tag:blogger.com,1999:blog-75442911971539768932024-02-19T23:12:06.536-08:00साझा मंचसाथियों की रचनाएंतेजवानी गिरधरhttp://www.blogger.com/profile/15920539204622934103noreply@blogger.comBlogger106125tag:blogger.com,1999:blog-7544291197153976893.post-16146656287832430772012-01-15T06:10:00.000-08:002012-01-15T06:12:30.787-08:00कल कह ना सकूं<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjGPMMCBWwwi3JasEDmuj9U1DcPczRICxkBj0wXuxlQOOk6YfsthwzYMc09KYqOO-kX0oGv2_FVrK2aTK03XDXGR5Gz7xUEWma6x93mlFHHWox0PM2GXzsdTVTQL49AACDgEILJNxit5Bg/s1600/dr.+r+tela.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 114px; height: 154px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjGPMMCBWwwi3JasEDmuj9U1DcPczRICxkBj0wXuxlQOOk6YfsthwzYMc09KYqOO-kX0oGv2_FVrK2aTK03XDXGR5Gz7xUEWma6x93mlFHHWox0PM2GXzsdTVTQL49AACDgEILJNxit5Bg/s320/dr.+r+tela.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5697861408158380594" /></a><br />कल कह ना सकूं<br />दिल की बात आज ही<br />कहना चाहता हूँ<br />रात सोऊँ सवेरे उठ<br />ना पाऊँ<br />इस तरह दुनिया से<br />रुखसत होना चाहता हूँ <br />सबको हँसते गाते<br />छोड़ कर जाना चाहता हूँ <br />जानता हूँ जब भी कोई<br />अपना जाता<br />दिल कितना रोता है<br />किसी अपने को<br />रुलाना नहीं चाहता हूँ<br />याद कर<br />आंसू ना बहाए कोई<br />जाने के बाद किसी को<br />याद नहीं आऊँ<br />ज़िन्दगी के सफ़र में<br />मिला था मुसाफिर कोई<br />समझ कर<br />भुला दिया जाऊं<br />दुखाया हो<br />दिल किसी का कभी<br />हुयी हो गलती कोई<br />तो जीते जी<br />माफ़ कर दिया जाऊं <br />जाने के बाद<br />दिल किसी का दुखाना<br />नहीं चाहता हूँ<br />दे नहीं सका खुशी जिन्हें<br />उन्हें खुश देखना<br />चाहता हूँ<br />बना ना सका अपना<br />जिन्हें <br />उन्हें अपना बनाना<br />चाहता हूँ<br />बचे वक़्त का हर लम्हा<br />दूसरों के लिए जीना<br />चाहता हूँ<br />कल कह ना सकूं<br />दिल की बात आज ही<br />कहना चाहता हूँ<br />सुकून से जाना<br />चाहता हूँ <br /><span style="font-weight:bold;">डा.राजेंद्र तेला,"निरंतर" <br />"GULMOHAR"<br />H-1,Sagar Vihar<br />Vaishali Nagar,AJMER-305004<br />Mobile:09352007181</span>तेजवानी गिरधरhttp://www.blogger.com/profile/15920539204622934103noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-7544291197153976893.post-64800819194056682882012-01-15T06:07:00.001-08:002012-01-15T06:08:34.195-08:00मैं खडा होना चाहता हूं, व्यंग्य<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiZ-wDPXQwXAGjEPsJC3TXUae7L9l1FcuOKZTG34Yyi-GfaBhAYY29sNFYDMpD2i_XTaSrEuic3u0NpLTwVaXJftFUGBD8nhBQhdCK1eVmz0c6cvLaR_qffoKPzOO__ehyphenhyphenPflQJI0ue9iY/s1600/s+s+goyal+1.JPG"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 172px; height: 202px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiZ-wDPXQwXAGjEPsJC3TXUae7L9l1FcuOKZTG34Yyi-GfaBhAYY29sNFYDMpD2i_XTaSrEuic3u0NpLTwVaXJftFUGBD8nhBQhdCK1eVmz0c6cvLaR_qffoKPzOO__ehyphenhyphenPflQJI0ue9iY/s320/s+s+goyal+1.JPG" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5697860376042268450" /></a><br />अब मैं भी खडा होना चाहता हंू। नहीं, आप गलत समझ गए। मैं अपने<br />पेैरों पर तो पहले से ही खडा हूं। मैं तो चुनाव दंगल में खडे होने के लिए कह<br />रहा हंू। कहते हैं कि खडे होने का अनुभव या तो मंत्री को होता हैे या संतरी<br />को, लेकिन उं-हंू, मेरे को यह बात नही जंचती। अब मुझे ही लो, मुझे खडे होने का क्या कम अनुभव है? बचपन में पढने लिखने में ठोठ, कमजोर था,<br />पंडितजी पहाडे याद नहीं करने पर खूब मारते थे, बैंच पर खडा कर देते थे,<br />फिर घंटों खबर नहीं लेते कि मैं खडा ही हंू या कहीं बैठ तो नहीं गया? मेरी<br />पढाई से ज्यादा खडे रहने की तरफ जब ध्यान दिया जाने लगा तो मैंने रो-<br />धो कर स्कूल बदल ली, लेकिन यहां भी मास्साब मेरी खूब खबर लेने लगे। सलेख नहीं लिखने पर डंडों से पिटाई करके बाहर धूप में खडा कर देते थे, इसलिए बचपन से ही मुझे खडे होने का अच्छा खासा अनुभव है और आप जानो पूत के पांव पालने में दिख जाते हैं, बचपन से ही जिसने खडे होने का इतना अनुभव ले लिया हो वह कहां खडा नहीं हो सकता? मास्साब भी कहते थे<br />बडा होकर यह या तो मंत्री बनेगा या संतरी। खैर,<br />थोडा बडा हुआ तो मां थैला पकडा कर राषन की दुकान पर भेज देती।<br />वहां घंटों खडे रहने का अनुभव मिला। वहां जब भी जाते दुकान बंद मिलती<br />और कभी भाग्य से दुकान खुली मिल भी जाती तो घंटों खडे रहकर इंतजार<br />करना पडता और जब नम्बर आ भी जाता तो या तो कचरा मिला गेंहू अथवा<br />गीली षक्कर या मिलावट का कैरोसीन खत्म हो चुका होता। अक्सर राषन की<br />दुकानवाले के पास रेजगारी भी नहीं होती थी और वह बात-बात में झल्लाता<br />तथा दुर्व्यवहार करता था। बहरहाल घंटों लाइन में थैला लटकाए खडे होने का<br />अनुभव तो है ही, कहीं आप यह न समझ लें कि अनुभव नहीं है। इसी तरह पास के मोहल्ले में लगे हैंडपम्प पर पानी भरने जाते थे तो वहां काफी देर खडे रहते क्योंकि पहले तो मोहल्ले के दादा लोग पानी भरते फिर जिस व्यक्ति का मकान हैंडपम्प के पास होता वह उसे अपनी जागीर होने की धौंस बताता और जिसे वह अपना समझता उसे पहले पानी भरवाता, लिहाजा घंटों खडे रहते।<br />ऐसे कई अनुभव बचपन और किषोरावस्था के हैं। चंद उदाहरण आपको<br />यह बतलाने के लिए लिखें है कि सनद रहे और वक्त बेवक्त आप भी गवाही दे<br />सकें कि मुझे खडे होने का अनुभव है।<br />युवावस्था में पैर रखा तो कभी कभार थर्ड क्लास में सिनेमा देखने भी<br />चले जाते थे, वहां साढे तीन बजे के षो देखने के लिए 2-3 घन्टे पहले से ही<br />लाईन लग जाती थी, उस लाइन में घंटों खडे रहते तब कहीं धक्का-मुक्की<br />खाते-खाते टिकट हाथ आता, कभी नहीं भी आता क्योंकि ब्लैक वाले दादाओं का ज्यादा जोर था औेर उन्हें पुलिस का संरक्षण था। यों खडे रहने का अनुभव<br />षादी के अवसर का भी है। ससुराल में तोरण मारने के बाद वहां दरवाजे के<br />बाहर काफी देर खडे रहे ताकि हमारी भावी पत्नी आकर वर माला डाल दे, लेकिन वह अपने हिसाब से आई। फिर जब घर गृहस्थी में पड गए तो आटा-दाल का भाव भी मालुम हो<br />गया और नौकरी के लिए भर्ती दफतर में नाम लिखवाने गए और वहां जो<br />लाइन में खडे हुए तो बस हद हो गई। सुबह से लगे लोगों को षाम तक किसी ने यह नहीं पूछा कि क्यों खडे हो?<br />घन्टों खडे रहने की बातें तो बिजली-पानी के बिल जमा कराने जाता हंू<br />तब की भी बहुत हैं, लेकिन जो अनुभव कोर्ट कचहरी का है, उसे आपको क्या<br />सुनाउं ओैर क्या नही सुनाउं? वहां ठेठ गांव वाला क्या ओैर अच्छे से अच्छा<br />पढा लिखा तीस मारखां क्या, सभी घंटों खडे रहते हैं, तब कही जा कर अचानक पता लगता हैें कि कोई तारीख पड गई हैं, कोर्ट कचहरी में कटघरे के अन्दर चाहे बाहर अगर आप कहीं भी खडे रहे हैं तो आपको किसी और अनुभव की जरूरत नही है। आप कहीं भी खडे हो सकते हैं।<br />खडे होने का अनुभव उन सभी को है, जो कोई भी अपनी षिकायत या<br />अपनी मुसीबत लेकर किसी सरकारी दफतर गया हो तो वहां घंटों खडे रहना<br />पडता हैं, कोई कहता है वहां जाओ कोई कहता हैं वहां जाओ और आप घूमते<br />रहो जैसे मेले में पुलिसवाला और ग्रहण चन्द्र ग्रहण सूर्यग्रहण में थोरी<br />मांगने वाला घूमता है।<br />खडे रहने का एक रिकार्ड कानपुर के ‘धरती पकड’ का भी रहा है। वे कई<br />सालों तक चुनाव में खडे होते रहे, खडे रहने का एक रिकार्ड षाहजंहापुर के<br />स्वामी मांजगीर का भी है, वे सन 1955 से 1973 यान 18 साल तक ‘हठ<br />योग’ में खडे ही रहे। मैं इतना मुकाबला तो नही कर सकता लेकिन अगर यह<br />महानुभाव इस दफा खडे नही होते है तो किसी न किसी राजनीतिक दल द्वारा<br />मुझे अवसर दिया जाना चाहिए।<br /><span style="font-weight:bold;">-ई. शिव शंकर गोयल,<br />फ्लैट न. 1201, आई आई टी इंजीनियर्स सोसायटी,<br />प्लाट न. 12, सैक्टर न.10, द्वारका, दिल्ली- 75.<br />मो. 98737063339</span>तेजवानी गिरधरhttp://www.blogger.com/profile/15920539204622934103noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7544291197153976893.post-6745477947200378082012-01-14T02:39:00.001-08:002012-01-14T18:38:07.994-08:00भारत क्या है?भारत देश विकास के पथ पर निरंतर आगे बढ़ रहा है। यह बात हमें खुशी देती है। चाहें हम भौतिक प्रगति की बात करें या वैज्ञानिक प्रगति हर ओर हम बुलंदी के झंडे गाड़ रहे हैं। अर्थ के क्षेत्र में भी भारत ने स्वर्णिम सफलाताएं पायीं हैं। अगर इसी प्रगति को आधार मानें तो भारत जल्द ही विश्वगुरु की ख्याति पुन: प्राप्त करने की राह पर अग्रसरित है। हमारे के लिए यह गर्व का विषय होगा क्योंकि हम सदियों तक दासता की बेडिय़ों में जकड़े रहे। कितनी शहीदों की कुर्बानी के बाद हम आजाद हुए। लेकिन यह सोचनीय विषय है कि इस भौतिक प्रगति को आधार मानकर क्या हम अपनी मौलिकता नहीं खो रहे? इस दिखावे की प्रगति को ही सर्वस्व मान लेना हमारी संस्कृति में नहीं रहा। हमने हमेशा जि़न्दगी के उत्तम सोपानों को ही आधार माना है। यही हमारे लिए दुर्भाग्य की बात है कि हम जीवन के आधार सूत्र देने वाले अपने वेदों, उपनिषदों जैसे ग्रंथों को भूलकर कामनी काया के फेर में फंसे हैं।<br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhtc02s9n-J5k_oZXyS2SOTjjSyf43-hij-3s8zm9DjjlPM2fDDON9YbsYrwox-wvyofWLR6-RU2xT5b20uK7011HQh9_snkcl2uRwEEXQ7jZjS24mC4IAp0Uogj1AMgNSX2oje9PTSGhM/s1600/Hegel.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 253px; height: 320px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhtc02s9n-J5k_oZXyS2SOTjjSyf43-hij-3s8zm9DjjlPM2fDDON9YbsYrwox-wvyofWLR6-RU2xT5b20uK7011HQh9_snkcl2uRwEEXQ7jZjS24mC4IAp0Uogj1AMgNSX2oje9PTSGhM/s320/Hegel.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5697435840576239506" /></a><br />हमने ज्ञान के क्षेत्र में हमेशा हर देश को मात दी, फिर ऐसा क्या हुआ कि भौतिकता ज्ञान पर हावी हो गई? पश्चिमी सभ्यता का अनुकरण ही हमारा आधार बन गया। उनसे अच्छाई ग्रहण करने के बजाय हमने उन्हें अपना लीडर मान लिया। ऐसा लगता कि यह कमाल उस शिक्षा पद्धति का है जो अंग्रेजी शासन दंश रूप में भारत को दे गया। जिसके चलते हमने भारतीयता को त्याग दिया और अपनी संस्कृति को भुलाकर हम उस पर गौरव करना भूल गए। स्थिति यह है कि कहीं भी जाइए इस गुलामियत के शिकार हमें खोजने नहीं पड़ेंगे। <br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjCOal29C_VhOCB3B6LozNm5jpnmXzZKQ8bCD_rV9jl97QiDfEfLqJtDpwttXEpkLEEsSbLky92Oa8UeAyVWykuXJBVNQwQt8FtuCMIthDQTv4I1zPHzHRruFwp12E4ub0HwwX2bue3WaA/s1600/Goethe.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 293px; height: 320px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjCOal29C_VhOCB3B6LozNm5jpnmXzZKQ8bCD_rV9jl97QiDfEfLqJtDpwttXEpkLEEsSbLky92Oa8UeAyVWykuXJBVNQwQt8FtuCMIthDQTv4I1zPHzHRruFwp12E4ub0HwwX2bue3WaA/s320/Goethe.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5697435832180627410" /></a><br />इन्हीं सब कारणों के चलते आज जरूरत महसूस की जा रही है कि हमें भारतीय मूल्यों को पुन: स्थापित करना होगा। इसके लिए जरुरत है उस क्रांतिकारी कलम जो आजादी का सपना देखती है और उसमें कामयाबी पाती है। जरुरत है ऐसी लेखनी की जिसका सहारे कामयाबी के मायावी दलदल से निकलकर सच्चाई सफलता की ओर बढ़ें। यही क्रांतिकारी सोच दिखती है सलिल ज्ञवाली की पुस्तक ‘भारत क्या है’ में। इस पुस्तक में भारतीय सोच और व्यापकता से प्रेरित शीर्ष वैज्ञानिकों, दार्शनिकों, और संतों के वाणी का संकलन है। जिसकी उपयोगिता को वर्णित करना कठिन है। भारत ज्ञान का वह तहखाना है जिसके अंदर छिपे रहस्यों को आज तक जाना नहीं जा सका है। हमारी ऋषि सत्ताओं ने इसी पर शोध किया और भारत की महानता को प्राचीन ग्रन्थों में वर्णित किया। भारत में प्रकृति से ज्ञान की धाराएं बहती हैं, जो हमें सत्य लक्ष्य की ओर अग्रसरित करती हैं। ज्ञान का संबंध हमेशा से प्रकृति के साथ रहा है। इसलिए प्रकृति के माध्यम से इसे सहजता से प्राप्त किया जा सकता है। ऋषियों ने इसीलिए प्रकृति को प्रयोगशाला मानकर तरह-तरह के प्रयोग किए हैं। जिससे उन्होंने प्रेम और सत्य के मार्ग पर चलकर आत्म निर्वाण प्राप्त करने का मंत्र दिया। <br />भारत किसी देश या क्षेत्र का नाम नहीं है। भारत, मन की उस स्थिति को कहते हैं जहाँ मनुष्य का चित्त आत्मिक प्रकाश से भरा हो, और वह सतत्-संतुष्ट हो। इस अध्यात्मपरक ज्ञान के अतिरिक्त हमने विज्ञान के क्षेत्र में भी अभूतपूर्व खोजें की। हमने जीरो दिया, आयुर्वेद का ज्ञान दिया। भारत ने समस्त विश्व को जो नेमतें दीं, उन्हें अगुलियों पर नहीं गिना जा सकता। <br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgVnzWTsDlOW9h68JTbUr4Ku7SV5rq6tiEb1mf1_EvTRBV8BBJxuC0KtrtO8dukQ6aR71u7vJhp2cAi5jsmJ7uteo4IKmNleftHuUb4NPxjo6pBrirZ3AlfYyPsuvj55TOl5OrU63C-CYk/s1600/Albert-Einstein+1.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 320px; height: 254px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgVnzWTsDlOW9h68JTbUr4Ku7SV5rq6tiEb1mf1_EvTRBV8BBJxuC0KtrtO8dukQ6aR71u7vJhp2cAi5jsmJ7uteo4IKmNleftHuUb4NPxjo6pBrirZ3AlfYyPsuvj55TOl5OrU63C-CYk/s320/Albert-Einstein+1.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5697435826405205970" /></a><br /><br />आज के इस युग में भारतवासियों को भारत के बारे में बताना सच में चुनौती पूर्ण कार्य था। सलिल जी ने इस चुनौती को स्वीकार किया। अपने शोध, कठिन परिश्रम और लगन की बदौलत एक ऐसी पुस्तक हमारे समक्ष प्रस्तुत जो हमें भारतीय होने का गर्व करा सके और हमें बता सके कि भारत क्या है? यह पुस्तक विश्वस्तर पर ख्याति पा चुकी है। इस अनुपम पुस्तक में सलिल जी ने पाश्चात्य विचारकों, वैज्ञानिकों के साथ ही भारतीय विचारकों के कथन का हवाला देते हुए इस बात की पुष्टि की है कि जिस सनातन संस्कृति के ज्ञान को हम श्रद्धा के साथ आत्मसात करने में हिचकते है वही ज्ञान पाश्चात्य जगत के महान वैज्ञानिकों, लेखकों और इतिहासकारों की नज़रों में अमूल्य और अमृत के सामान है. कितने आश्चर्य की बात है कि आज हम उसी ज्ञान को भुला बैठे हैं। <br /><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhSDNVw2CTPjVgJ622aW0w-zW3_9UdYmGLyZwh9G-K-fJ5q8a8a5lbYxRUZp-4GSdqD7NVRL-py6M_ieD5nb7S87-_h_iIbyedkvfkcDCUGWNYoF2lAXazc3Jrho_bO-2YDgLx5YdvE1-U/s1600/sir-monier-williams.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 240px; height: 276px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhSDNVw2CTPjVgJ622aW0w-zW3_9UdYmGLyZwh9G-K-fJ5q8a8a5lbYxRUZp-4GSdqD7NVRL-py6M_ieD5nb7S87-_h_iIbyedkvfkcDCUGWNYoF2lAXazc3Jrho_bO-2YDgLx5YdvE1-U/s320/sir-monier-williams.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5697435842173556546" /></a><br />लेखक की अद्भुत कृति में आइन्स्टीन, नोबेल से सम्मानित अमेरिकन कवि और दार्शनिक टी एस इलिएट, दार्शनिक एलन वाट्स, अमेरिकन लेखक मार्क ट्वेन, प्रसिद्ध विचारक एमर्सन, फें्रच दार्शनिक वोल्टायर, नोबेल से सम्मानित फें्रच लेखक रोमा रोला, ऑक्सफोर्ड के प्रो$फेसर पाल रोबट्र्स, भौतिक शास्त्र में नोबेल से सम्मानित ब्रायन डैविड जोसेफसन, अमेरिकन दार्शनिक हेनरी डेविड थोरो, एनी बेसंट, महान मनोवैज्ञानिक कार्ल जुंग के साथ भारतीय विचारकों जैसे अब्दुल कलाम के विचारों को आप पढ़ और समझ सकते हैं। इतना तो स्पष्ट है किताब को पढने के बाद जिन प्राचीन ऋषि मुनियों की संस्कृति से दूरी बनाये रखने को ही हम आधुनिकता का परिचायक मान बैठे हों उस के बारे में हमारी धारणा बदले। <br />इस पुस्तक को पढऩे पर हम पाएंगे कि आइन्स्टीन कह रहे हैं कि हम भारतीयों के ऋणी हैं जिन्होंने हमको गणना करना सिखाया जिसके अभाव में महत्वपूर्ण वैज्ञानिक खोजें संभव नहीं थी। वर्नर हाइजेनबर्ग प्रसिद्ध जर्मन वैज्ञानिक जो क्वांटम सिद्धांत की उत्पत्ति से जुड़े हैं का यह कहना है कि भारतीय दर्शन से जुड़े सिद्धांतो से परिचित होने के बाद मुझे क्वांटम सिद्धांत से जुड़े तमाम पहलु जो पहले एक अबूझ पहेली की तरह थे अब काफी हद तक सुलझे नजऱ आ रहे है. इन पक्तियों को पढऩे के बाद आपको लग रहा होगा कि हम कहां से कहां जा रहे हैं। इस किताब के कुछ और अंश देख लेते हैं<br />ग्र्रीस की रानी फ्रेडरिका जो कि एडवान्स्ड भौतिक शास्त्र से जुडी रिसर्च स्कालर थी का कहना है कि एडवान्स्ड भौतिकी से जुडऩे के बाद ही आध्यात्मिक खोज की तरफ मेरा रुझान हुआ. इसका परिणाम ये हुआ की श्री आदि शंकराचार्य के अद्वैतवाद या परमाद्वैत रुपी दर्शन को जीवन और विज्ञान की अभिव्यक्ति मान ली अपने जीवन में . प्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक आर्थर शोपेन हॉवर का यह कहना है कि सम्पूर्ण भू-मण्डल पर मूल उपनिषदों के समान इतना अधिक फलोत्पादक और उच्च भावोद्दीपक ग्रन्थ कहीं नहीं हैं। इन्होंने मुझे जीवन में शान्ति प्रदान की है और मरते समय भी यह मुझे शान्ति प्रदान करें।<br />प्रसिद्ध जर्मन लेखक फ्रेडरिक श्लेगल (1772-1829) ने संस्कृत और भारतीय ज्ञान के बारे में श्रद्धा प्रकट करते हुए ये कहा है कि संस्कृत भाषा में निहित भाषाई परिपक्वता और दार्शनिक शुद्धता के कारण ये ग्रीक भाषा से कहीं बेहतर है। यही नहीं भारत समस्त ज्ञान की उदयस्थली है। नैतिक, राजनैतिक और दार्शनिक दृष्टिकोण से भारत अन्य सभी से श्रेष्ठ है और इसके मुकाबले ग्रीक सभ्यता बहुत फीकी है. <br />इसके आगे के पन्नो में लेखक ने अपने लेखों में इन्ही सब महान पुरुषों के विचारों की अपने तरह से व्याख्या की है जिसमें आज के नैतिक पतन पर गहरा क्षोभ प्रकट किया गया. कुल मिलाकर हम लेखक के इस पवित्र प्रयास की सराहना करते हैं। आज की विषम परिस्थितयो में भी उन्होंने भारतीय संस्कृति के गौरव को पुनर्जीवित करने की कोशिश की है। उम्मीद है कि ये पुस्तक एक रौशनी की किरण बनेगी और हम सब एक सकारात्मक पथ पर अग्रसरित होंगे।<br /><span style="font-weight:bold;">आदित्य शुक्ला, लेक्चरर, देव संस्कृति विश्वविद्यालय हरिद्वार</span><br /><span style="font-weight:bold;">प्रेषक- प्रियंका शर्मा<br />लोस एंजिल्स, केलिफोर्निया<span style="font-style:italic;"></span></span>तेजवानी गिरधरhttp://www.blogger.com/profile/15920539204622934103noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-7544291197153976893.post-60918191457619207062012-01-14T02:28:00.000-08:002012-01-14T18:40:32.136-08:00अपने भारत को पहचानोभारत उतना ही महान है जितना कि ईसा से ५०००वर्ष पूर्व था . आज के जन मानस की जीवन शैली मैं जरूर अंतर आ गया है. पहले आध्यात्मिक उपलब्धि प्राप्त करना मुख्य लक्ष्य हुआ करता था .भौतिक उपलब्धि गौण लक्ष्य था तथा आध्यात्मिक उपलब्धि के लिए साधन मात्र था. आध्यात्मिक उपलब्धि साध्य और भौतिक उपलब्धि हेय एवं साधन मात्र था. आज यह जीवन परिदृश्य बदल सा गया है .भौतिक उपलब्धि मुख्य लक्ष्य हो गया तथा आध्यात्मिक उपलब्धि भौतिक उपलब्धि के लिए साधन मात्र रह गया है . यह अत्यंत चिंतनीय विषय है. सच्चे भारतीय- संस्कृति -प्रेमी जन को इस हेतु स्व क्षमतानुसार उचित प्रयास करना ही चाहिए.<br />भारत के जन-वृन्द का दिवस ही चरित्र की प्रतिष्ठा से प्रारम्भ होता है. जागरण के समय ही परमपिता परमात्मा का स्मरण , माता-पिता को प्रणाम और नित्य कर्म के पश्चात यौगिक प्रक्रिया . यह एक अद्भुत दिनचर्या है. भारत में संध्या-वंदन का चलन रहा है. संध्या-वंदन के बाद ही अन्यान्य धार्मिक एवम सामाजिक अनुष्ठानों के सम्पादन कि स्वीकृति दी गयी है.संध्या-वंदन में पढ़े जाने वाले समस्त वैदिक मन्त्रों में एक ही ब्रह्म की वन्दना है. सूर्य देव को ब्रह्म स्वरूप मानते हुए मन ,वचन, कर्म से किये हुए समस्त पापाचरण से मुक्ति की प्रार्थना की जाती है. यह अपने आप में अद्भुत है. पाप से मुक्ति हेतु प्रायश्चित का यह दैनिक अनुष्ठान विश्व में और कहीं नहीं किया जाता. <br />संध्या वंदन में सूर्य देव को जल से अर्घ्य देने का विधान है. एक बार मेरे गुरु-श्रेष्ठ लक्ष्मी नारायण शास्त्री संध्या-वंदन कर रहे थे. मैंने बाल स्वभाव से पूछा- संध्या-वंदन में अर्घ्य देते समय जलांजलि को ऊपर उठा कर क्यों विसर्जन किया जाता है ? <br />वे मुस्कराये और कहा-"यह समस्त ब्रह्माण्ड पंच-तत्त्वों से विनिर्मित है. किसी भी एक तत्त्व की कोई उपादेयता नहीं ,प्रत्येक तत्त्व एक दूसरे से मिल कर सृष्टी की रचना में सहायक हुआ. जलांजलि में प्रथम जल को लेकर ऊपर उठाया ,यह जल को आकाश तत्त्व से मिलाया गया, जल के विसर्जन में जब जल ऊपर से छोड़ा जाता है तब यह वायु के मिलन का अवसर है. जल वायु से मिलता हुआ पृथ्वी की ओर बढ़ता है.वह अपनी ही गति से तेज तत्त्व को प्राप्त कर लेता है .इस तरह चार तत्त्व जल, वायु, तेज, और आकाश मिला दिये गए .अब ये पृथ्वी से मिलते है. यह मिलन ही सृजन करता है. ब्रह्म इसी तरह शिव रूप में तत्त्वों का विखंडन एवम विष्णु रूप में संयोजन करते हैं . हमें जीवन में सभी की उपादेयता संयोजन में ही देखनी चाहिए .सभी जड़ -चेतन पदार्थों में इन्हीं पंच तत्त्वों को देखना चाहिए और उनमें उस जीवन दाता ब्रह्म की अनुभूति करनी चाहिए . यही हमारी संस्कृति का मूल उत्स है". दिवस की ऐसी निर्मल एवं कोमल आरम्भ की प्रक्रिया भारत के सिवाय कहीं देखने को नहीं मिलती है.<br />भारतीय संस्कृति "भय से मुक्ति " की एक सशक्त प्रक्रिया है. भय तब तक बना रहेगा जब तक द्वैत्व स्थापित है. भय से मुक्ति के लिए ही भारतीय संस्कृति अपने अंतर में प्रतिष्ठित पुरुष को बाह्य अशरीरी पुरुष के साथ एक रूप होने का सन्देश देती है. जो कुछ जगत में विद्यमान है और जैसा आप अनुभव कर रहें हैं बस वैसा ही आपके अंतर में विद्यमान है. इस तरह द्वैत्व के स्थान पर अद्वैतव को स्थापित कर भय से मुक्ति का रास्ता दिखा दिया गया. यह ज्ञान से ही संभव है. ज्ञान सत्य और ब्रह्म नित्य है.<br />बिना ज्ञान के भय से मुक्ति नहीं .अज्ञान मोह का कारक है. मोह पाप का तथा पाप भय का कारक है. अतः मुक्ति के लिए आत्मज्ञान जरूरी है .आत्म ज्ञान ही आनंद का श्रोत्र एवम अभयत्व का हेतु है. यह भारत की सांस्कृतिक पराकाष्ठा की पहचान है. जिसे आज पश्चिम शारीरिक-भाषा के रूप में ले रहा है.जिसे सीखने -सिखाने के लिए होड़ मची है.पैसा पानी की तरह बहाया जा रहा है. भारतीय इस में पीछे नहीं है .वे अपने ही उत्पाद को अन्य का मान खरीदने के लिए दीवाने दिखाई दे रहें हैं .<br />चीन , यूरोप, अमेरिका जिस योग और अंतर-यात्रा की बात कर रहें हैं वह भारत की उन पर उधारी है. अंतर-यात्रा भारतीय साधना है. यहाँ अंतर की यात्रा चरित्र-शोधन एवम जबरदस्त चरित्र-प्रतिष्ठा की जीवन यात्रा है. बिना चरित्र के भला आत्मानंद स्वरूप ब्रह्म कहाँ मिलने वाला है ? श्रीमद भगवत गीता में अर्जुन प्रभु श्री कृष्ण से पूछते है- प्रभु श्री! आपको कौन सा व्यक्ति प्रिय है ? श्री कृष्ण कहतें हैं- अर्जुन ! जो व्यक्ति द्वेष से रहित रहते हुए सभी प्राणियों के साथ मित्रता और करुणा के साथ रहता हो ,अनासक्त एवम अहंकार रहित रहता हो, दुःख एवम सुख में सामान रहता हो ,जो स्वयं में सम्पूर्ण लोक को एवम सपूर्ण लोक में स्वयं को देखता हो ,जो हर्ष , क्रोध ,भय जैसे अनुदात भावों से मुक्त है वह ही मुझे प्रिय है. श्री कृष्ण ने उदात्त और उदार चरित्र को बता दिया .जिसका चरित्र उदात्त और उदार है, वही आत्मज्ञान का अधिकारी है,वही अन्तर यात्रा का अधिकारी हो कर विराट ब्रह्म की सायुज्यता प्राप्त कर सकता है. मुझे दुःख है कि आज विश्व भारतीय चेतना को पकड़ रहा है और भारतीय अपने आत्म कल्याण को भूल कर साधन को ही साध्य मान रहें हैं. <br />जीवन का उद्देश्य आनंद है. क्योंकि ब्रह्म के सच्चिदानंद स्वरुप से सत-चित तत्त्वों से सृष्टि का रचन हुआ .सृष्टि में नहीं है, तो आनंद तत्त्व नहीं .इसीलिए यह सृष्टि निरानंद कही और मानी गयी . जो नहीं है उसे तो प्राप्त करना है.आनंद नहीं है. उसे प्राप्त कर के ही जीवन सार्थक कर सकतें हैं .आनंद प्राप्त किया तो मान लो कि ब्रह्म मिल गया . उसे प्राप्त करने के ऋषियों ने छह मार्ग -अन्न ,प्राण ,चक्षु ,श्रोत ,मन और वाणी बताये. तपश्चर्या से इन मार्गों का निर्वाह करने का आदेश दिया . इसी से विज्ञान और आनंद प्रशस्त होता है. और तभी विराट ब्रह्म में लय होता है. यह सब अभी बहुत आगे की बात है. पश्चिम ने तो अभी सतही तोर पर इस विराट विषय का स्पर्श मात्र अनुकरण किया है. अभी उसे बहुत कुछ समझना शेष है.<br />सलिल जवाली की पुस्तक - "भारत क्या है?" उन लोगों की आँखें खोलने के लिए पर्याप्त दस्तावेज है जो कि भारतीय संस्कृति को भूलने जा रहें हैं या किसी भ्रम के शिकार हो कर पश्चिम की अंधी दौड़ में भाग ले रहें हैं . पश्चिम चुपके-चुपके ही सही भारत के पारलौकिक ज्ञान के प्रति विनत होता चला जा रहा है.<br />इसके लिए सलिल जवाली का प्रयास अभिवंदनीय है.<br /><span style="font-weight:bold;">-त्रिलोकी मोहन, राजस्थान</span><br /><br /><span style="font-weight:bold;">प्रेषक- प्रियंका शर्मा<br />लोस एंजिल्स, केलिफोर्निया<span style="font-style:italic;"></span></span>तेजवानी गिरधरhttp://www.blogger.com/profile/15920539204622934103noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7544291197153976893.post-78151558887727760142012-01-12T05:30:00.000-08:002012-01-12T05:31:55.443-08:00मकर संक्राती एवं सात का महत्व<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhPb0pc8_aO6BBvdOVwZFJUadSrlQJXbDItE2ecKIU7Rur0etBgGRVEx_-iO6FNB7GazZiAdh3ZdaN4A0dcc20v8b_BEFXizaYl36BFVt2lS3fyqmI1XGTTnhm0wIl7GkEEQlhibvu9eXk/s1600/s+s+goyal+1.JPG"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 172px; height: 202px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhPb0pc8_aO6BBvdOVwZFJUadSrlQJXbDItE2ecKIU7Rur0etBgGRVEx_-iO6FNB7GazZiAdh3ZdaN4A0dcc20v8b_BEFXizaYl36BFVt2lS3fyqmI1XGTTnhm0wIl7GkEEQlhibvu9eXk/s320/s+s+goyal+1.JPG" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5696737645455905186" /></a><br />यह बडी दिलचस्पी का विषय है कि इस सदीके सातवें साल याने सन 2007<br />के सातवें महीनें यानि जुलार्इ्र की सात तारीख को सांयकाल 7 बजे पुर्तगाल के लिस्बन<br />षहर में विष्व के सात नये आष्चर्य तय किए गए और उनका चुनाव भी दुनियां भर में<br />स्थित निम्नलिखित इक्कीस स्थानों में से किया गया जो-क्रमषः एक्रोपोलिस यूनान,<br />कोलोसियम इटली, कियोमिजु मंदिर जापान, गीजा पिरामिड मिश्र, अलहंब्रा स्पैन, ईस्टर<br />प्रतिमा चिली, क्रेमलिन रूस, लिबर्टी स्टैच्यू अमेरिका, अंगकोर कम्बोडिया, ऐफेलटॉवर फ्रांस,<br />माचू पिच्चू पेरू, स्टोनहेंज ब्रिटेन, इत्जा पिरामिड मैक्सिको, चीनकीदीवार चीन, नियुष्वांस्टीन<br />जर्मनी, ऑपेरा हाउस आस्ट्ेलिया, क्राइस्ट रिडिमर ब्राजील, तुर्की पेत्रा जॉर्डन, टिम्बकटू माली<br />तथा ताजमहल भारत हैं. जिसमें अंततोगत्वा आगरा स्थित प्रेम के समर्पण की सबसे उॅची<br />मिषाल ताजमहल को षामिल किया गया. वैसे पूर्व में संसार के निम्नलिखित सात अजूबें<br />माने जाते थे जिसमे से मिश्र स्थित गीजा के पिरामिड को छोडकर अब किसी का वजूद<br />नही है. ये आष्चर्य है:-गीजा के पिरामिड, बेबीलोन के झूलते बाग, ओलंपिया ग्रीस में<br />जियूस देवता की मूर्ती, टर्की के इफेसिस में देवी डायना का मंदिर, ऐषिया माईनर में<br />हैलीकार्नासिस के षासक मोसालस का मकबरा, रोडस द्वीप में सूर्य देवता हीलियोस की<br />कांसे की विषालकाय प्रतिमा और सिकन्दरियां बन्दरगाह के पास एक द्वीप पर फारोस का<br />प्रकाष स्तम्भपूरे<br />विष्व में ही और खासकर अपने देष भारत में सात का बडा महत्व है,<br />प्रति वर्ष 14, यानि 7गुणा2, जनवरी को ही पड़ने वाली मकर संक्राति का सात के अंक के<br />साथ रिष्ता है, इस दिन सप्त रष्मियांे का मालिक सूर्य अपने सात घोड़ांे के रथ पर सवार<br />होकर मकर रेखा से कर्क रेखा की ओर बढ़ना षुरू करता है, सूर्य दक्षिणायण से<br />उत्तरायण की तरफ अपनी यात्रा षुरू करता हैं, सूर्य की किरणें सात रंगो से बनी होती हैं<br />(बैंगनी, गहरानीला, नीला, हरा, पीला, नारंगी एवं लाल) जो कभी-कभी वर्षा ऋतु के दौरान<br />इन्द्रधनुष के रूप मंे दिखाई पड़ती हैंसूयर्<br /> आसमान मंे दिखता है, आसमान मंे ही सप्त ऋृषि मण्डल (कष्यप, भारद्वाज,<br />अश्रि, विष्वामित्र, गौतम, जमदग्नि एवं वषिष्ठ) हैं जो कभी भी तारांे भरी रात मंे देखा जा<br />सकता है, सात लोक (भू, भूवः, स्वः, महः, जन, तप और सत्य) एवं सात पाताल (अतल,<br />वितल,सुतल, तलातल, महातल, रसातल एवं पाताल) की यह दुनियां जिसमंे हमारी मां पृथ्वी<br />भी एक हिस्सा है, जिसमंे सात महाद्वीप (एषिया, यूरोप, अफ्रिका, उत्तरी अमेरिका, दक्षिणी<br />अमेरिका, आस्ट्रेलिया एवं ग्रीनलैण्ड) एवं सात समुद्र (प्रषान्त महासागर, हिन्द महासागर,<br />अरब सागर, आर्कटिकसागर, भूमध्यसागर, अटलांटिक महासागर एवं कैस्पियन सागर) की<br />यह दुनिया निराली है तभी तो बच्चे खेल ही खेल मंे कहते हैं सात समुन्दर, गोपी चन्दर,<br />बोल मेरी मछली कितना पानी ?