शनिवार, 17 दिसंबर 2011

शहर देहली का हाल


'...अब मैं आपको देहली का पूरा पूरा हाल सुनाता हॅू, तब आप स्वयं
समझ सकेंगे कि यह षहर सुंदर है या नही, प्राय: चालीस वर्ष हुए वर्तमान
बादषाह के पिता षाहजहॉ ने अपने स्मृति चिन्ह के लिए पुरानी दिल्ली के निकट
एक नया षहर बसाया और अपने नाम के अनुसार इस षहर का नाम
षाहजहानाबाद व जहानाबाद रखा, इसके राजधानी बनाए जाने का कारण यह
प्रकट किया गया कि गरमी की अधिकता के कारण आगरा बादषाह के रहने योग्य
नही है पर इसके बनाने के लिए सब चीजें पुरानी देहली के आसपास के खंडहरों
में से ली गई है इससे विदेषी आदमियों को पुराने और नए षहर में कोई भेद
नही मालुम होता, भारत में लोग इसे जहानाबाद ही कहते है, पर सरलता के लिए
मैं भी विदेषियों की तरह इन्हें एक ही कहूंगा.
षहर देहली चौरस जमीन पर जमुना के किनारे जो ल्वायर-फ्रांस-नदी के
समान है- चन्द्राकार बसा हुआ हैं. नदी को छोड कर -जिस पर नावों का पुल
बंधा है- बाकी तीनों ओर रक्षा के लिए पक्की षहरपनाह बनी हुई हैं. अगर इन
बुरजों पर से जो षहरपनाह के किनारे सौ सौ कदमों पर बने हुए है या उस
कच्चें पुष्तें पर से, जो चार या पांच फ्रांसीसी फुट उंचा है, देखा जाय तो यह
षहरपनाह बिलकुल ही अपूर्ण है क्योंकि न तो इसके निकट कोई खाई है ओर न
कोई दूसरा रक्षा का उपाय है.
यह षहरपनाह नगर और किलें को घेरे हुए है तथा उसकी लम्बाई इतनी
अधिक नही है जितनी लोग समझते है क्योंकि तीन घन्टे में मैं उसके चारों ओर
फिर आया हॅू, मेरे घोडें की चाल एक फ्रांसीसी लीग या तीन मील प्रति घन्टे से
अधिक न थी, मैं इसमे षहर की आस पास की उन बस्तियों को नही मिलाता जो
बहुत दूर तक लाहौरी दरवाजें की ओर चली गई्र है और न पुरानी देहली के उस
बचे हुए बडे भाग को, और न उन तीन चार बस्तियों को मिलाता हॅू जो षहर के
पास है क्योंकि इन्हें भी उसी में मिला लेने से षहर की लम्बाई इतनी बढ जाती है
कि यदि षहर के बीचो-बीच एक सीधी रेखा खींची जाए तो वह साढे चार मील
से भी अधिक होगी, यद्यपि बाग आदि के बीच में आजाने के कारण मैं नही कह
सकता कि नगर का ठीक ठीक व्यास कितना है फिर भी इसमे सन्देह नही कि वह
बहुत ही अधिक हैकिला
जिसमें षाही महलसरा और मकान है और जिनका वर्णन मैं आगे
चल कर करूंगा अर्द्ध गोलाकार-सा है, इसके सामने जमुना नदी बहती है, किलें
की दिवार और जमुना नदी के बीच में एक बडा रेतीला मैदान है जिसमें हाथियों
की लडाई दिखाई जाती है और अमीरों, सरदारों और हिन्दु राजाओं की फौज
बादषाह को देखने के लिए खडी की जाती है जिन्हें बादषाह महल के झरोखों से
देखा करता हैंकिलें
की दिवार अपने पुराने ढंग के गोल बुर्जों के कारण षहरपनाह से
मिलती-जुलती हैं. यह ईंट और लाल पत्थर की बनी हुई है जो संगमरमर से
मिलता जुलता होता हैं. इसलिए षहरपनाह की अपेक्षा यह अधिक सुन्दर हैं. यह
षहरपनाह से उंची और सुदृढ भी हैं. इस पर छोटी छोटी तोपे चढी हुई है
जिनका मुंह नगर की ओर हैं. नदी की ओर को छोड कर किलें के सब ओर
पक्की और गहरी खाई बनी हुई हैं. इसके बांध भी मजबूत पत्थर के बने हुए हैं.
