहस हुई. धरने, वाकआउट भी हुए लेकिन नतीजा कुछ नही निकला. इनमें से कुछ
लोग, जो खाप पंचायत के नाम पर अपनी मनमानी करते थे औेर खुदको कानून से उपर
समझते थे, मरने-मारने पर उतारू होगए, कुछ उॅटों को काटने-पीटने की बातें करने लगेजब
गांवकी संसद यानि पंचायत और एक्जीक्यूटिव -पंच,प्रधान,पटवारी- किसी से भी कुछ
नही हुआ तभी संयोग से एक उॅट सवार उधर से निकला. उसने पूछा कि मामला क्या है ?
पंचों ने बताया तो उसने कुछ सोचा और फिर बोलाकि सारें उॅटों को यहां लाओ, फिर
उसमें अपना एक उॅट मिलाकर बोला कि कुल कितने उॅट हुए ? लोगों ने गिने कुल बीस
थे. उसने आधे यानि दस जमींदार की पत्नि को दे दिए. 1/4 यानि 5 उसके लडके को दे
दिए और 1/5 अर्थात 4 उसकी लडकी को सौंप दिए. बाकी रह गया एक उॅट जिसे वह
लेकर आया था, वही लेकर सबको राम राम कहता हुआ वह वहां से चल दिया. हमारें
मास्’साब का कहना था कि समस्या को हल करने के लिए कभी कभी परम्परा से हटकर भी
सोचना पडता हैं. बस, उसे हल करने की नियत होनी चाहिए.
-ई. शिव शंकर गोयल,
फ्लैट न. 1201, आई आई टी इंजीनियर्स सोसायटी,
प्लाट न. 12, सैक्टर न.10, द्वारका, दिल्ली- 75.
मो. 9873706333

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