<br />चाहे इंगिलष सिस्टम में सप्ताह के दिन, मन्डे, टयूसडे, वैडनैसडे, थर्सडे, फ्राई<br />डे, सटरडे एवॅ सन्डे हो चाहे हिन्दी के, सोमवार, मॅगलवार, बुधवार, वृहस्पतिवार, षुक्रवार,<br />षनिवार एवॅ रविवार हो अथवा फ्रंेच (लुन्दी, मारदी, मरक्रेदी, ज्वेदी, वान्द्रेदी, सामदी एवं<br />दिमाष) सभी मंे काल खण्ड को सात ग्रहांे (चन्द्र, मंगल, बुद्व, गुरू, षुक्र, षनि, एवं सूर्य)<br />के आधार पर सात दिवसांे मंे विभाजित किया गया हैं. सनातन धर्म में रष्मियों के स्वामी<br />सूर्य देवता के अलावा सात देवियांे (वैष्णांे देवी, चिंतापूर्णि, ज्वालाजी, कांगडाजी, चामुंडाजी,<br />नैनादेवी, एवं मनसादेवी) की पूजा माई साते (माघ महीने कीे सप्तमी) को की जाती है दुर्गा<br />माता के विचित्र रूप एवं नाम जगह-जगह भिन्न है, लेकिन स्वरूप एक ही है। चैत्र माह में<br />सील सप्तमी के रोज समस्त उत्तरी भारत में ठन्डा खाना खाया जाता है, हिन्दुओं के पवित्र<br />धार्मिक स्थलांे मंे चार धामों के साथ-साथ सात पुरियांे (हरिद्वार, काषी, उज्जैन, कांची,<br />द्वारका, मथुरा, अयोध्या) का भी महत्व है, धार्मिक ग्रन्थों मंे सात द्वीप (जम्बू, प्लक्ष, कुष,<br />क्रौंच, षक, षाल्मली एवं पुष्कर) सात समुन्दर (लवण, इक्षु, दधि, क्षीर, मघु, मदिरा एवं<br />घृत) एवं सात ही महाऋृषियांे ( मरीचि, अंगीरा, अग्नि, पुलह, केतु, पौलस्त्य, एवं वषिष्ठ)<br />का वर्णन हैंमनुष्य<br />का षरीर सात धातुओं (रस, रक्त, मांस, मेदा (चर्बी) अस्थि, मज्जा,<br />षुक्र) से बना है और पुर्षाथर््ा के साथ साथ तकदीर भी साथ दे तांे मनुष्य सातों सुख<br />(निरोगी काया, संतोषजनक आय, मधुरभाषी पत्नि, सुयोग्य पुत्र, विद्या, उत्तम आवास एवं<br />अच्छा संग) भोग सकता हैं. स्वस्थ्य षरीर के लिए मनुष्य को सात क्रियाओं (षौच,<br />दंतधवन, स्नान, ध्यान, भोजन, भजन एवं षयन) की आवष्यकता है इसमंे भी दंातों की<br />रक्षा हेतु सात वृक्षों (नीम, बबूल, आम, बेल, गूलर, करंज एवं कैर) की टहनियां बहुत<br />उपयोगी हैं तथा दांतधवन के पष्चात षुद्वि हेतु प्रातःकाल सात प्रकार के स्नान (मन्त्रस्नान,<br />भौमस्नान, अग्नि स्नान, वायव्य स्नान, दिव्यस्नान, करूण स्नान एवं मानसिक स्नान) में से<br />कोई एक स्नान आवष्यक हैं. (प्रातःकाल स्नान के पष्चात मंगल दर्षन हेतु सात पदार्थो<br />(गोरोचन, चंदन, र्स्वण, शंख, मृदंग, दपर्ण एवं मणि) की आवष्यकता पड़ती हैं. हमारा एक<br />स्थूल षरीर है जिसमे सात चक्र अर्थात षक्ति केन्द्र मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर नाभि,<br />अनाहत यानि हृदय, विषुद्धि, आज्ञा तथा सहस्त्रार होते हेैमनुष्य<br />के लिए सात प्रकार की आंतरिक अषुद्वियां (ईर्षा, द्वेष, क्रोध, लोभ,<br />मोह, घृणा, एवं कुविचार) और सात प्रकार की बाह्य षुद्वियॉ (पूजा-पाठ, मन्त्र-जप,<br />दान-पुन्य, तीर्थयात्रा, ध्यानयोग एवं विद्यादान) होती है, उसको सदा सात (माता, पिता, गुरू,<br />ईष्वर, सूर्य, अग्नि एवं अतिथि) का अभिवादन करना चाहिए, सदाचार से मनुष्य को सात<br />विषिष्ट लाभ (जीवन मंे सुख, षांति, भय का नाष, विघ्न से रक्षा, ज्ञान, बल एवं विवेक)<br />प्राप्त होते हैं।<br />मुहावरा है कि गृहस्थी मंे सातांे ही चीजांे की आवष्यकता होती है इसलिए<br />गृहस्थाश्रम (विवाह) मंे प्रवेष के पहले सात फेरे खातंे है कहते हैं कि सात पद साथ 2<br />चलने से अनजान भी मित्र बन जाता है। फेरे मंे वर के साथ वधु भी सात कदम चलती है<br />उसे सप्तपदी कहते है, वह वर से सात वचन मांगती है<br />1. यज्ञ मंे सहयोग।<br />2. दान में सहमति।<br />3. धन की सुरक्षा करना।<br />4. आजीवन भरण-पोषण।<br />5. सम्पति खरीदने मंे सहमति।<br />6. समयानुकूल व्यवस्था।<br />7. सखी-सहेलियांे मंे अपमानित नहीं करना।<br />और निम्नलिखित सात ही वचन देती है।<br />1. भोजन व्यवस्था।<br />2. षीलसंचय, आहार तथा संयम।<br />3. धन का प्रबन्ध।<br />4. आत्मिक सुख।<br />5. पषुधन सम्पदा।<br />6. सभी ऋृतुआंे मंे उचित रहन-सहन।<br />7. सदैव पति का साथ।<br />दैनिक जीवन मे हम यह देखते है कि संगीत मंे स्वर सात प्रकार के होते हैं।<br />1. सा (षडज)<br />2. रे (ऋृषभ)<br />3. गा (गांधार)<br />4. मा (मध्यम)<br />5. प (पंचम)<br />6. धा (धैवत)<br />7. नि (निषद)<br />और कवि विहारी ने हिन्दी साहित्य मंे जो दोहंे लिखे हैं वह सतसैंया के दोहंे के<br />नाम से मषहूर है।<br />‘‘ सत सैयां के दोहरे, जो नाविक के तीर,<br />देखन मंे छोटे लगे, घाव करे गम्भीर.’<br />पूर्वी उत्तर प्रदेष तथा बिहार के आम आदमीं का खाना जौ का<br />सत्तू है और बच्चे बचपन मंे सात की ताली तथा सतौलियॉ का खेल खेलते हैं और बड़े<br />बूढ़ों की यह कहावत याद रखते हैं कि सात मामों का भानजा भूखा रहता है जब कि बहुत<br />मेहनत करने पर भी कुछ खास नहीं करने वाले के लिए कहा जाता है कि ‘‘सात धोबों का<br />एक पाव किया है’’ और भाषाओं की तरह पंजाबी मंे भी एक कहावत है।<br />माई पूत जण्यां सत्त, पर करम न दिया बटट.’<br />अर्थात एक मां के सात लड़के हुए लेकिन उनके भाग्य अलग-अलग हैं।<br />तुलसीदासजी ने सात खंडांे (बाल्यकांड, अयोध्याकांड, अरन्यकांड,<br />किष्किन्धाकांड, सुन्दरकांड, लंकाकाण्ड एवं उत्तरकाण्ड) में रामचरित मानस की रचना करके<br />एक अनुपम ग्रंथ उपलब्ध कराया है जिसमंे जीवन की समस्याओं का समाधान है, राधास्वामी<br />सम्प्रदाय में नाम की महिमा बताते हुए आत्मा के सात खंडों की यात्रा कराते हैे. इस तरह<br />हम देखते है कि पूरे विष्व में और भारत में सात की बडी महिमा हैं<br /><span style="font-weight:bold;">ई. शिव शंकर गोयल,<br />फ्लैट न. 1201, आई आई टी इंजीनियर्स सोसायटी,<br />प्लाट न. 12, सैक्टर न.10, द्वारका, दिल्ली- 75.<br />मो. 98737063339</span>तेजवानी गिरधरhttp://www.blogger.com/profile/15920539204622934103noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7544291197153976893.post-77580569524154125432012-01-11T08:50:00.000-08:002012-01-11T08:52:07.476-08:00पहलें दालों, फिर मसालों, अब सालों की बारी है !<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjtoyIDTm0NrdB3euy7PfA-2VE8RxJFsC-lSZZD6_REWE7bzg06WKiaKzCR7-Qu7sfNc8haMD6qUSYXvezUvxM3fQeW483MTp0oXcEKmnUW55y1YO-1VQu9IcgZ4p8PQjAtoFuHeJtZhTA/s1600/s+s+goyal+1.JPG"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 172px; height: 202px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjtoyIDTm0NrdB3euy7PfA-2VE8RxJFsC-lSZZD6_REWE7bzg06WKiaKzCR7-Qu7sfNc8haMD6qUSYXvezUvxM3fQeW483MTp0oXcEKmnUW55y1YO-1VQu9IcgZ4p8PQjAtoFuHeJtZhTA/s320/s+s+goyal+1.JPG" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5696418196091187538" /></a><br />यूपीए के षासनकाल में कभी दालों का नम्बर आया था. इनकी षासन<br />व्यवस्था की कृपासे एक समय दालों के भाव आसमान छूने लगे थे. जहां पहलें<br />आम लोग कहा करते थे ‘दाल रोटी रोटेटी खाओ,े, प्रभ््रभु के गुण्ुा गाओ’ वही मुहावरा<br />बदलकर कहने लगे ‘दाल मत खाओ,े, प्रभ््रभु के गुण गाओ’. अब साधारण आदमी<br />आपसी बातचीत में भूलसे भी यह नही कहता कि ‘दाल रोटेटी खाकर गुजुजारा कर<br />रहे है’ क्योंकि बीच में ऐसा वक्त भी आगया था कि ‘दाल’ षब्द का नाम लेते<br />ही इन्कमटैक्स के मुखबिर पीछे लग जाते थे. कहनेवालें तो यहां तक बताते है<br />कि इसी विभाग के लोग दाल खानेवालें परिवारों का सर्वें करने लग गए थे कि<br />कौन कौन ‘अमीर’ं दाल खा रहा है ? यह लोग रिर्टन भर रहे है या नही ?<br />उत्तर भारत में लोग दाल-रोटी, पूर्वभारतमें दाल-भात-माछी और दक्षिण में<br />भात-सांभर का नाम लेने से परहेज करने लगे थे. चारों तरफ दाल को लेकर<br />दहषत फैल गई थीफिर<br />किराना मार्केट में मसालों का नम्बर आया. अखबारवालें तरह तरह<br />की व्यापारिक खबरें देने लगे. ‘जीरे में उछाला’, ‘तेजपात आसमान की ओर’,<br />‘हल्दी आंख दिखाने लगी’, ‘धनिया गुर्राया’ इत्यादि. अब आपही बतायें कि इनमें<br />से किस मसालें की यह ताकत है कि अपने आप कुछ करले ? यह सब सरकारी<br />छत्रछाया में बडें बडें और अगाउ सौदा करनेवाले व्यापारियों का काम हैे और<br />मुक्त व्यापार व्यवस्था और विष्वबैंक के ईषारों पर चलने का परिणाम हैंऔर<br />अब चुनाव आतेही ‘सालों’-कृप्या माफ करें-की बन आई हैं. वैसे<br />सालों की दखलंदाजी द्वापरयुग यानि महाभारतकाल में मामा षकुनि के समयसे<br />चली आरही हेैं लेकिन वर्तमान समय में यह तब ज्यादा चमकी जब ‘जीजी’ के<br />राज में सांयकाल होते ही पटना की सडकें सूनी होजाती थी. सरे आम महिलाओं<br />की अस्मिता पर हाथ उठने लगे. इसका परिणाम यह निकला कि बिहार ही नही<br />समस्त उत्तरी भारत में माताएं अपने रोते हुए बच्चों को चुप कराने हेतु कहने<br />लगी ‘चुप होजा वर्ना साधु पकड लेगा’. वह यह नही बताती थी कि कौनसा<br />साधु ?<br />उसी ‘सालों के दौर’ में एक जीजा की एक कवि के षब्दों में चंद लाइनें<br />देखिए:-<br />‘मेरी उनके कुछ अजब षौक कि,<br />घर में एक नया रोग पालें है,<br />इनसे मिलिए, यह मेरी बीबी के सगे भाई,<br />यानि कि मेरें सालें हैइनकी<br />सात सगी बहनें है,<br />इनके लाड प्यार के क्या कहने हेै ?<br />यह अपने घर नही, कभी किसी, कभी किसी<br />के यहां रह आते है,<br />सालभर लखनउ में नही रहते,<br />फिर भी कहते है कि,<br />हम लखनउ के रहनेवालें है. यह मेरें सालें है....’<br />यह सालों का रूतबा इतना बढा कि पिछलें चुनावों में एक नेताजी जब<br />चुनाव जीतकर आएं तो सरासर ऐलान कर दिया जो एक कवि के षब्दों में इस<br />प्रकार हेै:-<br />‘पांच सालों के जीजाजी,<br />म्ंात्री बनते ही बोले,<br />मैं अपने फर्ज पर खरा उतरूंगा,<br />पांच सालों के लिए आया हूं,<br />पांच सालों के लिए, काम करूंगा.’<br />इस तथाकथित लोकतंत्र में इस ऐलानसे किसी को क्या एतराज हो सकता<br />था ? खैर, अब सालों एवं भाई-भतीजों के दौर में देष के पांच राज्यों की<br />विधानसभा चुनावों के समय कतिपय राजनैतिक दलों द्वारा अपने भाई-भतीजों<br />एवं सालों को टिकट दिए गए हैं. इनमें कई तो चारोंधाम-कांग्रेस, बीजेपी,<br />़समाजवादी और बहुजन समाज पार्टी-की यात्रा किए हुए है और अब सात<br />पुरियों-नोट,षराब, जाति,मजहब,प्रांत, भाषा ओैर कुनबें-में से किसीनकिसी में<br />डुबकी लगाकर चुनावी वैतरणी पार करने की सोच रहे हैं. इस चुनावी दंगल में<br />यह देखना भी दिलचस्प है जिसमें बाबूसिंह कुषवाहा प्रकरण में बीजेपी ने ‘पाप<br />से घृणा करो,े, पापी से नही’ के सिद्धांत के आधार पर यह दलील दी है कि<br />‘भ्रष्टाचार से परहेज करो, भ्रष्टाचारी से नही’. देखा आपने ? भ्रष्टाचार के<br />विरूद्ध रथयात्रा निकालनेवालों का तर्क ? इसलिए यही कहना पडेगा कि पहलें<br />दालों, फिर मसालों और अब सालों की बारी है !<br /><span style="font-weight:bold;">-ई. शिव शंकर गोयल,<br />फ्लैट न. 1201, आई आई टी इंजीनियर्स सोसायटी,<br />प्लाट न. 12, सैक्टर न.10, द्वारका, दिल्ली- 75.<br />मो. 98737063339</span>तेजवानी गिरधरhttp://www.blogger.com/profile/15920539204622934103noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7544291197153976893.post-90173586415670180872012-01-09T06:50:00.000-08:002012-01-09T07:09:55.114-08:00इसे मेरी चाहत कहूँ<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiyhv-QfgAeSAZ_d7nT8CAIb3EmKj50Gw6ut5bmjrT-h9nA96QYSTeY-cY7jPa-TjzSuik873xJ4f5eRklIP5eFCcZ8gWGyN9jiHKvhZbr1DdCifYzVuqX5KCRJOhyphenhyphenITJ6dUX-m-lgjLZA/s1600/dr.+r+tela.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 114px; height: 154px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiyhv-QfgAeSAZ_d7nT8CAIb3EmKj50Gw6ut5bmjrT-h9nA96QYSTeY-cY7jPa-TjzSuik873xJ4f5eRklIP5eFCcZ8gWGyN9jiHKvhZbr1DdCifYzVuqX5KCRJOhyphenhyphenITJ6dUX-m-lgjLZA/s320/dr.+r+tela.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5695649679534772034" /></a><br />इसे मेरी चाहत कहूँ<br />किसी रिश्ते का नाम दूं<br />या फिर मेरी फितरत कहूं<br />कुछ तो हैं जो मुझे<br />दूर नहीं होने देता उनसे<br />रह रह कर याद आते<br />जब भी मिलते हँस कर<br />मिलते<br />दिल को गुदगुदाते<br />कुछ वक़्त के लिए गुम<br />हो जाते<br />खिले फूल को मुरझाते<br />उनका अंदाज़ निरंतर<br />हैरान करता<br />ना जाने ऐसा क्यूं करते ?<br />दूर रहकर भी पास लगते<br />दिल के किसी कौने में<br />छुपे रहते<br />इसे मेरी चाहत कहूँ<br />किसी रिश्ते का नाम दूँ<br />या फिर मेरी फितरत कहूँ<br /><br /><br /><span style="font-weight:bold;">साली बोली हँसमुखजी से(हास्य कविता)<br /><span style="font-weight:bold;"></span></span><br /><br />साली बोली हँसमुखजी से<br />नाम आपका हँसमुख<br />फिर भी रोते से क्यों लगते?<br />हँसमुखजी तुनक कर बोले<br />छोटे मुंह बड़ी बात<br />नाम बेचारा क्या करेगा<br />जिसकी<br />बीबी तुम्हारी बहन हो<br />वो हंसता हुआ भी<br />रोता सा लगेगा<br />साली को लगा झटका<br />नहले पर मारा दहला<br />लपक कर बोली<br />हूर के बगल में लंगूर<br />हमेशा लंगूर ही रहता<br />शक्ल-ओ-सूरत का दोष<br />फिर भी हूर को देता<br />दहले पर पडा<br />हँसमुखजी का गुलाम<br />तपाक से बोले<br />गलती मेरी ही थी<br />तुम्हारी बहन के मुख से<br />बाहर झांकते दांतों को<br />मुस्काराहट समझ बैठा<br />शूर्पनखा को हूर समझ<br />ज़ल्दबाजी में हाँ कह बैठा<br />उसको तो सहना ही पड़ता<br />हूबहू अक्ल शक्ल की<br />साली को भी अब<br />निरंतर झेलना पड़ता<br /><br /><span style="font-weight:bold;">नहीं कह सकते वह बात<br /><span style="font-weight:bold;"></span></span><br />नहीं कर सकते<br />वह काम जो तुमको<br />पसंद है<br />नहीं कह सकते वह बात<br />जो सरासर झूठ है<br />दिन को दिन<br />रात को रात कहना<br />हमारी फितरत है<br />करेंगे नाराज़ बहुतों को<br />खायेंगे गालियाँ<br />पर बदलेंगे नहीं हम<br />नहीं बेच सकते ईमान <br />तुम्हें खुश करने के लिए<br />सिरफिरा भी कहोगे<br />तो खुशी से सुन लेंगे हम<br />बेईमान<br />होने से तो अच्छा है<br />अकेले सर<br />ऊंचा कर के जीना<br />खाते रहेंगे ज़ख्म<br />लोगों के <br />मगर बनेंगे नहीं<br />बहरूपिया<br />इस जन्म में हम<br /><br /><br /><span style="font-weight:bold;">अभी तक आये नहीं,तो कोई बात नहीं<br /></span><br />अभी तक आये नहीं<br />तो कोई बात नहीं<br />क्या बीतती है दिल पर<br />कैसे बताएं तुम्हें<br />फिर हम भी घबराए नहीं<br />आस दिल की अब तक<br />पूरी हुई नहीं<br />अकेले जीने की मजबूरी<br />अभी ख़त्म हुई नहीं<br />बेताब दिल<br />बेचैन आँखों को<br />राहत मिलेगी<br />जुदाई कभी तो<br />मिलन में बदलेगी<br />उम्मीद<br />अभी टूटी नहीं<br />अभी तक आये नहीं<br />तो कोई बात नहीं<br /><br /><br /><span style="font-weight:bold;">दुनिया बदल गयी,फितरत बदल गयी <br /></span><br />दुनिया बदल गयी<br />फितरत बदल गयी <br />रिश्तों में कडवाहट<br />भाई बहन में दूरियां<br />बढ़ गयी<br />हवा प्रदूषित हो गयी<br />चौपाल अब फेस बुक,<br />ट्विटर पर लगने लगी<br />अब पेन,<br />स्याही की चिंता<br />सताती नहीं<br />दीपावली मिलन<br />एस एम एस से होने लगा<br />मन की<br />बात कहने के लिए<br />ब्लॉग मिल गया<br />चिट्ठी पत्री के लिए<br />अब इ मेल हो गया<br />घर का शयन कक्ष<br />सिनेमा हॉल बन गया <br />दिन रात टी वी देखना<br />ज़रूरी हो गया<br />खेल के मैदानों में<br />कॉलोनियां बस गयी<br />खेलने के लिए<br />कंप्यूटर मिल गए<br />लडकी की बरात<br />लड़के के शहर जाने लगी<br />शादियाँ दो दिन में<br />निमटने लगी<br />दुनिया अब इंटरनेट की<br />मुट्ठी में समा गयी<br />हज़ार मील दूर से भी<br />शक्ल चुटकियों में<br />दिखने लगी<br />मोबाइल अब मूंछ का<br />बाल हो गया<br />छोटे से बड़े तक<br />हर शख्श के लिए ज़रूरी<br />हो गया<br />गाँव शहर में दूरी कम<br />हो गयी <br />पैसे कमाने की होड़<br />बढ़ गयी<br />लडकियां लडको से<br />आगे बढ़ रही<br />संतुष्टी कोसों दूर<br />चली गयी <br />दुनिया अब दिखावे की<br />रह गयी<br />इमानदारी आंसू बहा<br />रही<br />बेईमानों की चांदी<br />हो रही<br />राजनीति सत्ता तक<br />सीमित हो गयी<br />कर्तव्य,निष्ठा की बातें<br />पुरानी हो गयी <br />हमारी तुम्हारी<br />फितरत बदल गयी<br /><br /><span style="font-weight:bold;">आवाज़ देता हूँ<br /><span style="font-weight:bold;"></span></span><br />निरंतर<br />आवाज़ देता हूँ<br />दिल से बुलाता हूँ<br />तुम आती नहीं हो<br />या तो पहुँचती नहीं<br />मेरी आवाज़ तुम तक<br />या मजबूर हो<br />ज़माने से डरती हो<br />घबराती हो<br />कहीं टूट ना जाए<br />दिल का रिश्ता हमारा<br />खामोशी से सहती हो<br />दिन रात तड़पती हो<br />खुद आकर ले जाऊं<br />इस इंतज़ार में<br />बैठी हो<br /><br /><span style="font-weight:bold;">मोहब्बत के पिंजड़े में<br /><span style="font-weight:bold;"></span></span><br />मोहब्बत के<br />पिंजड़े में दिल<br />चुपचाप ग़मों को<br />सहता रहता<br />मजबूरी की<br />सलाखों के पीछे<br />दुखी होता रहता<br />इंतज़ार में<br />तड़पता रहता<br />उड़ने को बेचैन<br />मगर बेबसी में<br />परेशां होता रहता<br />कब पैगाम आयेगा?<br />दीदार उसका होगा<br />निरंतर ख्यालों में<br />डूबा रहता<br />उम्मीद में ना सो<br />पाता<br />ना जाग पाता<br /><br /> <br /><span style="font-weight:bold;">नए साल का शोर मच रहा है<br /></span><br />शुभ कामनाओं का<br />दौर चल रहा है<br />नए साल का शोर<br />मच रहा है<br />हर व्यक्ति खुश हो रहा है<br />आस लगाए बैठा हैं<br />चमत्कार हो जाएगा<br />सब कुछ बदल जाएगा<br />इस प्रयास में लगा है <br />सब बदल जाएँ <br />पर खुद को<br />नहीं बदलना पड़े<br />मैं हैरान हूँ <br />समझ नहीं आ रहा<br />सब कैसे बदल जाएगा ?<br />कैसे समझाऊँ उन्हें ?<br />फितरत और सोच<br />बदले बिना<br />स्वार्थ को छोड़े बिना<br />कुछ नहीं बदला कभी<br />अब कैसे बदल जाएगा ?<br />नए साल में खुद को<br />बदलो<br />समय के साथ<br />सब बदल जाएगा<br /><br /> <br /><br /><span style="font-weight:bold;">सोच<br /><span style="font-weight:bold;"></span></span><br />स्वछन्द आकाश में<br />विचरण करने वाली<br />पिंजरे में बंद कोयल<br />अब इच्छा से कूंकती<br />भी नहीं<br />कूँकना भूल ना जाए<br />इसलिए कभी कभास<br />बेमन से कूंक लेती<br />ना साथियों के साथ<br />खेल सकती<br />ना ही अंडे से सकती<br />खाने को जो दिया जाता<br />बेमन से खा लेती<br />उड़ने को आतुर<br />पिंजरे की दीवारों से<br />टकरा कर<br />लहुलुहान होती रहती <br />लाचारी में जीवन काटती<br />एक दिन सोचने लगी<br />इंसान इतना<br />निष्ठुर क्यों होता है?<br />खुद के<br />बच्चों के लिए जान देता <br />अपने शौक के लिए<br />निर्दोष पक्षियों को बंदी<br />बना कर रखता<br />इश्वर को मानने वाला<br />पक्षियों को क्यों मारता?<br />विधि का विधान कितना<br />निराला है<br />ताकतवर अपनी ताकत का<br />उपयोग<br />अपने से कमज़ोर पर ही<br />क्यों करता ?<br />पक्षियों के आँखों से<br />आंसूं भी तो नहीं आते<br />कैसे अपना<br />दर्द कहें किसी को?<br />अंतिम क्षण तक<br />घुट घुट कर जीने के सिवाय<br />कोई चारा भी तो नहीं<br />शायद परमात्मा उसकी<br />बात सुन ले<br />किसी तरह इंसान को<br />समझ आ जाए<br />कमज़ोर पर<br />अत्याचार करना छोड़ दे<br />उसे फिर से स्वतंत्र कर दे<br />आकाश में उड़ने दे<br />तभी मन में विचार आता ,<br />अब उड़ने की<br />आदत भी तो नहीं रही<br />कहीं ऐसा ना हो?<br />उड़ने के प्रयास में<br />कोई और<br />उसका शिकार कर ले<br />मैं यहीं ठीक हूँ<br />कम से कम जीवित तो हूँ ,<br />खाने के लिए भटकना तो<br />नहीं पड़ता<br />इश्वर की यही इच्छा है<br />तो फिर दुखी क्यों रहूँ<br />सोचते सोचते खुशी में<br />कोयल कूंकने लगी<br />तभी मालिक की<br />आवाज़ आयी<br />सुनते ही सहम कर<br />चुपचाप पिंजड़े के कौने में<br />सिमट कर बैठ गयी<br />फिर से अपने को बेबस<br />लाचार समझने लगी<br />सकारात्मक सोच से फिर<br />नकारात्मक सोच में<br />डूब गयी<br /><br /><span style="font-weight:bold;">लोग क्या कहेंगे ?<br /><span style="font-weight:bold;"></span></span><br />बड़े मन से मैंने<br />कोट का कपड़ा पसंद किया<br />फिर शहर के प्रसिद्द दरजी से<br />उसे सिलवाया<br />पहन कर यार दोस्तों के बीच<br />पहुँच गया<br />आशी थी सब कोट की<br />प्रशंसा करेंगे<br />मेरी पसंद की दाद देंगे<br />किसी ने प्रशंसा में<br />एक शब्द भी नहीं कहा<br />उलटा एक मित्र ने,<br />कोट को पुराने तरीके का<br />बता दिया<br />मन मसोस कर रह गया<br />आशाओं पर तुषारा पात<br />हो गया<br />घर लौटते ही उसे उठा कर<br />अलमारी में टांग दिया<br />तय कर लिया<br />अब उसे कभी नहीं पहनूंगा<br />जो पैसे खर्च हुए,उन्हें भूल<br />जाऊंगा<br />साल भर कोट अलमारी में<br />टंगा रहा<br />सर्दी आने पर अलमारी खोली<br />तो कोट नज़र आया <br />समारोह में जाना था<br />मन ने कहा तो<br />आज फिर उसे पहन लिया<br />समारोह स्थल पर पहुँचते ही<br />लोगों से मिलने जुलने लगा<br />कोट को भूल गया<br />मुझे यकीन नहीं हुआ<br />जब किसी ने कहा<br />आपने बहुत सुन्दर कोट<br />पहना है <br />फिर एक के बाद एक<br />कई लोगों ने कोट की प्रशंसा करी<br />मैंने भी तय कर लिया<br />हर समारोह में<br />इसी कोट को पहनूंगा<br />घर लौटते समय सोचने लगा<br />एक व्यक्ति ने कोट की<br />हँसी उडाई<br />तो मैंने उसकी बात को<br />ह्रदय में उतार लिया<br />कोट को भी मन से उतार दिया<br />आज इतने लोगों ने कोट की<br />प्रशंसा करी<br />तो गर्व से सीना फूल गया<br />क्यों थोड़ी सी प्रशंसा<br />सर पर चढ़ती ?<br />छोटा सा कटाक्ष बुरा लगता<br />क्यों हम लोगों के कहने को<br />इतना महत्व देते ?<br />अपनी पसंद को भी<br />किसी के कहने से छोड़ देते<br />ऐसे जीवन का क्या अर्थ?<br />जिसमें मनुष्य मन की इच्छा से<br />कुछ नहीं कर सकता<br />सदा लोग क्या कहेंगे की<br />चिंता में डूबा रहता<br />अनमने<br />भाव से जीता जाता<br /><br /><br /><span style="font-weight:bold;">अपने ज़ज्बातों को कैसे छुपाऊँ?<br /></span><br />अपने<br />ज़ज्बातों को कैसे<br />छुपाऊँ?<br />दिल की आग को कैसे<br />बुझाऊँ<br />चाहत को सीने में<br />दबा कर कैसे रखूँ?<br />ख्यालों के समंदर को<br />उफनने से कैसे रोकूँ?<br />ख्वाबों में उनसे कैसे<br />ना मिलूँ?<br />हसरतों को मचलने<br />कैसे ना दूं?<br />क्यूं ना उनसे ही<br />पूछ लूं?<br />ज़रिये नज़्म<br />हाल-ऐ-दिल बता दूं<br />या तो वो समझ जायेंगे<br />ज़रिये पैगाम<br />अपनी रज़ा बता देंगे<br />नहीं तो मोहब्बत पर<br />एक और नज़्म<br />समझ कर पढ़ लेंगे<br />मेरे अरमानों को<br />ठंडा कर देंगे<br /><br /><span style="font-weight:bold;">समाधान<br /></span><br />शमशान में<br />वर्षों से खडा बरगद का<br />विशालकाय पेड़<br />आज कुछ व्यथित था<br />मन में उठ रहे प्रश्नों से<br />त्रस्त था<br />विचार पीछा ही नहीं<br />छोड़ रहे थे<br />एक के बाद एक<br />क्रमबद्ध<br />तरीके से चले आ रहे थे<br />क्यों उसका<br />जन्म शमशान में हुआ?<br />यहाँ आने वाला<br />हर व्यक्ति केवल जीवन ,<br />म्रत्यु और वैराग्य की<br />बात ही करता<br />उसकी छाया के नीचे<br />कोई सोना नहीं चाहता<br />ना ही आवश्यकता से अधिक<br />रुकना चाहता<br />शीघ्रता से घर लौटना<br />चाहता<br />बच्चे उसके आस पास<br />नहीं खेलते<br />ना ही कोई खुशी से<br />उसके पास आता<br />ना ही खुल कर हंसता<br />उसे निरंतर मनुष्यों का<br />क्रंदन ही सुनना पड़ता<br />रात में मरघट की शांती<br />उसे झंझोड़ती रहती<br />नहीं चाहते हुए भी<br />राख के ढेर में कुत्तों को<br />मानव अवशेष ढूंढते<br />देखना पड़ता<br />बरगद तय नहीं कर<br />पा रहा था<br />क्यों उसे जीने के लिए<br />शमशान ही मिला ?<br />क्या वो भी मनुष्यों जैसे<br />पिछले जन्म के<br />अपराधों की सज़ा काट<br />रहा?<br />या फिर उसके भाग्य में ही<br />ऐसा एकाकी,नीरस जीवन<br />जीना लिखा है ?<br />क्या निरंतर उदास<br />चेहरों कोदेखना ?<br />उनकी दुःख भरी बातों को<br />सुनना<br />हर दिन रोने बिलखने की<br />आवाज़ सुनना<br />उसके जीवन का सत्य है<br />तभी उसे नीचे बैठे<br />वृद्ध साधू की आवाज़<br />सुनायी दी<br />वो कह रहा था<br />परमात्मा ने जो भी दिया<br />जैसा भी दिया<br />जितना भी दिया <br />उसे शिरोधार्य करना चाहिए<br />निरंतर संतुष्ट रहने का<br />प्रयास करना चाहिए<br />जब तक जीना है<br />खुशी से परमात्मा की<br />इच्छा समझ कर<br />जीना चाहिए<br />व्यर्थ ही दुखी होने से<br />जीवन सुखद नहीं होता<br />उलटे अवसाद को<br />निमंत्रण मिलता<br />जीवन कंटकाकीर्ण<br />हो जाता<br />बरगद को लगा<br />उसे उसके प्रश्न का<br />उत्तर मिल गया<br />उसकी व्यथा का<br />समाधान हो गया<br /><br /><span style="font-weight:bold;">अब क्यों पहचानेगा कोई मुझको?