यह खाई हमेषा पानी से भरी रहती है और इसमे मछलियां बहुत अधिकता से हैे
यद्यपि यह इमारत देखने में बहुत दृढ मालुम होती हेै पर वास्तव में यह दृढ नही
है औेर मेरी समझ में एक साधारण तोपखाना इसे गिरा सकता हैंइस
खाई के निकट एक बडा बाग है जिसमें बहुत सुन्दर और अच्छे फूल
होते हैं. किले की लाल रंग की दिवार के सामने होने के कारण यह बाग बहुत ही
सुन्दर मालुम होता हैं. इसके सामने एक बादषाही चौक है जिसके एक ओर किलें
का दरवाजा हैे और दूसरी ओर षहर के दो बडे बाजार आकर समाप्त हो जाते
है, जो नौकर राजे प्रति सप्ताह यहां चौकी देने आते है उनके खेमें आदि उसी
मैदान में लगाए जाते हैं. इसी स्थान पर तरह तरह की चीजों की बिक्री के लिए
गुजरी लगती हैइन
दो बडे बाजारों की चौडाई जो चांदनी चौक में आ कर मिलते है
पच्चीस या तीस कदम हैं. जहां तक दृष्टि पहुंचती है वे सीधे ही चले जाते हैंइनमें
से जो बाजार लाहौरी दरवाजे की ओर गया है वह बहुत ही लम्बा हैं. दोनों
रास्तों पर मकान तथा इमारतें समान ही हेैं. पेरिस के प्रसिद्ध बाजार पैलेस रायल
की तरह इन बाजारों के दोनों ओर की दुकानें महराबदार है पर इनमें भेद इतना
ही है कि एक तो यह ईटों का बना हुआ है और दूसरे यह एक ही खंड का हैंइन
दुकानों की छतें खास चबूतरों का काम देती हैं. एक भेद और है, पैलेस
रायल की दुकानों के बरामदें ऐसे बने हैे कि इनमें प्रवेष करने पर मनुष्य बाजार
में एक सिरे से दूसरे सिरे तक जा सकता है पर यहां की दुकानों के बरामदें
अलग अलग होते हेै और उनके बीच मे दिवारें बनी होती हैं. दिन के समय यही
बैठकर व्यापारी और सर्राफ अपना अपना काम करते है और ग्राहकों को माल
दिखाते हैं. इन बरामदों के पीछे असबाब आदि रखने के लिए कोठियां बनी हुई है
जिनमें रात के समय सारा असबाब रख दिया जाता हेैं. इनके उपर व्यापारियों के
रहने के लिए मकान बने हुए है जो बाजार में से देखने पर बहुत ही सुन्दर
मालुम होते हैं. यें मकान हवादार होते है और धूल बिलकुल नही आती, यद्यपि
षहर के भिन्न भिन्न भागों में भी दुकानों के उपर इसी प्रकार के मकान होते है
पर वे इतने छोटे और नीचे होते है कि बाजार में से भली भांति दिखाई भी नही
देते, अधिकतर व्यापारी दुकानों पर नही सोते वरन रात को काम कर चुकने पर
अपने अपने मकानों को जो षहर मे होते है, चले जाते हैंइनके
अतिरिक्त पांच और बाजार हैं. यद्यपि इनकी बनावट आदि वैसी ही
हेै पर वे इतने लंबे ओैर सीधे नही हेै और भी छोटे बडे बाजार है जो एक दूसरे
को काटते हुए चले जाते हेै, यद्यपि उनके सामने वाली ईमारत महराब के ढंग की
है तथापि वे ऐसे लोगों के हाथ से बने हुए होने के कारण जिन्हें इमारत के सुडौल
होने का ध्यान ही नही था, इतने सुन्दर, चौडे और सीधे नही है जितने वह
बाजार हेै जिनका वर्णन मैंने अभी किया है.
