मंगलवार, 28 जून 2011

पहले मानसून की सौगात

वो क्या है कि किसी तरह भी चैन नहीं है। जनता भी खूब है, इधर आए दिन सरकार से मांग करती रहेगी कि हमारे लिए फलां जगह नाले पर रपट बनाओ, यहां तालाब बनाओ, वहां बांध बनाओ और जब सरकार प्रकृति की मदद से उनके लिए कुछ कर देगी तो लोग हल्ला मचायेंगे कि यह क्या कर दिया?
अब आप शहर के बस स्टैन्ड को ही लें, वहां एक ही बरसात में छोटा-मोटा तालाब बन गया बताते हैं, वह भी मुफ्त में। कुछ लोगों का कहना है कि घर बैठे गंगाजी आ ही गई है तो अब हरिद्वार जाने की क्या जरूरत है ? आपको मेरी बात का विश्वास न हो तो आप स्वयं जा कर यह कृत्रिम तालाब देख लें, यही तालाब अगर सरकार अपने विभाग के माध्यम से बनवाती तो सच बताना कितने पैसे लगते? कितने साल में बनता और कितने जांच कमीशन बैठाने पडते और फिर इन जांच कमीशनों की जांच हेतु एक और जांच कमीशन बैठाना पड़ता। खैर, अब तालाब बन ही गया है तो शोरगुल किस बात का? एक तो बस स्टैन्ड पर तालाब बन गया और ऊपर से हाय तौबा कि अरे! बस स्टैन्ड के पास तालाब? क्या जमाना आया है?
कृत्रिम तालाब बनवाना कोई नई बात नहीं है। वर्षों पहले करोड़ों रुपए लगा कर सरकार ने चंडीगढ के पास एक कृत्रिम झील सुखना का निमार्ण कराया था। वर्षा का पानी पास के पहाड़ों से बह कर वहां आ जाता था। सैलानी झील की सैर का आनन्द उठाते थे। इसी तरह गांव के गरीब किसानों को पांच सितारा होटलों की हवा खिलाने वाले बड़े-बड़े किसान नेता चाचा-ताऊ वगैरह हरियाणा में कोई डिजनी लैन्ड बनाने की सोच रहे थे। वहां भी ऐसी ही कोई झील अथवा तालाब बनाने का इरादा था, पर भाई लोगों ने सब गुड़-गोबर कर दिया। एक तो जनता की भलाई के लिए कुछ करो और ऊपर से डांट-फटकार का सामना करो। हद हो गई।
बस स्टैन्ड के पास वर्षा के पानी से तालाब बन गया है, तो मछली विभाग वाले बैठे-बैठे क्या कर रहे हैं? क्यों नहीं मछली पकडऩे के ठेके देने हेतु टेंडर आंमत्रित कर लेते हैं ताकि सौदे हो सकें वर्ना व्यर्थ में ही कई लोग अपने-अपने कांटे लेकर मछली पकडऩे वहां पहुंच जायेंगे, जैसे चुनाव के बाद हंग विधानसभा बनने पर कुछ नेता करते हैं और मछली पकडऩे का अवैध धन्धा चालू कर देते हैं। मछली विभाग वाले इस बहाने तरह-तरह की मछलियां पैदा करने की कोई लम्बी-चौडी योजना भी बना सकते हैं, जो करोडों रुपए की हो ताकि योजना आयोग को यह लगे कि देश के कोने-कोने में मछली पालन उद्योग को बढ़ावा देने हेतु बहुत कुछ किया जा रहा है। इस के लिए हिन्दी-इंगलिश के अखबारों मे मंत्रीजी की फोटो सहित बड़े-बड़े विज्ञापन भी दिए जा सकते हैं। इंडिया को शाइनिंग किया जा सकता है।
आखिर योजनाएं ही तो हैं, इस बहाने लगे हाथ अन्य विभाग भी सक्रिय हो जायेंगे। मसलन वाटर वक्र्स वालों को ही लें, उन्हें पानी का इससे ज्यादा नजदीक और दूसरा कौन सा स्रोत मिलेगा? इस तालाब के पानी को सोर्स मान कर अच्छी खासी जल प्रदाय योजना बनाई जा सकती है। विश्व बैंक अथवा एशिया विकास बैंक से ऋण लिया जा सकता है, इसी आशा में वो आया पानी, वो आया पानी कह कह कर जनता को बहलाया जा सकता है, जैसे कि यू पी में नोऐडा की जनता को बहलाया जा रहा है।
माना कि सिंचाई विभाग वालों ने इस तालाब को बनाने में कोई खास सहयोग नहीं दिया है, लेकिन जब बन ही गया है तो वह लोग अब इसका समुचित उपयोग कर ही सकते हैं। इस तालाब से दांयी और बांई ओर नहरें निकाल कर दूर-दूर तक के इलाकों की सिंचाई हेतु नहरों का जाल बिछाने की योजना बनाई जा सकती है और सम्पूर्ण योजना को 'बस स्टैन्ड तालाब कमांड ऐरियाÓ का नाम दिया जा सकता है। इसे योजना आयोग से शीघ्र पास करवाना हो तो इस योजना के नाम के आगे या पीछे किसी महान नेता या राज परिवार का नाम जोडऩा पडेगा। अगर ऐसा नहीं किया गया तो यह योजना ठंडेे बस्ते में चली जायेगी, देख लेना आप! रही बात बांध में दरार की तो चूंकि इस तालाब हेतु ठेकेदारों तथा इंजीनियरों ने मिल कर कोई बांध तो बनाया नही हैं, जिसमे दरार आने का भय हो। अत: इसकी सुरक्षा को कोई खतरा नहीं है। आप यह मान कर चलें।
बिजली विभाग वाले भी ऐसी ही मिलती-जुलती हाइडे इलैक्ट्कि योजना इस पानी से टरबाइनों की मदद से बिजली पैदा करने की बना सकते हैं क्योंकि उत्तरी ग्रिड में पावर की वैसे ही बहुत कमी है। न्यूक्लीयर एनर्जी की बिजली तो आयेगी जब आयेगी।
नगरपालिकाओं की खस्ता हालत किससे छिपी है? वहां पार्षदों के पास आए दिन पालिकाध्यक्ष के कपडे फाडऩे के अलावा क्या काम बचा है? लेकिन लगता है प्रकृति ने पालिकाओं की आर्थिक हालत सुधारने का बीड़ा उठा लिया है। अब तालाब बन ही गया है तो पालिका इसमे नावें चला सकती है, जिससे सैर-सपाटे के लिए जनता आएगी और पालिका को आमदनी होगी। तालाब के किनारे ठेले-खोमचे लगेंगे, उनसे नगर पालिका के कर्मचारी चौथ वसूल कर कम से कम फिफ्टी-फिफ्टी तो पालिका के खजाने मे जमा करायेंगे ही। रहा तालाब के किनारे पैदा होने वाले मच्छरों का प्रश्न तो उनके लिए 'मच्छरों दिल्ली छोडोÓ की तर्ज पर जगह-जगह तख्तियां लगाई जा सकती हैं, 'मच्छरों तालाब छोडोÓ और वे उसे पढ़ कर तालाब छोड़ देंगे, चाहें तो तख्तियों के मजमून का इंगलिश अनुवाद भी टांग सकते है क्योंकि आजकल सर्वत्र इंगलिश का ही बोलबाला है और उससे स्टैन्डर्ड भी बढ़ता है।
इधर जनता को भी सहयोग करना चाहिए। वैसे भी उन्हें नजदीक में ही सैर- सपाटे हेतु तालाब के रूप में पिकनिक स्पॉट का आनन्द प्राप्त हो रहा है। वहां जा कर दाल-बाटी-चूरमे का मजा लिया जा सकता है। ट्रेन में बैठे-बैठे ही रास्ते से गुजरने वाले जैसे प्रकृति का आनन्द उठाते हैं, वैसे ही बस के यात्री इस तालाब का आनन्द उठा सकते हैं। इस बहाने बस वाले उन पर कुछ सरचार्ज लगा सकते हैं कि मैरिन ड्राइव की सी हवा मुफ्त में खा रहे हो, लाओ कुछ टैक्स ही दो।
मेरे कहने का मकसद यह कि इस घटना से फायदा ही फायदा है। खुदा न खास्ता बिल्ली के भाग का छींका टूट ही गया है और प्रकृति ने एक ही बरसात में बस स्टैन्ड पर तालाब बना दिया है तो जनता शोरगुल किस बात का मचा रही है?
यह व्यंग्य लेख सेवानिवृत्त इंजीनियर श्री शिवशंकर गोयल ने भेजा है। उनका संपर्क सूत्र है -फ्लेट नं. 1201, आई आई टी इंजीनियर्स सोसायटी, प्लाट नं. 12, सैक्टर .10, द्वारका, दिल्ली- 75, मोबाइल नंबर: 9873706333

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