<br /></span><br />अब क्यों पहचानेगा<br />कोई मुझको<br />सहारा ले कर पहुँच गए<br />इतनी ऊंचाई पर<br />दिखता नहीं कोई उन्हें<br />वहां से<br />मैं जहां था वहीँ खडा हूँ<br />हाथ अब भी वैसे ही<br />बढा रहा हूँ <br />जिसे लेना है जी भर कर<br />ले ले सहारा मेरा<br />निरंतर<br />सफलता की सीढियां<br />चढ़ता जा<br />आकाश कीऊचाइयों को<br />छूता जा<br />याद करे तो फितरत<br />उसकी<br />नहीं करे तो इच्छा<br />उसकी<br />बस इतना सा याद<br />रख ले<br />उतरेगा जब भी नीचे<br />कोई ना पहचानेगा उसे<br />रोयेगा तो भी<br />कंधे पर हाथ नहीं<br />रखेगा<br />कोई उसके<br /><br /><br /><span style="font-weight:bold;">उसूलों पर चलता हूँ <br /></span><br /><br />इमानदारी से जीता हूँ<br />झूठ नहीं बोलता हूँ<br />उसूलों पर चलता हूँ<br />कुछ मुझे धरती से<br />जुडा हुआ कहते<br />एक अच्छा<br />इंसान समझते<br />कुछ मेरी<br />इमानदारी पर<br />शक करते<br />मेरे उसूलों को<br />ढकोसला कहते<br />मुझे परवाह नहीं<br />कौन क्या कहता ? <br />मुझे तो जीवन यात्रा में<br />निरंतर परमात्मा के<br />उसूलों पर चलना है<br />इंसान बन कर जीना है<br />अच्छा लगे या बुरा<br />किसी के कहने से<br />अपना सोच नहीं<br />बदलना है <br /><br /><span style="font-weight:bold;">मत पूछो मुझ से मेरे दिल के अफ़साने<br /></span><br />मत पूछो मुझ से<br />मेरे दिल के अफ़साने<br />की नहीं मोहब्बत जिसने<br />वो दर्द-ऐ दिल क्या जाने<br />ना जानते थे ना पहचानते थे<br />फिर भी<br />मुस्करा कर देखा उन्होंने<br />खिला दिए<br />फूल मोहब्बत के दिल में<br />दिखा दिए ख्वाब रातों में<br />क्या कह रही दुनिया<br />बेखबर इस से<br />हम हो गए उनके दीवाने<br />कब मिलेंगे,पास बैठेंगे<br />बातें करेंगे,मस्ती में झूमेंगे<br />इस ख्याल में अब डूबे हैं हम<br />कोई कहेगाबीमार-ऐ-इश्क हैं<br />क्या होता है इश्क<br />जिसने किया वो ही जाने<br />कब बुझेगी आग दिल की<br />अब खुदा जाने<br />हमें तो जीना है<br />इंतज़ार में उनके<br />आयेंगे या नहीं वो ही जाने<br /><br /><span style="font-weight:bold;">दिन बदला,तारीख बदली <br /></span><br />दिन बदला<br />तारीख बदली <br />ना धूप बदली ना ही<br />हवा बदली<br />ना ही सूरज,चाँद बदला<br />ज़िन्दगी भी नहीं<br />बदलती<br />कभी होठों पर हंसी<br />कभी आँखों में<br />नमी होती<br />निरंतर नए रंग रूप<br />में आती<br />आशा निराशा के<br />भावों से<br />अठखेलियाँ करती<br />चैन की उम्मीद में<br />बेचैनी पीछा नहीं<br />छोडती<br /><br /><span style="font-weight:bold;">मुझे हक तो नहीं फिर भी नाराज़ हूँ<br /></span><br />मुझे हक तो नहीं<br />फिर भी नाराज़ हूँ<br />तुमसे<br />रिश्तों की दुहाई दूं<br />या जो वक़्त साथ गुजारा <br />उसकी याद दिलाऊँ<br />वजह कुछ भी हो<br />तुम जानती हो तुम्हारी<br />रुसवाई वाजिब नहीं<br />मेरी वफाई पर कोई<br />दाग नहीं<br />तुमने ही उकता कर<br />किनारा कर लिया<br />इलज़ाम बेरुखी का<br />लगा दिया हम पर<br />ये भी ना सोचा कभी<br />तुम्हारे खातिर ही तो<br />हम खामोश रहते थे<br />बदनाम ना हो जाओ<br />इसलिए मिलने की<br />कोशिश नहीं करते थे<br /><br /><br /><span style="font-weight:bold;">नहीं जानता मैं चाहता क्या हूँ<br /></span><br />नहीं जानता<br />मैं चाहता क्या हूँ<br />नए लोगों से मिलता हूँ<br />उन्हें अपना बनाना<br />चाहता हूँ <br />पुरानों को अपने साथ<br />रखना चाहता हूँ<br />नए जब पुराने हो जाते<br />चेहरे साफ़ दिखने लगते<br />मुझे सवालों से घेरते<br />सच कह देता हूँ<br />सच पूछ लेता हूँ<br />चेहरे से पर्दा हटाने की<br />कोशिश में मुझसे<br />रुष्ट हो जाते हैं<br />खुद से लड़ता हूँ<br />खुद को समझाता हूँ<br />निरंतर सोचता हूँ<br />कैसे अपने साथ रखूँ ?<br />जितना मनाता हूँ<br />उतना ही दूर होता<br />जाता हूँ<br />असली चेहरे को<br />पहचानने लगता हूँ<br />नहीं जानता<br />मैं चाहता क्या हूँ<br /><br /> <br /><span style="font-weight:bold;">हँसमुखजी थे पान के शौक़ीन (हास्य कविता)<br /></span><br />हँसमुखजी थे<br />पान के शौक़ीन<br />खाते थे<br />पांच मिनिट में तीन<br />पीक से भर कर<br />मुंह हो जाता गुब्बारा<br />होठ हो जाते लाल<br />कर रहे थे बात दोस्त से<br />ध्यान था कहीं ओर<br />किस्मत थी खराब <br />पूरे जोर से मारी<br />उन्होंने पीक की पिचकारी<br />बगल से जा रही थी<br />एक भारी भरकम नारी<br />पीक पडी उसकी साड़ी पर<br />महिला गयी भड़क<br />पहले तो दी गालियाँ<br />फिर चप्पल लेकर दौड़ी<br />डरते डरते हँसमुखजी ने<br />दौड़ लगाई सरपट<br />पैर पडा केले के छिलके पर<br />फ़ौरन गए रपट<br />महिला ने भी दे दना दन<br />मारी चप्पल पर चप्पल<br />कर दिया मार मार कर<br />हाल उनका बेहाल<br />हाथ जोड़ कर पैर पकड़ कर<br />माफी माँगी<br />और छुड़ाई जान<br />कान पकड़ कर कसम खाई<br />जीवन भर अब नहीं<br />खाऊंगा पान<br /><br /><span style="font-weight:bold;">डा.राजेंद्र तेला,"निरंतर" <br /></span>"GULMOHAR"<br />H-1,Sagar Vihar<br />Vaishali Nagar,AJMER-305004<br />Mobile:09352007181तेजवानी गिरधरhttp://www.blogger.com/profile/15920539204622934103noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7544291197153976893.post-85599721570635650602012-01-05T02:35:00.001-08:002012-01-05T02:35:57.635-08:00चाचा! मुझे इतने पसीनें क्यों आ रहे है?<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiz4HMr2p_SwxPemA_tPRHZlDkW3wMj8lxG5C0rEIXKEcC0sQnI_BoHbIKDHugVl5MhcnNDNzYu2i8YIJ5JCiB5mvO2hRviaqQQYluR0Loolok4DPqTDzP4X7gwOVgiWpyA55IqWZ4d37c/s1600/s+s+goyal+1.JPG"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 172px; height: 202px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiz4HMr2p_SwxPemA_tPRHZlDkW3wMj8lxG5C0rEIXKEcC0sQnI_BoHbIKDHugVl5MhcnNDNzYu2i8YIJ5JCiB5mvO2hRviaqQQYluR0Loolok4DPqTDzP4X7gwOVgiWpyA55IqWZ4d37c/s320/s+s+goyal+1.JPG" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5694094647708276722" /></a><br />क्या है कि मेरे एक जानकार को एक बिमारी लग गई है हर बार चुनाव<br />का बिगुल बजते ही उनका मर्ज षुरू हो जाता है और चुनाव के बाद तक जारी<br />रहता हैं. कई इलाज करा लिए, कई जगह झाड फूॅक कराली, कइयों ने कहा कि<br />घाटी वाले भैंरूजी के पुजारी सिद्ध महात्मा है उन्हें वहॅा ले गए. किसी ने कहा<br />कि ‘पीर बाबा के फकीर’ के पास से आजतक कोई नामुराद लौट कर नही<br />आया, हम वहॅा भी गए, कई कई गन्डें, ताबीज, क्या बाजू में, क्या गलें में बान्ध<br />कर देख लिए. चौराहंे पर भी खास किस्म की सामग्री रखकर ‘टोटेटका’ कर<br />लिया परन्तु कुछ फायदा नही हुआ. पहलें वह सपनें में मंदिर-मस्जिद बहुत<br />चिल्लाते थे लेकिन अब कुर्सी-कुर्सी बडबडाते हैं. हमनें जागने पर उनके सामने<br />लकडी, लोहंे, प्लास्टिक इत्यादि की कई कुर्सिया’ ला लाकर रखी लेकिन वह उन्हें<br />फेंक देते है और कहते है कि आपने क्या मुझे पागल समझ रखा है ? अब<br />आपही बतायें यह हकीकत हम उनको कैसे बतायें ?़ नही बता सकते ना ?<br />हमनें उन्हें एक हकीमजी को दिखाया. उनका दावा था कि वें एक<br />खानदानी हकीम हैं. देषकी राजधानी के बीचोबीच गली गजमलखां में उनका<br />षफाखाना है. कई अखबारों एवॅ पत्रिकाओं में आये दिन उनके विज्ञापन छपते<br />रहते है ‘षादी से पहले अथवा षादी के बाद’ की तर्ज पर इनके पास कई रोगांे<br />का षर्तिया ईलाज है इसलिए हिम्मत करके हम अपने इस जानकार को वहॉ ले<br />गये तथा हकीम जी को इनका सारा वाकया बताया कि इनको ‘चुनुनाव से पहले<br />तथा चुनुनाव के बाद’ वाले कुर्सी के सपने आते है और यह कुर्सी-कुर्सी बडबडाते<br />हैं. कभी कभी सत्ता-सत्ता भी चिल्लाते हैं. हकीम जी ने नब्ज देख कर कहा कि<br />घबराने की कोई बात नही हैं. मर्ज पुराना जरुर है, सन्निपात है, लेकिन लाइलाज<br />नही है मैंने ऐसे सैकडांे रोगी ठीक किए है हकीम लुकमान का वषॅज हूॅ. अल्लाह<br />ने चाहा तो सब ठीक हो जायेगा, हमने हकीम जी द्वारा बताई हुई कई युनानी<br />दवाएॅ उन्हें पिलाई, सिर में बादाम रोगनजोष की मालिष की, लेकिन अफसोस !<br />उनका मर्ज ठीक नही होना था सो नही हुआफिर<br />हम उन्हें बंगाली बाबा उस्ताद कालू खॉ वल्द लालू खॉ के यहॉ ले<br />गए. उनका ठिकाना सराय कालेखां में कूंचा बहरामखां गली में हेैं. वह कालें एवं<br />सिफली ईल्म के उस्ताद है तथा अपने फन के माहिर है उनका दावा है कि ‘हम<br />सिर्फ कहते नही करके दिखाते है 24 घन्टे में 100 प्र्िरतिषत गारन्टी के साथ ळाभ<br />देतेते है’ उनके कहें अनुसार हम कुछ नीबूॅ, थोडी इलाइची एवं दो अगरबत्ती के<br />पैकिट भी ले गए, ठीक वैसे ही जैसे थानें में एफआईआर, लिखाने के लिए जाते<br />वक्त स्टेष्नरी लेजानी पडती हैं. हमनें बंगालीबाबा के कहें अनुसार सब कुछ<br />किया, पैसों से भी लुटे लेकिन हमारें उस जानकारका मर्ज ठीक नही हुआ उल्टा<br />ज्यांे-ज्यों चुनाव नजदीक आते जारहे है वह बढता ही जा रहा हैंतॉत्रि<br />क बाबा के यहॉ ही लुटे हुए एॅव धक्के खा रहे एक सज्जन से<br />पता लगा कि कालभैरव ज्योतिष केन्द्र पर इन्हें ले जाइये वहॉ आपका षर्तिया<br />इलाज हो जायेगा, वहॅा के ज्योतिषाचार्यजी का दावा है कि पहले सब को जानिए<br />फिर मुझे मानिए’, वह पॅडितजी विष्वविख्यात तन्त्राचार्य एॅव भविष्यवेत्ता हैं, माने<br />हुए बाममार्गी हैं. हम तॉत्रिक बाबा से निराष होकर उन्हंे वहॅा ले गए और<br />आगामी चुनावांे के सन्दर्भ एॅव कुर्सी रोग के बारे में बताया, उन्होंने काफी देर घुमा<br />फिरा कर बातकी एॅव अपनी फीस चढावा इत्यादि लेने के बाद कहा कि इन पर<br />षनि की कुदृष्टि हैे तथा षनिकाढैया चल रहा हैं. अगर इन्हें कुर्सी पानी है तो<br />षनि देवता को राजी करना पडेगा जिसके लिए दो टिन तेल, बीस किलों काली<br />उडद, तीस किलांे साबित मॅूग, दो भेली गुड, तथा पचास हजार रू देने पडेंगे,<br />मरता क्या न करता ? हमने वह भी किया, तब तॉत्रिक बाबा ने कुछ दिनों बाद<br />रहस्योदघाटन किया कि अब इनके ग्रह अच्छे हो गए है अगर यह जातिवाद,<br />आरक्षण का राग आलापे और दूसरों के दल से निकाले हुए भ्रष्टों को अपने दल<br />में षामिल करलें तो कुर्सी पा जायंेगे फिर इनका रोग भी ठीक हो जायेगासमस्य<br />ा का समाधान न होते देखकर एवं विभिन्न समाचार पत्र,<br />प़ित्रकाओं से सूचना पाकर हम उन्हें एक स्वयॅसिद्व-स्वयॅघोषित-देवी<br />करूणामयी-ममतामयी मॉ-के पास भी ले गये, वह मॉ बहुत चमत्कारी बताते हैंउनका<br />आश्रम भी बहुत विषाल है, जहॉ वह साल में कुछ दिन अपने<br />एयरकन्डीषन अपार्टमेन्ट में रहने के लिए आती है, फिर कभी वह अपने चेलांे के<br />साथ हरिद्वार, केदारनाथ, कभी दक्षिण की यात्रा पर अथवा विदेषों की सैर पर<br />निकल जाती हैं. वहां कई एनआरआई उनके चेलें हैं. हमनें किसी तरह उनसे<br />समय लेकर उन्हें भी दिखाया, उन्होंने पहले तो हमें षरीर-षरीरी, आत्मा-<br />परमात्मा, प्रकृति-जड-चेतन तथा द्वैतवाद-अद्वैतवाद इत्यादि पर एक लम्बा-चौडा<br />लैक्चर दिया. वैराग्य के महत्व पर प्रकाष डाला एॅव सारी दुनियॉ को क्षणभॅगुर-एक<br />क्षण में नष्ट होनेने वाली-बताया फिर कहा कि अच्छा मैं देखती हूॅ कि इनके लिए<br />क्या किया जा सकता है ? षायद कुछ अनुष्ठान करना पडेगा, नतीजा यह हुआकि<br />घबराकर हमें वहॉ से भी बैरॅग लौटना पडाकिसी<br />ने हमें बताया कि आप सब छोडकर इन्हें कालेघोडें की नाल की<br />अगॅूठी पहनाओ, किसी ने सुझाया कि इन्हें बिहार के गया षहर से खूनी नीलम<br />की अगूॅठी मगॅवा कर, उसे डेयरी के ‘षुद्ध’ दूध में पवित्र करके बायंे हाथ की<br />अनामिका में पहनाओ, किसी ने ‘पहाडीबाबा’ के पास जाकर आषीर्वाद लेने के<br />लिए भी कहा नतीजा यह हुआ कि असमंजस में हम उनकों घर ले आए.<br />अब वह पांच राज्यों का चुनावी बिगुल बजते ही फिर तरह तरह के<br />रथांे की मॉग करने लगे है कि मेरे लिए फंला फंला रथ लाओ मैं उस पर सवार<br />होकर चुनाव रूपी युद्व में उतरूगॅा. अलग अलग नामों की यात्राएॅ करुॅगा. गरीबी<br />क्या होती है यह देखने किसी गरीब की झोपडी में जाउंगा, भलेही पांच सितारा<br />होटल से खाना मंगवाउ पर खाउंगा उसी झोपडी में और हो सका तो एक रात भी<br />वही गुजारूंगा, आखिर गरीबों एवं भिखारियों के बारें में मुझसे ज्यादा ओैर कौन<br />जानता हैं ? बतानेवालें तो यहां तक बता रहे है कि उन्होंने कहा है कि मजहब<br />विषेष बाहुल्य इलाकें में जाउंगा तो उसके पहले अपनी दाढी बढा लूंगा, स्थानीय<br />लोगों की वेषभूषा पहनूंगा, यहां तककि उन्होंने अपने भाषण लिखकर देने वालें को<br />भी कह दिया है कि उन लोगों की बोली में ही मेरा भाषण लिखकर दे, वही<br />पढूंगा जानकारों<br />का विष्वास है कि इससे मर्ज ठीक होने में कुछ मदद मिल<br />सकती हैं. इससे ‘सर्दी में में भी गर्मी का अहसास’ तो हो जायेगा लेकिन पसीनें नही<br />आयेंगे<br />-ई. शिव शंकर गोयल,<br />फ्लैट न. 1201, आई आई टी इंजीनियर्स सोसायटी,<br />प्लाट न. 12, सैक्टर न.10, द्वारका, दिल्ली- 75.<br />मो. 98737063339तेजवानी गिरधरhttp://www.blogger.com/profile/15920539204622934103noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7544291197153976893.post-68623703438570262792011-12-29T06:51:00.000-08:002011-12-29T06:54:32.904-08:00ग्लास चिल्ड्रन<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgvRAz2OX8E2FplxnLC4epTG_-CBfHHm7C2mBMQkCXv8aYbPiZN30vgnOZvlxkxcdAOgemhZqG1dG1hyphenhyphenpWQURhyw3v-Bd2qONJsD4B4C570tHmTaubiITWVVNMszPSlejCBGbHXDI2Xxic/s1600/s+s+goyal+1.JPG"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 172px; height: 202px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgvRAz2OX8E2FplxnLC4epTG_-CBfHHm7C2mBMQkCXv8aYbPiZN30vgnOZvlxkxcdAOgemhZqG1dG1hyphenhyphenpWQURhyw3v-Bd2qONJsD4B4C570tHmTaubiITWVVNMszPSlejCBGbHXDI2Xxic/s320/s+s+goyal+1.JPG" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5691563768972196034" /></a><br />टोकियों में जंमें, दाईसाकु इकेदा सोका गाक्काई के सम्मानीय अध्यक्ष और<br />सोका गाक्काई इन्टरनेषनल के अध्यक्ष हैं. बौद्ध धर्म के अगुआ, लेखक, कवि<br />और षिक्षाविद के रूप में एवं बौद्ध धर्म प्रेरित मानवतावाद को केन्द्र में रखकर<br />उन्होंने षांति, पर्यावरण और षिक्षा के क्षेत्रों में अनेक महत्वपूर्ण कदम उठाये हैं<br />और इन विषयों पर विष्वविद्यालयों में भाषण दिये हैं. साथ ही वे कई राष्ट्ीय<br />अंतर्राष्ट्ीय नेताओं और दुनियाके सांस्कृतिक अगुआओं और षिक्षाविदों से<br />संवादरत रहे हैं. सन 1983 में उन्हें ‘यूनाइटेड नेषन्स पीस अवार्ड’ से<br />सम्मानित किया गया हैहिन्दुस्तान<br />में अपनी कई यात्राओं के दौरान, श्री इकेदा ने श्री जयप्रकाष<br />नारायण, श्री राजीव गांधी और भूतपूर्व राष्ट्पति के, आर. नारायणन से विचारों<br />का आदान प्रदान किया है और तहे दिल से हमारी समूची पृथ्वी पर षांति और<br />संपन्नता स्थापित करने के लिए बातचीत की है. उन्हें दुनिया के कई<br />विष्वविद्यालयों ने सम्मानित ‘डाक्टरेट’ और ‘प्रोफेसरषिप’ से नवाजा है, जिसमें<br />दिल्ली विष्वविद्यालय द्वारा सम्मानी ‘डाक्टरेट ऑफ लैटर्स’ भी षामिल हैंइन्होंने<br />सौ से भी अधिक पुस्तकें लिखी हैं, जिनमे षामिल है, उपन्यास ‘दी<br />हयूमन रिवोल्यूषन’ और ‘चूज लाइफ’, प्रसिद्ध इतिहासकार ए.जे. टॉयन्बी से<br />संवाद, ‘अपनी दुनिया आप बदलिये’ इत्यादिप्रस्तुत<br />लेख उनकी पुस्तक ‘ग्लास चिल्डरन’ से अनुवादित है जिसमें कई<br />वर्षों पूर्व लिखे गये छोटे छोटे निबंध है जिनमें से कुछ ‘वर्ल्ड ट्ब्यिून प्रेस’ द्वारा<br />सन 1973 में प्रकाषित किये गए थेहमारे<br />देष की नवयुवक पीढी द्वारा आए दिन आत्महत्याओं का सहारा<br />लेना समसामयिक समस्या हैं. आपके माध्यम से इस समस्या एवं उसके<br />निराकरण हेतु प्रयास किया जाय तो उचित होगा. इसी प्रसंग में यह अनुवादित<br />लेख आपके विचारार्थ प्रस्तुत हैंनाजुक<br />बच्चें ं<br />लेखक: दाईसाकु इकेदा<br />हम सभी नव वर्ष का स्वागत हर्षोल्लास से करते हैे. हालांकि प्रत्येक<br />युवक-युवतियां, स्त्री-पुरूष एवं बच्चों-बूढों की खुषियां अलग अलग प्रकार की<br />होती है लेकिन सभी की भावनाओं में खुषियों का इजहार रहता हैं विषेषकर<br />छोटेंछोटें बच्चें इस अवसर पर स्वप्रेरणा से मंगलमय नववर्ष की कामना करते हैंकुछ<br />लोग इस त्योैहार का लुत्फ उठाने अपने परिवार के साथ विभिन्न<br />स्थानों का भ्रमण करते हेै तो कुछ घर मंे ही रहकर अपने परिवार के साथ<br />खुषियां मनाते हेैं. टीवी के विभिन्न चैनल भी इस अवसर पर अपने अपने<br />विषेष कार्यक्रम दिखाते हैं. ऐसेही एक मौके पर जब मैं अपने परिवार के साथ<br />खुषियां बांट रहा हंू तो मैं सोचता हंू कि कितना अच्छा हो कि इस मौके पर<br />हम एक दूसरे को कोई षिक्षाप्रद लोककथा-कहानी सुनाएं मसलन टॉलस्टाय की<br />‘मूर्ख ईर्ववान’ की कहानी को ही लें. अगर ऐसी ही मिलती जुलती कहानियां सर्वत्र<br />2<br />कहीजाय तो जिस तरह के सामाजिक ताने-बाने में आज हम जी रहे है उससे<br />कही बेहतर वातावरण का निर्माण हमारे इर्द-गिर्द हो सकता हैं. मैं सोचता हूं कि<br />‘मूर्ख ईर्ववान’ एक ऐसी अमर कथा है जिसकी सर्वत्र आज भी उतनी ही<br />प्रासंगिकता है जितनी की पहले कभी थीहो<br />सकता है कि हममें से कई लोगों को यह कहानी पहले से ही ज्ञात होइसके<br />अनुसार एक देष में एक समृद्ध किसान परिवार में तीन लडकें थे. ईवान<br />उसमें सबसे छोटा था. उससे छोटी एक गूंगी बहन भी थी. सबसे बडा लडका<br />सैनिक था. उसकी षादी एक ऐष्वर्यषाली परिवार में हुई थी जो हर बात में<br />अपनी धाक रखना चाहता था. मंझलें पुत्रका ध्यान हरदम रू.पैसों की तरफ<br />रहता था. इसके विपरीत ईवान हरवक्त साधारण वेषभूषा में रहता हुआ अपनी<br />छोटी बहन का ध्यान रखताथा औेर चुपचाप अपनी खेतीबाडी में लगा रहता थासमय<br />गुजर रहा था लेकिन इस परिवार की खुषी चारजनों के एक<br />राक्षसदल को नागवार गुजरी. यह चारों हरदम इस युक्ति में लगे रहते थे कि<br />ईवान और उसके भाइयों में किसी तरह भी मनमुटाव हो औेर उनका परिवार<br />बर्बाद हो जाय. कहानी तो विस्तार में है लेकिन उसका सारंाष यह है कि ईवान<br />के दोनो बडे भाई तो राक्षसों की बातों में आ गए लेकिन ईवान पर उनकी बातों<br />का कोई असर नही हुआ फलस्वरूप जीत ईवान की ही हुई. हालांकि ईवान<br />दुनियादारी से अनभिज्ञ था लेकिन उसका हर काम सच्चाई एवं ईमानदारी से<br />प्रेरित होता था. कोई उसके साथ कितनाही दगा करें यह जान लेने पर भी वह<br />गुस्सा नही करता था उल्टे पलटकर उदारतापूर्वक उसे कहता ‘अरे भाई ! तुम्हें<br />ऐसा नही करना चाहिए था.’ ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे उसका जंम दूसरों के<br />प्रति क्षमाभावना प्रदर्षित करने के लिए ही हुआ था. इतनाही नही वह धैर्यवान<br />भी था और कैसी भी कठिन परिस्थितियां हो उससे वह डिगनेवाला नही था,<br />सचमुच में वह लोककथाओं का नायक था.<br />ऐसे ही मिलते जुलते चरित्रवान, जो कभी निराष ना हो, जापान की<br />कथा-कहानियों में भी मिलजायेंगे. हालांकि ईवान समाजके बनावटी एवं<br />आडम्बरपूर्ण सामाजिक जीवन के विरूद्ध संघर्ष करनेवाला नायक था लेकिन मेरा<br />मानना है कि ऐसे चरित्र आधुनिक समाज में कम ही देखने में आते हेैंजैसाकि<br />हम सबका मानना है कि षिक्षा सिर्फ ऐसी ही नही होनी चाहिए<br />कि वह बच्चों को एक डरपोक एवं सांचे में ढले हुए सिक्कें की तरह बनायें<br />बल्कि वह उनको सहिष्णुता, मिलनसारिता एवं आगे बढने की ललक इत्यादि गुणों<br />से भरपूर बनानेवाली हो. कहने का तात्पर्य यह है कि वह उनमें ईवान जेैसी<br />ईमानदारी एवं अपने कार्य के प्रति लगन सिखाएंमुझ<br />े यह देखकर बहुत दुख होता है कि आजकल नवयुवकों-युवतियांे द्वारा<br />आत्महत्याओं की संख्या बढती जा रही है. कुछ नवयुवक छोटी छोटी बातों से<br />परेषान होकर घर से भाग जाते है जबकि कइयों को हरदम तरह तरह की<br />मानसिक चिंताएं घेरे रहती है. लगता है जापान अपनी महत्वता और विष्वास<br />3<br />खोता जा रहा हेैं. हमारे नवयुवक हमसे दूर होते जा रहे हैंे. इससे हमारे<br />जापानी सामाज के भविष्य पर भी असर हो रहा है. क्या जापान के वयस्क<br />लोगों की असफलताओं का असर हमारे नवयुवकों पर भी पड रहा हेै ?<br />आजकल के नवयुवकों की मुसीबतों के सामने जल्दी ही झुकने की प्रवृति को देख<br />देखकर मेरे हृदय में बहुत पीडा होती हेै. ऐसा लगता है मानो ये लोग कांच के<br />बने हुएुए है.ै इनमे दृढता नामकी कोई चीज नही है. ऐसा लगता है कि वे कभी<br />भी टूट जायेंगे. इसके लिए समाज पर दोषारोपण करना सहज है परन्तु ऐसा<br />करने से देष का भविष्य नही सुधर जायेगा बल्कि हमें यह देखना होगा कि<br />गलती कहां है ? औेर हमें इसे दुरस्त करना होगानवय<br />ुवकों को इतना कमजोर किसने बनाया है ? उन्हें ऐसा क्या<br />पढाया-लिखाया जा रहा हेै कि वे जीवन की वास्तविकताओं से पलायन कर रहे<br />है ? इन सब के क्या कारण है ? और कैसे हमें इन्हें सुधारना है ? समाजके<br />बडें बूडढों को इन सब प्रष्नों पर गम्भीरता से सोचना चाहिए अब केवल चिकनी<br />चुपडी या थोथी बातों से काम नही चलेगा बल्कि इन समस्याओं पर समुचित<br />ध्यान देना होगाइस<br />विषय में एक षिक्षाविद ने मुझे बताया कि आजकल के बच्चें अपनी<br />रोजमर्रा की जिन्दगी में काफी लापरवाह होते जा रहे है. कुछही बच्चें ऐसे है जो<br />छोटें छोटें औजार मसलन कैंची अथवा घरेलू चाकू का अच्छी तरह से इस्तैमाल<br />करना जानते है. बाजार में आधुनिक षार्पनर आजाने से उन्हें चाकूसे पेंसिल<br />छीलने की आवष्यकता ही नही पडती. इसी तरह उनको कांट छांटकर कोई वस्तु<br />बनाने के लिए कैंची की आवष्यकता नही होती क्योंकि आजकल बाजार में<br />प्लास्टिक के बने बनाये ऐसे टुकडें मिल जाते है जिन्हें जोडकर तरह तरह के<br />खिलौनें बनाये जा सकते हैे. कहने का तात्पर्य यह है कि आधुनिक सुख<br />सुविधाओं ने हमारे बच्चों को इन छोटे छोटे औजारों के इस्तैमाल से दूर कर<br />दिया हैपरन्तु<br />कुछ षिक्षाविदों का यह भी कहना है कि बच्चों को इन छोटे छोटे<br />ओैजारों से दूर रहने का एक महत्ती कारण यह भी है कि बच्चों की माताएं<br />स्वयं ही उनको इन कामों से दूर रखती हैे. उनका कहना है कि अगर बच्चें<br />इनका इस्तैमाल करेंगे तो उनके चोट लग सकती है. इसका नतीजा यह है कि<br />बच्चें को अगर कोई फल वगैरह भी खाना है तो उसकी मां उसे छीलकर देती<br />है. इसमें कोई षक नही कि असावधानीपूर्वक इस्तैमाल करने से चाकू अथवा<br />कैंची इत्यादि से चोट लग सकती है परन्तु बच्चों को इनसे सावधान करना एक<br />बात है और उन्हें इस वजहसे कुछ ना करने देना दूसरी बात है. उसी षिक्षाविद<br />ने मुझे बताया कि जब वह ऐसे बच्चों को देखता है, जिसने कभी किसी फल<br />वगैरह को इनसे नही छीला, तो उसे बच्चेंकी बजाय उसके माता-पिता की,<br />जरूरत से ज्यादा परवाह करने की, भावना परही तरस आता हैं4<br />प्रकृति की ओरसे बच्चें कमजोर पैदा नही होते. यह भी सच है कि<br />मानवषिषु जंम लेतेही अपने पैरों पर खडा नही हो सकता जैसेकि कई जानवरों<br />के बच्चें हो जाते है. परन्तु यह भी देखा गया है कि समय पर उचित प्रषिक्षण<br />देने पर नवजात षिषु भी कम उम्र में ही तैरना सीख सकता हैे. कुछ लोगों का<br />तो यहां तक कहना है कि बिना प्रषिक्षण के भी नवजात षिषु में इतनी साम्मर्थ<br />होती है कि वह तैर सकें. यह बात दर्षाती है कि क्रियाषीलता मानव का<br />स्वाभाविक गुण है. यहां मेरे कहने का यह मतलब बिलकुल नही है कि यह<br />पढकर लोग अपने नवजात षिषु को तैराने लग जाय. मेरा आषय तो सिर्फ<br />इतना ही है कि माता-पिता की जरूरत से ज्यादा बच्चों के बचाव की भावना से<br />उनके नैसर्गिक गुणों पर कुठाराघात होता है जिससे उनका स्वाभाविक विकास<br />रूक जाता है. नतीजतन ऐसे बच्चें जीवनधारा में अच्छी तरह नही तैर पातेहो<br />सकता है कि मेरी यह बात कुछ अभिवावकों को अच्छी नही लगे<br />लेकिन यह भी सच है कि कई मायने में बच्चें इतने आलसी नही होते लेकिन<br />उनके माता पिता अधिक दुलार में उन्हें ऐसा बना देते हैं. यों वैसे देखा जायतो<br />आधुनिक जमाने में विज्ञान एवं तकनिकी विकास सम्पूर्ण मानवजाति को ही धीरे<br />धीरे निकम्मा बना रहा है. हममें से कितने व्यक्ति ऐसे है जिनके पास खुदका<br />औजारों का किट है जिससे वह मरम्मत का छोटा मोटा काम खुद कर सकें ?<br />मुझे याद है जब मैं किषोरावस्था में था तब हरदम ही मेरे कही न कही<br />चोट लगती रहती थी. हालांकि अधिकांष समय मैं पारिवारिक कामों में लगा<br />रहता परन्तु इसके बावजूद मैं मिटटी कीचड में खेलकूद करता रहता था<br />नतीजतन मेरे षरीर पर मेरे अन्य साथियों की तरह छोटे मोटे घाव होते रहते<br />थे. यह वह मुष्किल जमाना था जब अधिकतर लोगों को अपनी वस्तुएं स्वयं<br />बनानी पडती थी. यही आवष्यकता बच्चों को वस्तुओं के बारे में ज्ञान एवं<br />उत्साह पैदा करती थी जो आगे चलकर उनकी जिन्दगी में काम आती थीपरन्तु<br />मुझे आष्चर्य है कि आधुनिक समय की माताएं अपने बच्चों में ज्ञान<br />एवं उत्साह के लिए क्या कर रही है ? जब बच्चें एक समझदारी की उम्र में आ<br />जाते हेै तो क्यों नही उन्हें चाकू एवं कैंची जैसी चीजों का भली प्रकार इस्तैमाल<br />करना सिखाती है. हालांकि साथ ही साथ उन्हें यह भी सिखाना है कि औजारों<br />का इस्तैमाल करते समय क्या क्या सावधानी रखनी है परन्तु अभिवावक इतना<br />भी नही करेंगे ओैर इसके बजाय स्वयंही उनका यह काम करते रहेंगे तो यह<br />उनकी बुद्धिमानी नही कही जायेगीवैसे<br />देखा जाय तो चाकू या कैंची कोई बहुत बडी बात नही है. असली<br />बात है इन छोटे छोटे कामों में मातापिता पर निर्भरता. अगर बच्चा जिन्दगी में<br />छोटी छोटी बातों से भी डरेगा या दिक्कतों से दूर भागेगा या ऐसी आषा रखेगा<br />कि उसकी मुसीबत को कोई और सहले या कोई औेर आकर उस समस्या को<br />हल करदे तो ऐसे परिवेष में पला बढा बच्चा बडा होकर जिन्दगी के थपेडों को<br />आसानी से सहन नही कर पायेगा. रोजमर्रा की जिन्दगी में हम ऐसे कई बच्चों<br />5<br />को देखते है जो बोर्ड के इम्तहान देने के वक्त या किसी इन्टरव्यू में जाते वक्त<br />अपने साथ अपने अभिवावकों को ले जाते है. ऐसेही नवयुवकों को जब जिन्दगी<br />में समस्याएं घेर लेती है तो ना तो वह उससे दूर भाग सकते है ना ही कोई<br />दूसरा उसे झेल सकता है तो वह घबराजाते हेैं. मैं जब भी किसी नवयुवक द्वारा<br />आत्महत्या की खबर सुनता हंू तो मुझे लगता है कि मैं एक ऐसे नवयुवक की<br />खबर सुन रहा हंू जिसे उसके अभिवावक ने कभी जिन्दगी की नाव को खेना<br />नही सिखायाबडों<br />को चाहिए कि वह छोटों को अपने पांवों पर खडे होना सिखायेंपुराने<br />समय से ही बडे बूढें कहते आए है कि ‘अगर आप अपने बच्चों ं को<br />प्यार करते है तो उन्हें किसी यात्रा पर भेेिजिये’ हालांकि ऐसा कहते वक्त उन्हें<br />बहुतसी चिंताएं घेरे रहती हैे बावजूद इसके लोग अपने बच्चों को होषियारी<br />सिखाने हेतु ऐसा करते आए हैंलेकिन<br />मुझे नही लगता कि आजकल के अभिवावक ऐसा करेंगे. वह<br />षायद इतनाही करले तो बहुत है कि वह अपने रोजमर्रा की जिन्दगीमें बच्चों को<br />स्वयं अपना कामकाज करने की आदत डलवाले परन्तु क्या यह सच नही है कि<br />वह ठीक इसका उल्टा कर रहे है ? वास्तव में होता यह है कि ठीक अलसुबह<br />वह उसको उसके हाथों से काम करने से रोकते है तो सांयकाल उसको पैरों पर<br />चलने से निरूत्साहित करते हेैे, दोपहर को उसे धूप से बचाकर रखने की<br />कोषिष करते है तो रात्रि को ठन्डी हवा से उसका बचाव करते मिलेंगे. कहने<br />का तात्पर्य यह है कि वह अपने बच्चों को इस तरह बना देते है कि वह पूर्णतः<br />छुईमुई का पौधा बनकर रह जाता है ओैर इस तरह परवरिष किए हुए बच्चें का<br />जब जिन्दगी की वास्तविकताओं से सामना होता हेै तो वह कोई कठिनाई के पूरी<br />तरह से आने के पूर्वही घबरा जाता हैं. अगर अभिवावक ने उसे कठिन<br />परिस्थितियों में धैर्यपूर्वक उसका सामना करना नही सिखाया है औेर अगर वह<br />जिन्दगी में विषम परिस्थिति आने पर आत्महत्या की ओर अग्रसर होता है तो<br />कही न कही इसके लिए उसके मातापिता भी दोषी हैंउदाहरण्<br />ाार्थ मानलें कि एक छोटा बच्चा चलते चलते गिर पडता हैे औेर<br />अगर मातापिता में से कोई फौरनही दौडकर उसे उठा लेता है तो मैं इस तरह<br />के व्यवहार को बहुत अच्छा नही कहूंगा लेकिन अगर वह उस बच्चें को अपनी<br />हालत पर योंही छोड देते हेै तो वह भी ज्यादा ठीक नही हेै. सही अभिवावक<br />वह है जो बच्चें के गिरने की चिंता तो करते है लेकिन साथ ही साथ उसे वापस<br />अपने आप उठने की प्रेरणा भी देते हैं.<br />एक बच्चा जो इस तरह गिरता हेै उसे कुछ न कुछ दर्द तो होता ही हैे.