षहर के गली कूचों में मनसबदारों, हाकिमों और धनिक व्यापारियों के
मकान है और उनसे भी बहुधा अच्छे और सुन्दर है पर ईट या पत्थर के बने
मकान बहुत ही कम और कच्चे या घास फूस के बने अधिक हैं., इतना होने पर
भी वे सुन्दर और हवादार हेै, बहुत से मकानों में चौक और बाग होते हेै जिनमें
सब प्रकार की सुख सामग्री उपलब्ध रहती है, जो मकान घास फूस के बने होते है
वहां भी अच्छी सफेदी की हुई होती हैंअमीरों
के मकान प्राय: नदी के किनारे और षहर के बाहर हैं. इस गरम
देष में वही मकान अच्छा समझा जाता है जिसमें सब प्रकार का आराम मिले और
चारों ओर से विषेषकर उत्तर से अच्छी हवा आती हो, यहां वही मकान अच्छे
कहे जाते है जिनमे एक अच्छा बाग, पेड और दालान के अन्दर या दरवाजे में
छोटे छोटे फव्वारें और तहखाने होंगर्मी
के दिनों में देषी खरबूजें बहुत सस्ते मिलते है पर ये कुछ अधिक
स्वादिष्ट नही होते, हां जिनके बीज ईरान से मंगवाया और बोया जाता है बहुत
अच्छे होते हैंगर्मी
के दिनों में आम यहां बहुत सस्ते और अधिकता से मिलते हैे पर
देहली में जो आम होता हैे वह न तो ऐसा अच्छा ही होता हैे और न बुरा, सबसे
अच्छा आम बंगाल, गोलकुन्डा और गोवा से आता हेै जो वास्तव में बहुत अच्छा
होता हेैं. तरबूज यहां बारहों मास रहता हेै, पर जो तरबूज देहली में पैदा होता हैे
वह नरम और फीका होता हैं.
षहर में हलवाइयों की दुकानें अधिकता से हेै पर मिठाई उनमें अच्छी नही
बनती. उन पर गर्द पडी होती है और मक्खियां भिनभिनाया करती हैं. नानबाई
भी बहुत है पर यहां के तन्दूर हमारे यहां के तन्दूरों से बहुत ही भिन्न और बहुत
बडे होते है और इसी कारण न तो रोटी अच्छी होती है और न भलीभांति सेंकी
हुई पर जो रोटी किलें में बिकती है वह कुछ अच्छी होती हैंजुम्मा
मस्जिद:- किले का वर्णन छोड अब मैं फिर षहर की ओर फिरता हूं
जिसकी दो इमारतों का हाल अभी तक लिखना बाकी हैं. उनमें से एक तो बडी
मस्जिद है जो षहर के बीच में एक उॅची पहाडी पर बनी होने के कारण दूर से
दिखाई देती हैं. इसके बनाने से पहले पहाडी की जमीन बिलकुल साफ और चौरस
खोदी गई थी और चारों ओर मैदान कर दिया गया था जहां चारों ओर से चार
बाजार आकर मिलते है, उनमें से एक तो सदर दरवाजे के सामने है औेर दूसरा
पीछे को और बाकी दोनों ओर के दरवाजे के पास. अन्दर जाने के लिए तीनों
ओर पत्थर की 25-25 सुन्दर सीढियां बनी हुई है और पीछे की ओर साफ
करके पहाडी की उंचाई तक पत्थर लगा दिए गए हेै जिनसे वह इमारत और भी
सुन्दर हो गई हैं. इसके तीनों दरवाजें बहुत सुन्दर लाल पत्थर के बने हुए हैे और
उनके किवाडों पर तांबे या पीतल की पत्तियां जडी हुई है, सुन्दर दरवाजा जिस
पर संगमरमर की छोटी छोटी बुर्जियां बनी हुई है, बहुत ही खूबसूरत हैं. मस्जिद
के पिछले भाग में तीन बडे बडे गुंबद है जो संगमरमर के बने हुए हैं. बीचवाला
गुंबद कुछ अधिक बडा और उंचा हैं. मस्जिद के केवल इसी भाग के उपर छत
बनी हुई है और इसके आगे सदर दरवाजे तक बिलकुल खुला हुआ हैे जो गर्मी
के कारण खुला रखना आवष्यक हैं. मस्जिद के अन्दर संगमरमर ओैर बाहर लाल
पत्थर की सिलें जमीन मे जडी हुई है.
