बुधवार, 14 सितंबर 2011

कविताएँ


संतुष्टी जीवन का मूल मन्त्र

संतुष्टी जीवन का

मूल मन्त्र

इच्छाएँ रखना भी

आवश्यक

नियंत्रण उन पर

अत्यावश्यक

बिना कर्म के कुछ नहीं

मिलता

सफलता मिलना

निश्चित ना होता

हिम्मत फिर भी नहीं

हारना

म्रदु व्यवहार सबको

भाता

अभिमान मनुष्य का

नाश करता

क्रोध जीवन को

भस्म करता

स्वार्थ सुख नाशक

होता

दुखों को बुलावा देता

दिनचर्या के नियम

बनाओ

व्यवहार में अपने

संयम लाओ

होड़ अपने से दूर

भगाओ

सदाचार से जीना सीखो

धन बिना काम नहीं

चलता

भविष्य का भी ध्यान करो

आवश्यकतानुसार

संचय करो

येन केन प्रकारेण

ना संचय करो

निरंतर इश्वर का

नमन करो

छोटों को प्यार

बड़ो का सम्मान

करो

खुल कर हंसा करो

कम से कम रोया करो

समय सदा

इकसार नहीं रहता

ये बात भी जान लो

दर्द जीवन में आयेंगे

दर्द सहना सीख लो

14-09-2011

1502-74-09-11

अपनों की जान लेता रहा

सूरज ने

सदा चाँद को

चाँद ने

सदा सूरज को

विदा किया

सदियों से निरंतर

यही क्रम चल रहा

वैमनस्य दोनों में

कभी ना रहा

किसी को सत्ता खोने

का दुःख नहीं हुआ

पृथ्वी पर

एक दिन में

राज करता रहा

दूसरा रात का

राजा बना रहा

विधी की विडंबना है

धरती के छोटे से

टुकड़े के लिए

मनुष्य निरंतर

लड़ता रहा

अपनों की जान

लेता रहा

लोग जहर उगलते रहे ,हम खुशी से निगलते रहे


जब भी मुस्कराए

किसी की नज़र के

शिकार हो गए

दो कदम आगे बढाए

जालिमों ने कांटे

बिछा दिए

हम खामोशी से

बैठ गए

लोगों ने मसले खड़े

कर दिए

लोग जहर उगलते रहे

हम खुशी से निगलते रहे

निरंतर नफरत से

लड़ते लड़ते

हम हँसना भूल गए

जीने की चाहत में

हम फिर भी ना रोए

हिम्मत से सहते रहे

धीरे धीरे चलते रहे

उनकी तंगदिली पर

हँसते रहे


मुझे खुशी से विदा कर दो

ना मेरे साथ रोओ

ना मेरे साथ हँसो

मुझे साथ रोने दो

हँसी में साथ हँसने दो

जो ले सको मुझ से

ले लो

तुम मुझे कुछ ना दो

निरंतर मन में पल रही

नफरत से मुक्त कर दो

थोड़ा सा प्यार दे दो

जाते समय ह्रदय में

बोझ ना रहे

इतना सा अहसान

मुझ पर कर दो

मुझे खुशी से विदा

कर दो

हँसते हुए जाने दो



कल रात फिर सुबह हो गयी

कल रात फिर सुबह

हो गयी

वो सपने में दिख गयी

खिजा में बहार

लौट आयी

निरंतर उदास चेहरे पर

रौनक आ गयी

हसरतें फिर जाग गयी

दिल की उम्मीदें परवान

चढ़ने लगी

ठहरी हुयी ज़िन्दगी में

रवानी आ गयी

मंजिल फिर से नज़र

आने लगी

उनकी याद फिर से

सताने लगी

मन मेरा चंचल बहुत ,कैसे इसे समझाऊँ ?

मन मेरा चंचल बहुत

कैसे इसे समझाऊँ ?

इच्छाएँ बहुत संजोता

स्वप्नलोक में खोता

कैसे वश में करूँ ?

हर आशा पूरी नहीं होती

सत्य कैसे इसे बताऊँ ?

ना थकता ना रुकता

निरंतर चलता रहता

अविरल विचारों में बहता

समुद्र की लहरों सा

उफनता

कैसे विराम लगाऊं ?

मन मेरा चंचल बहुत

कैसे इसे समझाऊँ ?


मनुष्य कर्मों से जाना जाता
सूर्य धरती को

चकाचोंध करता
ऊर्जा से जीवों को

जीवित रखता
अस्त होने पर

अस्तित्व का प्रतीक

भी नहीं छोड़ता

सूर्य का प्रताप सदैव

याद रहता

निरंतर उसे पूजा जाता
क्यों मनुष्य

सूर्य से नहीं सीखता ?

निरंतर नाम के लिए जीता
मन में इच्छाएँ संजोता
येन केन प्रकारेण

नाम की चाहत में जीता
किसी तरह

उसकी म्रत्यु के बाद

लोग उसे याद करते रहे
उसे पूजते रहे
निरंतर मनोइच्छा की

उथल पुथल में

भूल जाता
मनुष्य कर्मों से

जाना जाता
कर्मों से विमुख को

कोई याद नहीं करता
डा.राजेंद्र तेला,"निरंतर"
(डा. राजेंद्र तेला निरंतर पेशे से दन्त चिकित्सक हैं। कॉमन कॉज सोसाइटी, अजमेर के अध्यक्ष एवं कई अन्य संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। समाज और व्यक्तियों में व्याप्त दोहरेपन ने हमेशा से उन्हें कचोटा है । अपने विचारों, अनुभवों और जीवन को करीब से देखने से उत्पन्न मिश्रण को कलम द्वारा कागज पर उकेरने का प्रयास करते हैं। गत 1 अगस्त 2010 से लिखना प्रारंभ किया है।) उनका संपर्क सूत्र है:- rajtelav@gmail.com www.nirantarajmer.com www.nirantarkahraha.blogspot.com

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