<br />ऐसा होने पर सबसे पहले वह चिल्लाने की तैयारी करता हेै परन्तु इसके पहले<br />वह अपने मातापिता की तरफ देखता हैे. कहने का तात्पर्य यह है कि हालांकि<br />उसे कष्ट हुआ हेै लेकिन रोने चीखने के पूर्व वह अपने चारों तरफ देखकर यह<br />अंदाज लगाता है कि उसे चिल्लाना चाहिए या नही. अगर इस समय आप यह<br />6<br />कहे कि ओह ! इसके चोट लगी है तो वह जरूर रोयेगा लेकिन अगर उसे यह<br />सुनाई दे कि ‘कोई बात नही तुमतो बहादुर हो’ तो वह षायद नही रोयेगाहालांकि<br />यह कोई जरूरी नही कि हरदम ऐसा ही होता है.<br />ृ यहां मैं आपको यह बताना चाहता हूं कि मैंने स्वयं अतयंत व्यस्त रहने<br />के बावजूद अपने तीनों लडकों की परवरिष कैसे की है. सबसे बडा लडका 24<br />साल का है, मंझला 22का और छोटा 19 वर्ष का है. बडें को आप बुद्धिजीवि<br />कह सकते है. मंझला उत्साहित एवं हंसमुख है जबकि छोटे को स्कूल के दिनों से<br />ही नक्षत्र विज्ञान में रूचि है. इस समय वह अपने मित्रों के साथ टोकियो के<br />दक्षिण में एक द्वीप पर है. उसमे वंषानुगत मछुआरे का खून है. वह समुद्र से<br />बहुत प्यार करता हैपिछले<br />मई में एक रोज सुबह सुबह ही वह अपने दोस्तों के साथ समुद्र<br />की सैर पर निकला लेकिन षीघ्रही उॅची 2 लहरों की चपेट में आने से उनकी<br />नाव उलट गई और जो बोट उनकी सहायता के लिए पीछे पीछे चल रही थी<br />उसके इंजिन में उसी वक्त कुछ खराबी आ गई. बच्चें जिन्दगी और मौत के<br />बीच संघर्ष करते रहे ओैर अंत में वही से गुजर रहे एक जहाज ने उनकी जान<br />बचाई. इतना कुछ होने के बावजूद मेरे लडके ने घर पर आकर कुछ नही<br />बताया वहतो उसकी मां ने भांपलिया तब कही जाकर सारी घटना का पता लगा<br />और उसकी मां ने यह बात मुझे बाद में बताईमुझ<br />े इस बात से कोई आष्चर्य नही हुआ बल्कि मैं उसकी इस बात से<br />प्रभावित ही हुआ. मैंने इसके बाद भी कभी यह नही चाहा कि मेरे लडकें कुछ<br />करने हेतु हरदम मेरी ओर ताकते रहे.<br />मेरे द्वारा की गई घटनाओं के वर्णन से ऐसा प्रतीत हो सकता है कि<br />बच्चों की षिक्षा में कही न कही कोई कमी है औेर वह यह कि हममें से<br />अधिकांष को यही नही मालुम कि आखिर षिक्षा का उद्धेष्य क्या है ? मेरे<br />विचार से षिक्षा का मूल उद्धेष्य ेष्ेष्य है ‘आत्म निर्भर्ररता’. बच्चें सिर्फ उनके<br />अभिवावकों की ही धरोहेहर नही है वह समाजकी, राष्ट्क्की सम्पति भी है.ै. उनका<br />स्वयंकंका एक अलग वर्चसर््स्व है,ै, व्यक्तित्व है जिनका अभी पूर्णर्रूरूपेण विकास नही<br />हुअुआ हेैे.ै. चूंूंिकि उनकी पूर्ण उन्नति होनेना बाकी है अतः हम सबका कर्तव्य है कि<br />ऐसे समय में ं उनकी मदद की जाय ओैेरैर इसके लिए जरूरी है कि उन्हें ं<br />आत्मनिर्भर्ररता की ओर बढने हेतेतु प्रा्रोत्ेत्साहित किया जाय.<br />जापानी भाषा में षिक्षा का पर्यायवाची षब्द है ‘कइयोकू’ इसमे ‘इयोकू’ का<br />मतलब है पढाना, उॅचा उठाना. हमारे यहां बसंत ऋतु में बीज बोये जाते हेै<br />जोकि आगे चलकर पौधें का रूप लेते हैं. किसान उनके आसपास की खरपतवार<br />को हटाता है, उनको खाद-पानी देता है लेकिन यह तमाम खाद-पानी पौधें स्वयं<br />जमीन से लेते है. पौधें उगाने का मतलब यह है कि उनके उगने का वातावरण<br />बनाया जाय ताकि वे स्वयं बडे हो सकें, आत्मनिर्भर बन सकें और इसीसे यह<br />7<br />जापानी षब्द ‘कयोकू’ बना है जिसका मतलब है कि आत्मनिर्भरता का पाठ<br />पढानाअगर<br />हम षिक्षा का मूल उद्धेष्य आत्मनिर्भरता बनाले तो उसके तौरतरीकें<br />बिलकुल स्पष्ट होजायेंगे. हालांकि इस विषय पर काफी परिचर्चा हुई है कि बच्चों<br />के विकास हेतु कुछ साहसिक कदम उठाये जाय या कुछ और तरीकें इस्तैमाल<br />किये जाय. इस बात पर काफी वादविवाद भी हुआ है लेकिन मेरा मानना है कि<br />तरीकों में भलेही मतभेद की गुंजाइष हो लेकिन उद्धेष्य के प्रति कोई मतभेद नही<br />हैंषिक्ष्<br />ाा का मूल उद्धेष्य आत्मनिर्भरता ही है. इस उद्धेष्य की पूर्ती हेतु जहां<br />बच्चों को सघन प्रषिक्षण दिया जाना चाहिए वहां यह भी आवष्यक है कि हम<br />उन्हें अपने पैरों पर खडा होने के योग्य बनने के लिए वातावरण भी निर्मित<br />करें. कहने का तात्पर्य यह है कि जब उनकी स्वयं निर्णय लेने की अवस्था प्राप्त<br />हो उसके पहले उन्हें कठोर अनुषासन में रखा जाना आवष्यक है. ज्यों2 वह<br />बडें हो उन्हें स्वयं निर्णय लेने की प्रेरणा देनी चाहिए.<br />परन्तु बहुधा वास्तविक जीवन में हमे ठीक इसका उल्टा होता नजर आता<br />हेै. जब बच्चा छोटा होता है, अभिवावक उसको मनमानी करने देते हैे लेकिन<br />अचानक ही एक दिन हम उस पर प्रतिबंध थोपने की कोषिष करते है तब तक<br />बहुत देर होचुकी होती है. ऐसी परिस्थितियों में उसमें आत्मनिर्भरता की भावना<br />आने की सम्भावना कम ही रहेगीबच्चें<br />हालांकि छोटे होते है लेकिन उनमें सीखनेकी प्रबल इच्छा होती हैजो<br />बात कोई वयस्क सीखने में वर्षों लगा देता है एक बच्चा उसे एक दिन में,<br />एक महीने में अथवा एक साल में ही सीख सकता हैे और चूंकि वह पूर्वाग्रस्त<br />नही होता इसलिए सीखी गई बात वह हृदय से ग्रस्त कर लेता है जिसे निकालना<br />बहुत मुष्किल हैंबच्चें<br />हर बात में और किसी भी बात में दिलचस्पी ले सकते है. उनकी<br />दिलचस्पी विवेक रहित होती है. यहां अभिवावक उनकी मदद कर सकते हैेबच्चा<br />जो भी कहता है माता-पिता उसे ध्यानपूर्वक सुनकर उस पर अपनी<br />प्रतिक्रिया जाहिर कर सकते है कि क्या उसके हित में है और क्या अहित में<br />और उसी अनुसार कार्यवाही कर सकते हैइस<br />तरीके से प्रयास करने से बच्चें का दिमाग ढलने लगता है और धीरे<br />धीरे उसके व्यक्तित्व का विकास होने लगता है. बेषक इसके साथही बच्चें के<br />स्वयं के जंमजात गुण, वातावरण इत्यादि का प्रभाव भी होगा परन्तु अभिवावकों<br />का प्रभाव भी काफी महत्वपूर्ण होता हैंअगर<br />बच्चें को आत्मनिर्भर बनाना है तो उसे इसके लिए समझदारी दी<br />जानी चाहिए और यह समझदारी आयेगी जानकारी से, इसके लिए उसके<br />स्वाभाविक गुणों को विकसित करना होगा. निसंदेह यह सब गुण हरदम<br />8<br />सर्वोत्कृष्ट रूप में प्राप्त नही किए जा सकते लेकिन अच्छे से अच्छा प्राप्त<br />करनेका प्रयत्न तो किया ही जाना ही चाहिए.<br />मैं यहां पर जोर देकर कहना चाहूंगा कि अगर आप बच्चें का सर्वांगीण<br />विकास करना चाहते है तो आपको उसे ऐसा माहौल देना होगा जोकि काम में<br />दिलचस्पी एवं प्रतिस्पर्द्धा से भरपूर हो ताकि वह स्वयंमेव आनेवाली कठिनाइयों<br />को पार करना सीखें और आगे बढेंजब<br />षिक्षा का उद्धेष्य आत्मनिर्भरता होता है तब अनुषासन का एक<br />अलगही अर्थ होता है. तब वह सिर्फ ‘यह करो, यह मत करो’ तकही सीमित<br />नही रहता बल्कि वह बच्चें को सकारात्मक सोच के साथ प्रयत्न करते हुए आगे<br />बढनेकी प्रेरणा देता है. उदाहरणार्थ मानलें बच्चा कोई ऐसा काम कर रहा है<br />जिससे कि दूसरों को परेषानी हो रही हो तब सिर्फ उसे षाब्दिक रूपसे मना<br />करने से ही काम नही चलेगा बल्कि उसे यह सिखाना होगा कि वह यह काम<br />बंद करके सामनेवाले से क्षमा याचना करें तभी वह अपनी आत्मा की आवाज के<br />अनुसार आगे बढेगाआप<br />सोच रहे होंगे कि मैंने यह लेख नव वर्ष के उत्सव की बात करते<br />हुए प्रारम्भ किया था ओैर उसका समापन बालकों की षिक्षा के विषय पर बात<br />करते हुए कर रहा हूं परन्तु दोनों में संबंध है. जैसेकि नव वर्ष का उत्सव<br />सालका प्रारम्भ है तो बालकपन जीवन की षुरूआत है. हमें यह नही भूलना<br />चाहिए कि यह प्रारम्भिक अवस्थाही सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है इसी से संस्कारों<br />का एक बडा हिस्सा बनता हैंसदा<br />की भांति इस वर्ष भी संसार में नव वर्ष के महोत्सव मनाएं जायेंगे.<br />ऐसे समय प्रार्थना करते वक्त हम किसी षैतान से डरकर सिर्फ ऐसी ईष प्रार्थना<br />में ही ना लगे रहे कि वह हमें अमुक अमुक वरदान देदें ताकि हमें कुछ परिश्रम<br />नही करना पडे अर्थात परिश्रम से बचाते हुए भाग्य परही निर्भर ना बनादें. हम<br />ईष्वर से ऐसे समाज के निमार्ण की प्रार्थना करें जहां परिश्रम का महत्व हो, जहां<br />हर कोई सिर्फ दूसरों की मदद की ओर ही नही ताकता रहे बल्कि अच्छे से<br />अच्छा ऐसा काम करे जो स्वयंहित के साथ साथ दूसरों के हित का भी हो और<br />अगर हम ऐसा कर सके तो इस महोत्सव में चार चांद लग जायेंगे<br /><span style="font-weight:bold;">अनुवादक<br />-ई. शिव शंकर गोयल,<br />फ्लैट न. 1201, आई आई टी इंजीनियर्स सोसायटी,<br />प्लाट न. 12, सैक्टर न.10, द्वारका, दिल्ली- 75.<br />मो. 98737063339</span>तेजवानी गिरधरhttp://www.blogger.com/profile/15920539204622934103noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7544291197153976893.post-70796825715395068922011-12-17T21:49:00.000-08:002011-12-17T21:50:53.222-08:00शहर देहली का हाल<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiX0OSAZ6xll88EmLic28yJlD7bhszHlE5rdZyiczH1zLToaBrnwwvyUiPjeWaaze75A1r_6toTLlkWm-mZOoBoWeyGl43UCBB4wSVgvJZZlkSIrUaiq8FDGrZHtvTm8bIdW8qMiEDG1NM/s1600/s+s+goyal+1.JPG"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 172px; height: 202px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiX0OSAZ6xll88EmLic28yJlD7bhszHlE5rdZyiczH1zLToaBrnwwvyUiPjeWaaze75A1r_6toTLlkWm-mZOoBoWeyGl43UCBB4wSVgvJZZlkSIrUaiq8FDGrZHtvTm8bIdW8qMiEDG1NM/s320/s+s+goyal+1.JPG" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5687341733898553074" /></a><br />'...अब मैं आपको देहली का पूरा पूरा हाल सुनाता हॅू, तब आप स्वयं<br />समझ सकेंगे कि यह षहर सुंदर है या नही, प्राय: चालीस वर्ष हुए वर्तमान<br />बादषाह के पिता षाहजहॉ ने अपने स्मृति चिन्ह के लिए पुरानी दिल्ली के निकट<br />एक नया षहर बसाया और अपने नाम के अनुसार इस षहर का नाम<br />षाहजहानाबाद व जहानाबाद रखा, इसके राजधानी बनाए जाने का कारण यह<br />प्रकट किया गया कि गरमी की अधिकता के कारण आगरा बादषाह के रहने योग्य<br />नही है पर इसके बनाने के लिए सब चीजें पुरानी देहली के आसपास के खंडहरों<br />में से ली गई है इससे विदेषी आदमियों को पुराने और नए षहर में कोई भेद<br />नही मालुम होता, भारत में लोग इसे जहानाबाद ही कहते है, पर सरलता के लिए<br />मैं भी विदेषियों की तरह इन्हें एक ही कहूंगा.<br />षहर देहली चौरस जमीन पर जमुना के किनारे जो ल्वायर-फ्रांस-नदी के<br />समान है- चन्द्राकार बसा हुआ हैं. नदी को छोड कर -जिस पर नावों का पुल<br />बंधा है- बाकी तीनों ओर रक्षा के लिए पक्की षहरपनाह बनी हुई हैं. अगर इन<br />बुरजों पर से जो षहरपनाह के किनारे सौ सौ कदमों पर बने हुए है या उस<br />कच्चें पुष्तें पर से, जो चार या पांच फ्रांसीसी फुट उंचा है, देखा जाय तो यह<br />षहरपनाह बिलकुल ही अपूर्ण है क्योंकि न तो इसके निकट कोई खाई है ओर न<br />कोई दूसरा रक्षा का उपाय है.<br />यह षहरपनाह नगर और किलें को घेरे हुए है तथा उसकी लम्बाई इतनी<br />अधिक नही है जितनी लोग समझते है क्योंकि तीन घन्टे में मैं उसके चारों ओर<br />फिर आया हॅू, मेरे घोडें की चाल एक फ्रांसीसी लीग या तीन मील प्रति घन्टे से<br />अधिक न थी, मैं इसमे षहर की आस पास की उन बस्तियों को नही मिलाता जो<br />बहुत दूर तक लाहौरी दरवाजें की ओर चली गई्र है और न पुरानी देहली के उस<br />बचे हुए बडे भाग को, और न उन तीन चार बस्तियों को मिलाता हॅू जो षहर के<br />पास है क्योंकि इन्हें भी उसी में मिला लेने से षहर की लम्बाई इतनी बढ जाती है<br />कि यदि षहर के बीचो-बीच एक सीधी रेखा खींची जाए तो वह साढे चार मील<br />से भी अधिक होगी, यद्यपि बाग आदि के बीच में आजाने के कारण मैं नही कह<br />सकता कि नगर का ठीक ठीक व्यास कितना है फिर भी इसमे सन्देह नही कि वह<br />बहुत ही अधिक हैकिला<br />जिसमें षाही महलसरा और मकान है और जिनका वर्णन मैं आगे<br />चल कर करूंगा अर्द्ध गोलाकार-सा है, इसके सामने जमुना नदी बहती है, किलें<br />की दिवार और जमुना नदी के बीच में एक बडा रेतीला मैदान है जिसमें हाथियों<br />की लडाई दिखाई जाती है और अमीरों, सरदारों और हिन्दु राजाओं की फौज<br />बादषाह को देखने के लिए खडी की जाती है जिन्हें बादषाह महल के झरोखों से<br />देखा करता हैंकिलें<br />की दिवार अपने पुराने ढंग के गोल बुर्जों के कारण षहरपनाह से<br />मिलती-जुलती हैं. यह ईंट और लाल पत्थर की बनी हुई है जो संगमरमर से<br />मिलता जुलता होता हैं. इसलिए षहरपनाह की अपेक्षा यह अधिक सुन्दर हैं. यह<br />षहरपनाह से उंची और सुदृढ भी हैं. इस पर छोटी छोटी तोपे चढी हुई है<br />जिनका मुंह नगर की ओर हैं. नदी की ओर को छोड कर किलें के सब ओर<br />पक्की और गहरी खाई बनी हुई हैं. इसके बांध भी मजबूत पत्थर के बने हुए हैं.<br />यह खाई हमेषा पानी से भरी रहती है और इसमे मछलियां बहुत अधिकता से हैे<br />यद्यपि यह इमारत देखने में बहुत दृढ मालुम होती हेै पर वास्तव में यह दृढ नही<br />है औेर मेरी समझ में एक साधारण तोपखाना इसे गिरा सकता हैंइस<br />खाई के निकट एक बडा बाग है जिसमें बहुत सुन्दर और अच्छे फूल<br />होते हैं. किले की लाल रंग की दिवार के सामने होने के कारण यह बाग बहुत ही<br />सुन्दर मालुम होता हैं. इसके सामने एक बादषाही चौक है जिसके एक ओर किलें<br />का दरवाजा हैे और दूसरी ओर षहर के दो बडे बाजार आकर समाप्त हो जाते<br />है, जो नौकर राजे प्रति सप्ताह यहां चौकी देने आते है उनके खेमें आदि उसी<br />मैदान में लगाए जाते हैं. इसी स्थान पर तरह तरह की चीजों की बिक्री के लिए<br />गुजरी लगती हैइन<br />दो बडे बाजारों की चौडाई जो चांदनी चौक में आ कर मिलते है<br />पच्चीस या तीस कदम हैं. जहां तक दृष्टि पहुंचती है वे सीधे ही चले जाते हैंइनमें<br />से जो बाजार लाहौरी दरवाजे की ओर गया है वह बहुत ही लम्बा हैं. दोनों<br />रास्तों पर मकान तथा इमारतें समान ही हेैं. पेरिस के प्रसिद्ध बाजार पैलेस रायल<br />की तरह इन बाजारों के दोनों ओर की दुकानें महराबदार है पर इनमें भेद इतना<br />ही है कि एक तो यह ईटों का बना हुआ है और दूसरे यह एक ही खंड का हैंइन<br />दुकानों की छतें खास चबूतरों का काम देती हैं. एक भेद और है, पैलेस<br />रायल की दुकानों के बरामदें ऐसे बने हैे कि इनमें प्रवेष करने पर मनुष्य बाजार<br />में एक सिरे से दूसरे सिरे तक जा सकता है पर यहां की दुकानों के बरामदें<br />अलग अलग होते हेै और उनके बीच मे दिवारें बनी होती हैं. दिन के समय यही<br />बैठकर व्यापारी और सर्राफ अपना अपना काम करते है और ग्राहकों को माल<br />दिखाते हैं. इन बरामदों के पीछे असबाब आदि रखने के लिए कोठियां बनी हुई है<br />जिनमें रात के समय सारा असबाब रख दिया जाता हेैं. इनके उपर व्यापारियों के<br />रहने के लिए मकान बने हुए है जो बाजार में से देखने पर बहुत ही सुन्दर<br />मालुम होते हैं. यें मकान हवादार होते है और धूल बिलकुल नही आती, यद्यपि<br />षहर के भिन्न भिन्न भागों में भी दुकानों के उपर इसी प्रकार के मकान होते है<br />पर वे इतने छोटे और नीचे होते है कि बाजार में से भली भांति दिखाई भी नही<br />देते, अधिकतर व्यापारी दुकानों पर नही सोते वरन रात को काम कर चुकने पर<br />अपने अपने मकानों को जो षहर मे होते है, चले जाते हैंइनके<br />अतिरिक्त पांच और बाजार हैं. यद्यपि इनकी बनावट आदि वैसी ही<br />हेै पर वे इतने लंबे ओैर सीधे नही हेै और भी छोटे बडे बाजार है जो एक दूसरे<br />को काटते हुए चले जाते हेै, यद्यपि उनके सामने वाली ईमारत महराब के ढंग की<br />है तथापि वे ऐसे लोगों के हाथ से बने हुए होने के कारण जिन्हें इमारत के सुडौल<br />होने का ध्यान ही नही था, इतने सुन्दर, चौडे और सीधे नही है जितने वह<br />बाजार हेै जिनका वर्णन मैंने अभी किया है.<br />षहर के गली कूचों में मनसबदारों, हाकिमों और धनिक व्यापारियों के<br />मकान है और उनसे भी बहुधा अच्छे और सुन्दर है पर ईट या पत्थर के बने<br />मकान बहुत ही कम और कच्चे या घास फूस के बने अधिक हैं., इतना होने पर<br />भी वे सुन्दर और हवादार हेै, बहुत से मकानों में चौक और बाग होते हेै जिनमें<br />सब प्रकार की सुख सामग्री उपलब्ध रहती है, जो मकान घास फूस के बने होते है<br />वहां भी अच्छी सफेदी की हुई होती हैंअमीरों<br />के मकान प्राय: नदी के किनारे और षहर के बाहर हैं. इस गरम<br />देष में वही मकान अच्छा समझा जाता है जिसमें सब प्रकार का आराम मिले और<br />चारों ओर से विषेषकर उत्तर से अच्छी हवा आती हो, यहां वही मकान अच्छे<br />कहे जाते है जिनमे एक अच्छा बाग, पेड और दालान के अन्दर या दरवाजे में<br />छोटे छोटे फव्वारें और तहखाने होंगर्मी<br />के दिनों में देषी खरबूजें बहुत सस्ते मिलते है पर ये कुछ अधिक<br />स्वादिष्ट नही होते, हां जिनके बीज ईरान से मंगवाया और बोया जाता है बहुत<br />अच्छे होते हैंगर्मी<br />के दिनों में आम यहां बहुत सस्ते और अधिकता से मिलते हैे पर<br />देहली में जो आम होता हैे वह न तो ऐसा अच्छा ही होता हैे और न बुरा, सबसे<br />अच्छा आम बंगाल, गोलकुन्डा और गोवा से आता हेै जो वास्तव में बहुत अच्छा<br />होता हेैं. तरबूज यहां बारहों मास रहता हेै, पर जो तरबूज देहली में पैदा होता हैे<br />वह नरम और फीका होता हैं.<br />षहर में हलवाइयों की दुकानें अधिकता से हेै पर मिठाई उनमें अच्छी नही<br />बनती. उन पर गर्द पडी होती है और मक्खियां भिनभिनाया करती हैं. नानबाई<br />भी बहुत है पर यहां के तन्दूर हमारे यहां के तन्दूरों से बहुत ही भिन्न और बहुत<br />बडे होते है और इसी कारण न तो रोटी अच्छी होती है और न भलीभांति सेंकी<br />हुई पर जो रोटी किलें में बिकती है वह कुछ अच्छी होती हैंजुम्मा<br />मस्जिद:- किले का वर्णन छोड अब मैं फिर षहर की ओर फिरता हूं<br />जिसकी दो इमारतों का हाल अभी तक लिखना बाकी हैं. उनमें से एक तो बडी<br />मस्जिद है जो षहर के बीच में एक उॅची पहाडी पर बनी होने के कारण दूर से<br />दिखाई देती हैं. इसके बनाने से पहले पहाडी की जमीन बिलकुल साफ और चौरस<br />खोदी गई थी और चारों ओर मैदान कर दिया गया था जहां चारों ओर से चार<br />बाजार आकर मिलते है, उनमें से एक तो सदर दरवाजे के सामने है औेर दूसरा<br />पीछे को और बाकी दोनों ओर के दरवाजे के पास. अन्दर जाने के लिए तीनों<br />ओर पत्थर की 25-25 सुन्दर सीढियां बनी हुई है और पीछे की ओर साफ<br />करके पहाडी की उंचाई तक पत्थर लगा दिए गए हेै जिनसे वह इमारत और भी<br />सुन्दर हो गई हैं. इसके तीनों दरवाजें बहुत सुन्दर लाल पत्थर के बने हुए हैे और<br />उनके किवाडों पर तांबे या पीतल की पत्तियां जडी हुई है, सुन्दर दरवाजा जिस<br />पर संगमरमर की छोटी छोटी बुर्जियां बनी हुई है, बहुत ही खूबसूरत हैं. मस्जिद<br />के पिछले भाग में तीन बडे बडे गुंबद है जो संगमरमर के बने हुए हैं. बीचवाला<br />गुंबद कुछ अधिक बडा और उंचा हैं. मस्जिद के केवल इसी भाग के उपर छत<br />बनी हुई है और इसके आगे सदर दरवाजे तक बिलकुल खुला हुआ हैे जो गर्मी<br />के कारण खुला रखना आवष्यक हैं. मस्जिद के अन्दर संगमरमर ओैर बाहर लाल<br />पत्थर की सिलें जमीन मे जडी हुई है.<br />यहां की दूसरी वर्णन करने योग्य इमारत बेगम सराय या कांरवा सराय है<br />जो षाहजहां की बडी बेटी-बेगम साहिबा, जहांआरा- ने गत लडाई के समय<br />बनवाई थी. पैलेस रायल की तरह यह भी एक बडी महराबदार चौकोर इमारत हैंइसमें<br />लगातार कोठडियां बनी हुई है और उनके आगे अलग अलग बरामदें हैं.<br />यह इमारत दो खंडों की है और नीचे के खंड की तरह उपर के खंड में अलग<br />अलग कोठरियां और बरामदें हैं. ईरानी तथा विदेषी अमीर व्यापारी इसे सुरक्षित<br />समझकर यही आ कर ठहरते हैंबस्ती:-<br />मैं नही कह सकता कि देहली औेर पेरिस की जनसंख्या में क्या<br />समानता है पर फिर भी मेरी समझ में यदि देहली में पेरिस से अधिक आदमी<br />नही है तो कम भी नही हैंदेहली<br />के आसपास की भूमि बहुत ही उपजाउ हैं. इसमें चावल, गेंहू, गन्ना,<br />नील, मंूग और जौ आदि जो वहां के लोगों का प्रधान भोजन हैे, अधिकता से<br />उत्पन्न होते हेैं. आगरे की ओर जो सडक गई है उस पर देहली से प्राय: छह<br />मील पर एक स्थान है जिसे मुसलमान ख्वाजा कुतुबउद्धीन कहते हैं. यहां एक<br />बहुत ही प्राचीन इमारत है जो कदाचित पहले मंदिर था, जिस पर एक लेख खुदा<br />है जो बहुत प्राचीन मालुम होता हैं. उसकी लिपि किसी से पढी नही जाती और<br />उसकी भाषा भारत की सब प्रचलित भाषाओं से भिन्न हैंदेहली<br />से आगरे तक जो डेढ या पौने दो सौ मील लंबी सडक चली गई है<br />उस पर फ्रांस की तरह आपको कोई अच्छी बस्ती न मिलेगी हां केवल मथुरा एक<br />पुराना नगर है जिसमें एक बडा और प्राचीन मंदिर-द्वारकाधीष-अब तक विद्यमान<br />हैंनेषनल<br />बुक ट्स्ट, इंडिया द्वारा प्रकाषित 'बर्नियर की भारत यात्राÓ से साभार.<br />फैंव्किस बर्नियर एम.डी, जोकि पेषें से डाक्टर थे, मुगल बादषाह, षाहजहां के<br />जीवन के अंतिम चरण-सत्रहवी षताब्दी- में फ्रांस से भारत आए थे. प्रस्तुत वृतांत<br />उसी पुस्तक से लिया गया हैं. अब जबकि दिल्ली को राजधानी का दर्जा प्राप्त हुए<br />एक सौ साल-11.12.1911 से- होगए है उसी उपलक्ष में यह 'हाले दिल्लीÓ<br />आपकी सेवा में प्रस्तुत हैं<br /><span style="font-weight:bold;">-ई. शिव शंकर गोयल,<br />फ्लैट न. 1201, आई आई टी इंजीनियर्स सोसायटी,<br />प्लाट न. 12, सैक्टर न.10, द्वारका, दिल्ली- 75.<br />मो. 9873706333</span>तेजवानी गिरधरhttp://www.blogger.com/profile/15920539204622934103noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7544291197153976893.post-996348879646659162011-12-16T07:47:00.000-08:002011-12-16T07:48:40.697-08:00जियारत में हास्य<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhlYyFAlVhsQAQOjKxsYMJdSCBXcRJmdOEtNRle6r8iwrPDZQFKnuygy35sbBskKVhRs1BcscEBMxPvFzBlx3-xnBEYQ5LVIWhyz5X4JZipwOGZGxvTHQhsE1eiIYKc9QEAaim4aZQQ8bI/s1600/s+s+goyal+1.JPG"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 172px; height: 202px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhlYyFAlVhsQAQOjKxsYMJdSCBXcRJmdOEtNRle6r8iwrPDZQFKnuygy35sbBskKVhRs1BcscEBMxPvFzBlx3-xnBEYQ5LVIWhyz5X4JZipwOGZGxvTHQhsE1eiIYKc9QEAaim4aZQQ8bI/s320/s+s+goyal+1.JPG" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5686753630514778914" /></a><br />हमारें देष में विभिन्न स्थानों पर भिन्न भिन्न किवदंतियां प्रचलित हैं. मसलन<br />राजस्थान के हाडौती क्षेत्र के बारें में मषहूर है कि त्रेतायुग में जब श्रवणकुमार अपने<br />माता-पिता को कांवड में बैठाकर तीर्थयात्रा करवाता हुआ उधर से गुजरा तो उसे झुंझलाहट<br />आगई. कहते है कि उसने कांवड जमीन पर रखदी और चल दिया लेकिन ज्योंहि वह उस<br />क्षेत्र के बाहर आया उसे अपनी जिम्मेवारी का अहसास हुआ औेर वह वापस कांवड लेकर<br />यात्रा पर रवाना हुआ. कई संत यह बात पंचवटी के लिए भी कहते है जहां सतयुग में<br />भवानी ने षिवजी की बात नही मानी औेर त्रेता में सीता माता ने मारीच प्रकरण में लक्षमण<br />की बात की उपेक्षा की. कहते है कि यही बात अजमेर षहर के लिए कही जाती हैं कि कोई<br />भी व्यक्ति चाहे वह यहां तिजारत-व्यापार-करने आएं चाहे जियारत-धार्मिकयात्रा-और चाहे<br />घूमने वह अपने साथ चंद लहमें मुस्कराहट के लाता भी है और अपनों परायों में बांटने हेतु<br />यहां से तवर्रूख-प्रसाद-के रूप में ले भी जाता हैंहर<br />साल यहां प्रसिद्ध सूफीसंत ख्वाजा मोइनुद्धीन चिष्ती का उर्स होता है जिसमें<br />भाग लेने हेतु दूर दूर से जियारती आते हैं. एक बडा जत्था पाकिस्तान से भी आता हैं जिसे<br />पुरानीमंडी के एक स्क्ूल में ठहराया जाता हैं. यह बात पाकिस्तान जाकर बताने पर वहां<br />कइयों को इस बात का गिला-षिकवा रहता है कि भारत की हकूमत हमारें लोगों को नई की<br />बजाय ‘पुरानीमंडी’ में क्यों ठहराती हैं ?<br />सन 1965 में भारत-पाक के बीच दूसरा युद्ध हुआ था. उस लडाई में पाकिस्तान<br />को सबसे ज्यादा नुकसान खेमकरण सैक्टर में हुआ. उसे जान माल का तो नुकसान हुआ<br />ही भारतीय फौज ने अमेरिका निर्मित उसके कई पैटन टैंक जब्त कर लिए जबकि वहां की<br />हकूमत ने अवाम को यह बताया कि भारत ने हमारें पैटन टैंक चुरा लिए हैं. खैर, ऐसा ही<br />एक टैंक अजमेर में बजरंग गढ के नीचे प्रदर्षन हेतु रखा गया हैं. एक बार उर्स के मौकें<br />पर आया पाकिस्तानी जियारतियों का दल जब बारादरी पर घूमते 2 बजरंग गढ के नीचे से<br />निकला तो उसे वहां पैटन टैंक दिखाई दिया. उनमें से कइयों का माथा ठनका, अरे !<br />इन्होंने तो हमारा टैंक चुराकर सरेआम यहां रखा हुआ है, ‘चोरी और सीना जोरी’ चलकर<br />पुलीस में ‘काबिल तव्वजों इत्तला’ यानि एफआईआर लिखवानी चाहिए. बाद में उस दल के<br />नेताने उन्हें किसी तरह समझाया कि चोरीकी रपट उस थाने में होती है जहां से माल गया<br />है अतः रपट यहां नही पाकिस्तान में होगी और पुलीस चाहेगी तो तफसीस-जांच- भी वही<br />होगी, तब कही वह माने.<br />यह तब की बात है जब रेडियों ही ज्यादा चलते थे. टीवी का प्रचलन ज्यादा हुआ<br />नही था. उन्ही दिनों जब एक पत्रकार पाकिस्तान की यात्रा पर गया तो उसने वहां देखा कि<br />घर घर रेडियों पर दिल्ली स्टेषन चल रहा हैं. पाकिस्तानियों का भारत के प्रति प्रेम देखकर<br />वह बडा खुष हुआ. उसने जिज्ञासावष एक व्यक्ति से इसका कारण पूछा तो उसने बताया<br />कि हमारें हुक्मरान का यह कहना है कि हम भारत का वैसे तो कुछ बिगाड नही सकते, इस<br />तरह दिल्ली स्टेषन बजा बजाकर कम से कम उनकी बिजली तो खर्च करही सकते हैं.<br />1971 की जंग की बात हेैं. वैसेतो जनरल याहियाखां को पीने पिलाने वगैरह से ही<br />कहां फुरसत थी फिर भी एक रोज उन्होंने अपना रेडियो सुन लिया तो जनरल टिक्काखां<br />को फोन लगाया और बोले कि अपना रेडियो ये क्या खबरें दे रहा है कि भारत की दो<br />राजधानियों में दहषत बैठी हुई है ? इस तरह की गलतियों से हमारी जगहंसाई होती हैंइस<br />पर टिक्काखां ने उत्तर दिया ‘आपने ही स्टेंडिग ऑर्डर दे रखा है कि दुष्मन का<br />नुकसान बताते वक्त दो से गुणा कर दिया करोजब<br />टीवी का जमाना आया तो षुरू षुरू में पाकिस्तान में अधिकतर की यह ख्वाइष<br />थी कि ‘कष्मीर की कली’ पिक्चर देखने को मिल जाय क्योंकि वैसे तो इस जंम में कष्मीर<br />की झलक देखने को मिलना मुष्किल ही हेै इस बहाने कम से कम कष्मीर तो देख ही लेंगेवैसे<br />भी भारत सरकार हमें कष्मीर का वीजा तो कभी देती नही जबकि हमारें नौजवान जो<br />पीओके के मुजफराबाद, गिलगित और चित्राल के कैम्प अटैन्ड करके आएं हेै, हमेषा कहते<br />रहते है कि कष्मीर जाने के लिए वीजा की नही ऐके 47 की जरूरत होती हैं, हमतो वही<br />लेकर आते-जाते हैंउर्स<br />के दौरान दरगाह के आस पास के इलाकों में होटलें, रेस्टोरेन्टस दिनरात खुले<br />रहते हैं. इनकी खास बात यह है कि इनमें खाने का ‘मीनू’ होटल के अंदर कार्ड पर नही<br />दुकान के बाहर लगे बोर्ड परही लिखा रहता हैं. एक बार कुछ पाकिस्तानी जायरीन बाहर<br />बोर्ड पर ‘कष्मीरी पुलाव’ लिखा देखकर होटल मकीना पहुंचें. पहले उन्होंने एक प्लेट ‘मटन<br />पुलाव’ का आर्डर दिया. जब बैरा ‘मटन पुलाव’ लेकर आया तो उन्होंने देखा कि उसमें<br />सिर्फ चावल ही चावल है, मटन का एक भी दाना नही हैं. जायरीनों ने बैरे से इसकी<br />षिकायत की तो वह बोला कि इसको यहां ‘मटन पुलाव’ ही कहते हैं. आप नाम पर मत<br />जाइये, अगर आप कष्मीरी पुलाव मंगायेंगे तो इसका मतलब यह थोडे ही है कि मैं उसमें<br />आपको कष्मीर डालकर ला दूंगा. कष्मीर को लेकर यहां भी उन जायरीनों को बडी निराषा<br />हुई. यहतो बाद में नयाबाजार से उन्होंने एक के दो देकर जब तथाकथित ‘कष्मीरीषाल’<br />खरीदी तब उन्हें लगा कि पाकिस्तान जाकर बताने के लिए कष्मीर नामकी कोई चीज तो<br />मिली.