बुधवार, 11 जनवरी 2012

पहलें दालों, फिर मसालों, अब सालों की बारी है !


यूपीए के षासनकाल में कभी दालों का नम्बर आया था. इनकी षासन
व्यवस्था की कृपासे एक समय दालों के भाव आसमान छूने लगे थे. जहां पहलें
आम लोग कहा करते थे ‘दाल रोटी रोटेटी खाओ,े, प्रभ््रभु के गुण्ुा गाओ’ वही मुहावरा
बदलकर कहने लगे ‘दाल मत खाओ,े, प्रभ््रभु के गुण गाओ’. अब साधारण आदमी
आपसी बातचीत में भूलसे भी यह नही कहता कि ‘दाल रोटेटी खाकर गुजुजारा कर
रहे है’ क्योंकि बीच में ऐसा वक्त भी आगया था कि ‘दाल’ षब्द का नाम लेते
ही इन्कमटैक्स के मुखबिर पीछे लग जाते थे. कहनेवालें तो यहां तक बताते है
कि इसी विभाग के लोग दाल खानेवालें परिवारों का सर्वें करने लग गए थे कि
कौन कौन ‘अमीर’ं दाल खा रहा है ? यह लोग रिर्टन भर रहे है या नही ?
उत्तर भारत में लोग दाल-रोटी, पूर्वभारतमें दाल-भात-माछी और दक्षिण में
भात-सांभर का नाम लेने से परहेज करने लगे थे. चारों तरफ दाल को लेकर
दहषत फैल गई थीफिर
किराना मार्केट में मसालों का नम्बर आया. अखबारवालें तरह तरह
की व्यापारिक खबरें देने लगे. ‘जीरे में उछाला’, ‘तेजपात आसमान की ओर’,
‘हल्दी आंख दिखाने लगी’, ‘धनिया गुर्राया’ इत्यादि. अब आपही बतायें कि इनमें
से किस मसालें की यह ताकत है कि अपने आप कुछ करले ? यह सब सरकारी
छत्रछाया में बडें बडें और अगाउ सौदा करनेवाले व्यापारियों का काम हैे और
मुक्त व्यापार व्यवस्था और विष्वबैंक के ईषारों पर चलने का परिणाम हैंऔर
अब चुनाव आतेही ‘सालों’-कृप्या माफ करें-की बन आई हैं. वैसे
सालों की दखलंदाजी द्वापरयुग यानि महाभारतकाल में मामा षकुनि के समयसे
चली आरही हेैं लेकिन वर्तमान समय में यह तब ज्यादा चमकी जब ‘जीजी’ के
राज में सांयकाल होते ही पटना की सडकें सूनी होजाती थी. सरे आम महिलाओं
की अस्मिता पर हाथ उठने लगे. इसका परिणाम यह निकला कि बिहार ही नही
समस्त उत्तरी भारत में माताएं अपने रोते हुए बच्चों को चुप कराने हेतु कहने
लगी ‘चुप होजा वर्ना साधु पकड लेगा’. वह यह नही बताती थी कि कौनसा
साधु ?
उसी ‘सालों के दौर’ में एक जीजा की एक कवि के षब्दों में चंद लाइनें
देखिए:-
‘मेरी उनके कुछ अजब षौक कि,
घर में एक नया रोग पालें है,
इनसे मिलिए, यह मेरी बीबी के सगे भाई,
यानि कि मेरें सालें हैइनकी
सात सगी बहनें है,
इनके लाड प्यार के क्या कहने हेै ?
यह अपने घर नही, कभी किसी, कभी किसी
के यहां रह आते है,
सालभर लखनउ में नही रहते,
फिर भी कहते है कि,
हम लखनउ के रहनेवालें है. यह मेरें सालें है....’
यह सालों का रूतबा इतना बढा कि पिछलें चुनावों में एक नेताजी जब
चुनाव जीतकर आएं तो सरासर ऐलान कर दिया जो एक कवि के षब्दों में इस
प्रकार हेै:-
‘पांच सालों के जीजाजी,
म्ंात्री बनते ही बोले,
मैं अपने फर्ज पर खरा उतरूंगा,
पांच सालों के लिए आया हूं,
पांच सालों के लिए, काम करूंगा.’
इस तथाकथित लोकतंत्र में इस ऐलानसे किसी को क्या एतराज हो सकता
था ? खैर, अब सालों एवं भाई-भतीजों के दौर में देष के पांच राज्यों की
विधानसभा चुनावों के समय कतिपय राजनैतिक दलों द्वारा अपने भाई-भतीजों
एवं सालों को टिकट दिए गए हैं. इनमें कई तो चारोंधाम-कांग्रेस, बीजेपी,
़समाजवादी और बहुजन समाज पार्टी-की यात्रा किए हुए है और अब सात
पुरियों-नोट,षराब, जाति,मजहब,प्रांत, भाषा ओैर कुनबें-में से किसीनकिसी में
डुबकी लगाकर चुनावी वैतरणी पार करने की सोच रहे हैं. इस चुनावी दंगल में
यह देखना भी दिलचस्प है जिसमें बाबूसिंह कुषवाहा प्रकरण में बीजेपी ने ‘पाप
से घृणा करो,े, पापी से नही’ के सिद्धांत के आधार पर यह दलील दी है कि
‘भ्रष्टाचार से परहेज करो, भ्रष्टाचारी से नही’. देखा आपने ? भ्रष्टाचार के
विरूद्ध रथयात्रा निकालनेवालों का तर्क ? इसलिए यही कहना पडेगा कि पहलें
दालों, फिर मसालों और अब सालों की बारी है !
-ई. शिव शंकर गोयल,
फ्लैट न. 1201, आई आई टी इंजीनियर्स सोसायटी,
प्लाट न. 12, सैक्टर न.10, द्वारका, दिल्ली- 75.
मो. 98737063339

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