यहां की दूसरी वर्णन करने योग्य इमारत बेगम सराय या कांरवा सराय है
जो षाहजहां की बडी बेटी-बेगम साहिबा, जहांआरा- ने गत लडाई के समय
बनवाई थी. पैलेस रायल की तरह यह भी एक बडी महराबदार चौकोर इमारत हैंइसमें
लगातार कोठडियां बनी हुई है और उनके आगे अलग अलग बरामदें हैं.
यह इमारत दो खंडों की है और नीचे के खंड की तरह उपर के खंड में अलग
अलग कोठरियां और बरामदें हैं. ईरानी तथा विदेषी अमीर व्यापारी इसे सुरक्षित
समझकर यही आ कर ठहरते हैंबस्ती:-
मैं नही कह सकता कि देहली औेर पेरिस की जनसंख्या में क्या
समानता है पर फिर भी मेरी समझ में यदि देहली में पेरिस से अधिक आदमी
नही है तो कम भी नही हैंदेहली
के आसपास की भूमि बहुत ही उपजाउ हैं. इसमें चावल, गेंहू, गन्ना,
नील, मंूग और जौ आदि जो वहां के लोगों का प्रधान भोजन हैे, अधिकता से
उत्पन्न होते हेैं. आगरे की ओर जो सडक गई है उस पर देहली से प्राय: छह
मील पर एक स्थान है जिसे मुसलमान ख्वाजा कुतुबउद्धीन कहते हैं. यहां एक
बहुत ही प्राचीन इमारत है जो कदाचित पहले मंदिर था, जिस पर एक लेख खुदा
है जो बहुत प्राचीन मालुम होता हैं. उसकी लिपि किसी से पढी नही जाती और
उसकी भाषा भारत की सब प्रचलित भाषाओं से भिन्न हैंदेहली
से आगरे तक जो डेढ या पौने दो सौ मील लंबी सडक चली गई है
उस पर फ्रांस की तरह आपको कोई अच्छी बस्ती न मिलेगी हां केवल मथुरा एक
पुराना नगर है जिसमें एक बडा और प्राचीन मंदिर-द्वारकाधीष-अब तक विद्यमान
हैंनेषनल
बुक ट्स्ट, इंडिया द्वारा प्रकाषित 'बर्नियर की भारत यात्राÓ से साभार.
फैंव्किस बर्नियर एम.डी, जोकि पेषें से डाक्टर थे, मुगल बादषाह, षाहजहां के
जीवन के अंतिम चरण-सत्रहवी षताब्दी- में फ्रांस से भारत आए थे. प्रस्तुत वृतांत
उसी पुस्तक से लिया गया हैं. अब जबकि दिल्ली को राजधानी का दर्जा प्राप्त हुए
एक सौ साल-11.12.1911 से- होगए है उसी उपलक्ष में यह 'हाले दिल्लीÓ
आपकी सेवा में प्रस्तुत हैं
-ई. शिव शंकर गोयल,
फ्लैट न. 1201, आई आई टी इंजीनियर्स सोसायटी,
प्लाट न. 12, सैक्टर न.10, द्वारका, दिल्ली- 75.
मो. 9873706333

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