<br />यह तबकि बात है जब तक अमेरिका ने पाकिस्तान की फौजी छावनी एबटाबाद में<br />ओसामा बिन लादेन का ‘षिकार’ नही किया था. हुआ यहकि उर्स में लंगरखाने की गली<br />स्थित होटल सकीना में जायरीन बैठे हुए थे. खाना-पीना चल रहा था. संयोग की बात है<br />कि उस होटल में एक षामलाल नामक बैरा भी काम करता था. जब जायरीन खा-पी चुके<br />तो वह लोग उठकर मैनेजर के पास गए और पेमेंट बाबत पूछने लगे तो मैनेजर ने वही से<br />बैरे को आवाज लगाई ‘ओ सामा बिल लादें’ उसका इतना कहना था कि होटल में<br />अफरा-तफरी मच गई. कोई इधर भाग रहा है कोई उधर. जब कुछ देर बाद लोगों को<br />असल बात समझ आई तब षांति हुई. पुलीस तो इस घटना के काफी देर बाद आईपाकिस्तान<br />का एक मषहूर बैंक है हबीब बैंक. एक बार उनके एक अधिकारी दरगाह<br />की जियारत करने आए. उन्होंने बातों ही बातों में बताया कि लाहौर में हबीब प्लाजा स्थित<br />उनके बैंक की रीजनल षाखा में एक क्लर्क बदली होकर आया. उसके पहले वह ग्वालमंडी,<br />अनारकली, कलमा चौक इत्यादि षाखाओं में काम कर चुका था. रोजाना घर से खाना<br />बनवाकर लेजाना और दोपहर में अपनी ब्रांच में कही बैठकर खाना खा लेना, यही उसका<br />रूटिन था. जब रीजनल ऑफिस में ट्ंासफर होगया तो खाना खाने के लिए वह ऑफिस के<br />कैम्पस में एक पेड की ब्रांच पर बैठकर ही खाना खाता था क्योंकि ब्रांच पर खाना खाने की<br />आदत हो गई थी, तभी तो कहते है कि आदमी की आदत आसानी से छूटती नही हैं. उसी<br />अधिकारी ने यह भी बताया कि यहां की हकूमत हमारें साथ भेदभाव बरतती हैं. जब हम<br />उन्हें हमारें एक सौ रू. देते है तो बदले में वह हमें यहां के पचास रू. देती हैं.<br />क्वेटा से आए एक बुजुर्ग खां साहब चाय पीते अपने अनुभव एक खादिम से अपने<br />घर गृहस्थी की बातें करने लगे. बोले, उम्रेदराज होने से याददाष्त कमजोर हो रही हेै, जब<br />रवाना हो रहा था तब बेगम को जरूरी 2 बातें बतानी थी. परन्तु अखबार वालें का बिल<br />नही मिल रहा था तो खादिम सैयद हुसैन ने पूछ लिया कि खां साहब ! वहां क्या<br />अखबारवालें बिलों में रहते है ? लाहौर का ‘डॉन’-इंगलिष डेली-पहले तो ऐसा नही था,<br />अब क्या होगया हैं ? कहते है कि ‘जीओ’ टीवी भी काफी हिम्मतवाला हैंउर्स<br />पर जहां दूर दूर से किन्नर, जेबकतरें, फकीर आते है वही बनारस के ठग भी<br />पीछे नही रहते. इनके अलग अलग क्षेत्रों के लाखों के ठेकें छूटते हैं, जैसे मदारगेट, रेलवें<br />स्टेषन, बस स्टैन्ड, इंदरकोट एरियां इत्यादि. एक बार मदारगेठ पर चम्पासराय के पास एक<br />जायरीन घंटाघर को देख रहा था तभी एक ठगने उसके पास आकर पूछा, ‘...भाईजान !<br />कहां से तषरीफ लारहे हो ?’ ‘...अहमदाबाद से आएं हैं.’ जायरीन बोला.<br />...अहमदाबाद में कहां ?<br />...दरियापुर.<br />...क्या काम करते हो ?<br />...कपडा मार्किट में अपुनकी दुकान है. ख्वाजाकी मेहरबानी से सब मजे में हैंे<br />...घंटाघर पसंद आया ?<br />इस पर जायरीन ने हां भरी तो ठग बोला कि अंग्रेजों के जमाने का हैं. आजकल<br />ऐसी चीजें मिलती कहां है ? नक्की-पूरें-135 फुट का हैं. खरीदोंगे ? सस्ता लगा देंगेजाय<br />रीन ने कहा कि ठीक भाव लगाओंगे तो लेलेंगे, पर नाप कर देना पडेगा. भाव तय<br />होजाने पर जायरीन ने उसे पैसे दे दिए और वह रकम लेकर जाने लगा तो जायरीन ने उसे<br />कहा नपवायें बिना क्यंाति जाओछो ? इस पर ठग ने कहा कि मैं फीता लेकर आता हूं तब<br />तक तुम यही रहना, ऐसा नही हो कि पीछे से कही चले जाओ. जायरीन मान गया लेकिन<br />काफी इंतजार के बाद भी ठग वापस नही लौटाजाय<br />रीन समझ गया कि वह ठगा गया है फिर भी वह दोतीन रोज और ठहरकर<br />रोज वहां आता और लोगों से पूछताछ करता लेकिन कोई फायदा नही हुआ. संयोग से एक<br />दिन वह ठग फिर संचेती होटल के पास दिखाई दे गया. जायरीन ने उसे पकडा और बुरा<br />भला कहा तो ठग बोला कि उस रोज मैं फीता लेकर आया तब तक आप जा चुके थे. मैं<br />तो अब भी घंटाघर नापकर देने को तैयार हूं परन्तु आज भी मेरें पास फीता नही हैं. इस<br />पर जायरीन ने कहा कि ऐम करो तमे यांति ठहरो अणे हूं फीतो लेर आउंछू. ठग उसकी<br />बात मान गया. कहते है कि उसके बाद दोनों की मुलाकात आजतक नही हुई, उधर घंटाघर<br />भी उनका इंतजार कर रहा हैं.<br />एक बार उर्स के मौकें पर कुछ निजि प्रयास से प्रदर्षनी का आयोजन किया गयाआय<br />ोजकों ने सस्ती दरों पर खाने-पीने के पंडाल एवं दर्षकों को निःषुल्क प्रवेष देने की षर्त<br />पर नगर परि द से नाममात्र के षुल्क पर पटेल मैदान लेलिया. बाद में उन्होंने ‘मैनेज’<br />करके प्रर्दषनी में प्रवेष षुल्क लगा दिया. अगली साल जब उन्होंने फिर प्रदर्षनी लगााने हेतु<br />आवेदन किया तो परि द ने एतराज किया और कहा कि आपको लिखकर देना होगाा कि<br />प्रवेष मुफत होगा. खैर आयोजकों ने लिखकर दे दिया और प्रदर्षनी चालू होगई. समय रखा<br />गया दोपहर 3 बजे से रात्रि 11 बजे तकलेकिन परि द अधिकारियों का आष्चर्य का ठिकाना<br />नही रहा जब उन्होंने देखा कि आयोजकों ने इस बार प्रवेष षुल्क की बजाय बाहर निकलने<br />का टिकट रखा हैं. अब दर्षकों के सामने दो ही विकल्प रहते थे, यातो रात्रि 11 बजे तक<br />अंदर ही रहकर कुछ खाया-पीया जाय या टिकट खरीदकर बाहर आया जाय. हां अलबत्ता<br />उन्होंने इतनी मेहरबानी जरूरकी कि जो कोई खरीदकर कुछ खा-पी लेगा उसे बिल दिखाने<br />पर ऐक्जिट टिकट नही खरीदना पडेगापाकिस्तान<br />लौटकर जानेवालें लोग अकसर अपने देष में ही षिकायत करते मिल<br />जायेंगे कि औरों की तो क्या कहें हमारें अपने आदमी हमसे अच्छा सलूक नही करते. अब<br />आप देखें जब वापसी में हम दिल्ली हवाई अडडें पर पाकिस्तानी एयरलाइन्स के काउंटर पर<br />पहुंचे तो वहां लिखा था ‘पीआइये’. जब हम पी आएं तो उहोंने हमें बोर्डिंग पास देने में<br />आनाकानी की. अब किससे गिला षिकवा करें और किससे नही करें ?<br /><span style="font-weight:bold;">-ई. शिव शंकर गोयल,<br />फ्लैट न. 1201, आई आई टी इंजीनियर्स सोसायटी,<br />प्लाट न. 12, सैक्टर न.10, द्वारका, दिल्ली- 75.<br />मो. 9873706333</span>तेजवानी गिरधरhttp://www.blogger.com/profile/15920539204622934103noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7544291197153976893.post-31890102589290754492011-12-13T19:13:00.000-08:002011-12-13T19:14:27.219-08:00एक फोटो फ्रेम के मुख सेकमरे के कौने में ,<br />मेज पर पड़े चांदी के<br />रत्न जडित फोटो फ्रेम<br />पर दृष्टी पडी<br />जिसमें मेरे पर दादा की<br />तस्वीर लगी हुयी थी<br />मुझे से रहा ना गया<br />उसे हाथ मैं उठा कर<br />देखने लगा<br />ऐसा प्रतीत हुआ मानों<br />कह रहा हो<br />मैं सामान्य फोटो फ्रेम<br />नहीं हूँ<br />कई दशकों से इस कमरे में<br />होने वाले<br />हर कार्य कलाप का गवाह हूँ<br />चंचल बचपन ,<br />जोश से भरी<br />जवानी और थके हुए<br />झुर्रियां लिए बूढ़े चेहरों की<br />तसवीरें मैंने ह्रदय से<br />लगा कर रखी हैं<br />जो संसार से चले गए<br />उन्हें भी प्रेम से संजोया है<br />मेरा स्थान बदलता रहा ,<br />पर कमरा नहीं बदला<br />मैंने खामोशी से घर के<br />लोगों को<br />बचपन से बुढापे तक<br />संसार में आते जाते देखा<br />घर में किसी ने जन्म लिया<br />या फिर कोई सदा के लिए<br />चला गया<br />मुझे भी भरपूर खुशी और<br />दुःख हुआ<br />घर के लोगों को हँसते ,<br />रोते देखा<br />लड़ते झगड़ते देखा<br />प्यार मोहब्बत में जीते देखा<br />जीवन के हर रंग को<br />समीप से देखा<br />पता नहीं कब तक देखना है<br />जब तक<br />घर में सम्पन्नता है<br />मुझे पूरी आशा है<br />कोई मुझे कुछ रूपये<br />के लिए<br />अपने से दूर नहीं करेगा<br />मैं हँस बोल<br />नहीं सकता तो क्या ? <br />इस घर को अपना<br />मानता हूँ<br />सदा घर की समृद्धी के लिए<br />परमात्मा से निरंतर प्रार्थना<br />करता हूँ<br />किसी और जगह जा कर<br />मुझे खुशी नहीं मिलेगी<br />उसकी ह्रदय से<br />निकली प्यार भरी<br />बातों ने<br />मुझे भाव विहल कर दिया<br />फोटो फ्रेम को मैंने<br />सीने से लगा दिया<br /><br /><br /><span style="font-weight:bold;">तेरी शादी किसी गधे से कर दूंगा (हास्य कविता)<br /></span><br />हँसमुखजी ने<br />बड़े शौक से गधा पाला<br />थोड़े दिनों तक तो बहुत<br />प्यार से रखा<br />फिर धीरे धीरे उससे<br />मोह कम हो गया<br />निरंतर उसे मारने<br />पीटने लगे<br />खाने को भी कम देते ,<br />घर से बाहर निकाल देते<br />गधा भी ढीठ था<br />प्रताड़ित होता रहता<br />भूखा रहता<br />पर जाने का नाम<br />ना लेता<br />पड़ोसी के घोड़े से<br />देखा ना गया<br />एक दिन<br />उसने गधे से कहा<br />क्यों निरंतर मार खाते हो ?<br />यहाँ से कहीं चले क्यों<br />नहीं जाते ?<br />गधा बोला मन तो<br />मेरा भी करता है<br />यहाँ से चला जाऊं<br />पर हँसमुखजी दिल के<br />बहुत अच्छे इंसान हैं<br />क्रोध तो<br />अपनी लडकी पर भी<br />करते हैं<br />उसे कहते हैं<br />तेरी शादी किसी गधे से<br />कर दूंगा<br />बस किसी दिन ज्यादा<br />भड़क जाएँ<br />क्रोध में मुझ से<br />अपनी लडकी की शादी<br />करवा दें<br />इसी इंतज़ार में<br />जाते जाते रुक जाता हूँ<br /><br /><br /><span style="font-weight:bold;">मनोरंजन, हँसमुखजी, हँसी, हास्य कविता, हास्य रचना हास्य<br /></span>मेरा जूता एक दिन बोला मुझ से<br />मेरा जूता<br />एक दिन बोला मुझ से<br />कब तक घिसोगे मुझको<br />मेरी प्रार्थना सुन लो<br />मेरे कष्ट थोड़े कम कर दो<br />सहने के लिए एक<br />साथी दे दो<br />जूते की एक और जोड़ी<br />खरीद लो<br />चलते चलते थक गया हूँ<br />कीचड,गोबर में<br />सनते,सनते उकता गया हूँ<br />धूल,मिट्टी से भरता हूँ<br />उफ़ करे बिना<br />पथरीले सफ़र पर<br />चलता हूँ<br />सर्दी,गर्मी,बरसात में<br />निरंतर मुझे घसीटते हो<br />कभी क्रोध दिखाने के लिए<br />नेताओं पर उछालते हो<br />कोई झगडा करे तो<br />निकाल कर मारते हो<br />मुझे खुश करने के लिए<br />थोड़ी सी पोलिश<br />लगाते हो<br />बदबूदार मोज़े सूंघते<br />सूंघते<br />आत्म ह्त्या का मन<br />करता<br />मेरी छाती जैसा तला<br />गम में फट ना जाए<br />उससे पहले थोड़ा सा<br />रहम कर दो<br />जूते की एक और जोड़ी<br />खरीद लो<br />सहने के लिए एक<br />साथी दे दो<br /><br /> <br /><br /><span style="font-weight:bold;">नेता सफ़ेद कपडे ही क्यों पहनते (हास्य कविता)<br /></span>हँसमुखजी<br />बहुत परेशान थे<br />समझ नहीं पा रहे थे<br />उनके देश में नेता सफ़ेद<br />कपडे ही क्यों पहनते<br />अपनी परेशानी का ज़िक्र<br />अपने नेता मित्र से किया<br />नेता मित्र ने<br />हँसते हुए जवाब दिया<br />बड़े भोले हो<br />इतना भी नहीं समझते<br />कॉमन सैंस काम में लो<br />कारण जान लो<br />हमारे दिल काले,धंधे काले<br />कारनामे काले,इरादे काले<br />ज़िन्दगी में<br />कोई और रंग भी होना<br />चाहिए<br />इसलिए कपडे सफ़ेद पहनते<br />अपने कालेपन को<br />निरंतर सफ़ेद कपड़ों से<br />छुपाने की कोशिश<br />करते<br /><br /> <br /><br /><span style="font-weight:bold;">सिर्फ गधे क्यों रेंक रहे हैं<br /></span>पशु मेले का उदघाटन<br />करने नेताजी पधारे<br />उनके आते ही सारे गधे<br />ढेंचू ढेंचू करने लगे<br />नेताजी चकरा गए<br />चमचे से पूछने लगे<br />बाकी जानवर चुप हैं<br />सिर्फ गधे क्यों रेंक<br />रहे हैं<br />चमचे ने अपने ज्ञान का<br />परिचय दिया<br />खुशी खुशी बताने लगा<br />हुज़ूर गधे<br />बिरादरी का रिवाज़<br />निभा रहे हैं<br />कोई भी जाति भाई<br />दिखता है<br />तो स्वागत में निरंतर<br />रेंक कर अपनत्व का<br />परिचय देते हैं<br />खुशी में रेंकते हैं<br /><br />हँसमुखजी ने प्रेमपत्र लिखा (हास्य कविता)<br />हँसमुखजी का<br />हाथ हिंदी में तंग था<br />फिर भी प्रेमिका को<br />हिंदी में प्रेम पत्र लिख दिया<br />तुम मेरी दिल लगी हो<br />स्वर्गवासी अप्सरा सी<br />लगती हो<br />तुम्हारे लिए चाँद तारे<br />तोड़ कर ला सकता हूँ<br />कोई नज़रें उठा कर<br />तुमको देखे ले तो<br />यमराज की तरह<br />जान भी ले सकता हूँ<br />प्रेमिका ने भी प्रेमपत्र का<br />जवाब प्रेम से दिया<br />ओ मेरे दिल के चौकीदार<br />मुझे पाना है तो<br />तुम्हें भी स्वर्गवासी होना<br />पडेगा<br />चाँद तारों को तोड़ने से<br />पहले<br />उन्हें छोटा कर पेड़ पर<br />लटकाना होगा<br />किसी की जान लेने से पहले<br />यमराज सा दिखना होगा<br />विवाह के लिए<br />भैंसे पर बैठ कर आना<br />पडेगा<br />अगला प्रेम पत्र लिखो<br />उसके पहले हिंदी को<br />सुधारना होगा<br /><br /><br /><span style="font-weight:bold;">हँसमुखजी का निशाना (हास्य कविता)<br /></span>हँसमुखजी पोते के साथ<br />क्रिकेट खेल रहे थे<br />गेंदबाजी कर रहे थे<br />गेंद कभी विकेट के<br />तीन फीट दायें<br />कभी तीन फीट बायें से<br />निकल रही थी<br />पोता परेशान हो गया<br />कहने लगा<br />दादाजी आप झूठ<br />बोलते हैं<br />एक भी गेंद विकेट पर<br />सीधे ड़ाल नहीं सकते<br />लेकिन डींग हांकते हो<br />आपने जवानी में कई शेर<br />सटीक निशाने से मारे<br />हँसमुखजी बोले<br />तुम आधा गलत<br />आधा ठीक कहते हो<br />शेर तो मैंने ही मारे<br />पर निशाना तब भी<br />ऐसा ही था<br />डर नहीं लगे इसलिए<br />शिकार पर जाने से पहले<br />जम कर शराब पीता था<br />नशे में<br />शेर होता कहीं और था<br />दिखता कहीं और था<br />दिखता तीन फीट बायें<br />होता तीन फीट दायें<br />शेर को निशाना लगाता<br />गोली सीधी शेर को<br />जाकर लगती<br />तीन फीट का हिसाब<br />अभी भी चल रहा है<br />पीना छोड़ दिया है<br />इसलिए<br />लाख कोशिशों के बाद भी<br />गेंद विकेट पर नहीं<br />लगती<br /><br /><span style="font-weight:bold;">डा.राजेंद्र तेला,"निरंतर"<br />"GULMOHAR"<br />H-1,Sagar Vihar<br />Vaishali Nagar,AJMER-305004<br />Mobile:09352007181</span>तेजवानी गिरधरhttp://www.blogger.com/profile/15920539204622934103noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7544291197153976893.post-58378909575904691232011-12-05T00:33:00.000-08:002011-12-05T00:40:30.527-08:00मुस्कुराइये, क्यों कि अजमेर में पधारे हैं<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhMYvt-IuJApczBcj8s9auTkl66yq67FqeFpYSMdFuNrY6VZKIcZ_hxYGjk4GjLT3lt7X2rThQlx9LsFaEb1zfxLSGbnQ4C6Sadk4NgCsvxTJFrO1IIEHN-G5NjcAsr83EidAvW6QCmgH4/s1600/Untitled.JPG"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 320px; height: 101px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhMYvt-IuJApczBcj8s9auTkl66yq67FqeFpYSMdFuNrY6VZKIcZ_hxYGjk4GjLT3lt7X2rThQlx9LsFaEb1zfxLSGbnQ4C6Sadk4NgCsvxTJFrO1IIEHN-G5NjcAsr83EidAvW6QCmgH4/s320/Untitled.JPG" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5682560496977360530" /></a><br />कहते है कि सीरत अथवा स्वभाव, चाहे किसी का हो, आसानी से बदलता नही हैंइस<br />विषय में राजस्थानी में एक कहावत बहुत मषहूर है जिसमें कहा गया है कि ‘जी का<br />पडया स्वभाव जावे जीवसै’ै अर्थात स्वभाव तो अंत तक साथ चलता हैं. अब आप इस षहर<br />को ही लेवें. यह षहर अपने हंसी मजाक, दिल्लगी से कभी बाज नही आता हैं. यहां जगह<br />जगह जो इष्तहार, पोस्टर, बोर्ड इत्यादि लगाए जाते है लोगबाग उसमें भी अनाधिकार चेष्टा<br />करके बदलाव कर देते हैं और अनायास ही हंसी-खुषी का माहौल पैदा होजाता हैं.<br />एक स्थान पर आसपास के गांववालें बेचने हेतु सरौली-चूसनेवालें-आम लेकर आते<br />थे और सडक किनारे ढेरी लगाकर बेचा करते थे. एक बार वही पास में ही किसी ने<br />अपनी मिल्कियत की धाक जमाने हेतु एक रास्ते पर बोर्ड लगा दिया जिस पर लिखा था<br />‘आम रास्ता नही है’ै’ इस सूचना को किसी मनचले ने बदलकर कर दिया ‘आम सस्ता नही<br />है’ै’ जब लोगांे ने देखा कि नीचे ढेरी लगाकर किसान आम बेच रहा है और उपर बोर्ड लगा<br />हुआ है कि आम सस्ता नही है ! तो एक रोज भीड इकटठा होगई. उनमें तरह तरह की<br />चर्चा चल पडी. इनमें से कुछ का कहना था कि जैसे केन्द्र सरकार फुटकर व्यापार में<br />वालमार्ट जैसी विदेषी कम्पनियों को लाकर छोटा व्यापार करनेवालों के साथ मखौल कर रही<br />है ऐसा ही मजाक यहां हो रहा हैं.<br />एक बार नगर के एक पार्क में परिषद ने बोर्ड लगवा दिया ‘इस पार्क में कुत्ुत्तों का<br />प्रव्रवेष्ेष वर्जित है’ै’ पता नही इस सूचना को ‘उन्हांेने’ पढा या नही लेकिन उन्होंने आना-जाना<br />जारी रखा. ठीक भी है चौपाएं है उन्हें कौन समझायें ? इस बारें में कइयों की तो यह राय<br />थी कि क्या पता उन्हें हिन्दी लिखना पढना आता भी है या नही क्योंकि आजकल चारों<br />तरफ अंग्रेजी का फैषन चल पडा हैं. खैर, जो भी हो. कुछ दिनों तो यह चलता रहा फिर<br />एक दिन किसी अधिक समझदार ने इस सूचना के नीचे लिख दिया ‘पढनेवेवाला बेवेवकूफूफ है’ै’.<br />इतना लिख देने के बाद आते-जाते कई लोग इन लाइनों को पढतो लेते लेकिन ऐसा<br />दिखाते गोया उन्होंने कुछ पढा ही नही. अब आप जानो कि खामेंखा मूर्ख कौन बनना<br />चाहेगा ? लेकिन ऐसा ज्यादा दिन नही चला. किसी ने नहलें पर दहला चलाते हुए इस<br />लाईन के नीचे लिख दिया ‘लिखनेवेवाला बेवेवकूफूफ है’ै’ अब यह पूरा ईष्तहार इस तरह बन<br />गया:-<br />‘इस पार्क में ं कुत्ुत्तों ं का प्रव्रवेष्ेष वर्जिर्तत है<br />पढनेवेवाला मूख्ूर्ख है<br />लिखनेवेवाला बेवेवकूफूफ है ’<br />देखा आपने ? कुत्तों पर बात चलते चलते कहां तक आ पहुंची. एक रोज सुबह की<br />सैर करनेवालों की भीड इस बोर्ड के सामने एकत्रित होगई. अपने देष में बात बिना बात<br />भीड इकटठा होना आम बात हैं. लोगों का कहना था कि एनडीए षासन के समय साहित्य<br />में बदलाव की बयार चली थी. उसी कडी में प्रसिद्ध कवियों के दोहें तक बदले जाने लगेवह<br />क्रम चालू रहा. मसलन पहले कभी एक दोहा हुआ करता था<br />‘पढोंगंगे लिखोंगंगे तो बनोंगंगे नवाब,<br />खेलेलोंगंगे कूदूदोंगंगे तो होअेओंगंगे खराब’<br />अब क्रिकेट के दिवानों ने इसे इस तरह से बदलने की ठानली<br />‘पढोंगंगे लिखोंगंगे तो रहोंगेंगे बेकेकार,<br />क्रिक्रकेटेट ही खेलेलोंगंगे तो बनोंगेंगंगे कुछुछ यार’.<br />वैष्वीकरण, उदारवाद एवं पूंजी के मिश्रण से बेकारी कहां तक पहुंच गई है<br />इसकी एक झलक एक चाय की थडी पर इस तरह देखने को मिल रही हैं. लिखा<br />हैः-<br />‘गुलुलामी की जंजंजीरों ं से,े,<br />स्वतंत्रंत्रता की षान अच्छीदो-<br />े-तीन हजार की नौकैकरी से,े,<br />चाय की दुकुकान अच्छी.’<br />इस षहर में पानवालें भी तरह तरह के इष्तहार लगाने के आदी रहे हैं. अब आप<br />षहर के मषहूर कंवरीलाल पानवालें को ही देखें. उसने पहले एक तख्ती टांगी थी जिस पर<br />लिखा था ‘आज नकद, कल उधार’. चूंकि दिनरात कैंची चलाता रहता था इसलिए थोडे<br />दिनों बाद इसे बदलकर दूसरी तख्ती लगादी, लिखा ‘उधार मोहेहब्बत की कैैंचंची है’. उस<br />दुकान पर अकसर एक पंडितजी आया करते थे. वह पान अक्सर उधारी में ही खाया करते<br />थे. लेकिन धर्मग्रन्थों की उनकी जानकारी की चारों तरफ धाक थी. बातों ही बातों में एक<br />दिन उन्होंने बताया कि कलियुग तो क्या उधारी का हिसाब किताब तो त्रेतायुग से चला<br />आरहा हैं. राजा दषरथ ने केकैयी को जो दो वर दिए थे वह उधार रहने दिये. जब राम<br />का राजतिलक होने लगा तो केकैयी ने मौका देखकर मांग लिए. उनका मानना था कि<br />उधारी से आप बच नही सकते. मोरारजी देसाई जब वित्तमंत्री थे तब विदेषों से कितना<br />कितना उधार लाते थेपरन्तु<br />उधार मांगनेवालों से तंग आकर कंवरीलाल ने थोडें दिनों बाद तीसरा इष्तहार<br />लगाया ‘उधार मांगंगकर षर्र्मिंदंदा ना करें’ं’ परन्तु मजे की बात देखिये कि जानकार तो रहे दूर<br />एक रोज एक अन्जान आदमी कंवरीलाल पानवालें के पास आया और कहा कि सौ रू.<br />उधार देना. कंवरीलाल भौंचक्का होकर उसकी तरफ देखने लगा और बोला कि ‘मैं तो<br />आपको जानता तक नही’ इस पर वह षख्स बोला कि ‘तभी तो आपसे मांग रहा हूं,<br />जानकार तो वैसे भी मुझे उधार देते नही’ देखी आपने इस षहर के निवासियों की हंसी<br />दिल्लगी और दिलेरी ?<br />यह षहर ज्यादातर नौकरी पेषेवालों का हैं. इसमें भी रोज रोज अप-डाउन करनेवालें<br />भी खूब हैं. सुबह सुबह ही घर से खाना बनवाकर ले आते हैे औेर दोपहर ऑफिस के<br />आसपास के किसी रेस्टोरेंट, होटल में बैठकर खाना खा लेते है और आखिर में चाय मंगा<br />कर घंटों बैठे रहते हैं. इस समस्या से निजात पाने के लिए होटलवालों ने अपने यहां बोर्ड<br />टंागने षुरू कर दिए जिस पर लिखा था ‘कृप्या यहां अपना खाना मना है’ै’ परन्तु जिसे<br />होषियारी करनी हो वह अपना रास्ता निकाल लेता हैे जैसे टूजी स्पैक्ट्म घोटालें में हुआलोगों<br />ने यहां भी अपना हिसाब बैठा लिया. एक रोज दो व्यक्ति होटल में घर का लाया<br />खाना खा रहे थे. इतने में मैनेजर ने आकर उन्हें टोका और कहा कि आप अपना खाना<br />यहां नही खा सकते. इस पर उनमें से एक व्यक्ति ने जवाब दिया कि मैं इसका लाया खाना<br />खा रहा हूं और यह मेरा खाना खा रहा है. माहौल बिगडने से बचाने हेतु मैनेजर बेचारा<br />चुपचाप अपनी मेज की तरफ चल दिया, क्या कहता ?<br />अपेक्षाकृत छोटें षहरों में जहां माल संस्कृति नही पनपी है वहां मनोरंजन के लिए<br />सिनेमा हॉल हैं. ऐसे ही एक स्थान न्यूमैजेस्टिक हॉल की बात हैं. वहां पिक्चर के टिकट<br />बिकने के समय अकसर बहुत भीड और धक्का-मुक्की होती थी. इसके लिए प्रबंधकों ने<br />वहां एक बोर्ड टांग दिया. ‘कृप्या टिकट खरीदने के लिए लाईर्नन में लगे’े . संयोग की बात<br />एक पिक्चर ऐसी आई कि बुकिंग खुलने के बाद भी एक आदमी के अलावा कोई नही<br />पहुंचा. वह व्यक्ति भी आकर दूर खडा होगया. काफी देर बाद बुकिंग क्लर्क ने उससे पूछा<br />कि क्या आपको टिकट खरीदना है ? उसके द्वारा हामी भरने पर क्लर्क ने कहा कि फिर<br />टिकट लेते क्यों नही हो ? तो उसने जवाब दिया कि यहां तो लिखा है कि टिकट खरीदने<br />के लिए लाईन में लगे, जब लाईन लगेगी तो टिकट लूंगा.<br />एक बार कोई प्रोग्राम देखने के लिए स्थानीय एडीटोरियम में जाना हुआ. प्रवेष पास<br />से था. काउन्टर पर मैं कुछ पूछने के लिए गया तो देखा कि वहां बहुत भीड हैं. सभी हॉल<br />से लौट लौटकर काउंटर पर आ रहे थे. उत्सुकतावष मैंने भी जानना चाहा कि आखिर क्या<br />बात है ? पता लगा कि वें पूछ रहे थे कि षांति कहां बैठी है ? क्योंकि हॉल में जगह जगह<br />लिखा है कि ‘कृप्या षांंिति के साथ बैठैठें’ं’. मैं सोचने लगा कि यह प्रॉबलम मेरे साथ तो नही<br />हेै क्योंकि मैं तो अपनी धर्मपत्नि के साथ था, अकेला होता तो ओैर बात थी.<br />यह षहर ऐतिहासिक एवं धार्मिक स्थल होने के साथ साथ पर्यटन के लिए भी मषहूर<br />हैं. इसलिए यहां धर्मषालाएं भी हैं ओैर होटलें भी. हालांकि अब कुछ धर्मषालाएं होटलों में<br />तब्दील होती जा रही है लेकिन फिर भी धर्मषालाओं में ठहरने का अपना महत्व हैं. मुझे<br />यह बात पता नही थी वहतो बातों ही बातों में एक दिन एक धार्मिक प्रकृति के व्यक्ति ने<br />मुझे बताई. उसका कहना था कि धर्मषालाओं में उपर जाने के लिए अकसर लिखा हुआ<br />मिलेगा ‘जीने का रास्ता’ जबकि होटलों में आप पायेंगे ‘लिफट यानि उपर जाने का रास्ता’<br />दोनों ही बातों का आध्यात्मिक महत्व हैं. समझाने के बावजूद बहुधा ऐसी गूढ बातें मेरी<br />समझ में नही आती.<br />एक सरकारी विभाग के कार्यालय में कामकाज कम ही था इसलिए बाबू वगैरह जब<br />राजनीति एवं क्रिकेट की बातें करते करते उकता जाते तो साहब के पीए के कमरें में जाकर<br />मौसम अथवा पिक्चर संबंधी बातें करने लगते या और कोई टॉपिक पकड लेते. वही चाय,<br />मूंगफली इत्यादि मंगवा लेते. इससे पीए के कामकाज में भी दखल होता. एक रोज उसने<br />अपने कमरें मंे एक तख्ती टांगदी लिखा ‘यहां फालतू ना बैठैठे’. कमचारियों को यह नागवार<br />गुजरा. उनमें से एक कर्मचारी इस सूचना में से ‘ना’ षब्द को उठाकर नगर के बडे<br />हस्पताल लेगया. अब यहां रह गया ‘यहां फालतू बैठैठे’ उधर हस्पताल में जहां लिखा था ‘चुपुप<br />रहिये’ उसकी जगह अब होगया ‘चुपुप ना रहिये’े’, इतना ही नही किसी मनचले ने इसके नीचे<br />ही दीवार पर ही कोयले से लिखकर पूरा संदेष यों कर दिया<br />‘चुपुप ना रहिये<br />‘कहिए जी कुछुछ तो कहिए’<br />ऐसेसी भी क्या बात है ?’.<br />एनडीए षासन की बात हैं. एक बार एक सरकारी कार्यालय में एक छुटभैयें नेताजी<br />मिल गए. वह पहले दुसरें दलकी सरकार के साथ थे परन्तु सत्ता बदलते ही रातोरात इधर<br />आगए. कहने लगे उस सरकार ने गरीबी हटाने के लिए क्या किया, सिर्फ जगह जगह<br />‘गरीबी हटाओ’े’ के बोर्ड लगा दिए. क्या मिट गई गरीबी ? उस दिन जरा ज्यादा ही जोष में<br />थे. आगे कहने लगे अब हम भ्रष्टाचार सहन नही करेंगे. उपर से आदेष हुए है इसलिए<br />हर कार्यालय में ऑफीसर के कमरें में तख्तियां लगवाई हैं. उनके जाने के बाद उत्सुकतावष<br />मेैं साहब के चैम्बर मंे देखने गया. सामने ही बडे बडे अक्षरों में लिखा था ‘रिष्वत दे ना<br />लेनेना पाप है’ पढकर मैं मुस्कराएं बगैर नही रह सका. सोचने लगा क्या भूलसे पेंटर से यह<br />गलती हुई है या जानबूझकर किया गया कोई ‘छिपा एजेंडा’ हैंकुछ<br />लोगों की हंसी दिल्लगी की इंतहा देखिए. एक ठाकुर साहब के लडके की षादी<br />थी. ठाकुर साहब ने निमंत्रण पत्र में ही लिखवा दिया कि ‘कृप्या बारात में दारू पीकर नही<br />आएं’ इसकी क्या वजह थी अब इस पचडें में आप पडकर क्या करंेगे ? जब लोगांे को यह<br />कार्ड मिले तो उन्होंने तरह तरह के अनुमान लगाने षुरू कर दिए. मसलन एक सज्जन का<br />अनुमान था कि आजकल विवाह आदि में दारू इत्यादि का प्रचलन बढने से खूब धमाल होने<br />लगे हेै षायद इसीलिए ठाकुर साहब ने यह सब किया है जबकि ठाकुर साहब के रिष्तेदार<br />रामसिंहजी का दूसरा ही अनुमान था. उनका मानना था कि घर से पीकर आने के लिए<br />इसलिए मना किया होगाा कि जब बारात में खूब पीने पिलाने को मिलेगा ही तो नाहक घर<br />से पीकर आने की क्या जरूरत है ?<br />रेलवे में पहले यह स्लोगन लिखा मिलता था ‘रेलेलवे आपकी सम्पति है कृपया इसका<br />समुुिचित ढंगंग से इस्तैमैमाल करें’ं . लोगों ने इस ‘आपकी’ का कुछ और ही मतलब निकाल<br />लिया और जहां मौका देखा वही बल्ब निकाल लिया, कही टॉयलेट का षीषा लेगए. अब<br />रेलवे कारखाने में तैयार डिब्बों में यह नया स्लोगन लिखना षुरू किया है ‘कृपया कोचेच एवं<br />षौचैचालय को साफ रखने में हमारी मदद करें’ं परन्तु किसी ने इसमें सुधार करके यों कर<br />दिया ‘कृपया कोचेच एवं षौचैचालय को साफ करने में ें हमारी मदद करें’ं’.<br />यों होने को ‘कानूनून के सामने सब बराबर है’ै’, थानों पर लिखा ‘मेरेरे योग्ेग्य सेवेवा’,<br />‘दहेजेज लेनेना अपराध है’ै’ ‘यहां थूकूकना मना है’ै’ आदि स्थायी, वैधानिक नारंे भी है जो सिर्फ<br />देखने के काम आते हैंइसलिए<br />अब नगरवासियों एवं निगम को कुछ वर्षेंा पूर्व पुज्य श्री मोरारीबापू का पटेल मैदान<br />में कथा करते वक्त दिया गया यह सुझाव मानकर हिन्दी, इंगलिष, तमिल, कष्मीरी एवं<br />मणिपुरी भाषा में रेलवे स्टेषन, बस स्टैन्ड तथा षहर के प्रमुख 2 चौराहों पर निम्नलिखित<br />बैनर अवष्य लगाने चाहिए.<br />मुस्कुराइये, क्यों कि आप अजमेर में पधारे हैं<br /><span style="font-weight:bold;">-ई. शिव शंकर गोयल,<br />फ्लैट न. 1201, आई आई टी इंजीनियर्स सोसायटी,<br />प्लाट न. 12, सैक्टर न.10, द्वारका, दिल्ली- 75.<br />मो. 9873706333</span>तेजवानी गिरधरhttp://www.blogger.com/profile/15920539204622934103noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7544291197153976893.post-29041559002396009392011-11-30T05:33:00.000-08:002011-11-30T05:46:01.465-08:00क्षणिकाएं<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjb1n41p_rfkBndYKM1P8sVJvBNP26fiUXdcFVE7lrlIqEVKY2TL3bcCWVplsaWo2CNv6ONoTk7nJm2kNJLwixlTy4CJ03_7XeHtA0mckJZYZwr_TLz7RB9TYZR2pGMhDWMzoLq12M8eU8/s1600/dr.+r+tela.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 114px; height: 154px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjb1n41p_rfkBndYKM1P8sVJvBNP26fiUXdcFVE7lrlIqEVKY2TL3bcCWVplsaWo2CNv6ONoTk7nJm2kNJLwixlTy4CJ03_7XeHtA0mckJZYZwr_TLz7RB9TYZR2pGMhDWMzoLq12M8eU8/s320/dr.