ग्यारवी षताब्दी
अल बरुनी ईरानी मूल का मुसलमान था और उसका वास्तविक नाम अबू
रेहमान मुहम्मद इब्न-ए-अहमद था. उसका जन्म 973 ई. में ख्वारिजम
-आधुनिक खींव नगर जोकि उन्नीसवी सदी में मध्य एषिया में तुर्किस्तान का
खान राज्य था, अब यह उजबेकिस्तान में है- के इलाके में हुआ था जिस पर
उस समय तुरान और ईरान के सामानी वंष 874-999 का षासन थानगर
के बाहरी क्षेत्र में जंम होने के कारण उसे अल- बिरुनी की संज्ञा दी गई
और आज वह अपने असली नाम की बजाय इसी नाम से जाना जाता हेै,
बिरुनी फारसी भाषा का षब्द है जिसका अर्थ है ‘बाहर का’.
अल बिरुनी ने गजनी के सुलतान महमूद गजनवी के षासन काल में
‘लगभग 1030 ई’ में हिन्दुस्तान के बारे में ‘किताब फी तहकीक मा लिल हिन्द
मिन मकाला मक्बूला फिल अक्ल-औ-मरजूला’ जिसे आमतौर से
‘किताब-उल-हिन्द’ कहा जाता है की रचना की थी, बाद में इस पुस्तक का
अनुवाद पहले जर्मन भाषा एवं बाद में अंग्रेजी में जर्मन विद्वान एडवर्ड सीसख्
ााउ ‘1845-1930’ ने करके सन 1888 ई. मंे लंदन से प्रकाषित करायाइस
पुस्तक का हिन्दी अनुवाद षान्ता राम ने किया और वह सन 1926-1928
में इंडियन प्रेस लिमिटेड इलाहाबाद से प्रकाषित हुईअल
बरुनी ने पहले तो भारत के बारे में अरबी भाषा में उपलब्ध ग्रन्थों
का अघ्यन किया तथा फिर भारत भ्रमण किया. उस समय भारत में संस्कृत
भाषा का प्रचलन था, किताब लिखते समय उसका कहना था कि ‘हिन्दु लोग धर्म
में हमसे भिन्न है तथा सभी प्रकार के आचार-व्यवहार में, हमारी वेष भूषा और
हमारे रीति रिवाजों से अलग है’ परन्तु इन सब के बावजूद भारत को जानने में
उसकी अपार रुचि थी, इसलिए यहां के रीति रिवाज, धर्म, त्यौेहार इत्यादि का
समुचित अध्यन कर वह उपर वर्णित किताब लिखने में कामयाब हुआकिताब
के अनुसार आज से लगभग एक हजार वर्ष पूर्व हमारे देष में
दिवाली किस रुप में मनाई जाती थी इसी का निम्न लिखित षब्दों में वर्णन कर
रहे है अल बरुनी:-
‘कार्तिक प्रथमा या अमावस्या का दिन जब सूर्य तुला राषि में जाता हैे
‘दिवाली’ कहलाता है. इस दिन लोग स्नान करते है, बढिया कपडें पहनते है,
एक दूसरे को पान सुपारी भेंट देते है, घोडे पर सवार होकर दान देने मंदिर
जाते हेै और एक दूसरे के साथ दोपहर तक हर्षोल्लास के साथ खेलते है. रात्रि
को वे हर स्थान पर अनेक दीप जलाते है ताकि वातावरण स्वच्छ हो जाए. इस
पर्व का कारण है कि वासुदेव ‘उस समय कृष्ण को इसी नाम से पूजा जाता था’
की पत्नि लक्ष्मी, विरोचन के पुत्र बलि को ‘जो सात लोक में बन्दी है’ वर्ष में
एक बार इसी दिन बंधन मुक्त करती है और उसे संसार में विचरण करने की
आज्ञा देती हेै, इसी कारण इस पर्व को ‘बलिराज’ भी कहा जाता हैइसी
मास में जब पूर्णचन्द्र अपनी आदर्षावस्था में होता है वे कृष्ण पक्ष के
सभी दिनों में अपनी पत्नियों का साज सिंगार करते औेर जेवनार देते है’.
षिव षंकर गोयल
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