गुरुवार, 2 जून 2011

पाराशर जी का चौथा विकल्प

जय भगवान जी का पूरा नाम जय भगवान पाराशर था। वे पुष्कर के रहने वाले थे और हमारे ही मकहमे यानि पीएचईडी में लिपिक के पद पर काम करते थे, परन्तु किसी के पूछने पर पीएचडी ही बतलाते। मेरी उनसे पहली मुलाकात विभाग में ही हुई थी। हम एक ही सैक्शन में थे। अक्सर उनकी बातें बड़ी दिलचस्प होती थीं। एक रोज की बात है कि हमारे ही विभाग का कोई कर्मचारी अपने तबादले हेतु भीलवाड़ा से हमारे कार्यालय अर्थात मुख्यालय जयपुर आया। उसे लेकर हम सभी कार्यालय के बाहर किशन चाय वाले की थड़ी पर पहुंचे। किशन को चाय का ऑर्डर देने के बाद सामने ही कड़ाही में गर्मा-गर्म कचौरियों को तैयार होते देख कर उनका जिक्र चल पड़ा। सभी कचौरियों के बारे में बातें करने लगे। तभी पाराशर जी ने रहस्योद्घाटन किया कि एक बार वे 72 कचौरियां तक खा चुके हैं। उनका यह दावा सुन कर हम सभी एकाएक शंका करने लगे और उन्हें कहा कि एकबारगी में 72 कचौरियां खाना नामुमकिन है, लेकिन वे अपनी बात पर अड़े रहे और कहा कि वाकई मैंने 72 कचौरियां ही खाई हैं। अपनी बात के समर्थन में उन्होंने यह भी बताया कि यह बात अजमेर की मशहूर चाट की दुकान विद्या कचौरी वाले की है। हम सभी द्वारा पाराशर जी के दावे को खारिज होते देख थोड़ी देर बाद वह कुछ नरम पड़े और अपना क्लेम कुछ ढीला कर दिया और कहा कि 72 नहीं तो 60-65 तो थी ही, इससे कम का तो सवाल ही पैदा नही होता। हमारे ही एक साथी ने जब उन्हें चैलेंज किया और कहा कि एक साथ 60-65 कचौरियां भी खाना सम्भव नहीं है और अगर वह फिर से खाकर दिखा दे तो वे उन्हें 100 रुपए देंगे और अगर नहीं खा सकेंगे तो दुगने पैसे देने पडेंगे। उस समय 100 रुपए की कीमत होती थी। इतने में ही चाय आ गई और हम लोग चाय पीने लगे। कुछ देर बाद हम सबने मिल कर फिर उन्हें ललकारा तो पाराशर जी कहने लगे कि इस बाबत आप चाहें तो जगदीश जी से भी पूछ सकते हैं। ऊपर मैं आपको यह बताना भूल गया था कि हमारी उक्त गोष्ठी में पाराशर जी के परम मित्र जगदीश जी भी मौजूद थे, जो इस वार्ता के दौरान अधिकांश समय मुस्करा रहे थे। जब पाराशर जी ने 40 का आंकड़ा फिर दोहराया और कहा कि जगदीश जी ने स्वयं गिनी हैं। यहां पर कनखियों से मैंने देखा कि जगदीश जी आंख मार कर पाराशरजी को कुछ और कम करने के लिए इशारा कर रहे हैं। इस पर पाराशर जी बिफर पड़े और कहा कि मैं अब और कम नहीं कर सकता क्योंकि अब तो कचौरियां गिन भी ली गई हैं। तभी चपरासी ने आकर बताया कि पाराशर जी को साहब याद कर रहे हैं तो हम सब दफ्तर की तरफ चल दिए और इस तरह उस दिन अनिर्णित बहस का समापन हुआ।
पाराशर जी के बारे में कई किस्से मशहूर थे। कहते हैं कि उनकी युवावस्था में जब वह शादी के लायक थे तब कई लोग उन्हें देखने, उनके बारे में जानकारी लेने आते थे। इस बारे में जगदीश जी ने एक सच्ची घटना सुनाई। हुआ यह कि एक रोज कुछ लोग शादी का प्रस्ताव लेकर उन्हें देखने-जानने आए। मुलाकात किसी जानकार के घर पर हुई। औपचारिक भेंट एवं नाम इत्यादि पूछने के बाद उनसे पूछा गया कि बेटा! कितना पढ़े हो, तो उन्होंने जबाब दिया कि एमए साइंस हूं। लड़की वालों ने फिर पूछा कि क्या करते हो, कोई दुकान है या नौकरी है, तो उन्होंने जवाब दिया कि पीएचडी में हूं। अपना कोई मकान वगैरह भी होगा, इस पर यह बोले कि दो-दो कोठियां हैं। एक मोदियाना गली में है दूसरी रक्त्या गली में। उम्र कोई बीस- बाईस होगी, मैं 35 साल का हूं। इतने में इनको खांसी आ गई तो लडकी वालों ने प्रसंगवश पूछ लिया कि क्या खांसी है, तो यह बोले कि नहीं, दमा है। कहने का तात्पर्य यह कि हर बात को अपने ही ढंग से बढ़ा-चढ़ा कर कहने की आदत पाराशर जी की थी। विभाग में काम करते-करते जब काफी अर्सा हो गया तो उनकी बातों में परिपक्वता आने लगी। एक बार दफ्तर समय में साथियों के बीच धूप सेकते-सेकते बात चल पडी तो उन्होंने अपनी युवावस्था का एक किस्सा सुनाना शुरू कर दिया।