+r+tela.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5680784654215902514" /></a><br /><span style="font-weight:bold;">बड़े अरमानों से<br /></span><br />बड़े अरमानों से<br />हमने उन्हें फूल<br />भेंट किये<br />भोलेपन से वो<br />पूछने लगे<br />कहाँ से खरीदे ?<br />हमें भी किसी<br />ख़ास को देने हैं<br />बहुत शिद्दत से<br />बताने लगे<br />****<br /><span style="font-weight:bold;">अन्धेरा<br /></span><br />लोग घरों को रोशन<br />करते हैं<br />दिल-ओ-दिमाग में<br />अन्धेरा रखते हैं<br />****<br /><span style="font-weight:bold;">मैं चाहूँ तो हो जाए<br /></span><br />मैं चाहूँ हो जाए<br />कोई और चाहे<br />तो क्यों हो जाए<br />****<br /><span style="font-weight:bold;">ज्यादा देने के लिए<br /></span><br />ज्यादा देने के लिए<br />कम लेना सीखो<br />जो मिले उसे<br />खुशी से कबूल<br />कर लो<br />****<br /><span style="font-weight:bold;">कुर्सी के लिए<br /></span><br />सब कुर्सी के लिए<br />लड़ते<br />उससे कोई नहीं<br />पूछता<br />उस पर बैठने वाला<br />कैसा होना चाहिए<br />****<br /><span style="font-weight:bold;">प्रेम की परिणीति<br /></span><br />प्रेमियों के<br />प्रेम की परिणीति<br />प्रेमी प्रेमिका<br />दोनों की बेचैनी<br />****<br /><span style="font-weight:bold;">देता इश्वर है<br /></span><br />देता इश्वर है<br />खाते,पचाते,<br />भोगते,हम हैं<br />फिर कहते<br />हमारा है<br />****<br /><span style="font-weight:bold;">सहानभूती<br /></span><br />सहानभूती के<br />दो शब्द दिल को<br />राहत देते हैं<br />उसमें भी लोग<br />कंजूसी करते हैं<br />****<br /><span style="font-weight:bold;">दुविधा<br /></span><br />दुविधा मैं पैदा हुआ<br />दुविधा में जीता रहा<br />दुविधा में मर गया<br />करूँ ना करूँ<br />के जाल में फंसा रहा<br />****<br /><span style="font-weight:bold;">सामंजस्य बिठाओ <br /></span><br />सामंजस्य बिठाओ <br />नहीं तो विद्रोह करो<br />या फिर सहन करो<br /><br /><span style="font-weight:bold;">क्या मुझ से पूछ कर,तुमने मुझे जन्म दिया ?</span><br />क्या मुझ से पूछ कर<br />तुमने मुझे जन्म दिया ?<br />दुनिया में लाने से पहले<br />तुमने किस से पूछा<br />बेटे ने ,पिता से<br />क्रोध में प्रश्न किया<br />व्यथित पिता से<br />रहा ना गया<br />आँखों में आंसू लिए<br />सहमते हुए उत्तर दिया<br />जब राम,कृष्ण,बुद्ध,<br />महावीर के पिता ने<br />किसी से नहीं पूछा<br />मैं किस से पूछता ?<br />मैंने केवल संसार के<br />नियम का पालन किया<br />परमात्मा की<br />इच्छा का सम्मान किया<br />अगर मुझे पता होता<br />तुम्हारे जैसी<br />संतान का पिता<br />कहलाना पडेगा<br />संतान के हाथों निरंतर<br />प्रताड़ित होना पडेगा<br />परमात्मा के नियम को<br />तोड़ देता<br />विवाह के बंधन में<br />कभी नहीं बंधता<br />इस तरह<br />अपने खून के हाथों<br />हर दिन तिल तिल कर<br />ना मारा जाता<br />तुम अपनी संतान से<br />पूछ कर उसे जन्म देना<br />वो पूछे तो<br />खुशी से सुन लेना<br />उत्तर में<br />उसे शाबाशी देना<br /><br /><span style="font-weight:bold;">इश्वर भक्ती में डूबा रहा<br /></span><br />प्यासे को<br />पानी नहीं पिलाया<br />भूखे को<br />भोजन नहीं कराया<br />निरंतर<br />इश्वर भक्ती में डूबा रहा<br />स्वर्ग के<br />सपने देखता रहा<br />परमात्मा ने<br />भक्ती का प्रसाद दिया<br />मरणोपरांत उसे<br />नरक में बसा दिया<br /><br /><span style="font-weight:bold;">कितना भी दूर रहो नज़रों से<br /></span><br />कितना भी<br />दूर रहो नज़रों से<br />हमें दिल के पास<br />पाओगे<br />हम कद्रदां तुम्हारे<br />इतने बेदिल नहीं<br />रुसवा<br />हो जाएँ तुमसे<br />निरंतर तुम्हें मंजिल<br />समझा<br />तुम्हें पाए बिना कैसे<br />रास्ते से भटक जाए<br /><br /><span style="font-weight:bold;">बराबरी<br /></span><br />ऊंचे आसन पर<br />बैठ कर<br />धर्म गुरु प्रवचन<br />देते हैं<br />सब से बराबरी का<br />व्यवहार करो<br />*****<br /><span style="font-weight:bold;">फुर्सत<br /></span><br />हर आदमी<br />हंसना चाहता है<br />मगर रोने से<br />फुर्सत नहीं मिलती<br />*****<br /><span style="font-weight:bold;">मेरा दुःख<br /></span><br />हर आदमी सोचता<br />मेरा दुःख सबसे<br />ज्यादा<br />****<br /><span style="font-weight:bold;">गति<br /></span><br />घायल की<br />गति घायल जाने<br />जो मर गया<br />उसकी<br />गति कौन जाने ?<br />****<br /><span style="font-weight:bold;">डाक्टर<br /></span><br />इंतज़ार बीमार का<br />करता<br />इलाज बीमारी का<br />करता<br />****<br /><span style="font-weight:bold;">भूख<br /></span><br />भूख इंसान की<br />सबसे बड़ी बीमारी<br />अगर भूख नहीं होती<br />कोई भूखा नहीं रहता<br />झगडा फसाद कभी<br />नहीं होता<br />हर शख्श प्रेम से<br />रहता<br />(पेट,धन,पद,बल,काम,<br />ख्याती और की भूख)<br />****<br /><span style="font-weight:bold;">ज़ल्दी<br /></span><br />यात्रियों को<br />मंजिल पर<br />पहुँचने की ज़ल्दी<br />पहुँच गए तो घर<br />लौटने की ज़ल्दी<br />*****<br /><span style="font-weight:bold;">जिसे मिल जाता<br /></span><br />जिसे मिल जाता<br />वो खुश होता<br />मौत के बारे में ऐसा<br />कोई ना कहता<br />****<br /><span style="font-weight:bold;">इतिहास<br /></span><br />इतिहास<br />भविष्य के लिए<br />आगाह करता है<br />विडंबना है<br />कोई ध्यान नहीं<br />देता<br />****<br /><span style="font-weight:bold;">ख्याति<br /></span><br />इंसान की ख्याति<br />उसके पहुँचने से पहले<br />पहुँचती<br />उसके जाने के बाद भी<br />रहती<br />****<br /><span style="font-weight:bold;"><br />हाइकु</span><br />क्यों लिखू हाइकु<br />जब क्षणिका मेरे पास<br />क्यों लूं उधार<br />जब मेरी अपनी<br />मेरे साथ<br /><br /><span style="font-weight:bold;">अब तसल्ली मुकाम मेरा<br /></span><br />अब ना पाने की<br />ख्वाइश<br />ना रोने की ज़रुरत<br />मुझको<br />ना ग़मों की दहशत<br />ना मंजिल की तलाश<br />मुझको<br />अब तसल्ली मुकाम<br />मेरा<br />खुश हूँ उसमें<br />जो मिला,ना मिला<br />निरंतर ज़िन्दगी में<br />मुझको<br /><br /><span style="font-weight:bold;">क्या क्या छुपाऊँ ?<br /></span><br />क्या क्या<br />छुपाऊँ ?<br />कब तक<br />छुपाऊँ?<br />किस किस से<br />छुपाऊँ ?<br />क्या झूठ का<br />आवरण ना हटाऊँ<br />मन की व्यथा<br />बढाऊँ<br />कभी चैन ना पाऊँ<br />निरंतर<br />बेचैन जीऊँ<br />संसार से बेचैन<br />जाऊं<br /><br /><span style="font-weight:bold;">धूल के कण से कण मिला<br /></span><br />धूल के<br />कण से कण मिला<br />मिलकर गुबार बना<br />तेज़ हवाओं ने उसे<br />बवंडर बना दिया<br />धूल का कण<br />अहम् अहंकार से<br />भर गया<br />अपने को शक्तिशाली<br />समझने लगा<br />संसार को अपने<br />अधीन करने की इच्छा में<br />वीभत्स रूप दिखाने लगा<br />जो भी सामने आया<br />उसे ढक दिया<br />अपने रंग में रंग दिया<br />इंद्र ने आकाश से देखा<br />धूल का मंतव्य समझ गया<br />घमंड को तोड़ने<br />वर्षा को भेज दिया<br />वर्षा ने भी रूप अपना<br />दिखाया<br />शीतल जल से<br />बवंडर को ठंडा किया<br />उसके घमंड को<br />शांती से दबा,धूल को<br />पानी में बहा दिया<br />दुनिया को दिखा दिया<br />अहम् अहंकार का<br />स्थान नहीं दुनिया में<br />ठंडक से<br />अग्नि भी कांपती<br />शांती निरंतर<br />विनाश से बचाती<br />(धूल से मेरा अभिप्राय ,<br />निकम्मे,भ्रष्ट एवं निम्न स्तर और सोच वाले<br />व्यक्तियों से है ,<br />जो येन केन प्रकारेण,राजनीती की सीढियां चढ़ कर,<br />सत्ता के गलियारों में पहुँचते हैं<br />और सब कुछ अपने अधीन करने का प्रयास करते हैं,<br />वर्षा के ठन्डे पानी से अभिप्राय,<br />सब्र से जीने वाली जनता से है ,<br />प्रजातंत्र में ,जनता उन्हें ठन्डे तरीके से<br />चुनाव के समर में उखाड़ फैंकती है)<br /><br /><span style="font-weight:bold;">राम -कृष्ण दोनों ने कहा<br /></span><br />राम ने नहीं कहा<br />मंदिर में बिठाओ<br />मुझको<br />कृष्ण ने नहीं कहा<br />मंदिर में सजाओ<br />मुझको<br />राम-कृष्ण<br />दोनों ने कहा<br />मंदिर की<br />आवश्यकता नहीं<br />हमको<br />निरंतर दिल में<br />बसाओ हमको<br /> <br /><span style="font-weight:bold;">हँसमुखजी का पड़ोसी से झगडा हो गया(हास्य कविता)<br /></span><br />पतले दुबले हँसमुखजी का<br />मोटे गैंडे जैसे पड़ोसी से<br />झगडा हो गया<br />पड़ोसी ने उन्हें उड़ता हुआ<br />तिनका कह दिया<br />हँसमुखजी का<br />चेहरा लाल हो गया<br />उनका पुरुषत्व जाग गया<br />क्रोध में उन्होंने पड़ोसी को<br />धरती का बोझ करार दे दिया<br />पड़ोसी की पत्नी ने सुना,तो<br />वो भी मैदान में कूद पडी<br />पती को यथा शरीर तथा नाम<br />देने से बिफर गयी<br />पड़ोसी के बोलने के पहले ही<br />उसने हंसमुखजी को जवाब दे दिया<br />धरती के बोझ होगे तुम<br />हँसमुखजी की पत्नी कम नहीं थी<br />कोई महिला<br />उसके पती को कुछ कह दे<br />बर्दाश्त नहीं हुआ<br />उसने लपक कर पड़ोसी को<br />उड़ता हुआ तिनका कह दिया<br />बस हाहाकार मच गया<br />पड़ोसन बोली ठीक से बात करो<br />इतने मच्छर जैसे भी नहीं हैं कि<br />इन्हें उड़ता हुआ तिनका कहो<br />बात बढ़ती गयी<br />दूसरा पड़ोसी सारी बात<br />सुन रहा था<br />उससे रहा नहीं गया<br />वो बीच में कूदा,<br />दोनों को शांत किया<br />फिर हँसमुखजी की पत्नी से बोला<br />आप इन्हें उड़ता हुआ तिनका<br />मत कहिये ,<br />पड़ोसी की पत्नी को कहा<br />आप हँसमुखजी को<br />धरती का बोझ नहीं कहिये<br />दोनों में राजीनामा कराया<br />दोनों ने हाथ मिलाया<br />पहले रहते थे<br />निरंतर वैसे ही रहने लगे<br />लोग हँसमुखजी को<br />उड़ता हुआ तिनका<br />पड़ोसी को<br />धरती का बोझ<br />कहने लगे<br /><br /><span style="font-weight:bold;"><span style="font-weight:bold;">मनोरंजन, हँसमुखजी, हँसी, हास्य कविता, हास्य रचना हास्य<br /></span><br /></span>क्यों कहते हो ?मुझसे वादा करो<br />क्यों कहते हो ?<br />मुझसे वादा करो<br />कभी ना छोड़ोगे मुझको<br />मरते दम तक साथ दोगे<br />क्यूं बहम रखते हो?<br />हमारी मोहब्बत पर<br />यकीन रखो<br />फिर भी दिल ना माने तो<br />दुआ खुदा से करो<br />साथ देंगे तुम्हारा<br />जब तक खुदा चाहेगा<br />गर फैसला कर लिया<br />उसने<br />दुनिया से जाना हमको<br />सुकून हमें भी नहीं<br />मिलेगा<br />दिल हमारा भी रोयेगा<br />निरंतर<br />तुमसे मिलने का इंतज़ार<br />करता रहेगा<br /><br /><span style="font-weight:bold;">हमसे रहा ना गया<br /></span><br />हमसे रहा ना गया<br />उनकी तारीफ़ में<br />एक शेर पढ़ दिया<br />उन्होंने उसे<br />इज़हार-ऐ-मोहब्बत<br />समझ<br />हमसे मुंह फिरा लिया<br />कैसे समझाऊँ उन्हें ?<br />इज़हार-ऐ-मोहब्बत नहीं<br />इज़हार-ऐ-इज्ज़त थी<br />इज्ज़त बख्शना भी<br />गुनाह हो गया<br />हकीकत बयान करना<br />दर्द-ऐ-दिल बन गया<br /><span style="font-weight:bold;">डा.राजेंद्र तेला,"निरंतर" <br />"GULMOHAR"<br />H-1,Sagar Vihar<br />Vaishali Nagar,AJMER-305004<br />Mobile:09352007181</span>तेजवानी गिरधरhttp://www.blogger.com/profile/15920539204622934103noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-7544291197153976893.post-81339920247300845422011-11-26T23:12:00.001-08:002011-11-26T23:12:55.049-08:00बिगाड के डर से ईमान की बात नही कहोगे ?<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhY_v-QIef8mIRKCCIQy4y2SLyFCM3a28dvGoQRlVKTRJMg4NKLp3H2EeQycbCDNx1c5LxOGezEtdi4Zq6ajO1bRAYq4JMKLPISmeqGiDeaWpQX_wBDovKxRhbsGNkbApSVqm6H_2DG730/s1600/s+s+goyal+1.JPG"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 172px; height: 202px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhY_v-QIef8mIRKCCIQy4y2SLyFCM3a28dvGoQRlVKTRJMg4NKLp3H2EeQycbCDNx1c5LxOGezEtdi4Zq6ajO1bRAYq4JMKLPISmeqGiDeaWpQX_wBDovKxRhbsGNkbApSVqm6H_2DG730/s320/s+s+goyal+1.JPG" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5679570099819032418" /></a><br />अटल बिहारी बाजपेयी के षासन के वक्त की बात हैं. इतिहास,<br />साहित्य आदि विषयों एवं विभिन्न क्लासों की पाठय पुस्तकों इत्यादि में संघ<br />परिवार की विचारधारा के अनुरुप धडाधड बदलाव किये जारहे थे, ऐसे ही<br />एक बदलाव में मुंषी प्रेमचन्द की एक कहानी ‘पंचंच परमेष्ेष्वर’ को पाठय<br />पुस्तकों से हटा कर बीजेपी की महिला नेत्री श्रीमति कुसुम प्रषाद की कोई<br />कहानी लगादी गई थी जिस पर राज्य सभा में प्रष्न उठाया गया, तब बहस<br />के दौरान बोलते हुए बीजेपी नेत्री श्रीमति सुषमा स्वराज ने कम्युनिस्ट सदस्यों<br />की तरफ मुखातिब होते हुए कहा कि आप लोग कब तक मुंषी प्रेमचन्द को<br />लिए बैठे रहोगे ? अब उन से आगे बढियें, याने उनके कथानुसार मुंषी प्रेम<br />चन्द अब प्रासंगिक नही रहेइसमें<br />सबसे दिलचस्प बात यह रही कि अधिकांष कांग्रेसी तब भी उस<br />संसदीय बहस में या तो मौन रहे या विषय को घुमाते फिराते रहे जैसे कि<br />इमराना प्रकरण में उनका रवैया था, किसी भी कांग्रेसी सदस्य ने इस प्रकरण<br />में स्पष्टरुप से अपनी राय नहीदी और खेद का विषय हैं कि श्री मुलायमसिंह<br />यादव भी अपने वोट बेैंक बचाने के भ्रम में टालमटोल का रवैया अपनाते<br />रहेप्रसंगवष<br />देखें तो मुंषी प्रेमचन्द जी की कहानी ‘पंचंच परमेष्ेष्वर’ आज<br />भी उतनी ही प्रासंगिक हैं जितनी कि उस समय थी जब इसे लिखा गया थाकहानी<br />के अनुसार एक गांव के दो प्रभावषाली व्यक्ति, अलगू चौधरी एवं<br />जुम्मन षेख गहरे दोस्त थे, जुम्मन षेख अपनी बेवा खाला की जमीन हडप<br />लेता हैं तो खाला औरों के साथ साथ अलगू चौधरी से भी न्याय की गुहार<br />लगाती हैं, चौधरी पंचायत में अपने मित्र के विरुद्ध बोलने में आनाकानी<br />करता हैं तो खाला उसे कहती है ं ‘क्या बिगाड के डर से ईर्ममान की बात नही<br />कहोगेगे ?’ इस ललकार का असर चौधरी पर होता है ं और भरी पंचायत में<br />उसे न्याय की गुहार सुननी पडती हैं और वह अपने परम मित्र जुम्मन षेख<br />के विरुद्ध फेैसला देता हैंइमराना<br />प्रकरण में कांग्रेस की चुप्पी रहस्यमय हैं. वह षाहबानो प्रकरण<br />में धार्मिक कटटरवादियों के सामने घुटने टेक कर गलती कर चुकी हैं उसने<br />राजीव गांधी के षासन के दौरान संविधान संषोधन तक करा दिया था. इसी<br />तरह समाजवादी मुलायमसिंह यादव, दारुल उलूम देवबन्द के फतवें को यह<br />कह कर उचित ठहरा रहे हैं कि यह विद्वान लोगों द्वारा दिया गया आदेष हैं<br />इसलिए सही ही होगाइध्<br />ार संघ परिवार इस प्रकरण की आड में एक बार फिर ‘सामान्य<br />आचार संहिता’ की बात कर रहा हैं. उसे इमराना से कोई हमदर्दी नही हैं,<br />उसे अपने छिपे एजेन्डें से मतलब हैं वर्ना पिछले कुछ सालों में राजस्थान एवं<br />हरियाणा के कई गांवों की विभिन्न खापों, जाति पंचायतों ने अपने अलग<br />अलग प्रकरण, गुडिया इत्यादि, में महिलाओं कंे विरुद्ध कई फैेसले दिये हैं<br />जिनके खिलाफ संघ परिवार ने आजतक कुछ नही कहा हैं और कहे भी कैसे<br />? स्वयं उसकी विचार धारा में ही स्त्री को पुरुष के मुकाबले गौण माना गया<br />हैं. वह उन सभी धार्मिक ग्रन्थों एवं स्मृतियों की ऐसी सभी बातों का आंख<br />मीच कर समर्थन करता हैं जिसमे कहा गया है ‘स्त्री षूद्रों न धीयाताम ?’<br />अर्थात स्त्री और षूद्र को पढाना नही चाहिए ! वजह ? स्त्री और षूद्र को<br />पढाया जायगा तो वह सेवा के काम के नही रहेंगे, दलील करने लगेंगेवैसे<br />संघ परिवार के कुछ विद्वानों की दलील हैं कि हमारी संस्कृति में<br />स्त्री का बहुत उॅचा स्थान था, स्त्री घर की स्वामिनी होती थी, गार्गी आदि<br />स्त्रियां वेदों की व्याख्या करती थी, लीलावती ने गणित लिखी थी, यह तो<br />विदेषी संस्कृति का फल था कि स्त्रियों को पराधीन बना दिया गया’ लेकिन<br />यह विद्वान यह नही बताते कि मनुस्मृति क्या अंग्रेजों या औरंगजेब ने लिखी<br />थी ? या विवाह में कन्या दान के पुन्य का विधान मुगलों ने किया था ?<br />इतना तो यह जानते ही है कि दान या मोल तोल कभी स्वतन्त्र व्यक्तियों का<br />नही किया जा सकतासन<br />2004 के लोक सभा चुनाव के दौरान उत्तर प्रदेष बीजेपी के<br />अध्यक्ष विनय कटियार ने श्रीमति सोनिया गॉधी के विदेषी मूल का मुद्धा<br />उठाते हुए स्त्रियों के प्रति अपनी संकुचित विचार धारा का परिचय दिया था<br />और कहा था कि क्लियोपेट्ा, गांधारी ;?द्ध इत्यादि की तरह ही सोनिया गांधी<br />भी अनिष्टकारी हैं और इनके होने से देष में विपत्ति ही आयेगी. श्रीमति<br />सुषमा स्वराज ने तो यहां तक कह डाला कि अगर श्रीमति सोनिया गांधी ने<br />राज संभाला तो वह अपने बाल कटवाकर, सफेद साडी पहन लेगी, फर्ष पर<br />सोयेगी इत्यादि, इत्यादिसन<br />1962 में चीनी आक्रमण के समय तत्कालीन जनसंघ ने लखनउॅ<br />मे ं ‘मां के अंांासू’ू’ नाम से एक प्रदर्षनी लगाई थी जिसमें महिलाओं के प्रति<br />अपमानजनक उद्धरण दिए गए थे, आज भी संघकी विचार धारा में महिलाओं<br />का कोई स्थान नही है. यह सती होने का तो समर्थन करते हैं परन्तु सता<br />होने के लिए कुछ नही करतेप्रसिद्ध<br />लेखिका और कादम्बिनी की संपादक श्रीमति मृणाल पान्डे ने<br />अपने एक लेख में इसी मनोवृति का उल्लेख करते हुए पौराणिक कथाओं से<br />कुछ उद्धरण दिये हैं जिसमे उन्होंने परषुराम की माता रेणुका एवं ऋषिपत्नि<br />अहिल्या का उल्लेख करते हुए प्रष्न उठाया हैं कि इन दोनों का ही षीलभंग<br />पुरुषों ने किया लेकिन हमारे यह ग्रन्थ पुरुषों की बजाय स्त्रियों को ही क्यों<br />दंडित करते हैं ? अहिल्या पाषाण क्यों बनी ? जिन्होंने उसका षील भंग<br />किया उन्हे क्या दंड मिला ? जब तक हम इस मानसिकता का विरोध नही<br />करेंगे तब तक हम इमराना के स्त्रियोचित हक के पक्ष में आवाज कैसे उठा<br />पायंेंगे ?<br />वर्तमान में राजस्थान में घटित भंवरीदेवी प्रसंग में जनता एवं भंवरी के<br />बिलखते बच्चें कांग्रेस एवं बीजेपी दोनों ही दलों से पूछ रहे है कि ‘क्या<br />बिगाड के डर से ईर्ममान की बात नही कहोगेगे ?’<br /><span style="font-weight:bold;">-ई. शिव शंकर गोयल,<br />फ्लैट न. 1201, आई आई टी इंजीनियर्स सोसायटी,<br />प्लाट न. 12, सैक्टर न.10, द्वारका, दिल्ली- 75.<br />मो. 9873706333</span>तेजवानी गिरधरhttp://www.blogger.com/profile/15920539204622934103noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7544291197153976893.post-58060399336290216072011-11-23T17:57:00.000-08:002011-11-23T17:59:05.672-08:00तू ने हीरा जनम गवायों रे !<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjTUruHkxI9DCAkCDgjxHhdC0Og-BQLP7nFsnA4_mTC2ovnznG8-7Y7qXl6HS2Dz3Os2i8_2Uu7i_bK0HdtD9ELJ1jHb3fA5g_wGGn1xi_2GUloa36xsr4q9iU6G0PlM2dA2ddPIkYWXGE/s1600/s+s+goyal.JPG"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 320px; height: 214px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjTUruHkxI9DCAkCDgjxHhdC0Og-BQLP7nFsnA4_mTC2ovnznG8-7Y7qXl6HS2Dz3Os2i8_2Uu7i_bK0HdtD9ELJ1jHb3fA5g_wGGn1xi_2GUloa36xsr4q9iU6G0PlM2dA2ddPIkYWXGE/s320/s+s+goyal.JPG" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5678375974046058578" /></a><br />मेरे लाडलें को मुझसे सख्त षिकायत हैं. उसका कहना है कि मेरे पिताश्री की वजह<br />से उसका स्टैन्डर्ड डाउन हुआ हैं. सांयकालीन क्लब की मित्रमंडली तथा ‘जिम’ में उसकी<br />हंसाई होती हैं. उसकी यह षिकायत इस वजह से नही है कि ‘वह अपने माउथ में चांदंदी<br />का चम्मच लेकेकर पैदैदा नही हुअुआ’ याकि मैंने उसे किसी इन्टरनेषनल कान्वेंट स्कूल में नही<br />पढाया जहां उसे ‘जैकैक एन्ड जिल, वैन्ैन्ट अपटू हिल’ तथा ‘बा बा ब्लैकैक षीप, हैवैव यू ऐनेनी<br />वूलूल’ जैसी कविताएं रटाई जाती. उसका गिला तो कुछ और ही है. उसका ‘फन्डा’ यह है<br />कि हालांकि मेरे पिताश्री देष की आजादी के पूर्व की पैदाइष है फिर भी उनका नाम उन<br />स्वतंत्रता संग्राम सैनानियों की लिस्ट में नही है जो सन 1947 के बाद जंम लेकर भी<br />सैनानियों की पेंषन धडल्ले से उठा रहे हैं. इसको लेकर उसे बडी ग्लानि होती हैं. इन्ही<br />तथाकथित सैनानियों में से साठ-सत्तर की उम्र के कई ‘योद्धा’ तो भगतसिंह के साथ जेल<br />में रहने की कसमें खाते फिर रहे है ओैर जहां तहां उस समय के किस्सें कहानियां लोगों को<br />सुनाते रहते हेै, गोया हूबहू वह घटना उनके सामने ही हुई हो जबकि हकीकत में भगतसिंह<br />की षहादत को ही 80 वर्ष से उपर हो चुके हैंइतना<br />ही नही मेरें पुत्रका उलाहना यह भी है कि उसके दोस्तों में उसकी नाक तब<br />नीची होजाती है जब उनको पता लगता है कि आज तक मेरे घर का टेलीफोन कभी ‘टेपेप’<br />नही हुआ. उसका कहना है कि इस बात पर उसकी मम्मी को भी किटी पार्टी में कई बार<br />नीचा देखना पडा हैं. उसे कितने बहानें बनाने पडे यह तो वही जानती हैं. जब तक<br />टेलीफोन टेप नाहो सभा सोसायटी में रूतबा नही बढतालडकें<br />का कहना है कि काष ! कभी हमारें यहां सीबीआई या इन्कमटैक्स का छापा<br />भी पडा होता तो अगले रोज देष के प्रमुख अखबारों में सुर्खियों में पिताजी का नाम होता<br />औेर उनकी प्रसिद्धि में चार चांद लग जाते और मुझे-यानि मेरे लडकें को- लोग<br />सभा-सोसाइटी, कैफे आदि में कनखियों से देखते हुए कहते ‘यह उन्ही का लडका है जिनके<br />यहां सीबीआई का छापा पडा था. परन्तु हाय ! मेरी ऐसी किस्मत कहां ? किसी ‘स्टिंगंग<br />ऑपॅपरेष्ेषन’ अथवा घोटालें में भी पिताजी का नाम नही हैंमेरा<br />वत्स अपने मित्रों से अफसोस जाहिर करते हुए कहता फिरता हेै कि मैं जाने<br />किस मनहूस घडी में पैदा हुआ हूं. घुडदौडवालें, बिग बिजनैसमेन, नेताओं इत्यादि कइयों के<br />स्विस बैंकों में खातें खुले हुए हैं या वह कोई न कोई घोटाला करके तिहाड जेल जाने का<br />जुगााड बैठा लेते है लेकिन एक मेरे ‘डैड’ है जो मुझे षर्मिन्दा किए दे रहे है, ना तो स्विस<br />बैंक में उनका खाता, ना तिहाड की रिहाइष और ना ही दाउद भाई से कोई लिंक, अरे !<br />बडे राजन से नही तो कम से कम छोटे राजन से तो कोई रिष्ता-नाता होता ताकि उनका<br />भी रूआब पडता और मेरा भीसुपुत्र<br />आज तक ये सभी गुनगुन परोक्ष में ही करता रहा हेै लेकिन इस बार वह घर<br />में अपनी मॉम के सामने फट पडा. उसके हाथ में ताजा अखबार था जिसमें षहर में<br />‘ऑपरेषन पिंक’ के तहत अतिक्रमण के विषय में समाचार छपे थे और अतिक्रमण करनेवालें<br />षहर के नामी-गिरामी लोगों के नाम थे. पुत्र का गिला था कि मेैं आज तक सब ज्यादतियां<br />सह गया ना तो पापा का नाम मुंबई की आदर्ष सोसाइटी घोटालें में आया, न कॉमनवैल्थ<br />गडबडियों में, नाही टूजी स्पैक्ट्म स्कैन्डल में उनका नाम न उडीसा में नेताओं द्वारा प्लाट<br />हथियाने में उनका कोई हाथ और ना ही इन्दौर भोपाल में हाउसिंगबोर्ड के फलैट हथियाने में<br />उनका हाथ हैं. यहां तककि उन्होंने इतनी हिम्मत भी नही दिखाई कि कोई सरकारी अथवा<br />किसी धार्मिक ट्स्ट की भूमि का ही अतिक्रमण कर लेते. अब मैं अपने मित्रों को कैसे मुंह<br />दिखाउंगा ? कैसे उनके बीच उठ-बैठ करूंगा ?<br />उसका यह भी कहना था कि पिताश्री ने कुछ तो सोचा होता. घर में षादी विवाह<br />होने है. समाज में रूतबा बनाना हैं. लडके का विचार है कि डैड अब भी अपनी आदतों में<br />सुधार करले तो रही सही उनकी और हमारी जिन्दगी सुधर जायेगी. चुप-चाप किसी इस या<br />उस राजनीतिक दल में घुसपैठ करके या तो भूमाफिया से जुड जाय या स्मगलिंग का धन्धा<br />पकडले या कोई घोटाला करके तिहाड हो आए, और कुछ नही तो जुगाड बैठाकर सरकारी<br />खर्चखातें पर अपना बुत ही खडा करवाले तब जाकर कोई बात बनेगी वरना सब मुझे ही<br />कहेंगे कि<br />‘तू ने हीरा जनम गवायों रे ,<br />मानष, बिन तिहाड जायके’<br /><span style="font-weight:bold;">-ई. शिव शंकर गोयल,<br />फ्लैट न. 1201, आई आई टी इंजीनियर्स सोसायटी,<br />प्लाट न. 12, सैक्टर न.10, द्वारका, दिल्ली- 75.<br />मो. 9873706333</span>तेजवानी गिरधरhttp://www.blogger.com/profile/15920539204622934103noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7544291197153976893.post-13460341162927947812011-11-23T07:03:00.000-08:002011-11-23T07:56:33.242-08:00ख्वाईशें दम तोडती रही<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgO5io7qaUPr7scdgBKqwd61HugPCXvTDaRVbrvY7gspVmytG-Gp-jEDyNcKMo7hQBlUeuHyRqqVO60bYfeuW_QC6KCirsT_cUXw_s92l78xvMmFvKN3qxa2NLAWqKhDs2E8xi8OR8FsCw/s1600/dr.+r+tela.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 114px; height: 154px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgO5io7qaUPr7scdgBKqwd61HugPCXvTDaRVbrvY7gspVmytG-Gp-jEDyNcKMo7hQBlUeuHyRqqVO60bYfeuW_QC6KCirsT_cUXw_s92l78xvMmFvKN3qxa2NLAWqKhDs2E8xi8OR8FsCw/s320/dr.+r+tela.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5678220623980828882" /></a><br />जब भी मिलते<br />निरंतर कहते हम से<br />किसी दिन<br />फुरसत में बात करेंगे<br />उनकी<br />फ़ुरसत के इंतज़ार में<br />उम्र बीत गयी<br />ना उन्हें फुर्सत मिली<br />ना हमारी हसरतें<br />पूरी हुयी<br />ख्वाईशें<br />दम तोडती रही<br />दिल की बात<br />दिल में रह गयी<br /><br /><span style="font-weight:bold;">क्षणिकाएं -5<br /></span><br /><br /><span style="font-weight:bold;">मंजिल</span><br /><br />मंजिल की तलाश में<br />ज़िन्दगी गुजर जाती<br />मिलती किसी को नहीं<br /><br /><span style="font-weight:bold;">चिंतन<br /></span><br />चिंतन<br />बिना जीवन नहीं<br />जीवन<br />बिना चिंतन नहीं<br />एक आगे आगे<br />दूजा पीछे पीछे<br /><br /><span style="font-weight:bold;">सत्य सुनना</span><br /><br />दूसरों का<br />सत्य सब सुनना<br />चाहते<br />खुद का सत्य<br />छुपा कर रखना<br />चाहते<br /><span style="font-weight:bold;">सत्य कहना</span><br />सत्य जानते हैं<br />कहने से पहले<br />तोलते हैं<br />कहूँ ना कहूँ<br />के भंवर में<br />डोलते हैं<br /><br /><span style="font-weight:bold;">बच्चे- बड़े</span><br /><br />बच्चे चाहते<br />बड़े हो जाएँ<br />बड़े चाहते<br />बच्चे बन जाएँ<br /><span style="font-weight:bold;">बचपन-बुढापा</span><br /><br />बड़े बचपन को<br />भूल नहीं पाते<br />बच्चे बुढापे को<br />समझ नहीं पाते<br /><br /><span style="font-weight:bold;">संतुष्टी से जीवन जीता जाता<br /></span><br />सर्दी,गर्मी या हो<br />वर्षा का मौसम<br />एक तारा लिए एक साधू<br />निरंतर<br />मेरे घर पर आता<br />एकाग्रचित्त हो मन -लगन<br />और सहज भाव से<br />लोक गीत सुना कर<br />मंत्रमुग्ध करता<br />कोई दान दक्षिणा दे दे<br />सहर्ष स्वीकार कर लेता<br />नहीं दे तो मुंह नहीं<br />बिचकाता<br />ना पाने की इच्छा<br />ना कुछ खोने का भय<br />बहते पानी सा बहता<br />रहता<br />सबकी खुशी में<br />अपनी खुशी समझता<br />कुछ नहीं पास उसके<br />फिर भी संतुष्टी से<br />जीवन जीता जाता<br /><br /><span style="font-weight:bold;">रेत के घरोंदे<br /></span><br />बहुत<br />समझाता था उसे<br />सपनों पर<br />विश्वास मत किया करो<br />समुद्र किनारे रेत के<br />घरोंदे मत बनाया करो<br />कभी कोई तेज़ लहर आयेगी<br />घर को बहायेगी<br />अपने सपनों को टूटते देख<br />तुम व्यथित हो कर<br />दुःख मनाओगे<br />बार बार घरोंदे को<br />याद कर आंसू बहाओगे<br />घरोंदे बनाने ही हो<br />तो मेहनत,लगन और सब्र की<br />सुद्रढ़ नीव से बनाओ<br />जो आसानी से नहीं टूटे<br />जीवन भर चैन से रहने दे <br />समय की तेज़ हवाएं<br />भाग्य की लहरें<br />कुछ बिगाड़ ना सके<br />निश्चिंतता से सो सको<br />पर कभी<br />बात नहीं मानी उसने<br />निरंतर रेत के घरोंदे से<br />सपनों पर विश्वास<br />करता रहा<br />शीघ्र पाने की इच्छा में<br />उतावलापन दिखाता रहा<br />जीवन भर<br />बेघर और असंतुष्ट रहा<br />असंतुष्ट ही<br />संसार से विदा हुआ<br /><br /><span style="font-weight:bold;">इसी में खुश रहती हूँ<br /></span><br />उसकी<br />चुनडी, लहंगा<br />पुराना पैबंद<br />लगा होता था<br />पर उसे सूर्ख रंगों की<br />चूड़ियां<br />पहनने का शौक था<br />जब भी आती<br />कलाईयों में पहनी<br />चूड़ियों को खनकाती<br />रहती<br />एक बार रहा ना गया<br />उसे कह ही दिया<br />इतने पैसे चूड़ियों पर<br />खर्च करती हो<br />कुछ पैसे कपड़ों पर भी<br />खर्च कर लिया करो<br />उसका मुंह रुआंसा हो गया<br />आँखें भर आयी<br />कहने लगी बाबूजी<br />चूड़ियां खरीदती नहीं हूँ<br />तीसरी गली वाले बाबूजी की<br />चूड़ियों की दूकान है<br />वहां झाडू लगाती हूँ<br />काम के बदले में<br />पैसे की जगह चूड़ियां<br />लेती हूँ<br />रंग बिरंगी चूड़ियां<br />मुझे गरीबी का<br />अहसास नहीं होने देती<br />एक यही इच्छा है<br />जो पूरी कर सकती हूँ<br />निरंतर<br />इसी में खुश रहती हूँ<br /><br /><br /><span style="font-weight:bold;">हँसमुखजी का ज्योतिष प्रेम (हास्य कविता)<br /></span><br />हँसमुखजी<br />ज्योतिष के बारे में<br />कुछ नहीं जानते थे<br />पहली बार<br />ज्योतिषी के पास जन्म पत्री<br />दिखाने गए<br />जन्मपत्री देखते ही<br />ज्योतिषी बोला<br />आपकी मंगल बहुत भारी है<br />कन्या के घर में नीच का<br />बुद्ध बैठा है<br />चंद्रमा आठवे घर में<br />सूर्य के साथ है<br />शनी उच्च का<br />सातवे घर में अच्छा है<br />हँसमुखजी बौखलाए<br />अपने को रोक नहीं सके<br />फ़ौरन बोले सब बकवास है<br />मंगल मेरा बेटा है<br />खिला खिला कर परेशान<br />हो गए<br />वज़न बढ़ने का<br />नाम ही नहीं लेता<br />भारी कैसे हो गया<br />कन्या के पती का नाम<br />श्याम है<br />नीच बुद्ध राम वहाँ क्या<br />कर रहा है<br />मुझे बेवकूफ समझते हो<br />आठवे घर में शर्माजी<br />रहते हैं<br />सूर्य ,चंद्रमा आकाश में<br />रहते हैं<br />सूर्य दिन को निकलता है<br />चंद्रमा रात को<br />पड़ोसी का नाम शनिशचर है<br />एक नंबर का पाजी है<br />वो उच्च का कैसे हो गया<br />तुम खाली पीली नाटक<br />कर रहे हो<br />निरंतर बेवकूफ बना रहे हो<br />कहते कहते<br />ज्योतिषी पर टूट पड़े<br />मैं रोकता जब तक<br />पीट पीट कर<br />उसका वर्तमान और भविष्य<br />दोनों खराब कर दिए<br /><br /><span style="font-weight:bold;">रास्ते अलग क्यों थे ?<br /></span><br />दोनों मित्र थे<br />एक यीशु मसीह को<br />मानता<br />चर्च जाता<br />दूसरा राम-क्रष्ण को<br />मानता<br />मंदिर जाता<br />दोनों निरंतर<br />इमानदारी से कर्म करते<br />निश्छल निष्कपट<br />जीवन जीते<br />थोड़े अंतराल में<br />दोनों का निधन हुआ<br />एक को दफनाया गया<br />दूजे को जलाया गया<br />दोनों मित्र स्वर्ग में मिले<br />तो आश्चर्य में डूब गए<br />एकटक एक दूजे को<br />देखने लगे<br />मन में सोचने लगे<br />जब मंजिल एक है <br />तो फिर रास्ते अलग<br />क्यों थे ?<br /><br /><br /><span style="font-weight:bold;">मैंने भी<br /></span><br />सपना देखा था<br />कोई मुझे भी मिल जाए <br />अपना जिसे कह सकूँ <br />साथ हँसू ,साथ घूमूँ<br />हाथ में हाथ डाल के<br />छोटा सा संसार हो मेरा<br />स्वछन्द जिसमें रह सकूँ<br />खुशी से जी सकूँ<br />प्यार की निशानी को<br />जन्म दूं<br />घर का आँगन जिसकी<br />किलकारियों से गूंजे<br />साथ भी मिला ,घर भी मिला<br />पर सफ़र अधूरा रह गया<br />काल के क्रूर हाथों से<br />खुशियों का संसार देखा<br />ना गया<br />मेरा देवता मुझसे<br />छीन लिया<br />जीवन शून्य हो गया<br />निरंतर आंसू बहाने के लिए<br />यादों के सहारे छोड़ दिया<br />कैसे सहूँ<br />विछोह प्रियतम का<br />समझ नहीं पाती हूँ<br />कसम खाती हूँ<br />अब ना देखूंगी सपना कभी<br />हर अबला से कहूंगी<br />सपनों पर विश्वास ना करे<br />टूटते हैं तो मौत से कम<br />नहीं होते सपने<br />मैंने भी सपना देखा था<br />कोई मुझे भी मिल जाए<br />अपना जिसे कह सकूँ ...<br /><br /><span style="font-weight:bold;">धोरों का, महलों का, मेरा राजस्थान<br /></span><br />वीरों का,अलबेलों का<br />धोरों का,महलों का<br />मेरा राजस्थान<br />मेलों का,त्योहारों का<br />रंग रंगीला राजस्थान<br />जंतर मंतर, आमेर<br />बढाए जयपुर की शान<br />सूर्यनगरी जोधपुर<br />मारवाड़ की आन<br />झीलों की नगरी उदयपुर<br />प्रताप जन्म भूमी मेवाड़<br />गढ़ चित्तोड़ का सुनाता<br />पद्मनी जौहर की गाथा<br />पृथ्वीराज नगरी अजमेर में<br />बसती<br />ख्वाजा मोईनुद्दीन की<br />दरगाह<br />तीर्थ राज़ पुष्कर में स्थित<br />पवित्र सरोवर,ब्रह्मा मंदिर<br />शीश नवाता,स्नान करता<br />सारा हिन्दुस्तान<br />शूरवीरों की शौर्य गाथाओं का<br />मेरा राजस्थान<br />हाडोती कोटा में चम्बल<br />विराजे<br />गंगानगर अन्न की खान<br />ऊंटों का गढ़ बीकानेर<br />हवेलियाँ देखो शेखावाटी की<br />भरतपुर में पंछी निहारो<br />जैसलमेर में सोन किला<br />घूम घूम कर देखो<br />मेरा राजस्थान<br />मीरा डूबी क्रष्ण प्रेम में<br />दयानंद ने लिया निर्वाण<br />मकराना का संगेमरमर<br />ताजमहल की आन<br />धोलपुर का लाल पत्थर<br />बढाता लाल किले शान<br />खनिज संपदाओं से भरा<br />राजाओं,रजवाड़ों का<br />मेरा राजस्थान<br />जन्म भूमी पर मिटने<br />वालों की<br />आन,बान,शान का<br />मेरा राजस्थान<br /><br /><span style="font-weight:bold;">शक और स्वार्थ (काव्यात्मक लघु कथा)<br /></span><br />संतानहीन बूढा सेठ<br />बुढापे से चिंतित था<br />बुढापा आराम से कटे<br />कोई सेवा करने वाला<br />मिल जाए<br />मन में खोट लिए<br />निरंतर सोचता था<br />सेवा करेगा तो ठीक<br />नहीं तो निकाल बाहर<br />करूंगा<br />भाग्य ने साथ दिया<br />एक रिश्तेदार के<br />बेटे को गोद ले लिया<br />उससे सेवा की उम्मीद<br />करने लगा<br />गोद लिया बेटा भी<br />कम नहीं था<br />वो भी सोचता कब<br />सेठजी दुनिया से जाएँ<br />कब वो जायदाद का<br />मालिक बन जाए<br />कहीं ऐसा नो हो<br />सेवा मैं करूँ<br />सेठजी धन जायदाद<br />किसी और को दे जाएँ<br />द्वंद्व में दोनों उलझे रहते<br />एक दूसरे पर शक करते<br />निरंतर<br />नए दांव पैतरे चलते<br />दिन निकलते गए<br />सेठजी सेवा की आस में<br />बीमारी से लड़ते लड़ते<br />स्वर्ग सिधार गए<br />सारी जायदाद<br />अनाथालय को दे गए<br />गोद लिया बेटा दो बाप<br />होते हुए भी अनाथ<br />हो गया<br />शक और स्वार्थ ने<br />दोनों को संतुष्ट<br />नहीं होने दिया<br /><br /><span style="font-weight:bold;">कैसे कहूं उनसे ? <br /><br />(मार्मिक -हास्य)<br /></span><br />कैसे कहूं उनसे ?<br />बगीचे में<br />रोज़ क्यों नहीं आती<br />क्यों कई दिन बाद<br />झलक अपनी दिखलाती<br />जब भी उन्हें देखता<br />मन करता<br />दौड़ कर गले से<br />लग जाऊं<br />कैसे अहसास दिलाऊँ ?<br />उनका यूँ<br />कई कई दिन तक<br />नहीं दिखना<br />कितनी बेचैनी<br />पैदा करता दिल में<br />ना सो पाता,ना जाग पाता<br />उन्हें देखने की ख्वाइश<br />क्या नहीं करवाती मुझसे<br />कैसे समझाऊँ<br />क्या नहीं<br />भुगतना पड़ता मुझको<br />आज दिख जाएँ शायद<br />उम्मीद में<br />भरी दोपहर धूप में भी<br />बगीचे में पहुँच जाता<br />बगीचे का माली शक से<br />मुझे देखता<br />कोई फूल चुराने वाला<br />समझता<br />मोहल्ले के लोग<br />मुझे लफंगा समझते<br />मेरी तरफ ऊंगली दिखा कर<br />दूसरों को बताते<br />कई बार सोचा उनसे<br />कह ही दूं<br />मगर हिम्मत ना<br />कर सका<br />कुछ भी हो जाए<br />इस बार होंसला रख<br />बता ही दूंगा<br />उनकी सूरत मेरी<br />दिवंगत माँ से मिलती<br />उनमें मुझे मेरी माँ<br />नज़र आती<br /><br /><span style="font-weight:bold;">क्षणिकाएं -6<br /></span><br /><br /><span style="font-weight:bold;">मजबूरी</span><br /><br />करना नहीं चाहता<br />फिर भी करना पड़ता<br /><br /><span style="font-weight:bold;">अंतर्द्वंद्व</span><br /><br />करूँ तो<br />मन खुश नहीं होगा<br />नहीं करूँ तो<br />दूसरों को नाराज़<br />करना होगा<br /><br /><span style="font-weight:bold;">विडंबना</span><br /><br />मैं उन्हें बहन<br />समझता<br />वो मुझे शक से<br />देखती<br /><br /><span style="font-weight:bold;">खुश<br /></span><br />मैं रोज़ सपनों में<br />उनको देख लेता हूँ<br />थोड़ी देर खुश हो<br />लेता हूँ<br /><br /><span style="font-weight:bold;">दिल में</span><br />दिल में बहुतों के लिए<br />कुछ होता रहता है<br />मजबूरी में<br />इंसान खामोश<br /><br />रहता है<br />*****<br /><br /><span style="font-weight:bold;">बदकिस्मती<br /></span><br />उनका<br />इंतज़ार करते करते<br />सो गया<br />जब तक जागा<br />वो आकर चले गए<br /><br /><span style="font-weight:bold;">डा.राजेंद्र तेला,"निरंतर" <br />"GULMOHAR"<br />H-1,Sagar Vihar<br />Vaishali Nagar,AJMER-305004<br />Mobile:09352007181<span style="font-style:italic;"></span></span>तेजवानी गिरधरhttp://www.blogger.com/profile/15920539204622934103noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7544291197153976893.post-51503982754835338392011-11-21T18:15:00.000-08:002011-11-21T18:19:51.670-08:00फिर एक और दिन पहना है मेरे चेहरे ने .................<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgBH5i8QwYV1jQ1TVASMmgMSKefKzQjhSWyvmvsDcOxdrceo4Zll-9uCyBETpquPZQOk-Hgj9wGndvvH4EUk2Fc8GRy42XQBtOtXU8Zsj01zqTkOXa9afUTCs-36U0GRp0HiPCC0MQUZfo/s1600/rajani+morwal+5.JPG"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 120px; height: 80px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgBH5i8QwYV1jQ1TVASMmgMSKefKzQjhSWyvmvsDcOxdrceo4Zll-9uCyBETpquPZQOk-Hgj9wGndvvH4EUk2Fc8GRy42XQBtOtXU8Zsj01zqTkOXa9afUTCs-36U0GRp0HiPCC0MQUZfo/s320/rajani+morwal+5.JPG" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5677638653207629618" /></a><br /><br />बिखरी हुई ज़ुल्फ़ को<br />करीने से सजाकर मैंने <br />महकती सांस मैं <br />कुछ और इत्र घोला है ,<br />लबों पर छिड़की है<br />एक ताज़ा सुर्ख़ लाल हंसी<br />और पेशानी से बासी<br />हदों को खोला है |<br />लो फिर एक और दिन<br />पहना है मेरे चेहरे ने ,<br />कि एक और दिन<br />गुज़रेगा हकीक़त बनकर |<br />आईने से खुश होने का <br />वादा करके मेरे ही अक्श ने<br />मुझसे ही झूठ बोला है |<br />अभी निकालेंगे मेरे पाँव<br />घर से मंजिल को ,<br />शाम सिमटेगी तो फिर<br />थक कर वापस लौटेंगे ,<br />सफेद चादरों के<br />बुत बने से बिस्तर पर ,<br />ज़िस्म एक लाश क़ी सूरत मैं <br />बिखर जायेगा .....<br />रगों में दफ़्न सन्नाटों से<br />राज़ खोलेगा <br />और तन्हाई में मुंह डाले <br />खूब रो लेगा | <br />गिर के उठेंगे कई ज्वार<br />तन के दरिया में ,<br />किसी ठहराव के मुहाने से<br />लग के रो लेंगे |<br />लुढ़क जाते हैं कई<br />दिन इसी तरह थक कर ,<br />कदीम रातों के तकिये का<br />सहारा लेकर |<br />बस एक उम्र है जो<br />मुसलसल सी चला करती है<br />साँसों को सीने में दबाये हरदम |<br />लो फिर एक और दिन<br />पहना था मेरे चेहरे ने,<br />कि एक और दिन गुज़ारा <br />था हकीक़त बनकर .........<br /><br /><br />(कदीम =पुराने ,मुसलसल =लगातार)<br /><span style="font-weight:bold;">रजनी मोरवाल<br />अहमदाबाद</span>तेजवानी गिरधरhttp://www.blogger.com/profile/15920539204622934103noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7544291197153976893.post-32052528716164926822011-11-19T18:01:00.000-08:002011-11-19T18:13:11.614-08:00नज़्म......यादें ..<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgxkYWobPXgmMThQl6-VLWCIxoB8_IpNehoQz8qjg_shniYZ2XdTkPNrH7Qqc4Mj_WXUxf79zDWqrI3OUw2AA4Ff4cQI5zaHYbsfpqQ4ruU2u7WKCIhi1hu80gag43oxirB2jw8r5ZVQrY/s1600/rajani+morwal+5.JPG"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 320px; height: 260px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgxkYWobPXgmMThQl6-VLWCIxoB8_IpNehoQz8qjg_shniYZ2XdTkPNrH7Qqc4Mj_WXUxf79zDWqrI3OUw2AA4Ff4cQI5zaHYbsfpqQ4ruU2u7WKCIhi1hu80gag43oxirB2jw8r5ZVQrY/s320/rajani+morwal+5.JPG" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5676895117992714562" /></a><br />सुबह-सुबह ही<br />तेरी याद ने दस्तक देकर <br />मेरी आँखों मैं <br />एक सुर्ख ख़्वाब घोला है ,<br />कुछ किरची हुई यादों ने<br />अपने होने की निशानी देकर<br />गुज़रा वक़्त<br />याद दिलाने की खातिर <br />मेरी पलकों के किनारे से <br />मझधार तलक ,<br />कुछ चुभते हुए आंसुओं की<br />कतारें फेकीं |<br />उन्ही आंसुओं के समुन्दर में<br />डूबकर मैने<br />कितनी बेजार-सी ,<br />नामुमकिन-सी<br />चाह दरकिनार की है | <br />और.........<br />यादों के सिरे से जुडकर<br />कई यादो के सिरे,<br />यादें बस आती ही रही <br />और बस आती रही...........<br />कुछ कल्पनाओं में पगी -सी<br />यादों ने मुझे नाहक ही रुलाया<br />बड़ी देर तलक .......<br />जो हकीक़त नहीं है<br />फिर भी ......<br />हकीक़त की तरह <br />याद आया मुझे और बस<br />फिर याद आता रहा...........<br />कुछेक पल जो ख़यालों में,<br />ख़यालों की तरह ,<br />बिताये मैने तुम्हारे संग ,<br />तुम्हारे ही लिए,<br />अनकहे संवादों में हंसकर,रोकर,<br />रूठकर और कभी सिसकियों में |<br />जाने क्यों या रब ............<br />इन बेवजह-सी यादों के<br />बेवजह सिलसिले <br />चले आते हैं ?<br />अक्सर............. <br />सिसकते हुए,<br />तडपते हुए<br />अपनी ही आँखों से<br /> देखे अपने ही<br /> पास से गुज़रते हुए<br />ज़नाज़े की तरह |<br /><br /><span style="font-weight:bold;">रजनी मोरवाल<br />अहमदाबाद</span>तेजवानी गिरधरhttp://www.blogger.com/profile/15920539204622934103noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7544291197153976893.post-49219173655408489372011-11-17T18:43:00.000-08:002011-11-17T18:47:00.387-08:00नज़्म ....आज फिर चांदनी आसमाँ पर खुलकर बिख़री<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhdsFMBBq35kpTuHsiOHZjNcCUHbq5sh4sP0OlnB86hk5MmulV4slHEbk6iv5hKuXR2RjmrzrYddorn1tc8jy9CwuBT39OuH2vaqXpD48UL4zaahd4kWscBpzNSrJOZBpTQsELk_upboQM/s1600/rajani+morwal+3.JPG"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 320px; height: 294px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhdsFMBBq35kpTuHsiOHZjNcCUHbq5sh4sP0OlnB86hk5MmulV4slHEbk6iv5hKuXR2RjmrzrYddorn1tc8jy9CwuBT39OuH2vaqXpD48UL4zaahd4kWscBpzNSrJOZBpTQsELk_upboQM/s320/rajani+morwal+3.JPG" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5676161782608235810" /></a><br />आज फिर चांदनी आसमाँ पर <br />खुलकर बिख़री <br />आज फिर तेरी यादें मेरी आँखों के <br />पहलू लगकर रात भर जागती रही ,<br />कुछ अँधेरे मुंह तक<br />ओढ़कर टीस की चादर <br />कराहते रहे मेरी सूरत बनकर ,<br />कुछ आँहें<br />सर्द मौसम के झोंको की तरह<br />मेरी रूह को छूकर निकली ,<br />एक सिहरन जो बची थी ख़यालों में तेरी<br />वो भी भीतर ही भीतर<br />उठी और सिहर कर गुज़री ,<br />जिस्म में दरक आए हो<br />जैसे कई शीशे के टुकड़े ,<br />मैने तेरे अहसास को<br />कुछ इस तरह टूटते देखा ,<br />कुछ टूटा गुमां तेरे ना होने का भी ,<br />एक हिस्सा मेरी जिंदगी का वहीँ जा ठहरा <br />बुझते हुए चरागों की लौ के करीब ,<br />उफ़ ...........<br />ये चांदनी क्योंकर आज फिर से <br />आसमाँ पर इस तरह से खुलकर बिख़री ?<br /><span style="font-weight:bold;">-रजनी मोरवाल<br />अहमदाबाद</span>तेजवानी गिरधरhttp://www.blogger.com/profile/15920539204622934103noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7544291197153976893.post-79449425522206000862011-11-16T17:37:00.000-08:002011-11-16T17:40:25.420-08:00नज़्म ......तुमने देखा है कभी मुझको बेवजह मुस्कुराते हुए ?<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiJnNZwyIfrETlVL-y2gdgb1krbPaycT0bJDF0zoJX5lbr6i9VOSNeN_-H_SqjfBLR5R2y0oDvCG23KuNXL7m5aQxmL4Brgwq88CWnQCq-lQ7WTaW490DfcZGlK3cIFfljNUwoavXhWyNY/s1600/rajani+morwal+2.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 320px; height: 240px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiJnNZwyIfrETlVL-y2gdgb1krbPaycT0bJDF0zoJX5lbr6i9VOSNeN_-H_SqjfBLR5R2y0oDvCG23KuNXL7m5aQxmL4Brgwq88CWnQCq-lQ7WTaW490DfcZGlK3cIFfljNUwoavXhWyNY/s320/rajani+morwal+2.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5675773514599543618" /></a><br />तुम्हारे बिना बिताये हुए<br />वो लम्हें लगता है की जिंदगी, <br />जेसे गुज़री ही नहीं अब तक..<br />बस कि थम के रह गई है<br />बर्फ की बूंदों की तरह बिन टपके <br />सर्द तन्हाई को लपेटे अपने ज़ेहन में ,<br />उम्र की ऑंखें कुछ बूढी होकर<br />जिंदा लम्हों की लकीरें लेकर के<br />चेहरे पे उतर आयीं हैं |<br /><br />जिगर के तार अब भी अनायास ही <br />खिंच जाते हैं जो तेरा ज़िक्र होता है<br />किसी महफ़िल में |<br />वो वक़्त जो गुज़र नहीं पाया <br />गाहे -बगाहे मेरी जुल्फों में ,<br />स्याह से सफ़ेद होते लम्हों की<br />कहानी में बेतुकल्लुफ़ -सा<br />होने लगता है जब कभी ,<br />तो मैं बड़े करीने से <br />उसे अपने जुड़े में पिरो लेती हूँ |<br />नाहक ही जिंदगी के शांत दरिया में ,<br />समय गुज़ारने की एवज<br />में फेंकी गई कंकरी भी बेवजह<br /><br />लहरों के गुमाव से टकराती है<br />तो चोट खाती है |<br />कोई आह जो न बिखर जाए<br />दामन से रिसकर ,<br />इसलिए मैं हर वक़्त मुस्कुराती हूँ ,<br />तुमने देखा है कभी मुझको<br />बेवजह मुस्कुराते हुए ?<br />अपने ज़ख्मो को बेख़याली से छुपाते हुए?<br />वो अक्स तुम्हारा ही तो था ...........<br />टूटे दर्पण में मेरी सूरत ओढ़े |<br /><span style="font-weight:bold;">रजनी मोरवाल,<br />अहमदाबाद</span>तेजवानी गिरधरhttp://www.blogger.com/profile/15920539204622934103noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7544291197153976893.post-44458480676608563542011-11-16T04:17:00.000-08:002011-11-16T04:26:57.486-08:00आवश्यकता से अधिक मिलना विनाशकारी होता<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjkQVxYgFkWNKT5EXK3XG7X6Z9ZA3HgTiHvyfF5kJyIUR2qq1UmnITtxpPzt6rMCX-fvnTb6KNpFBxZ91H1FNR7KpDEHs1GpOQ-qLAQACXz799GdIpjkvssvkZjLReH-GY4spAEdkXEezk/s1600/dr.+r+tela.jpg"><img style="float:left; margin:0 10px 10px 0;cursor:pointer; cursor:hand;width: 114px; height: 154px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjkQVxYgFkWNKT5EXK3XG7X6Z9ZA3HgTiHvyfF5kJyIUR2qq1UmnITtxpPzt6rMCX-fvnTb6KNpFBxZ91H1FNR7KpDEHs1GpOQ-qLAQACXz799GdIpjkvssvkZjLReH-GY4spAEdkXEezk/s320/dr.+r+tela.jpg" border="0" alt=""id="BLOGGER_PHOTO_ID_5675569005588080050" /></a><br />घर के आँगन में<br />एक पौधा उगा<br />चेहरा<br />मुस्कान से भरा<br />मन में आशाओं का<br />संसार जगा<br />एक दिन<br />फूलों से लदेगा<br />सारा घर महकेगा<br />निरंतर<br />अतिवृष्टी ने हाहाकार<br />मचाया<br />पौधा सह ना पाया<br />समय से पहले<br />काल कवलित हुआ<br />मन निराशा में<br />डूब गया<br />भूल गया<br />हर सपना पूरा<br />नहीं होता<br />आशा निराशा का<br />साथ होता<br />आवश्यकता से<br />अधिक मिलना<br />विनाशकारी होता<br /><br /><span style="font-weight:bold;">एक लम्हा वफ़ा का दे दे कोई<br /></span><br />आरजू दिल में बसी<br />एक लम्हा वफ़ा का<br />दे दे कोई<br />बीमार -ऐ-दिल को<br />दवा दे दे कोई<br />मोहब्बत का जवाब<br />मोहब्बत से दे दे कोई<br />टूटे हुए दिल को जोड़ दे<br />मेरी तरफ नज़रें कर ले<br />किश्ती को<br />किनारे लगा दे कोई<br />दिल को सुकून दे दे<br />मेरी इल्तजा सुन ले<br />कोई<br /><br /><span style="font-weight:bold;">मेरा मौन<br /></span><br />उनके<br />अप्रतिम सौन्दर्य से<br />अभिभूत था<br />उनसे मिलने से पहले<br />मन में<br />सैकड़ों सपने संजोता<br />क्या क्या कहना है<br />मष्तिष्क में<br />सूची बनाता<br />मिलने पर जुबान को<br />लकवा मार जाता<br />मुंह से एक शब्द नहीं<br />निकलता<br />उनका निश्छल सरल<br />व्यवहार<br />निरंतर मेरे उनके<br />बीच में आता<br />मन का मनोरथ<br />मन में रहता<br />प्यार ह्रदय में दबा<br />रहता<br />मुझे एक शब्द भी<br />कहने ना देता<br />केवल मेरा मौन मेरा<br />साथ देता<br /><br /><br /><span style="font-weight:bold;">तुम्हें देखा तो नहीं<br /></span><br />तुम्हें देखा तो नहीं<br />फिर भी तुम्हें देखा सा<br />लगता मुझको<br />पास होने का<br />अहसास होता मुझको<br />तुम्हारा नाम मेरे<br />जहन में रहता<br />लबों से बुदबुदाता<br />रहता<br />ख्यालों में चेहरा<br />अंदाज़ से बनाता<br />रहता<br />नहीं जानता<br />कब मिलोगे मुझसे<br />पर निरंतर ख्याल तुम्हारा<br />सुकून देता मुझे<br />तुम्हें देखा तो नहीं<br />फिर भी तुम्हें देखा सा<br />लगता मुझको<br /><br /><span style="font-weight:bold;">क्षणिकाएं -2<br /></span><br />हँसी<br />हँस तो लिए<br />हँसाया क्यों नहीं ?<br />ये भी सोचा कभी<br />"मैं"<br />मेरी "मैं" ने<br />मुझ को मारा<br />ख्याल करो<br />तुम्हारी "मैं"<br />तुम्हें मारेगी<br />सत्य विचार<br />सत्य होता है<br />इसलिए विचार आते हैं<br />सत्य नहीं होता तो<br />विचार भी नहीं आते<br />रोना<br />आंसूओं का<br />आँखों से<br />क्या लेना देना<br />अंधे भी रोते हैं<br />भावनाएं<br />भावनाएं आंसू<br />बन कर बहती हैं<br />मनोस्थिती<br />दर्शाती हैं<br />सत्य -झूठ<br />सत्य के बिना<br />झूठ अर्थहीन<br />झूठ के बिना<br />सत्य अर्थहीन<br />एक दूसरे के बिना<br />दोनों अस्तित्वहीन<br /><br /><span style="font-weight:bold;">बड़ा चतुर होता है,बाल सुलभ मन<br /></span><br />बड़ा चतुर होता है<br />बाल सुलभ मन<br />माँ डांटे तो<br />पिता की गोद में<br />पिता डांटे तो<br />माँ की गोद में<br />दोनों डांटे तो<br />दादा दादी की<br />गोद में<br />जा छुपता है<br />बाल सुलभ मन<br />मीठी बातों से<br />लुभाता है<br />इच्छाएं पूरी क<br />रवाता है<br />बड़ा चतुर होता है<br />बाल सुलभ मन<br />बड़ा चंचल होता है<br />बाल सुलभ मन<br /><br /><span style="font-weight:bold;">अन्धेरा<br /></span><br />हम घर<br />में<br />चिराग नहीं<br />जलाते<br />अन्धेरा<br />होने पर<br />उन्हें अपने<br />घर<br />बुला लेते<br />हैं<br /><br /><span style="font-weight:bold;">मेरे मन की जान लो<br /></span><br />तुम्हें<br />कभी देखा नहीं<br />फिर भी तुम से<br />प्यार है<br />पता नहीं<br />कभी मिलूंगा भी<br />या नहीं<br />फिर भी<br />मन मानता नहीं<br />निरंतर<br />तुम्हारे लिए<br />व्याकुल रहता<br />कुशलता के लिए<br />प्रार्थना करता<br />मेरे मन की<br />जान लो<br />बस इतना सा<br />ख्याल कर लो<br />कभी मिलो तो<br />पहचान लेना<br />मुस्करा कर<br />देख लेना<br /><br /><span style="font-weight:bold;">वो शादी शुदा थी ,दोनों बच्चों की माँ थी <br /></span><br />दर्द बढ़ने लगा<br />उम्मीद जाने लगी<br />हसरतों की अर्थी<br />सजने लगी<br />उनसे मिलने की<br />ख्वाइश<br />दम तोड़ने लगी<br />तभी वो आ गयी<br />दोनों बच्चों के साथ थी<br />हमारी सांसें फिर से<br />चलने लगी<br />पूछने पर कहने लगी<br />वो शादी शुदा थी<br />दोनों बच्चों की <br />माँ थी <br /><br /><span style="font-weight:bold;">देवता से दिखते ,गर नाक सीधी होती तुम्हारी (हास्य-प्रेरणास्पद कविता)<br /></span><br />ना करो बुराई किसी की<br />ना दिखाओ आइना<br />गर कह दिया किसी को<br />नाक टेढ़ी उसकी<br />हो जाएगा नाराज़ तुमसे<br />फिर भी रह ना पाओ<br />कहना चाहो<br />तो समझ लो कैसे कहो<br />नाक टेढ़ी उसकी<br />ललाट चौड़ा ,काया कंचन सी<br />केश काले ,रंग गंदुमी ,<br />चाल ढाल राजाओं की<br />चेहरा अभिनेताओं सा<br />लगता तुम्हारा<br />देवता से दिखते सबको<br />गर नाक सीधी होती तुम्हारी<br />(काने को काना मत कहो<br />काना जाएगा रूठ<br />बस चुपके से पूछ लो<br />कैसे गयी थी फूट )<br /><br /><br /><span style="font-weight:bold;"><span style="font-weight:bold;">(काने को काना मत कहो<br /><br /></span>काना जाएगा रूठ<br /></span><br />बस चुपके से पूछ लो<br />कैसे गयी थी फूट )<br /><br /><br /><span style="font-weight:bold;">{शारीरिक कमी,कुदरत की देन होती है,इस पर कटाक्ष करना उचित नहीं }<br /></span><br />हम जानते तुम्हारी तकलीफ क्या है<br />हम जानते तुम्हारी<br />तकलीफ क्या है<br />निरंतर मुस्काराता<br />चेहरा मुरझाया हुआ<br />क्यूं है ?<br />दर्द-ऐ दिल से परेशाँ<br />हो तुम<br />अपने साहिल से दूर<br />हो तुम<br />हम भी गुजर रहे इसी<br />मुकाम से<br />दूर हैं अपने साहिल से<br />फर्क इतना सा है<br />हमें पता है<br />हमारे साहिल का<br />तुम अनजान उस से हो<br />अब देख नहीं सकते<br />तुम्हें बदहाली में<br />बताना ही पडेगा<br />राज़-ऐ-दिल तुम्हें<br />तुम्ही हो मंजिल<br />तुम्ही साहिल हमारे<br />जब जान ही गए हो<br />रंजों गम दूर कर लो<br />हमें कबूल कर लो<br /><br /><br /><span style="font-weight:bold;">ऐ ज़िन्दगी इतना ना झंझोड़<br /></span><br />ऐ ज़िन्दगी<br />इतना ना झंझोड़<br />जीने का अर्थ ही<br />ना जान पाऊँ<br />भूल जाऊं<br />संसार में आया हूँ<br />जब से<br />हिम्मत से लड़ता<br />रहा हूँ<br />समझ नहीं सका<br />अब तक<br />कैसे हँसते मन से ?<br />अब तो थम जा<br />थोड़ा सा<br />मुझे भी हँसा<br />जीने का अर्थ<br />मैं भी समझ जाऊं<br />कहीं ऐसा ना हो<br />लड़ना ही भूल जाऊं<br />समय से पहले ही<br />थक ना जाऊं<br />ऐ ज़िन्दगी<br />इतना ना झंझोड़<br />जीने का अर्थ ही<br />ना जान पाऊँ<br /><span style="font-weight:bold;">डा.राजेंद्र तेला,"निरंतर" <br />"GULMOHAR"<br />H-1,Sagar Vihar<br />Vaishali Nagar,AJMER-305004<br />Mobile:09352007181<br /><span style="font-style:italic;"></span></span>तेजवानी गिरधरhttp://www.blogger.com/profile/15920539204622934103noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7544291197153976893.post-10297920163027375302011-11-16T04:12:00.000-08:002011-11-16T04:13:55.454-08:00क्या करोगे करोगे तुमु मेरी तस्वीर लेकर ?वो क्या है कि सन साठ के दषक में बनी एक फिल्म में फोटों को लेकर<br />नायक-नायिका के बीच कव्वाली के माध्यम से मीठी मीठी तकरार चलती है जिसके बोल है<br />‘क्या करोगेगे तुमुम मेरेरी तस्वीर लेकेकर’ बहुत देर तक तकरार होती हेैं, गिलें षिकवें होते हेैंतब<br />भी बात नही बनती. उस समय कव्वाली को लेकर मेरें मन में कई बार अपनी फोटों<br />ख्ंिाचवाने की तलब हुई कि अगर मुझसे ‘कोई’ इस तरह फोटों मांगें तो मैं तो तत्काल देदूं<br />लेकिन उस वक्त किसी ने मांगी ही नही. बात मन की मन में रह गईपहले<br />पहल मैंने अपनी फोटों तब खिंचवाई थी जब मुझे हाई स्कूल की परीक्षा का<br />फार्म भरना था. मैं सजधजकर हुलसा हुलसा पुरानी मंडी में सडक किनारें स्थित कैलाष<br />फोटों स्टूडियों गया. दुकानदार ने मुझे कैमरें के सामने रखें स्टूल पर बैठाकर दो चार बार<br />मेरी गरदन दांये, बांये, उपर नीचे की और फिर मेरी फोटों खैंचदी. वही मैंने परीक्षा फार्म<br />पर चिपकादी.<br />परीक्षा के समय जब मैं दूसरी स्कूल स्थित परीक्षाकेन्द्र पर गया तो कुछ देर बाद<br />वही फोटों लगा फार्म लेकर एक परीक्षक वहां आया और बार बार कभी मुझे और कभी<br />परीक्षाफार्म को देखते हुए बोला कि क्या आपही .......गोयल है ? मेरें द्वारा हामी भरे जाने<br />पर वह बोला कि आपकी षक्ल फोटों से 100 परसेंट नही मिलरही हैं. इस पर मैंने जवाब<br />दिया कि कोई बात नही, जितनी मिल रही हेै उतनी मिलादें. अगर 33 परसेंट भी मिल<br />जायगी तो भी ‘पास’ तो हो ही जाउंगा न ? वैसेभी उससे ज्यादा नम्बर तो मेरें किसी<br />सब्जेक्टमें आज तक कभी आए ही नही. माध्यमिक षिक्षा बोर्डभी तैतीस परसेंटवालों को<br />पास करता ही हैं.यह सुनकर वह मुझे ऐसे घूरनेलगा जैसे पुलीसवाला अपराधी को घूरता हैंहाईस्कूल<br />और फिर डिप्लोमा करने के बाद कुछ दिन यूंही घूमता रहा तो बेकारी में<br />सबसे सरल रास्ता नेतागिरी लगा. मैं सफेद कुर्ता पायजामा पहनने लगा और जोडतोड<br />लगाकर एक राजनीतिक दल की हमारी गली की षाखा-कृपया कोई इसे आरएसएस की<br />षाखा ना समझलें वर्ना दिगविजयसिंहजी पीछे पडने में देर नही करेंगे-का अध्यक्ष बन गयासदा<br />की भांती उस साल भी वर्षा ऋतु में वृक्षारोपण का बडा हल्ला मचा. वन विभाग के<br />आंकडें तो खैर लाखों-करोडों को पार कर गए लेकिन हमारा उद्धेष्य सीमित था. हम लोग<br />तो हाथाजोडी करके पंचकुंड स्थित नर्सरी से कुछ पौधें ले आए और ले देकर स्थानीय<br />अखबारों में वृक्षारोपण महोत्सव का खूब प्रचार करवाया. नतीजतन कुछ लोग गली के<br />इकटठे होगए, कुछ राह चलते लोग और कुछ स्कूल जाते बच्चें वहां रूक गए. हमने एक दो<br />प्रेसफोटोग्राफर एवं पत्रकारों से भी अनुनय-विनय की तो वह भी आगए. उसी समय मैंने<br />देखा कि घटनास्थल से कुछ दूरी पर गाएं, बकरियां भी खडी थी जो ललचाई नजरों से<br />लगनेवालें पौधों को देख रही थीपहले<br />मैंने लिखित भाषण दिया. अधिकांष में तो मैं वही बोला जो मुझे लिखकर<br />दिया था लेकिन जहां मैंने अपनी तरफ से कुछ मिलाया वही हो हल्ला होगया जोकि लिखित<br />भाषणवालों के साथ होता आया हैं. यूपी इत्यादि जगहों में आजभी हो रहा हैं. आप आए<br />दिन अखबारों में पढ ही रहे होंगे. खैर, भाषण समाप्त होने व तालियां बजने के बाद मैंने<br />एक पौधा लगाया. हालांकि इस काम में मेरे सफेदझक कपडों पर कुछ मिटटी लग गई<br />जिसका मुझे बहुत अफसोस रहा लेकिन इससे भी ज्यादा मलाल इस बात का रहा कि<br />ऐनवक्त पर फोटोग्राफर के कैमरे का क्लिक नही होपाया और मेरी फोटों नही छपीउन्हीं<br />दिनों एक बार पुष्कर मेले में जाने का मौका मिला. वहां दडें पर एक चलते<br />फिरते स्टूडियोंवाले ने हाथोंहाथ फोटों खैंचने की दुकान लगा रखी थी. उसके पास एक पर्दा<br />भी था जिसमे एक हवाईजहाज का चित्र लगा हुआ था तथा उसमें बैठने का स्थान कटा<br />हुआ था ताकि जिसे हवाईजहाज में बैठे हुए फोटों खिंचवानी हो वह पर्दें के पीछे बैठकर<br />फोटों खिंचवायें तो उसकी फोटों हवाईजहाज में बैठे हुए दिखलाई देगी. मैंने भी इस पोज में<br />अपनी फोटों खिंचवाई और कइयों को दिखलाई कि ‘किंग फिषर एयरलाईन’ में बैठा हूं<br />लेकिन लगा कि किसी पर भी प्रभाव नही पडाकुछ<br />समय बाद जब नौकरी हेतु अर्जी दी तो फार्म के साथ साथ अपनी फोटों भी<br />भेजी. वहां से यह लिखा हुआ आया कि आप फोटों में अपनी उम्र से दस वर्ष बडे लग रहे<br />हैं. कही आप ‘ऐजबार’ यानि अधिक उम्र तो नही हैे ? मैंने उनको उत्तर भेजा कि वैसे तो<br />मेरी उम्र अधिक नही है लेकिन वह फोटों दस वर्ष बाद की लगती है तो इसे सुरक्षित रखलें<br />क्या पता आपको दस वर्ष बाद अखबारों इत्यादि में देने हेतु मेरी फोटों की जरूरत पड<br />जाय तब आपको दुबारा मेरी फोटों नही ढंूढनी पडेगीनौकरी<br />लगते ही रिष्तेदारों तथा षादी करवानेवालें आसपास मंडराने लगे. उनको यह<br />गंवारा नही कि कोई कुंवारा- कुंवारा ही क्या कुंवारी भी- दो दिन सुख चैन से रहलें. खैर,<br />दुबला पतला तो था लेकिन फिर भी एक जगह रिष्ता तय होगया. एक रोज सालीजी का<br />पोस्टकार्ड आयाकि आपकी फोटों भिजवायें. उन दिनों मोबाइल वगैरह तो क्या घरपर भी<br />फोन की सुविधा नही थी. मैंने अपनी फोटों भिजवाई तो तुरन्तही सालीजी का जवाब आगया<br />कि हमने आपसे फोटों मांगी थी लेकिन आपने भूलसे अपनी एक्सरे भिजवादी लगती हैं. मैंने<br />जब अपनी सहेलियों को वह दिखाई तो वे सब हंस पडी और खूब मजाक बनाया. मुझे<br />काफी षर्मिन्दा होना पडा. जीजाजी ! प्लीज अपनी एक्सरे नही, फोटों भेजिये और इस<br />चिटठी को ‘तार’ समझियें-मेरा मानना है कि आजकी इस पीढी के अधिकांष लोगों को इस<br />‘तार’ षब्द का मतलब षायद ही पता होकुछ<br />वर्षों बाद किसी के उकसावें में आकर हास्य-व्यंग्य संग्रह की एक किताब<br />छपवाली. जब उसका विमोचन हो रहा था तो वहां एकत्रित हुई भीड में से किसी ने एक<br />नोटबुक मेरे आगे करदी. यहां मैं आपको बताना चाहता हूं कि मैं हिन्दी-इंगलिष में दिल्ली<br />से प्रकाषित ‘षंकर्स वीकली का वर्षों पाठक रहा और मुझें उस पत्रिका का प्रतीक चिन्ह, जो<br />कि एक गधा था, बहुत अच्छा लगता था. हास्य-व्यंग्य का माहौल देखकर मैंने उस व्यक्ति<br />की नोटबुक पर गधे का स्कैच खैंच दिया तो प्रषंसा करने की बजाय वह बोला सरजी ! मैंने<br />फोटोग्राफ नही ऑटोग्राफ मांगा था. अब आपही बतायें मैं उसे क्या कहता ?<br />एक बार एक निकट के रिष्तें की षादी में जाना हुआ. वहां एक मौकें पर बार बार<br />मेरी फोटों खैंची जाने के लिए बहुत आग्रह किया जाने लगा तो मैंने भी हर बार इठलाकर<br />कहा कि नही नही क्या करोगे मेरी फाटों खैंचकर ? तो पीछे से किसी ने आवाज लगाई<br />‘बच्चों को डरायेंगे’.<br />अब भी जब कोई मुझसे फोटों की मांग करता है तो सोचता हूं कि मैं उसे अपनी<br />फोटों भिजवातो दूं लेकिन क्या करूं आजकल बच्चें-बडें जो फोटुएं खैंचते है उन कैमरों में<br />रील नही होती, तो बिना रील की फोटों कैसी आयेगी और केैसे मैं किसी को भेजूंगा ? लेने<br />वालें भी ऐसी फोटों का क्या करेंगे ? इसीलिए मेरा कहना यही है कि ‘क्या करोगेगे तुमुम मेरेरी<br />तस्वीर लेकेकर’.<br /><span style="font-weight:bold;">-ई. शिव शंकर गोयल,<br />फ्लैट न. 1201, आई आई टी इंजीनियर्स सोसायटी,<br />प्लाट न. 12, सैक्टर न.10, द्वारका, दिल्ली- 75.<br />मो. 9873706333</span>तेजवानी गिरधरhttp://www.blogger.com/profile/15920539204622934103noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7544291197153976893.post-5889716817843385492011-11-14T06:04:00.001-08:002011-11-14T06:04:38.503-08:00बाल दिवस कैसे मनाता ?जाने क्या सोचकर 14 नवम्बर से कुछ पहले हमारी कॉलोनी के बच्चें मेरे पास आए<br />ओैर कहा कि अंकल इस बार हम बाल दिवस मनाना चाहते हेैं. मैंने उन्हें कहा कि मनाओ,<br />खूब मनाओ, किसने मना किया हेै ? आजकल तो मुक्त व्यापार व्यवस्था में हर रोज ही<br />कोई न कोई दिवस मन ही रहा हैं. फिर बाल दिवस तो हमारे देष में वैसे भी एक<br />महत्वपूर्ण दिवस है. इस पर वह बोले कि नही अंकल हम जो बाल दिवस मनाना चाहते है<br />उसमें आपको मुख्य अतिथि बनाना चाहते हैं.<br />यह सुनकर मैं चौंका. मुझे आज तक किसी ने मुख्य अतिथि तो क्या साधारण<br />अतिथि के लायक भी नही समझा. मैं स्वयं अपनेआप ही किसी समारोह में चला गया होउॅ<br />तो और बात हेैं. वहां गया, कुछ देर पीछे की कोई खाली सीट देखकर बैठ गया और जब<br />उपदेषात्मक भाषण से जी उकता गया तो उठकर चल दिया. खैर, मैंने उन्हें कहा कि आप<br />लोग मुझे बाल दिवस का मुख्य अतिथि बनाना चाहते है परन्तु मेरे सिर पर बाल तो है ही<br />नही फिर मैं बाल दिवस का मुख्य अतिथि बनकर क्या करूंगा ? इस पर बच्चें हंसने लगे<br />औेर एक साथ बोल पडे अंकल यह बाल दिवस सिर के बालोंवाला नही चाचा नेहरू के<br />जंमदिवसवाला बालदिवस हैं. तब कही जाकर मेरे को बात समझ में आईपहले<br />जब कोई परीचित कुछ अर्सें बाद मिलता तो पूछता था कि ‘बाल बच्चों के<br />क्या हाल है ?’ लेकिन अब उम्र के इस पडाव पर ऐसा मौका आने पर पूछता है ‘बच्चें<br />क्या कर रहे है ?’ यानि हालचाल पूछने में ‘बालों’ की कोई बात ही नही करताआपतो<br />जानते ही है कि सिर के बालों का सीधा संबंध नाई से भी हैं. पहले मैं बाल<br />कटवाने हर माह नाई की दुकान जाता था. लेकिन जबसे अमिताभ बच्चन का ‘कौन बनेगा<br />करोडपति’ ऐपिसोड चला हेै तब से ही नाइयों ने भी धूम मचा दी हैं. वे लोग ऐपीसोड की<br />तर्ज पर बाल काटने की दरें पहले दुगनी फिर चौगुनीवाली रफतार से बढाते जा रहे हेैं मानो<br />कांग्रेस और मनमोहनसिंहजी से पुरानी दुष्मनी निकाल रहे हो. जब ऐसा हुआ तो मैंने<br />उनकी दुकान पर जाने की ‘फ्रिक्वेन्सी’ कम करदी. मैंने सोचा कि मनमोहनसिंहजी अथवा<br />मॉन्टेकसिंहजी तो आक्सफोर्ड तथा हार्वर्ड यूनिवरसिटी की अपनी पढाई और विष्वबैंक के<br />अपने कार्यकाल के अनुभव से महंगाई कम करेंगे तब करेंगे क्योंन इसे कम करने की यह<br />तरकीब आजमाई जाय ? चाहे तो आपभी आजमाकर देखलें, बडे काम का नुस्खा हैंमहंगाई<br />का कारगर ढंगसे सामना करने का जो एक और गुर मेरे एक मित्र ने मुझे<br />बताया है वहभी लगे हाथ आपको बता देता हूं. उनके पास एक स्कूटर है. एक बार मैंने<br />उनसे पेट्ोल-डीजल के बढते दामों की चर्चा की तो बोले मैं तो जबभी पेट्ोलपम्प जाता हूं<br />तो सेल्समेन से कहता हूं कि सौ रू. का पेट्ोल डालदो. ऐसा पिछले कई सालों से कर रहा<br />हूं. मैंने तो आज तक एक नया पैसा ज्यादा नही दिया. कौन कहता है कि पेट्ोल महंगा हो<br />गया ? आपभी चाहे तो आजमा सकते हैंमैं<br />जिस सैलून पर बाल कटवाने जाता हूं वह नाई मेरे कुर्सी पर बैठते ही ‘मनोहर<br />कहानियां’ या ‘सत्य कथाओं’ में से कोई सनसनीखेज किस्सा ढंूढकर मुझे सुनाने लगता हैं<br />अथवा टीवी की विषेष चैनल चला देता है जिसमें छोटी छोटी बातों की भी सनसनी फैलाई<br />जाती है तथा बादमें बाल काटता हैं. एक बार जिज्ञासावष मैंने उससे पूछा कि वह ऐसा क्यों<br />करता है ? तो उसने जवाब दिया कि ‘अंकल ! आपके बाल बहुत कम और छोटें है, ऐसे<br />किस्सें सुनाने से बाल खडे होजाते है जिससे उन्हें काटने में सहुलियत होती है’ मैं इस<br />रहस्योदघाटन से आष्चर्यचकित रह गयाहालांकि<br />इससे पहले एक दो बार मैंने नाई से कहाभी कि मेरे तो बाल कम है अतः<br />कम रेट लगनी चाहिए तो उल्टे वह बोलाकि अंकल मैं तो लिहाज के मारे बोलता नही हूं<br />वर्ना आपके तो और भी ज्यादा पैसें लगने चाहिए क्योंकि एक एक बाल को ढूंढ ढूंढकर<br />काटना पडता है. जब मैंने उसकी यह दलील सुनी तो रेट के बारे में उसे कहना ही छोड<br />दिया क्या पता उसे फिर याद आजाय और वह दाम बढादे तो मेरी महंगाई का सूचकांक तो<br />उपर चला जायगा न, फिर कौनसा सरकार उसी हिसाब से मेरी पेंषन बढा देगी ? भुगतना<br />तो मुझे ही पडेगाइसलिए<br />मैंने तो कॉलोनी के बच्चों को मना कर दिया कि मैं बाल दिवस का मुख्य<br />अतिथि बनने लायक नही हूं. मेरे को बख्ष दे और किसी नेता को पकडेई.<br /><span style="font-weight:bold;">-ई. शिव शंकर गोयल,<br />फ्लैट न. 1201, आई आई टी इंजीनियर्स सोसायटी,<br />प्लाट न. 12, सैक्टर न.10, द्वारका, दिल्ली- 75.<br />मो. 9873706333 </span>तेजवानी गिरधरhttp://www.blogger.com/profile/15920539204622934103noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7544291197153976893.post-29411119725748945752011-11-12T05:53:00.001-08:002011-11-12T05:53:52.640-08:00बडी कचहरी - छोटी कचहरीईष्वर ने जबसे सृष्टि की रचना की न्याय तभी से किसी न किसी रूप में मौजूद<br />रहा हेैं. तुलसीदासजी ने मानस की रचना तो कलियुग में की लेकिन कथा त्रेतायुग की कहीउसमें<br />उन्होंने न्याय के लिए यही कहा ‘समरथ को नही दोष्ेष गुसुसांइंईर्’ . फिर ‘जिसकी लाठी<br />उसकी भैंस’ का जमाना आया और काजीजी न्याय करने लगे. उस काल में काजी इतने<br />मषहूर होगए कि उनके नाम के मुहावरें बनने लगे. मसलन ‘काजीजी दुबुबले क्यों ं ? षहर के<br />अंदंदेष्ेषे से’े’ या ‘मियां बीबी राजी तो क्या करेगेगा काजी ? इत्यादि फिर राजाओं का जमाना<br />आयाकुछ<br />का कहना है कि वें बडे न्यायप्रिय थे. रजवाडों के समय में न्याय कैसे होता था<br />इसकी एक छोटीसी मिषाल पेष है. राजस्थान की एक बडी रियासत की हुबहू घटना हैं. एक<br />समय उस राज्य में ‘दरबार’ के फैसले हेतु काफी फाइलंें इकटठी होने लगी. हालांकि दरबारी<br />एवं कारिन्दें उन्हें बार बार याद दिलाते रहते थे, ‘बडा हुकुम ! घणी खम्मा ! घणी सारी<br />फाइलां को ढेर लाग रयोै है जो गरीब परवर से न्याय मांग रही हेै, हुजूर की करौ’ लेकिन<br />महाराजा साहब को इन कामों के लिए फुर्सत कहां थी. वह कह देते<br />अरे बाला ! अबार रैबादेै, जद चौको दिन होसी कर देवा फैसलो, कित्तोक तो टैम<br />लागसी ?-अर्थात जब अच्छा दिन होगा तब फैसला कर देंगे.-<br />परन्तु धीरे धीरे जब फाइलों का अंबार लग गया तो एक रोज मुंह लगा एक दरबारी<br />हाथाजोडी करके उन्हें न्यायकक्ष में लेगया. वहां एक बडी मेज पर फाइलों का ढेर रखा हुआ<br />था. जब महाराजा सिंहासन पर विराज गए तो उन्होंने एक दरबारी से कहा कि ‘आलै म्हारी<br />छडी और इै ढेर पर मार.’ उस कारिन्दें ने उनके हुकम का पालन किया. इसका नतीजा<br />यह हुआ कि कुछ फाइलें मेज के दाहिनी ओर गिर गई और कुछ बांयी ओर, इसके बावजूद<br />कुछ अभागी फाइलें मेज पर ही पडी रह गई.<br />...अब काई करणों है हुजूर ! कारिन्दें ने पूछने की हिम्मत की.<br />...करणो कांई है रे, जो अठीनै-दाहिनी तरफ-पडी है बै सगलां जीत गया औेर जो<br />बठीनै-बांयी तरफ-पडी है बै बापडा-अभागा-सगलां हार गया.-दाहिनी तरफवालें जीत गए<br />और बांयी तरफवालें हार गए-<br />...हुजूर ! अै कुछ फाइलां तो अठैही-मेज पर ही- रहगी, ब्याकौ कांई करणो है ?<br />-जो कुछ फाइलें मेज परही रह गई उनका क्या करना है-<br />... अरे गेला ! तू गेलो ही रयौ, तू कोनी सुधरै. यांको यान करणो है कि सबानै<br />साल दो साल की तारीख दे दै. न्याय कोई यांन ही कोनी मिलै, कोई हथेली म्है तो सरसों<br />उगै कोनी, इमै भी टैम लागेै. समझयो या कोनी समझयो ?-यानि बाकी लोगों को अगली<br />तारीख देदे. इतना कह कर महाराजा यह कहते हुए चल दिए कि ‘म्हानै अब और टैम<br />कोनी. और घणो ही काम करबा को है, ओ एकलो काम ही थोडी हेैं.’<br />बाद में उनकी प्रजा ने जब यह बातें सुनी तो उनमें से जीतनेवालों के उदगार थे कि<br />वाह ! महाराजा, घणीखम्मा, अन्नदाता कांई न्याय करयौ है, दूध को दूध और पाणी को<br />पाणी कर दियो जाण हंसो करै है, जदी तो अै राजा सूर्यवंषी-चन्द्रवंषी कहलावै हैें. धन्य<br />म्हाका भाग जो इस्यां राज म्है पैदा हुया. कलयुग म्है भी सुरग की जाण लागै हैंअंग्रेजों<br />के समय से ही इस षहर में दो कचहरियां थी. और दूसरी जगह की तरह<br />मसलन पुरानी दिल्ली की फतेहपुरी स्थित ‘भवानीषंकंकर की कचहरी,’ की तरह उनका<br />नामकरण नही था. आपको तो पता ही होगा कि भवानीषंकर जसवंतराव होल्कर का वजीर<br />था जो बाद में अंग्रेजों से मिल गया था. इसी कारण उसकी इतनी प्रसिद्धी है कि कूंचा<br />घासीराम स्थित उसकी हवेली आज भी ‘नमक हराम की हवेलेली’ के नामसे जानी जाती हैदेख्<br />ाा आपने, क्या नाम है ? खैर, इस षहर में स्थित यह कचहरियां तो एक छोटी और<br />दूसरी बडी कचहरी कहलाती हैं. कहते है कि कचहरियां कानून के अनुसार चलती हैं परन्तु<br />लोगों का कहना है कि यह दोनों कचहरियां तो आज भी वही की वही है जहां सौ साल<br />पहले थी. यहां वकील अब भी काला कोट पहनकर आते हैं. कहते है कि सन 1694 ईमें<br />इंगलेंड में क्वीन मेरी का देहांत होगया तब उनके षोक में जिन देषों में अंग्रेजों का राज्य<br />था वहां की अदालतों में काले कपडें पहनकर आना षुरू हुआ था जो परम्परा के वषाीभूत<br />होकर आज तक चालू हेैं. भला बताइये कि ऐसी परम्पराएं नही निभाएंगे तो हम दुनियां को<br />कैसे बतायेंगे कि कभी अंग्रेज हम पर राज्य करते थेदोनों<br />ही कचहरियों में बडे दिलचस्प मुकदमें आते रहते हैंे. बहुत वर्षों पूर्व की बात<br />है. बडी कचहरी में एक मुकदमा दाखिल हुआ. उसके अनुसार रामू नामक एक व्यक्ति यात्रा<br />पर गया. जाने से पहले उसने अपने मित्र ष्यामू को कहा कि मेरे पास 500 रू. है वह<br />तुम रखलो जब मैं वापस आउॅगा तो लेलूंगा. यह कहकर वह कुछ दिनों के लिए यात्रा पर<br />चला गया. जब डेढ-दो महीनें बाद वापस लौटा तो उसने ष्यामू से अपने रू. वापस मांगे<br />लेकिन ष्यामू मुकर गया और रामू से कहा कि कौनसे रू.? मामला अदालत में पहुंचा. जज<br />ने रामू से कहा कि तुमने रामू को जब रू. दिए थे तब क्या कोई अन्य व्यक्ति भी वहां था<br />? रामू सीधासादा था बोला हुजूर मैंने रू. एक पेड के नीचे दिए थे, उस समय वहां हम<br />दोनों के अलावा और कोई नही था. इस पर जज महोदय ने एक योजना बनाई ओैर उसी<br />अनुसार रामू से कहा कि जाओ और उस पेड से पूछकर आओ कि क्या वह इस केस में<br />गवाही देगा ? रामू चला गया. जब काफी देर बाद भी वह नही लौटा तो जज ने अदालत<br />में कहा कि क्या बात हुई रामू अभीतक नही लौटा तो ष्यामूने कहा कि वह अभी से ही<br />कैसे लौट आयेगा, वहतो अभी वहां तक पहुंचा भी नही होगा. इस बात पर जज ने उसको<br />पकड लिया और कहा कि तुम्हें कैसे मालूम कि वह पेड यहां से बहुत दूर है ? तुम सच<br />सच बताओ नही तो मैं तुम्हें कडी से कडी सजा दूंगा इस पर ष्यामू घबडा गया और सच<br />सच बता दिया. इस तरह पेड की गवाही की युक्ति काम आगई और रामू को उसकी रकम<br />मिल गई.<br />षायद इसी से प्रेरणा लेकर यहां के नगर निगम ने अपने मुख्य द्वार के पास स्थित<br />पेड पर एक बोर्ड लगाया हुआ है जिस पर लिखा है ‘मृतक जानवरों ं की सूचूचना यहां देवेवें’ं’<br />जबकि हकीकत में अकसर वहां पेड के अलावा और कोई होता ही नही हैं. निगम का<br />आषय यह रहा होगा कि जब पेड कचहरी में गवाही दे सकता है तो निगम की रिपोर्ट क्यों<br />नही दर्ज कर सकता हैं ? अवष्य कर सकता हैं और वह भी बिना पगार बढाने की मांग<br />किए और बिना धरना, प्रदर्षन अथवा हडताल की धमकी दिए.<br />इसी कचहरी में एक बार बडा दिलचस्प केस आया. वाद के अनुसार एक षाम चार<br />व्यक्ति दौलतबाग में जूआ खेल रहे थे. एक पुलीसवालें की नजर उनपर पड गई. उसने<br />उनको रंगे हाथों पकड लिया. उन पर केस दायर हुआ. काफी समय तक मुकदमा चला<br />और गवाह इत्यादि के बयानों के बाद अभियुक्तों की पेषी हुई. मजिस्ट्ेट ने पहले अभियुक्त<br />से पूछा:-<br />...तुम फंला तारीख को बाग में जूआ खेल रहे थे ?<br />...हुजूर ! पुलीस का यह आरोप गलत हैं. उस तारीख को तो मैं धार्मिक यात्रा पर<br />रामेष्वरम गया हुआ था. इसका प्रमाण है ‘चारधाम सप्तमपुरुरी यात्रा’ हेतु प्रसिद्ध यात्रा<br />कम्पनी की यह एलटीसी की रसीद. मैं धर्म-कर्म को माननेवाला व्यक्ति हूं. मुझे इनसे क्या<br />लेना देना ?<br />मजिस्ट्ेट महोदय ने उसकी दलीलों से सहमत होते हुए उसे बरी कर दियाअब<br />दूसरें अभियुक्त की बारी आई. उसने कहा:-<br />...मैं तो एक लम्बे अर्से से बीमार हूं और इसका प्रमाण है षहर के मषहूर आरएमपी,<br />‘खानदानी हकीम’ साहब का सार्टिफिकेटमजिस्ट्<br />ेट महोदय ने कुछ सोचकर उसे भी बरी कर दिया. अब तीसरें का नम्बर आयाउसने<br />कठघरे में खडे होकर बयान दिया:-<br />...सा’ब ! मैं एक जिम्मेवार सरकारी कर्मचारी हूं. हाजिरी करने के बाद हमें सुबह से लेकर<br />रात तक ऑफिस में मौजूद रहना पडता हैं. मैं उस रोज वहां मौजूद था और इसके सबूत<br />के रूप में यह रहा मेरे बॉस गजेटेड ऑफीसर का उपस्थिति प्रमाण पत्र.<br />मजिस्ट्ेट साहब के पास इसे भी छोडने के अलावा क्या चारा था ? जब तीनों अभियुक्त<br />बरी हो गए तो चौथे की बारी आई. उसने अपनी बात रखते हुए मजिस्ट्ेट साहब से कहा<br />...हुजूर ! जब यह तीनों ही वहां नही थे तो मैं अकेला किसके साथ जूआ खेलता ?<br />अंततः मजिस्ट्ेट साहब ने उसको भी बरी कर दिया.<br />षायद इसी से प्रेरणा लेकर देष के कुछ राजनीतिज्ञ ‘नोटेट के बदले वोटेट’ का खेल<br />खेल गए. अब दोनों ही मुख्य राजनीतिक दलों एवं तथाकथित समाजवादी दल के नेता,<br />सभी, एक एक करके मना कर रहे है कि ‘खेल’ में हम थे ही नही अर्थात ‘नो वन किल्ड<br />जेेिसिकालाल’ अब आखिरी बंदा भी इंकार कर देगा कि मैं अकेला किससे नोट लेता ओैर<br />किसको नोट देता ? इसको कहते है ‘चातुरुरी’ परन्तु इन्होंने षायद यह कहावत नही सुनी है<br />‘घणी चतुरुराईर्,, खुदुद नै ही खाईर्’’<br />कचहरी में एक बार ऐडीषनल जज के इजलास में एक केस आया. हुआ यह कि<br />वरमाजी और षरमाजी के सरकारी बंगलें पास पास ही थे. वरमाजी मलाईदार विभाग में थे<br />जबकि षरमाजी के यहां छाछ की भी तंगी थी. वरमाजी ने अलग अलग विदेषी नस्ल के दो<br />कुत्तें पाल रखे थे. वह बडा षोर मचाते थे. षरमाजी को यह सब बडा अखरता थाआपसकी<br />कुछ कहा-सुनी से जब कोई बात नही बनी तो उन्होंने ऐडीषनल जज की अदालत<br />में वाद दायर कर दिया. जब मामला सुनवाई हेतु आया तो जज महोदय ने वरमाजी को<br />पूछा कि आपने कुत्तें पाल रखे है जिनसे पडौसियों की षांती भंग होती है, आपको इस बारें<br />में क्या कहना है ? वरमाजी गुस्से से भरे हुए थे ही, बोले ‘हम न किसी से कुछ लेते है ना<br />किसी को कुछ देते है, अपनाही खाते है, अपनाही पीते हैं. हमनें कुत्तें पाले है इसमें दूसरों<br />को क्या एतराज है ?<br />...परन्तु दो दो कुत्तों की क्या आवष्यकता है ? जज महोदय ने पूछा.<br />...वैसे तो एक ही काफी है, हुजूर ! दूसरा तो ऐडीषनल हैं. वरमाजी ने उत्तर दिया.<br />यह सुनने के बाद जज महोदय ने सामने रखी फाइलों में ऐसी नजर गढाई कि फिर उठाई<br />ही नही जब तककि सारा इजलास खाली नही हो गयाउन<br />दिनों की बात है जब अधिकांष लोग कोर्ट कचहरी यातो पैदल जाते थे या तांगें<br />की सवारी करते थे. एक बार एक वकील साहब कचहरी जा रहे थे. रास्तें में षीतलामाता<br />के मंदिर के पास एक तेली की घाणी पडती थी. वहां घाणी पर एक बैल, जिसकी आंखों पर<br />लकडी के टॉपें लगे हुए थे, घाणी के कोल्हू के चारों तरफ चक्कर लगा रहा था. बैल के<br />गले में घन्टी भी बंधी हुई थी जिसकी आवाज से दूर बैठे तेली को पता चलता रहता था कि<br />बैल रूका नही, घूम रहा हैं. कौतुहलवष वकील साहब यह सब देख्कर ठिठक कर वही खडे<br />हो गए. उन्हें वहां देखकर तेली उनके पास आगया और पूछा कि हुकम, क्या बात है ? इस<br />पर वकील साहब ने उससे कहा कि मानलो यह बैल चलते चलते खडा हो जाय औेर<br />आवाज करने के लिए अपने गले में बंधी घंटी को घुमाता रहे तो तुमको कैसे पता लगेगा<br />कि यह घूम रहा है या रूका रूका ही घंटी बजा रहा है. इस पर तेली बोला ‘वकील साहब<br />वकालात की डिग्री आपने पास की है इस बैल ने नही की हैं. यह कर लेगा जब की तब<br />देखेंगेउस<br />जमानें में वकीलों के मुंषी अधिकांष में यातो कोई मियांजी होते थे या माथुर.<br />यह दोनों ही कौमें उर्दू में माहिर होती थी. मियां अब्दुल वहीद षहर के नामी फौजदारी<br />वकील, जिनका ऑफिस कडक्का चौक में हुआ करता था, के मुंषी थे. वकील साहब जज<br />महोदय के दूर के रिष्तें में भानजी दामाद लगते थे इसलिए, कहते है कि, उस समय उनकी<br />चवन्नी खूब चलती थी. यह निगोडी चवन्नी तो अब जाकर बंद हुई है. उस समय तो खूब<br />चलती थी आप किसी पुरुराने-यहां पुराने से मेरा आषय अधिक उम्रवालांे से हेै-आदमी को<br />पूछ सकते हेैंवही<br />मुंषीजी कचहरी की चाय की थडीपर बिछी मुडिडयों पर बैठे हुए अपने साथियों<br />को बता रहे थे कि एक बार एक आदमी से आवेष में आकर मर्डर होगया. वह चाहता था<br />कि उसे फांसी न होकर आजंम कैद होजाय. उसने हमारे वकील साहब से बात की. उन्होंने<br />उसे आष्वासन दिया कि तुम बेफिक्र रहो, मैं सब संभाल लूंगा. खैर जब फैसला हुआ तो<br />उस व्यक्ति को आजंम कैद की सजा सुनाई गई. वकील साहब और मैं उससे मिलने जेल<br />गए. वहां वकील साहब को देखते ही उसने उनका बहुत बहुत षुक्रिया अदा किया. वकील<br />साहब ने उससे कहा कि तुम बहुत किस्मतवालें हो जो तुम्हारें मन माफिक फैसला होगया<br />वर्ना जज साहब तो तुम्हें छोडनेवाले थे किसी तरह तुम्हें आजंम कैद करवाई हैंउसी<br />स्थान पर चाय पीते पीते मुंषी वहीद के दोस्त मुंषी देवकीनन्दन माथुर ने<br />बताया कि एक बार लालू-राबडीदेवी के राजकाल में हमारें वकील साहब अपने किसी<br />रिष्तेदार का केस लडने पटना गए. वहां उन्होंने कोर्ट में उस काम के साथ साथ एक<br />जनहितयाचिका भी दाखिल की कि इस राज्य में बिजली, पानी, षिक्षा, सुरक्षा इत्यादि कुछ भी<br />नही है. तब जज ने इन्हें कहा कि आप इसकी बजाय जनता को लेकर सडकों पर क्यों<br />नही आजाते ? यहां सडकें भी कहां है हुजूर ! इन्होंने जज को जवाब दियाकचहरी<br />में किसी फौजदारी केस की सुनवाई चल रही थी. वकील साहब एक<br />चष्मदीद गवाह से जिरह कर रहे थे. वाकया था कि गवाह ने मुजरिम-अभियुक्त- को रात्रि<br />में खून करते देखा था. उसका कहना था कि उस समय घटनास्थल के पास ही पेड पर एक<br />उल्लू भी था तो वकील साहब ने जोर देकर पूछा कि<br />... क्या तुमने उल्लू देखा है ?<br />गवाह सहमकर चुपचाप खडा रहा और इजलास की खिडकी से बाहर की तरफ देखने लगाइस<br />पर वकील साहब और भी भडक गए और गवाह से कहा<br />...उधर क्या देख रहे हो, मेरी तरफ देखो.<br />वकील साहब का इतना कहना था कि कोर्ट में मौजूद सभी लोग मुस्कराने लगे.<br />एक बार किसी दिवानी मुकदमें में वादी के वकील साहब अपनी जिरह पेष कर रहे<br />थे और नजीर पर नजीर दिए जा रहे थे. इस पर जज महोदय ने उनसे कहा कि मुझे तो<br />लग रहा है कि तमाम सबूतों और गवाहों के आधार पर कहा जा सकता हेै कि कसूरवार<br />आप हीे है, इस पर वादी के वकील ने तैष में आकर कहा कि ‘कौनैन साला कह रहा है ?<br />इसे सुनकर वहां उपस्थित सभी को बुरा लगा. जज साहब ने भी इसका संज्ञान लेते<br />हुए एतराज किया और अपने पेषकार से कहा कि वकील साहब को अदालत की मानहानि<br />का नोटिस दिया जाय. वहां खडे कुछ और वकीलों ने भी अपने साथी को समझाने की<br />कोषिष की. इस पर उन्होंने पलटा खाते हुए कहा कि मैंने तो यह कहा था कि कौनैनसा ‘ला’<br />कहता है ?<br />बाद में वकील साहब की इस दलील को कोर्ट भी मान गया और मामला वही रफा<br />दफा होगयाइसी<br />कचहरी की बात हेैं. एक चोरी के केस में एक वयोवृद्ध वकील साहब अभियुक्त<br />से जिरह कर रहे थे.<br />वकील:- क्या तुमने चोरी की ?<br />मुजरिमः- जी साहब<br />वकील:- अच्छा यह बताओ तुमने चोरी कैसे की ?<br />मुजरिमः- रहने दीजिए साहब, इस उम्र में आप यह सब सीखकर क्या करेंगे ?<br />यहां मृत्युलोक में तो कोर्ट कचहरियां होती ही है वहां यानि उपर जाने के बाद भी<br />वादविवाद चलते रहते हेैं. कहते है कि एक बार स्वर्ग और नरकवालों के बीच साझें की<br />दीवार को लेकर झगडा होगया. दोनों ही पक्षों का अपना अपना दावा था कि यह हमारी हद<br />हैं. बहस के दौरान यह बात उठी कि मामलें को अदालत में लेजाया जाय. इस पर<br />नरकवालों के चेहरें खिल उठे और स्वर्गवालें मायूस हो गए. वहतो बाद में यमदूतों ने<br />रहस्योदघाटन किया और बताया कि स्वर्ग में तो वकीलों का टोटा है, ढूंढें नही मिलतेउनका<br />केस लडेगा कौन ?<br />इस तरह इन दोनोही कचहरियों में मुकदमों के दौरान हंसी-मजाक की बातें भी होती<br />रहती हैंई.<br /><span style="font-weight:bold;">-ई. शिव शंकर गोयल,<br />फ्लैट न. 1201, आई आई टी इंजीनियर्स सोसायटी,<br />प्लाट न. 12, सैक्टर न.10, द्वारका, दिल्ली- 75.<br />मो. 9873706333 </span>तेजवानी गिरधरhttp://www.blogger.com/profile/15920539204622934103noreply@blogger.com0