यह बात आप उन्ही के शब्दों में सुनेंगे तो ज्यादा आनंद आयेगा। एक बार हम कुछ दोस्त गोठ करने पंचकुंड, जो कि पुष्कर के पास नाग पहाड की तलहटी में स्थित महाभारतकालीन ऐतिहासिक स्थल जो कभी घने वन से घिरा रहता था, गए। वर्षा ऋतु में कोई छुट़टी का दिन था। गोठ का जरूरी सामान लेकर हम वहां पहुंचे और हममें से कुछ लोग रसोई बनाने में जुट गए, कुछ लोग नहाने-धोने में पांचों कुन्डों की तरफ निकल गए। मैं अपने एक दोस्त के साथ जंगल में बरसाती नाले की तरफ चला गया। बातों ही बातों में हम काफी दूर निकल गए और नाले के एक किनारे स्थित टीले पर बैठ कर बातें करने लगे। बातों में हमें यह भी ध्यान नहीं रहा कि कुछ देर पहले जंगल के पशु-पक्षी अपनी अपनी बोलियों में चिल्ला कर कुछ संकेत कर रहे थे। थोड़ी देर बाद बिलकुल सन्नाटा छा गया। इतने में हमने देखा कि एक शेर चारों तरफ देखता हुआ धीरे-धीरे नाले की तरफ बढ़ रहा है। वह स्थान हमारे बैठने के स्थान के ठीक सामने ही था। सिर्फ कुछ झाडिय़ां ही हमारी ओट बनी हुई थीं। शेर को इतना करीब देख कर एकबारगी तो हमारी सांसें ही जैसे थम गईं, लेकिन दम साधे हम लोग बैठे रहे। इतने में एक काले मुंह के बंदर ने हूप-हूप की आवाज करते हुए एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर छलांग लगाई ,जिससे अचकचा कर शेर पीछे मुड़ कर जंगल की तरफ भागा। इधर हम दोनों भी अपनी जान बचा कर पुष्कर की तरफ भाग आए। पाराशर जी ने उपरोक्त किस्सा कोई एक बार ही हमें नहीं सुनाया, एक और मौके पर उन्होंने इसी घटना को विस्तार से फिर सुनाया, मानो कोई नई बात सुना रहे हों। हां, उसका उत्तराद्र्ध यानि बाद का हिस्सा बदल दिया। हो सकता है ऐसा उन्होंने अनजाने में कर दिया हो क्योंकि ऐसी घटनाएं दुबारा सुनाते वक्त अक्सर वक्ता को यह याद नहीं रहता कि पहले क्या सुनाया था? खैर, दूसरी बार सुनाते वक्त उनका कहना था कि शेर जब पानी पी चुका, तभी अचानक कहीं से टिटहरी की आवाज हुई, जिसे सुन कर शेर चौंक गया और उसने हमारी ओर देखा। यह दृश्य देख हमारे होश उड़ गए और हम दोनों सिर पर पांव रख कर वहां से भागे तो पुष्कर की बड़ी बस्ती में आ कर ही दम लिया। एक और अवसर पर यही किस्सा तीसरी बार सुनाते वक्त उनका बाद वाला विकल्प फिर बदल गया। इस बार उनका कहना था कि जब शेर पानी पी चुका तो अचानक एक कव्वे की आवाज सुनाई दी, जिसे सुनकर शेर चौकन्ना हो गया ओर वह जंगल की तरफ भागा और इधर जान बचा कर हम भी भागे और पुष्कर की छोटी बस्ती में आकर ही दम लिया। यानि इस बार दोनों ही पक्ष विपरीत दिशाओं में पलायन कर गए।
मैं कई बार यह सोचता रहता हंू कि कहीं पाराशरजी को एक बार और शेर मिल जाता तो उनका चौथा विकल्प, यानि दोनों ही भागने की बजाय आमने-सामने हो जाते, तो क्या होता? परन्तु हमारे देश में तो हर कोई तीसरे विकल्प तक ही आकर ठहर जाता है। चाहे राजनीति हो चाहे जैन्डर भेद यानि स्त्रीलिंग-पुल्लिंग एवं शबनम मौसी वाला वर्ग। इससे आगे कोई बढ़ता ही नहीं। मेरा मानना है कि पाराशर जी के साथ चौथा विकल्प हो जाता तो शायद वही होता जो एक अन्य व्यक्ति के साथ हुआ। हुआ यह कि एक बार वह व्यक्ति घने जंगल के बीच से गुजर कर कहीं जा रहा था कि उसका सामना एक शेर से हो गया। फिर तुमने क्या किया, मित्र ने पूछा। मुझे क्या करना था, जो कुछ करना था उस शेर को ही करना था। वह बोला, खुदानखास्ता ऐसी बात पाराशर जी के साथ हो जाती तो वे मुझे कैसे बताते और जब वे मुझे नहीं बताते तो मैं भी फिर आपको क्या सुनाता?

यह व्यंग्य लेख सेवानिवृत्त इंजीनियर श्री शिवशंकर गोयल ने भेजा है। उनका संपर्क सूत्र है -फ्लेट नं. 1201, आई आई टी इंजीनियर्स सोसायटी, प्लाट नं. 12, सैक्टर न.10, द्वारका, दिल्ली- 75, मोबाइल नंबर: 9873706333

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें