रविवार, 15 जनवरी 2012

कल कह ना सकूं


कल कह ना सकूं
दिल की बात आज ही
कहना चाहता हूँ
रात सोऊँ सवेरे उठ
ना पाऊँ
इस तरह दुनिया से
रुखसत होना चाहता हूँ
सबको हँसते गाते
छोड़ कर जाना चाहता हूँ
जानता हूँ जब भी कोई
अपना जाता
दिल कितना रोता है
किसी अपने को
रुलाना नहीं चाहता हूँ
याद कर
आंसू ना बहाए कोई
जाने के बाद किसी को
याद नहीं आऊँ
ज़िन्दगी के सफ़र में
मिला था मुसाफिर कोई
समझ कर
भुला दिया जाऊं
दुखाया हो
दिल किसी का कभी
हुयी हो गलती कोई
तो जीते जी
माफ़ कर दिया जाऊं
जाने के बाद
दिल किसी का दुखाना
नहीं चाहता हूँ
दे नहीं सका खुशी जिन्हें
उन्हें खुश देखना
चाहता हूँ
बना ना सका अपना
जिन्हें
उन्हें अपना बनाना
चाहता हूँ
बचे वक़्त का हर लम्हा
दूसरों के लिए जीना
चाहता हूँ
कल कह ना सकूं
दिल की बात आज ही
कहना चाहता हूँ
सुकून से जाना
चाहता हूँ
डा.राजेंद्र तेला,"निरंतर"
"GULMOHAR"
H-1,Sagar Vihar
Vaishali Nagar,AJMER-305004
Mobile:09352007181

मैं खडा होना चाहता हूं, व्यंग्य


अब मैं भी खडा होना चाहता हंू। नहीं, आप गलत समझ गए। मैं अपने
पेैरों पर तो पहले से ही खडा हूं। मैं तो चुनाव दंगल में खडे होने के लिए कह
रहा हंू। कहते हैं कि खडे होने का अनुभव या तो मंत्री को होता हैे या संतरी
को, लेकिन उं-हंू, मेरे को यह बात नही जंचती। अब मुझे ही लो, मुझे खडे होने का क्या कम अनुभव है? बचपन में पढने लिखने में ठोठ, कमजोर था,
पंडितजी पहाडे याद नहीं करने पर खूब मारते थे, बैंच पर खडा कर देते थे,
फिर घंटों खबर नहीं लेते कि मैं खडा ही हंू या कहीं बैठ तो नहीं गया? मेरी
पढाई से ज्यादा खडे रहने की तरफ जब ध्यान दिया जाने लगा तो मैंने रो-
धो कर स्कूल बदल ली, लेकिन यहां भी मास्साब मेरी खूब खबर लेने लगे। सलेख नहीं लिखने पर डंडों से पिटाई करके बाहर धूप में खडा कर देते थे, इसलिए बचपन से ही मुझे खडे होने का अच्छा खासा अनुभव है और आप जानो पूत के पांव पालने में दिख जाते हैं, बचपन से ही जिसने खडे होने का इतना अनुभव ले लिया हो वह कहां खडा नहीं हो सकता? मास्साब भी कहते थे
बडा होकर यह या तो मंत्री बनेगा या संतरी। खैर,
थोडा बडा हुआ तो मां थैला पकडा कर राषन की दुकान पर भेज देती।
वहां घंटों खडे रहने का अनुभव मिला। वहां जब भी जाते दुकान बंद मिलती
और कभी भाग्य से दुकान खुली मिल भी जाती तो घंटों खडे रहकर इंतजार
करना पडता और जब नम्बर आ भी जाता तो या तो कचरा मिला गेंहू अथवा
गीली षक्कर या मिलावट का कैरोसीन खत्म हो चुका होता। अक्सर राषन की
दुकानवाले के पास रेजगारी भी नहीं होती थी और वह बात-बात में झल्लाता
तथा दुर्व्यवहार करता था। बहरहाल घंटों लाइन में थैला लटकाए खडे होने का
अनुभव तो है ही, कहीं आप यह न समझ लें कि अनुभव नहीं है। इसी तरह पास के मोहल्ले में लगे हैंडपम्प पर पानी भरने जाते थे तो वहां काफी देर खडे रहते क्योंकि पहले तो मोहल्ले के दादा लोग पानी भरते फिर जिस व्यक्ति का मकान हैंडपम्प के पास होता वह उसे अपनी जागीर होने की धौंस बताता और जिसे वह अपना समझता उसे पहले पानी भरवाता, लिहाजा घंटों खडे रहते।
ऐसे कई अनुभव बचपन और किषोरावस्था के हैं। चंद उदाहरण आपको
यह बतलाने के लिए लिखें है कि सनद रहे और वक्त बेवक्त आप भी गवाही दे
सकें कि मुझे खडे होने का अनुभव है।
युवावस्था में पैर रखा तो कभी कभार थर्ड क्लास में सिनेमा देखने भी
चले जाते थे, वहां साढे तीन बजे के षो देखने के लिए 2-3 घन्टे पहले से ही
लाईन लग जाती थी, उस लाइन में घंटों खडे रहते तब कहीं धक्का-मुक्की
खाते-खाते टिकट हाथ आता, कभी नहीं भी आता क्योंकि ब्लैक वाले दादाओं का ज्यादा जोर था औेर उन्हें पुलिस का संरक्षण था। यों खडे रहने का अनुभव
षादी के अवसर का भी है। ससुराल में तोरण मारने के बाद वहां दरवाजे के
बाहर काफी देर खडे रहे ताकि हमारी भावी पत्नी आकर वर माला डाल दे, लेकिन वह अपने हिसाब से आई। फिर जब घर गृहस्थी में पड गए तो आटा-दाल का भाव भी मालुम हो
गया और नौकरी के लिए भर्ती दफतर में नाम लिखवाने गए और वहां जो
लाइन में खडे हुए तो बस हद हो गई। सुबह से लगे लोगों को षाम तक किसी ने यह नहीं पूछा कि क्यों खडे हो?
घन्टों खडे रहने की बातें तो बिजली-पानी के बिल जमा कराने जाता हंू
तब की भी बहुत हैं, लेकिन जो अनुभव कोर्ट कचहरी का है, उसे आपको क्या
सुनाउं ओैर क्या नही सुनाउं? वहां ठेठ गांव वाला क्या ओैर अच्छे से अच्छा
पढा लिखा तीस मारखां क्या, सभी घंटों खडे रहते हैं, तब कही जा कर अचानक पता लगता हैें कि कोई तारीख पड गई हैं, कोर्ट कचहरी में कटघरे के अन्दर चाहे बाहर अगर आप कहीं भी खडे रहे हैं तो आपको किसी और अनुभव की जरूरत नही है। आप कहीं भी खडे हो सकते हैं।
खडे होने का अनुभव उन सभी को है, जो कोई भी अपनी षिकायत या
अपनी मुसीबत लेकर किसी सरकारी दफतर गया हो तो वहां घंटों खडे रहना
पडता हैं, कोई कहता है वहां जाओ कोई कहता हैं वहां जाओ और आप घूमते
रहो जैसे मेले में पुलिसवाला और ग्रहण चन्द्र ग्रहण सूर्यग्रहण में थोरी
मांगने वाला घूमता है।
खडे रहने का एक रिकार्ड कानपुर के ‘धरती पकड’ का भी रहा है। वे कई
सालों तक चुनाव में खडे होते रहे, खडे रहने का एक रिकार्ड षाहजंहापुर के
स्वामी मांजगीर का भी है, वे सन 1955 से 1973 यान 18 साल तक ‘हठ
योग’ में खडे ही रहे। मैं इतना मुकाबला तो नही कर सकता लेकिन अगर यह
महानुभाव इस दफा खडे नही होते है तो किसी न किसी राजनीतिक दल द्वारा
मुझे अवसर दिया जाना चाहिए।
-ई. शिव शंकर गोयल,
फ्लैट न. 1201, आई आई टी इंजीनियर्स सोसायटी,
प्लाट न. 12, सैक्टर न.10, द्वारका, दिल्ली- 75.
मो. 98737063339

शनिवार, 14 जनवरी 2012

भारत क्या है?

भारत देश विकास के पथ पर निरंतर आगे बढ़ रहा है। यह बात हमें खुशी देती है। चाहें हम भौतिक प्रगति की बात करें या वैज्ञानिक प्रगति हर ओर हम बुलंदी के झंडे गाड़ रहे हैं। अर्थ के क्षेत्र में भी भारत ने स्वर्णिम सफलाताएं पायीं हैं। अगर इसी प्रगति को आधार मानें तो भारत जल्द ही विश्वगुरु की ख्याति पुन: प्राप्त करने की राह पर अग्रसरित है। हमारे के लिए यह गर्व का विषय होगा क्योंकि हम सदियों तक दासता की बेडिय़ों में जकड़े रहे। कितनी शहीदों की कुर्बानी के बाद हम आजाद हुए। लेकिन यह सोचनीय विषय है कि इस भौतिक प्रगति को आधार मानकर क्या हम अपनी मौलिकता नहीं खो रहे? इस दिखावे की प्रगति को ही सर्वस्व मान लेना हमारी संस्कृति में नहीं रहा। हमने हमेशा जि़न्दगी के उत्तम सोपानों को ही आधार माना है। यही हमारे लिए दुर्भाग्य की बात है कि हम जीवन के आधार सूत्र देने वाले अपने वेदों, उपनिषदों जैसे ग्रंथों को भूलकर कामनी काया के फेर में फंसे हैं।

हमने ज्ञान के क्षेत्र में हमेशा हर देश को मात दी, फिर ऐसा क्या हुआ कि भौतिकता ज्ञान पर हावी हो गई? पश्चिमी सभ्यता का अनुकरण ही हमारा आधार बन गया। उनसे अच्छाई ग्रहण करने के बजाय हमने उन्हें अपना लीडर मान लिया। ऐसा लगता कि यह कमाल उस शिक्षा पद्धति का है जो अंग्रेजी शासन दंश रूप में भारत को दे गया। जिसके चलते हमने भारतीयता को त्याग दिया और अपनी संस्कृति को भुलाकर हम उस पर गौरव करना भूल गए। स्थिति यह है कि कहीं भी जाइए इस गुलामियत के शिकार हमें खोजने नहीं पड़ेंगे।

इन्हीं सब कारणों के चलते आज जरूरत महसूस की जा रही है कि हमें भारतीय मूल्यों को पुन: स्थापित करना होगा। इसके लिए जरुरत है उस क्रांतिकारी कलम जो आजादी का सपना देखती है और उसमें कामयाबी पाती है। जरुरत है ऐसी लेखनी की जिसका सहारे कामयाबी के मायावी दलदल से निकलकर सच्चाई सफलता की ओर बढ़ें। यही क्रांतिकारी सोच दिखती है सलिल ज्ञवाली की पुस्तक ‘भारत क्या है’ में। इस पुस्तक में भारतीय सोच और व्यापकता से प्रेरित शीर्ष वैज्ञानिकों, दार्शनिकों, और संतों के वाणी का संकलन है। जिसकी उपयोगिता को वर्णित करना कठिन है। भारत ज्ञान का वह तहखाना है जिसके अंदर छिपे रहस्यों को आज तक जाना नहीं जा सका है। हमारी ऋषि सत्ताओं ने इसी पर शोध किया और भारत की महानता को प्राचीन ग्रन्थों में वर्णित किया। भारत में प्रकृति से ज्ञान की धाराएं बहती हैं, जो हमें सत्य लक्ष्य की ओर अग्रसरित करती हैं। ज्ञान का संबंध हमेशा से प्रकृति के साथ रहा है। इसलिए प्रकृति के माध्यम से इसे सहजता से प्राप्त किया जा सकता है। ऋषियों ने इसीलिए प्रकृति को प्रयोगशाला मानकर तरह-तरह के प्रयोग किए हैं। जिससे उन्होंने प्रेम और सत्य के मार्ग पर चलकर आत्म निर्वाण प्राप्त करने का मंत्र दिया।
भारत किसी देश या क्षेत्र का नाम नहीं है। भारत, मन की उस स्थिति को कहते हैं जहाँ मनुष्य का चित्त आत्मिक प्रकाश से भरा हो, और वह सतत्-संतुष्ट हो। इस अध्यात्मपरक ज्ञान के अतिरिक्त हमने विज्ञान के क्षेत्र में भी अभूतपूर्व खोजें की। हमने जीरो दिया, आयुर्वेद का ज्ञान दिया। भारत ने समस्त विश्व को जो नेमतें दीं, उन्हें अगुलियों पर नहीं गिना जा सकता।


आज के इस युग में भारतवासियों को भारत के बारे में बताना सच में चुनौती पूर्ण कार्य था। सलिल जी ने इस चुनौती को स्वीकार किया। अपने शोध, कठिन परिश्रम और लगन की बदौलत एक ऐसी पुस्तक हमारे समक्ष प्रस्तुत जो हमें भारतीय होने का गर्व करा सके और हमें बता सके कि भारत क्या है? यह पुस्तक विश्वस्तर पर ख्याति पा चुकी है। इस अनुपम पुस्तक में सलिल जी ने पाश्चात्य विचारकों, वैज्ञानिकों के साथ ही भारतीय विचारकों के कथन का हवाला देते हुए इस बात की पुष्टि की है कि जिस सनातन संस्कृति के ज्ञान को हम श्रद्धा के साथ आत्मसात करने में हिचकते है वही ज्ञान पाश्चात्य जगत के महान वैज्ञानिकों, लेखकों और इतिहासकारों की नज़रों में अमूल्य और अमृत के सामान है. कितने आश्चर्य की बात है कि आज हम उसी ज्ञान को भुला बैठे हैं।

लेखक की अद्भुत कृति में आइन्स्टीन, नोबेल से सम्मानित अमेरिकन कवि और दार्शनिक टी एस इलिएट, दार्शनिक एलन वाट्स, अमेरिकन लेखक मार्क ट्वेन, प्रसिद्ध विचारक एमर्सन, फें्रच दार्शनिक वोल्टायर, नोबेल से सम्मानित फें्रच लेखक रोमा रोला, ऑक्सफोर्ड के प्रो$फेसर पाल रोबट्र्स, भौतिक शास्त्र में नोबेल से सम्मानित ब्रायन डैविड जोसेफसन, अमेरिकन दार्शनिक हेनरी डेविड थोरो, एनी बेसंट, महान मनोवैज्ञानिक कार्ल जुंग के साथ भारतीय विचारकों जैसे अब्दुल कलाम के विचारों को आप पढ़ और समझ सकते हैं। इतना तो स्पष्ट है किताब को पढने के बाद जिन प्राचीन ऋषि मुनियों की संस्कृति से दूरी बनाये रखने को ही हम आधुनिकता का परिचायक मान बैठे हों उस के बारे में हमारी धारणा बदले।
इस पुस्तक को पढऩे पर हम पाएंगे कि आइन्स्टीन कह रहे हैं कि हम भारतीयों के ऋणी हैं जिन्होंने हमको गणना करना सिखाया जिसके अभाव में महत्वपूर्ण वैज्ञानिक खोजें संभव नहीं थी। वर्नर हाइजेनबर्ग प्रसिद्ध जर्मन वैज्ञानिक जो क्वांटम सिद्धांत की उत्पत्ति से जुड़े हैं का यह कहना है कि भारतीय दर्शन से जुड़े सिद्धांतो से परिचित होने के बाद मुझे क्वांटम सिद्धांत से जुड़े तमाम पहलु जो पहले एक अबूझ पहेली की तरह थे अब काफी हद तक सुलझे नजऱ आ रहे है. इन पक्तियों को पढऩे के बाद आपको लग रहा होगा कि हम कहां से कहां जा रहे हैं। इस किताब के कुछ और अंश देख लेते हैं
ग्र्रीस की रानी फ्रेडरिका जो कि एडवान्स्ड भौतिक शास्त्र से जुडी रिसर्च स्कालर थी का कहना है कि एडवान्स्ड भौतिकी से जुडऩे के बाद ही आध्यात्मिक खोज की तरफ मेरा रुझान हुआ. इसका परिणाम ये हुआ की श्री आदि शंकराचार्य के अद्वैतवाद या परमाद्वैत रुपी दर्शन को जीवन और विज्ञान की अभिव्यक्ति मान ली अपने जीवन में . प्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक आर्थर शोपेन हॉवर का यह कहना है कि सम्पूर्ण भू-मण्डल पर मूल उपनिषदों के समान इतना अधिक फलोत्पादक और उच्च भावोद्दीपक ग्रन्थ कहीं नहीं हैं। इन्होंने मुझे जीवन में शान्ति प्रदान की है और मरते समय भी यह मुझे शान्ति प्रदान करें।
प्रसिद्ध जर्मन लेखक फ्रेडरिक श्लेगल (1772-1829) ने संस्कृत और भारतीय ज्ञान के बारे में श्रद्धा प्रकट करते हुए ये कहा है कि संस्कृत भाषा में निहित भाषाई परिपक्वता और दार्शनिक शुद्धता के कारण ये ग्रीक भाषा से कहीं बेहतर है। यही नहीं भारत समस्त ज्ञान की उदयस्थली है। नैतिक, राजनैतिक और दार्शनिक दृष्टिकोण से भारत अन्य सभी से श्रेष्ठ है और इसके मुकाबले ग्रीक सभ्यता बहुत फीकी है.
इसके आगे के पन्नो में लेखक ने अपने लेखों में इन्ही सब महान पुरुषों के विचारों की अपने तरह से व्याख्या की है जिसमें आज के नैतिक पतन पर गहरा क्षोभ प्रकट किया गया. कुल मिलाकर हम लेखक के इस पवित्र प्रयास की सराहना करते हैं। आज की विषम परिस्थितयो में भी उन्होंने भारतीय संस्कृति के गौरव को पुनर्जीवित करने की कोशिश की है। उम्मीद है कि ये पुस्तक एक रौशनी की किरण बनेगी और हम सब एक सकारात्मक पथ पर अग्रसरित होंगे।
आदित्य शुक्ला, लेक्चरर, देव संस्कृति विश्वविद्यालय हरिद्वार
प्रेषक- प्रियंका शर्मा
लोस एंजिल्स, केलिफोर्निया

अपने भारत को पहचानो

भारत उतना ही महान है जितना कि ईसा से ५०००वर्ष पूर्व था . आज के जन मानस की जीवन शैली मैं जरूर अंतर आ गया है. पहले आध्यात्मिक उपलब्धि प्राप्त करना मुख्य लक्ष्य हुआ करता था .भौतिक उपलब्धि गौण लक्ष्य था तथा आध्यात्मिक उपलब्धि के लिए साधन मात्र था. आध्यात्मिक उपलब्धि साध्य और भौतिक उपलब्धि हेय एवं साधन मात्र था. आज यह जीवन परिदृश्य बदल सा गया है .भौतिक उपलब्धि मुख्य लक्ष्य हो गया तथा आध्यात्मिक उपलब्धि भौतिक उपलब्धि के लिए साधन मात्र रह गया है . यह अत्यंत चिंतनीय विषय है. सच्चे भारतीय- संस्कृति -प्रेमी जन को इस हेतु स्व क्षमतानुसार उचित प्रयास करना ही चाहिए.
भारत के जन-वृन्द का दिवस ही चरित्र की प्रतिष्ठा से प्रारम्भ होता है. जागरण के समय ही परमपिता परमात्मा का स्मरण , माता-पिता को प्रणाम और नित्य कर्म के पश्चात यौगिक प्रक्रिया . यह एक अद्भुत दिनचर्या है. भारत में संध्या-वंदन का चलन रहा है. संध्या-वंदन के बाद ही अन्यान्य धार्मिक एवम सामाजिक अनुष्ठानों के सम्पादन कि स्वीकृति दी गयी है.संध्या-वंदन में पढ़े जाने वाले समस्त वैदिक मन्त्रों में एक ही ब्रह्म की वन्दना है. सूर्य देव को ब्रह्म स्वरूप मानते हुए मन ,वचन, कर्म से किये हुए समस्त पापाचरण से मुक्ति की प्रार्थना की जाती है. यह अपने आप में अद्भुत है. पाप से मुक्ति हेतु प्रायश्चित का यह दैनिक अनुष्ठान विश्व में और कहीं नहीं किया जाता.
संध्या वंदन में सूर्य देव को जल से अर्घ्य देने का विधान है. एक बार मेरे गुरु-श्रेष्ठ लक्ष्मी नारायण शास्त्री संध्या-वंदन कर रहे थे. मैंने बाल स्वभाव से पूछा- संध्या-वंदन में अर्घ्य देते समय जलांजलि को ऊपर उठा कर क्यों विसर्जन किया जाता है ?
वे मुस्कराये और कहा-"यह समस्त ब्रह्माण्ड पंच-तत्त्वों से विनिर्मित है. किसी भी एक तत्त्व की कोई उपादेयता नहीं ,प्रत्येक तत्त्व एक दूसरे से मिल कर सृष्टी की रचना में सहायक हुआ. जलांजलि में प्रथम जल को लेकर ऊपर उठाया ,यह जल को आकाश तत्त्व से मिलाया गया, जल के विसर्जन में जब जल ऊपर से छोड़ा जाता है तब यह वायु के मिलन का अवसर है. जल वायु से मिलता हुआ पृथ्वी की ओर बढ़ता है.वह अपनी ही गति से तेज तत्त्व को प्राप्त कर लेता है .इस तरह चार तत्त्व जल, वायु, तेज, और आकाश मिला दिये गए .अब ये पृथ्वी से मिलते है. यह मिलन ही सृजन करता है. ब्रह्म इसी तरह शिव रूप में तत्त्वों का विखंडन एवम विष्णु रूप में संयोजन करते हैं . हमें जीवन में सभी की उपादेयता संयोजन में ही देखनी चाहिए .सभी जड़ -चेतन पदार्थों में इन्हीं पंच तत्त्वों को देखना चाहिए और उनमें उस जीवन दाता ब्रह्म की अनुभूति करनी चाहिए . यही हमारी संस्कृति का मूल उत्स है". दिवस की ऐसी निर्मल एवं कोमल आरम्भ की प्रक्रिया भारत के सिवाय कहीं देखने को नहीं मिलती है.
भारतीय संस्कृति "भय से मुक्ति " की एक सशक्त प्रक्रिया है. भय तब तक बना रहेगा जब तक द्वैत्व स्थापित है. भय से मुक्ति के लिए ही भारतीय संस्कृति अपने अंतर में प्रतिष्ठित पुरुष को बाह्य अशरीरी पुरुष के साथ एक रूप होने का सन्देश देती है. जो कुछ जगत में विद्यमान है और जैसा आप अनुभव कर रहें हैं बस वैसा ही आपके अंतर में विद्यमान है. इस तरह द्वैत्व के स्थान पर अद्वैतव को स्थापित कर भय से मुक्ति का रास्ता दिखा दिया गया. यह ज्ञान से ही संभव है. ज्ञान सत्य और ब्रह्म नित्य है.
बिना ज्ञान के भय से मुक्ति नहीं .अज्ञान मोह का कारक है. मोह पाप का तथा पाप भय का कारक है. अतः मुक्ति के लिए आत्मज्ञान जरूरी है .आत्म ज्ञान ही आनंद का श्रोत्र एवम अभयत्व का हेतु है. यह भारत की सांस्कृतिक पराकाष्ठा की पहचान है. जिसे आज पश्चिम शारीरिक-भाषा के रूप में ले रहा है.जिसे सीखने -सिखाने के लिए होड़ मची है.पैसा पानी की तरह बहाया जा रहा है. भारतीय इस में पीछे नहीं है .वे अपने ही उत्पाद को अन्य का मान खरीदने के लिए दीवाने दिखाई दे रहें हैं .
चीन , यूरोप, अमेरिका जिस योग और अंतर-यात्रा की बात कर रहें हैं वह भारत की उन पर उधारी है. अंतर-यात्रा भारतीय साधना है. यहाँ अंतर की यात्रा चरित्र-शोधन एवम जबरदस्त चरित्र-प्रतिष्ठा की जीवन यात्रा है. बिना चरित्र के भला आत्मानंद स्वरूप ब्रह्म कहाँ मिलने वाला है ? श्रीमद भगवत गीता में अर्जुन प्रभु श्री कृष्ण से पूछते है- प्रभु श्री! आपको कौन सा व्यक्ति प्रिय है ? श्री कृष्ण कहतें हैं- अर्जुन ! जो व्यक्ति द्वेष से रहित रहते हुए सभी प्राणियों के साथ मित्रता और करुणा के साथ रहता हो ,अनासक्त एवम अहंकार रहित रहता हो, दुःख एवम सुख में सामान रहता हो ,जो स्वयं में सम्पूर्ण लोक को एवम सपूर्ण लोक में स्वयं को देखता हो ,जो हर्ष , क्रोध ,भय जैसे अनुदात भावों से मुक्त है वह ही मुझे प्रिय है. श्री कृष्ण ने उदात्त और उदार चरित्र को बता दिया .जिसका चरित्र उदात्त और उदार है, वही आत्मज्ञान का अधिकारी है,वही अन्तर यात्रा का अधिकारी हो कर विराट ब्रह्म की सायुज्यता प्राप्त कर सकता है. मुझे दुःख है कि आज विश्व भारतीय चेतना को पकड़ रहा है और भारतीय अपने आत्म कल्याण को भूल कर साधन को ही साध्य मान रहें हैं.
जीवन का उद्देश्य आनंद है. क्योंकि ब्रह्म के सच्चिदानंद स्वरुप से सत-चित तत्त्वों से सृष्टि का रचन हुआ .सृष्टि में नहीं है, तो आनंद तत्त्व नहीं .इसीलिए यह सृष्टि निरानंद कही और मानी गयी . जो नहीं है उसे तो प्राप्त करना है.आनंद नहीं है. उसे प्राप्त कर के ही जीवन सार्थक कर सकतें हैं .आनंद प्राप्त किया तो मान लो कि ब्रह्म मिल गया . उसे प्राप्त करने के ऋषियों ने छह मार्ग -अन्न ,प्राण ,चक्षु ,श्रोत ,मन और वाणी बताये. तपश्चर्या से इन मार्गों का निर्वाह करने का आदेश दिया . इसी से विज्ञान और आनंद प्रशस्त होता है. और तभी विराट ब्रह्म में लय होता है. यह सब अभी बहुत आगे की बात है. पश्चिम ने तो अभी सतही तोर पर इस विराट विषय का स्पर्श मात्र अनुकरण किया है. अभी उसे बहुत कुछ समझना शेष है.
सलिल जवाली की पुस्तक - "भारत क्या है?" उन लोगों की आँखें खोलने के लिए पर्याप्त दस्तावेज है जो कि भारतीय संस्कृति को भूलने जा रहें हैं या किसी भ्रम के शिकार हो कर पश्चिम की अंधी दौड़ में भाग ले रहें हैं . पश्चिम चुपके-चुपके ही सही भारत के पारलौकिक ज्ञान के प्रति विनत होता चला जा रहा है.
इसके लिए सलिल जवाली का प्रयास अभिवंदनीय है.
-त्रिलोकी मोहन, राजस्थान

प्रेषक- प्रियंका शर्मा
लोस एंजिल्स, केलिफोर्निया

गुरुवार, 12 जनवरी 2012

मकर संक्राती एवं सात का महत्व


यह बडी दिलचस्पी का विषय है कि इस सदीके सातवें साल याने सन 2007
के सातवें महीनें यानि जुलार्इ्र की सात तारीख को सांयकाल 7 बजे पुर्तगाल के लिस्बन
षहर में विष्व के सात नये आष्चर्य तय किए गए और उनका चुनाव भी दुनियां भर में
स्थित निम्नलिखित इक्कीस स्थानों में से किया गया जो-क्रमषः एक्रोपोलिस यूनान,
कोलोसियम इटली, कियोमिजु मंदिर जापान, गीजा पिरामिड मिश्र, अलहंब्रा स्पैन, ईस्टर
प्रतिमा चिली, क्रेमलिन रूस, लिबर्टी स्टैच्यू अमेरिका, अंगकोर कम्बोडिया, ऐफेलटॉवर फ्रांस,
माचू पिच्चू पेरू, स्टोनहेंज ब्रिटेन, इत्जा पिरामिड मैक्सिको, चीनकीदीवार चीन, नियुष्वांस्टीन
जर्मनी, ऑपेरा हाउस आस्ट्ेलिया, क्राइस्ट रिडिमर ब्राजील, तुर्की पेत्रा जॉर्डन, टिम्बकटू माली
तथा ताजमहल भारत हैं. जिसमें अंततोगत्वा आगरा स्थित प्रेम के समर्पण की सबसे उॅची
मिषाल ताजमहल को षामिल किया गया. वैसे पूर्व में संसार के निम्नलिखित सात अजूबें
माने जाते थे जिसमे से मिश्र स्थित गीजा के पिरामिड को छोडकर अब किसी का वजूद
नही है. ये आष्चर्य है:-गीजा के पिरामिड, बेबीलोन के झूलते बाग, ओलंपिया ग्रीस में
जियूस देवता की मूर्ती, टर्की के इफेसिस में देवी डायना का मंदिर, ऐषिया माईनर में
हैलीकार्नासिस के षासक मोसालस का मकबरा, रोडस द्वीप में सूर्य देवता हीलियोस की
कांसे की विषालकाय प्रतिमा और सिकन्दरियां बन्दरगाह के पास एक द्वीप पर फारोस का
प्रकाष स्तम्भपूरे
विष्व में ही और खासकर अपने देष भारत में सात का बडा महत्व है,
प्रति वर्ष 14, यानि 7गुणा2, जनवरी को ही पड़ने वाली मकर संक्राति का सात के अंक के
साथ रिष्ता है, इस दिन सप्त रष्मियांे का मालिक सूर्य अपने सात घोड़ांे के रथ पर सवार
होकर मकर रेखा से कर्क रेखा की ओर बढ़ना षुरू करता है, सूर्य दक्षिणायण से
उत्तरायण की तरफ अपनी यात्रा षुरू करता हैं, सूर्य की किरणें सात रंगो से बनी होती हैं
(बैंगनी, गहरानीला, नीला, हरा, पीला, नारंगी एवं लाल) जो कभी-कभी वर्षा ऋतु के दौरान
इन्द्रधनुष के रूप मंे दिखाई पड़ती हैंसूयर्
आसमान मंे दिखता है, आसमान मंे ही सप्त ऋृषि मण्डल (कष्यप, भारद्वाज,
अश्रि, विष्वामित्र, गौतम, जमदग्नि एवं वषिष्ठ) हैं जो कभी भी तारांे भरी रात मंे देखा जा
सकता है, सात लोक (भू, भूवः, स्वः, महः, जन, तप और सत्य) एवं सात पाताल (अतल,
वितल,सुतल, तलातल, महातल, रसातल एवं पाताल) की यह दुनियां जिसमंे हमारी मां पृथ्वी
भी एक हिस्सा है, जिसमंे सात महाद्वीप (एषिया, यूरोप, अफ्रिका, उत्तरी अमेरिका, दक्षिणी
अमेरिका, आस्ट्रेलिया एवं ग्रीनलैण्ड) एवं सात समुद्र (प्रषान्त महासागर, हिन्द महासागर,
अरब सागर, आर्कटिकसागर, भूमध्यसागर, अटलांटिक महासागर एवं कैस्पियन सागर) की
यह दुनिया निराली है तभी तो बच्चे खेल ही खेल मंे कहते हैं सात समुन्दर, गोपी चन्दर,
बोल मेरी मछली कितना पानी ?
चाहे इंगिलष सिस्टम में सप्ताह के दिन, मन्डे, टयूसडे, वैडनैसडे, थर्सडे, फ्राई
डे, सटरडे एवॅ सन्डे हो चाहे हिन्दी के, सोमवार, मॅगलवार, बुधवार, वृहस्पतिवार, षुक्रवार,
षनिवार एवॅ रविवार हो अथवा फ्रंेच (लुन्दी, मारदी, मरक्रेदी, ज्वेदी, वान्द्रेदी, सामदी एवं
दिमाष) सभी मंे काल खण्ड को सात ग्रहांे (चन्द्र, मंगल, बुद्व, गुरू, षुक्र, षनि, एवं सूर्य)
के आधार पर सात दिवसांे मंे विभाजित किया गया हैं. सनातन धर्म में रष्मियों के स्वामी
सूर्य देवता के अलावा सात देवियांे (वैष्णांे देवी, चिंतापूर्णि, ज्वालाजी, कांगडाजी, चामुंडाजी,
नैनादेवी, एवं मनसादेवी) की पूजा माई साते (माघ महीने कीे सप्तमी) को की जाती है दुर्गा
माता के विचित्र रूप एवं नाम जगह-जगह भिन्न है, लेकिन स्वरूप एक ही है। चैत्र माह में
सील सप्तमी के रोज समस्त उत्तरी भारत में ठन्डा खाना खाया जाता है, हिन्दुओं के पवित्र
धार्मिक स्थलांे मंे चार धामों के साथ-साथ सात पुरियांे (हरिद्वार, काषी, उज्जैन, कांची,
द्वारका, मथुरा, अयोध्या) का भी महत्व है, धार्मिक ग्रन्थों मंे सात द्वीप (जम्बू, प्लक्ष, कुष,
क्रौंच, षक, षाल्मली एवं पुष्कर) सात समुन्दर (लवण, इक्षु, दधि, क्षीर, मघु, मदिरा एवं
घृत) एवं सात ही महाऋृषियांे ( मरीचि, अंगीरा, अग्नि, पुलह, केतु, पौलस्त्य, एवं वषिष्ठ)
का वर्णन हैंमनुष्य
का षरीर सात धातुओं (रस, रक्त, मांस, मेदा (चर्बी) अस्थि, मज्जा,
षुक्र) से बना है और पुर्षाथर््ा के साथ साथ तकदीर भी साथ दे तांे मनुष्य सातों सुख
(निरोगी काया, संतोषजनक आय, मधुरभाषी पत्नि, सुयोग्य पुत्र, विद्या, उत्तम आवास एवं
अच्छा संग) भोग सकता हैं. स्वस्थ्य षरीर के लिए मनुष्य को सात क्रियाओं (षौच,
दंतधवन, स्नान, ध्यान, भोजन, भजन एवं षयन) की आवष्यकता है इसमंे भी दंातों की
रक्षा हेतु सात वृक्षों (नीम, बबूल, आम, बेल, गूलर, करंज एवं कैर) की टहनियां बहुत
उपयोगी हैं तथा दांतधवन के पष्चात षुद्वि हेतु प्रातःकाल सात प्रकार के स्नान (मन्त्रस्नान,
भौमस्नान, अग्नि स्नान, वायव्य स्नान, दिव्यस्नान, करूण स्नान एवं मानसिक स्नान) में से
कोई एक स्नान आवष्यक हैं. (प्रातःकाल स्नान के पष्चात मंगल दर्षन हेतु सात पदार्थो
(गोरोचन, चंदन, र्स्वण, शंख, मृदंग, दपर्ण एवं मणि) की आवष्यकता पड़ती हैं. हमारा एक
स्थूल षरीर है जिसमे सात चक्र अर्थात षक्ति केन्द्र मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर नाभि,
अनाहत यानि हृदय, विषुद्धि, आज्ञा तथा सहस्त्रार होते हेैमनुष्य
के लिए सात प्रकार की आंतरिक अषुद्वियां (ईर्षा, द्वेष, क्रोध, लोभ,
मोह, घृणा, एवं कुविचार) और सात प्रकार की बाह्य षुद्वियॉ (पूजा-पाठ, मन्त्र-जप,
दान-पुन्य, तीर्थयात्रा, ध्यानयोग एवं विद्यादान) होती है, उसको सदा सात (माता, पिता, गुरू,
ईष्वर, सूर्य, अग्नि एवं अतिथि) का अभिवादन करना चाहिए, सदाचार से मनुष्य को सात
विषिष्ट लाभ (जीवन मंे सुख, षांति, भय का नाष, विघ्न से रक्षा, ज्ञान, बल एवं विवेक)
प्राप्त होते हैं।
मुहावरा है कि गृहस्थी मंे सातांे ही चीजांे की आवष्यकता होती है इसलिए
गृहस्थाश्रम (विवाह) मंे प्रवेष के पहले सात फेरे खातंे है कहते हैं कि सात पद साथ 2
चलने से अनजान भी मित्र बन जाता है। फेरे मंे वर के साथ वधु भी सात कदम चलती है
उसे सप्तपदी कहते है, वह वर से सात वचन मांगती है
1. यज्ञ मंे सहयोग।
2. दान में सहमति।
3. धन की सुरक्षा करना।
4. आजीवन भरण-पोषण।
5. सम्पति खरीदने मंे सहमति।
6. समयानुकूल व्यवस्था।
7. सखी-सहेलियांे मंे अपमानित नहीं करना।
और निम्नलिखित सात ही वचन देती है।
1. भोजन व्यवस्था।
2. षीलसंचय, आहार तथा संयम।
3. धन का प्रबन्ध।
4. आत्मिक सुख।
5. पषुधन सम्पदा।
6. सभी ऋृतुआंे मंे उचित रहन-सहन।
7. सदैव पति का साथ।
दैनिक जीवन मे हम यह देखते है कि संगीत मंे स्वर सात प्रकार के होते हैं।
1. सा (षडज)
2. रे (ऋृषभ)
3. गा (गांधार)
4. मा (मध्यम)
5. प (पंचम)
6. धा (धैवत)
7. नि (निषद)
और कवि विहारी ने हिन्दी साहित्य मंे जो दोहंे लिखे हैं वह सतसैंया के दोहंे के
नाम से मषहूर है।
‘‘ सत सैयां के दोहरे, जो नाविक के तीर,
देखन मंे छोटे लगे, घाव करे गम्भीर.’
पूर्वी उत्तर प्रदेष तथा बिहार के आम आदमीं का खाना जौ का
सत्तू है और बच्चे बचपन मंे सात की ताली तथा सतौलियॉ का खेल खेलते हैं और बड़े
बूढ़ों की यह कहावत याद रखते हैं कि सात मामों का भानजा भूखा रहता है जब कि बहुत
मेहनत करने पर भी कुछ खास नहीं करने वाले के लिए कहा जाता है कि ‘‘सात धोबों का
एक पाव किया है’’ और भाषाओं की तरह पंजाबी मंे भी एक कहावत है।
माई पूत जण्यां सत्त, पर करम न दिया बटट.’
अर्थात एक मां के सात लड़के हुए लेकिन उनके भाग्य अलग-अलग हैं।
तुलसीदासजी ने सात खंडांे (बाल्यकांड, अयोध्याकांड, अरन्यकांड,
किष्किन्धाकांड, सुन्दरकांड, लंकाकाण्ड एवं उत्तरकाण्ड) में रामचरित मानस की रचना करके
एक अनुपम ग्रंथ उपलब्ध कराया है जिसमंे जीवन की समस्याओं का समाधान है, राधास्वामी
सम्प्रदाय में नाम की महिमा बताते हुए आत्मा के सात खंडों की यात्रा कराते हैे. इस तरह
हम देखते है कि पूरे विष्व में और भारत में सात की बडी महिमा हैं
ई. शिव शंकर गोयल,
फ्लैट न. 1201, आई आई टी इंजीनियर्स सोसायटी,
प्लाट न. 12, सैक्टर न.10, द्वारका, दिल्ली- 75.
मो. 98737063339

बुधवार, 11 जनवरी 2012

पहलें दालों, फिर मसालों, अब सालों की बारी है !


यूपीए के षासनकाल में कभी दालों का नम्बर आया था. इनकी षासन
व्यवस्था की कृपासे एक समय दालों के भाव आसमान छूने लगे थे. जहां पहलें
आम लोग कहा करते थे ‘दाल रोटी रोटेटी खाओ,े, प्रभ््रभु के गुण्ुा गाओ’ वही मुहावरा
बदलकर कहने लगे ‘दाल मत खाओ,े, प्रभ््रभु के गुण गाओ’. अब साधारण आदमी
आपसी बातचीत में भूलसे भी यह नही कहता कि ‘दाल रोटेटी खाकर गुजुजारा कर
रहे है’ क्योंकि बीच में ऐसा वक्त भी आगया था कि ‘दाल’ षब्द का नाम लेते
ही इन्कमटैक्स के मुखबिर पीछे लग जाते थे. कहनेवालें तो यहां तक बताते है
कि इसी विभाग के लोग दाल खानेवालें परिवारों का सर्वें करने लग गए थे कि
कौन कौन ‘अमीर’ं दाल खा रहा है ? यह लोग रिर्टन भर रहे है या नही ?
उत्तर भारत में लोग दाल-रोटी, पूर्वभारतमें दाल-भात-माछी और दक्षिण में
भात-सांभर का नाम लेने से परहेज करने लगे थे. चारों तरफ दाल को लेकर
दहषत फैल गई थीफिर
किराना मार्केट में मसालों का नम्बर आया. अखबारवालें तरह तरह
की व्यापारिक खबरें देने लगे. ‘जीरे में उछाला’, ‘तेजपात आसमान की ओर’,
‘हल्दी आंख दिखाने लगी’, ‘धनिया गुर्राया’ इत्यादि. अब आपही बतायें कि इनमें
से किस मसालें की यह ताकत है कि अपने आप कुछ करले ? यह सब सरकारी
छत्रछाया में बडें बडें और अगाउ सौदा करनेवाले व्यापारियों का काम हैे और
मुक्त व्यापार व्यवस्था और विष्वबैंक के ईषारों पर चलने का परिणाम हैंऔर
अब चुनाव आतेही ‘सालों’-कृप्या माफ करें-की बन आई हैं. वैसे
सालों की दखलंदाजी द्वापरयुग यानि महाभारतकाल में मामा षकुनि के समयसे
चली आरही हेैं लेकिन वर्तमान समय में यह तब ज्यादा चमकी जब ‘जीजी’ के
राज में सांयकाल होते ही पटना की सडकें सूनी होजाती थी. सरे आम महिलाओं
की अस्मिता पर हाथ उठने लगे. इसका परिणाम यह निकला कि बिहार ही नही
समस्त उत्तरी भारत में माताएं अपने रोते हुए बच्चों को चुप कराने हेतु कहने
लगी ‘चुप होजा वर्ना साधु पकड लेगा’. वह यह नही बताती थी कि कौनसा
साधु ?
उसी ‘सालों के दौर’ में एक जीजा की एक कवि के षब्दों में चंद लाइनें
देखिए:-
‘मेरी उनके कुछ अजब षौक कि,
घर में एक नया रोग पालें है,
इनसे मिलिए, यह मेरी बीबी के सगे भाई,
यानि कि मेरें सालें हैइनकी
सात सगी बहनें है,
इनके लाड प्यार के क्या कहने हेै ?
यह अपने घर नही, कभी किसी, कभी किसी
के यहां रह आते है,
सालभर लखनउ में नही रहते,
फिर भी कहते है कि,
हम लखनउ के रहनेवालें है. यह मेरें सालें है....’
यह सालों का रूतबा इतना बढा कि पिछलें चुनावों में एक नेताजी जब
चुनाव जीतकर आएं तो सरासर ऐलान कर दिया जो एक कवि के षब्दों में इस
प्रकार हेै:-
‘पांच सालों के जीजाजी,
म्ंात्री बनते ही बोले,
मैं अपने फर्ज पर खरा उतरूंगा,
पांच सालों के लिए आया हूं,
पांच सालों के लिए, काम करूंगा.’
इस तथाकथित लोकतंत्र में इस ऐलानसे किसी को क्या एतराज हो सकता
था ? खैर, अब सालों एवं भाई-भतीजों के दौर में देष के पांच राज्यों की
विधानसभा चुनावों के समय कतिपय राजनैतिक दलों द्वारा अपने भाई-भतीजों
एवं सालों को टिकट दिए गए हैं. इनमें कई तो चारोंधाम-कांग्रेस, बीजेपी,
़समाजवादी और बहुजन समाज पार्टी-की यात्रा किए हुए है और अब सात
पुरियों-नोट,षराब, जाति,मजहब,प्रांत, भाषा ओैर कुनबें-में से किसीनकिसी में
डुबकी लगाकर चुनावी वैतरणी पार करने की सोच रहे हैं. इस चुनावी दंगल में
यह देखना भी दिलचस्प है जिसमें बाबूसिंह कुषवाहा प्रकरण में बीजेपी ने ‘पाप
से घृणा करो,े, पापी से नही’ के सिद्धांत के आधार पर यह दलील दी है कि
‘भ्रष्टाचार से परहेज करो, भ्रष्टाचारी से नही’. देखा आपने ? भ्रष्टाचार के
विरूद्ध रथयात्रा निकालनेवालों का तर्क ? इसलिए यही कहना पडेगा कि पहलें
दालों, फिर मसालों और अब सालों की बारी है !
-ई. शिव शंकर गोयल,
फ्लैट न. 1201, आई आई टी इंजीनियर्स सोसायटी,
प्लाट न. 12, सैक्टर न.10, द्वारका, दिल्ली- 75.
मो. 98737063339

सोमवार, 9 जनवरी 2012

इसे मेरी चाहत कहूँ


इसे मेरी चाहत कहूँ
किसी रिश्ते का नाम दूं
या फिर मेरी फितरत कहूं
कुछ तो हैं जो मुझे
दूर नहीं होने देता उनसे
रह रह कर याद आते
जब भी मिलते हँस कर
मिलते
दिल को गुदगुदाते
कुछ वक़्त के लिए गुम
हो जाते
खिले फूल को मुरझाते
उनका अंदाज़ निरंतर
हैरान करता
ना जाने ऐसा क्यूं करते ?
दूर रहकर भी पास लगते
दिल के किसी कौने में
छुपे रहते
इसे मेरी चाहत कहूँ
किसी रिश्ते का नाम दूँ
या फिर मेरी फितरत कहूँ


साली बोली हँसमुखजी से(हास्य कविता)


साली बोली हँसमुखजी से
नाम आपका हँसमुख
फिर भी रोते से क्यों लगते?
हँसमुखजी तुनक कर बोले
छोटे मुंह बड़ी बात
नाम बेचारा क्या करेगा
जिसकी
बीबी तुम्हारी बहन हो
वो हंसता हुआ भी
रोता सा लगेगा
साली को लगा झटका
नहले पर मारा दहला
लपक कर बोली
हूर के बगल में लंगूर
हमेशा लंगूर ही रहता
शक्ल-ओ-सूरत का दोष
फिर भी हूर को देता
दहले पर पडा
हँसमुखजी का गुलाम
तपाक से बोले
गलती मेरी ही थी
तुम्हारी बहन के मुख से
बाहर झांकते दांतों को
मुस्काराहट समझ बैठा
शूर्पनखा को हूर समझ
ज़ल्दबाजी में हाँ कह बैठा
उसको तो सहना ही पड़ता
हूबहू अक्ल शक्ल की
साली को भी अब
निरंतर झेलना पड़ता

नहीं कह सकते वह बात

नहीं कर सकते
वह काम जो तुमको
पसंद है
नहीं कह सकते वह बात
जो सरासर झूठ है
दिन को दिन
रात को रात कहना
हमारी फितरत है
करेंगे नाराज़ बहुतों को
खायेंगे गालियाँ
पर बदलेंगे नहीं हम
नहीं बेच सकते ईमान
तुम्हें खुश करने के लिए
सिरफिरा भी कहोगे
तो खुशी से सुन लेंगे हम
बेईमान
होने से तो अच्छा है
अकेले सर
ऊंचा कर के जीना
खाते रहेंगे ज़ख्म
लोगों के
मगर बनेंगे नहीं
बहरूपिया
इस जन्म में हम


अभी तक आये नहीं,तो कोई बात नहीं

अभी तक आये नहीं
तो कोई बात नहीं
क्या बीतती है दिल पर
कैसे बताएं तुम्हें
फिर हम भी घबराए नहीं
आस दिल की अब तक
पूरी हुई नहीं
अकेले जीने की मजबूरी
अभी ख़त्म हुई नहीं
बेताब दिल
बेचैन आँखों को
राहत मिलेगी
जुदाई कभी तो
मिलन में बदलेगी
उम्मीद
अभी टूटी नहीं
अभी तक आये नहीं
तो कोई बात नहीं


दुनिया बदल गयी,फितरत बदल गयी

दुनिया बदल गयी
फितरत बदल गयी
रिश्तों में कडवाहट
भाई बहन में दूरियां
बढ़ गयी
हवा प्रदूषित हो गयी
चौपाल अब फेस बुक,
ट्विटर पर लगने लगी
अब पेन,
स्याही की चिंता
सताती नहीं
दीपावली मिलन
एस एम एस से होने लगा
मन की
बात कहने के लिए
ब्लॉग मिल गया
चिट्ठी पत्री के लिए
अब इ मेल हो गया
घर का शयन कक्ष
सिनेमा हॉल बन गया
दिन रात टी वी देखना
ज़रूरी हो गया
खेल के मैदानों में
कॉलोनियां बस गयी
खेलने के लिए
कंप्यूटर मिल गए
लडकी की बरात
लड़के के शहर जाने लगी
शादियाँ दो दिन में
निमटने लगी
दुनिया अब इंटरनेट की
मुट्ठी में समा गयी
हज़ार मील दूर से भी
शक्ल चुटकियों में
दिखने लगी
मोबाइल अब मूंछ का
बाल हो गया
छोटे से बड़े तक
हर शख्श के लिए ज़रूरी
हो गया
गाँव शहर में दूरी कम
हो गयी
पैसे कमाने की होड़
बढ़ गयी
लडकियां लडको से
आगे बढ़ रही
संतुष्टी कोसों दूर
चली गयी
दुनिया अब दिखावे की
रह गयी
इमानदारी आंसू बहा
रही
बेईमानों की चांदी
हो रही
राजनीति सत्ता तक
सीमित हो गयी
कर्तव्य,निष्ठा की बातें
पुरानी हो गयी
हमारी तुम्हारी
फितरत बदल गयी

आवाज़ देता हूँ

निरंतर
आवाज़ देता हूँ
दिल से बुलाता हूँ
तुम आती नहीं हो
या तो पहुँचती नहीं
मेरी आवाज़ तुम तक
या मजबूर हो
ज़माने से डरती हो
घबराती हो
कहीं टूट ना जाए
दिल का रिश्ता हमारा
खामोशी से सहती हो
दिन रात तड़पती हो
खुद आकर ले जाऊं
इस इंतज़ार में
बैठी हो

मोहब्बत के पिंजड़े में

मोहब्बत के
पिंजड़े में दिल
चुपचाप ग़मों को
सहता रहता
मजबूरी की
सलाखों के पीछे
दुखी होता रहता
इंतज़ार में
तड़पता रहता
उड़ने को बेचैन
मगर बेबसी में
परेशां होता रहता
कब पैगाम आयेगा?
दीदार उसका होगा
निरंतर ख्यालों में
डूबा रहता
उम्मीद में ना सो
पाता
ना जाग पाता


नए साल का शोर मच रहा है

शुभ कामनाओं का
दौर चल रहा है
नए साल का शोर
मच रहा है
हर व्यक्ति खुश हो रहा है
आस लगाए बैठा हैं
चमत्कार हो जाएगा
सब कुछ बदल जाएगा
इस प्रयास में लगा है
सब बदल जाएँ
पर खुद को
नहीं बदलना पड़े
मैं हैरान हूँ
समझ नहीं आ रहा
सब कैसे बदल जाएगा ?
कैसे समझाऊँ उन्हें ?
फितरत और सोच
बदले बिना
स्वार्थ को छोड़े बिना
कुछ नहीं बदला कभी
अब कैसे बदल जाएगा ?
नए साल में खुद को
बदलो
समय के साथ
सब बदल जाएगा



सोच

स्वछन्द आकाश में
विचरण करने वाली
पिंजरे में बंद कोयल
अब इच्छा से कूंकती
भी नहीं
कूँकना भूल ना जाए
इसलिए कभी कभास
बेमन से कूंक लेती
ना साथियों के साथ
खेल सकती
ना ही अंडे से सकती
खाने को जो दिया जाता
बेमन से खा लेती
उड़ने को आतुर
पिंजरे की दीवारों से
टकरा कर
लहुलुहान होती रहती
लाचारी में जीवन काटती
एक दिन सोचने लगी
इंसान इतना
निष्ठुर क्यों होता है?
खुद के
बच्चों के लिए जान देता
अपने शौक के लिए
निर्दोष पक्षियों को बंदी
बना कर रखता
इश्वर को मानने वाला
पक्षियों को क्यों मारता?
विधि का विधान कितना
निराला है
ताकतवर अपनी ताकत का
उपयोग
अपने से कमज़ोर पर ही
क्यों करता ?
पक्षियों के आँखों से
आंसूं भी तो नहीं आते
कैसे अपना
दर्द कहें किसी को?
अंतिम क्षण तक
घुट घुट कर जीने के सिवाय
कोई चारा भी तो नहीं
शायद परमात्मा उसकी
बात सुन ले
किसी तरह इंसान को
समझ आ जाए
कमज़ोर पर
अत्याचार करना छोड़ दे
उसे फिर से स्वतंत्र कर दे
आकाश में उड़ने दे
तभी मन में विचार आता ,
अब उड़ने की
आदत भी तो नहीं रही
कहीं ऐसा ना हो?
उड़ने के प्रयास में
कोई और
उसका शिकार कर ले
मैं यहीं ठीक हूँ
कम से कम जीवित तो हूँ ,
खाने के लिए भटकना तो
नहीं पड़ता
इश्वर की यही इच्छा है
तो फिर दुखी क्यों रहूँ
सोचते सोचते खुशी में
कोयल कूंकने लगी
तभी मालिक की
आवाज़ आयी
सुनते ही सहम कर
चुपचाप पिंजड़े के कौने में
सिमट कर बैठ गयी
फिर से अपने को बेबस
लाचार समझने लगी
सकारात्मक सोच से फिर
नकारात्मक सोच में
डूब गयी

लोग क्या कहेंगे ?

बड़े मन से मैंने
कोट का कपड़ा पसंद किया
फिर शहर के प्रसिद्द दरजी से
उसे सिलवाया
पहन कर यार दोस्तों के बीच
पहुँच गया
आशी थी सब कोट की
प्रशंसा करेंगे
मेरी पसंद की दाद देंगे
किसी ने प्रशंसा में
एक शब्द भी नहीं कहा
उलटा एक मित्र ने,
कोट को पुराने तरीके का
बता दिया
मन मसोस कर रह गया
आशाओं पर तुषारा पात
हो गया
घर लौटते ही उसे उठा कर
अलमारी में टांग दिया
तय कर लिया
अब उसे कभी नहीं पहनूंगा
जो पैसे खर्च हुए,उन्हें भूल
जाऊंगा
साल भर कोट अलमारी में
टंगा रहा
सर्दी आने पर अलमारी खोली
तो कोट नज़र आया
समारोह में जाना था
मन ने कहा तो
आज फिर उसे पहन लिया
समारोह स्थल पर पहुँचते ही
लोगों से मिलने जुलने लगा
कोट को भूल गया
मुझे यकीन नहीं हुआ
जब किसी ने कहा
आपने बहुत सुन्दर कोट
पहना है
फिर एक के बाद एक
कई लोगों ने कोट की प्रशंसा करी
मैंने भी तय कर लिया
हर समारोह में
इसी कोट को पहनूंगा
घर लौटते समय सोचने लगा
एक व्यक्ति ने कोट की
हँसी उडाई
तो मैंने उसकी बात को
ह्रदय में उतार लिया
कोट को भी मन से उतार दिया
आज इतने लोगों ने कोट की
प्रशंसा करी
तो गर्व से सीना फूल गया
क्यों थोड़ी सी प्रशंसा
सर पर चढ़ती ?
छोटा सा कटाक्ष बुरा लगता
क्यों हम लोगों के कहने को
इतना महत्व देते ?
अपनी पसंद को भी
किसी के कहने से छोड़ देते
ऐसे जीवन का क्या अर्थ?
जिसमें मनुष्य मन की इच्छा से
कुछ नहीं कर सकता
सदा लोग क्या कहेंगे की
चिंता में डूबा रहता
अनमने
भाव से जीता जाता


अपने ज़ज्बातों को कैसे छुपाऊँ?

अपने
ज़ज्बातों को कैसे
छुपाऊँ?
दिल की आग को कैसे
बुझाऊँ
चाहत को सीने में
दबा कर कैसे रखूँ?
ख्यालों के समंदर को
उफनने से कैसे रोकूँ?
ख्वाबों में उनसे कैसे
ना मिलूँ?
हसरतों को मचलने
कैसे ना दूं?
क्यूं ना उनसे ही
पूछ लूं?
ज़रिये नज़्म
हाल-ऐ-दिल बता दूं
या तो वो समझ जायेंगे
ज़रिये पैगाम
अपनी रज़ा बता देंगे
नहीं तो मोहब्बत पर
एक और नज़्म
समझ कर पढ़ लेंगे
मेरे अरमानों को
ठंडा कर देंगे

समाधान

शमशान में
वर्षों से खडा बरगद का
विशालकाय पेड़
आज कुछ व्यथित था
मन में उठ रहे प्रश्नों से
त्रस्त था
विचार पीछा ही नहीं
छोड़ रहे थे
एक के बाद एक
क्रमबद्ध
तरीके से चले आ रहे थे
क्यों उसका
जन्म शमशान में हुआ?
यहाँ आने वाला
हर व्यक्ति केवल जीवन ,
म्रत्यु और वैराग्य की
बात ही करता
उसकी छाया के नीचे
कोई सोना नहीं चाहता
ना ही आवश्यकता से अधिक
रुकना चाहता
शीघ्रता से घर लौटना
चाहता
बच्चे उसके आस पास
नहीं खेलते
ना ही कोई खुशी से
उसके पास आता
ना ही खुल कर हंसता
उसे निरंतर मनुष्यों का
क्रंदन ही सुनना पड़ता
रात में मरघट की शांती
उसे झंझोड़ती रहती
नहीं चाहते हुए भी
राख के ढेर में कुत्तों को
मानव अवशेष ढूंढते
देखना पड़ता
बरगद तय नहीं कर
पा रहा था
क्यों उसे जीने के लिए
शमशान ही मिला ?
क्या वो भी मनुष्यों जैसे
पिछले जन्म के
अपराधों की सज़ा काट
रहा?
या फिर उसके भाग्य में ही
ऐसा एकाकी,नीरस जीवन
जीना लिखा है ?
क्या निरंतर उदास
चेहरों कोदेखना ?
उनकी दुःख भरी बातों को
सुनना
हर दिन रोने बिलखने की
आवाज़ सुनना
उसके जीवन का सत्य है
तभी उसे नीचे बैठे
वृद्ध साधू की आवाज़
सुनायी दी
वो कह रहा था
परमात्मा ने जो भी दिया
जैसा भी दिया
जितना भी दिया
उसे शिरोधार्य करना चाहिए
निरंतर संतुष्ट रहने का
प्रयास करना चाहिए
जब तक जीना है
खुशी से परमात्मा की
इच्छा समझ कर
जीना चाहिए
व्यर्थ ही दुखी होने से
जीवन सुखद नहीं होता
उलटे अवसाद को
निमंत्रण मिलता
जीवन कंटकाकीर्ण
हो जाता
बरगद को लगा
उसे उसके प्रश्न का
उत्तर मिल गया
उसकी व्यथा का
समाधान हो गया

अब क्यों पहचानेगा कोई मुझको?

अब क्यों पहचानेगा
कोई मुझको
सहारा ले कर पहुँच गए
इतनी ऊंचाई पर
दिखता नहीं कोई उन्हें
वहां से
मैं जहां था वहीँ खडा हूँ
हाथ अब भी वैसे ही
बढा रहा हूँ
जिसे लेना है जी भर कर
ले ले सहारा मेरा
निरंतर
सफलता की सीढियां
चढ़ता जा
आकाश कीऊचाइयों को
छूता जा
याद करे तो फितरत
उसकी
नहीं करे तो इच्छा
उसकी
बस इतना सा याद
रख ले
उतरेगा जब भी नीचे
कोई ना पहचानेगा उसे
रोयेगा तो भी
कंधे पर हाथ नहीं
रखेगा
कोई उसके


उसूलों पर चलता हूँ


इमानदारी से जीता हूँ
झूठ नहीं बोलता हूँ
उसूलों पर चलता हूँ
कुछ मुझे धरती से
जुडा हुआ कहते
एक अच्छा
इंसान समझते
कुछ मेरी
इमानदारी पर
शक करते
मेरे उसूलों को
ढकोसला कहते
मुझे परवाह नहीं
कौन क्या कहता ?
मुझे तो जीवन यात्रा में
निरंतर परमात्मा के
उसूलों पर चलना है
इंसान बन कर जीना है
अच्छा लगे या बुरा
किसी के कहने से
अपना सोच नहीं
बदलना है

मत पूछो मुझ से मेरे दिल के अफ़साने

मत पूछो मुझ से
मेरे दिल के अफ़साने
की नहीं मोहब्बत जिसने
वो दर्द-ऐ दिल क्या जाने
ना जानते थे ना पहचानते थे
फिर भी
मुस्करा कर देखा उन्होंने
खिला दिए
फूल मोहब्बत के दिल में
दिखा दिए ख्वाब रातों में
क्या कह रही दुनिया
बेखबर इस से
हम हो गए उनके दीवाने
कब मिलेंगे,पास बैठेंगे
बातें करेंगे,मस्ती में झूमेंगे
इस ख्याल में अब डूबे हैं हम
कोई कहेगाबीमार-ऐ-इश्क हैं
क्या होता है इश्क
जिसने किया वो ही जाने
कब बुझेगी आग दिल की
अब खुदा जाने
हमें तो जीना है
इंतज़ार में उनके
आयेंगे या नहीं वो ही जाने

दिन बदला,तारीख बदली

दिन बदला
तारीख बदली
ना धूप बदली ना ही
हवा बदली
ना ही सूरज,चाँद बदला
ज़िन्दगी भी नहीं
बदलती
कभी होठों पर हंसी
कभी आँखों में
नमी होती
निरंतर नए रंग रूप
में आती
आशा निराशा के
भावों से
अठखेलियाँ करती
चैन की उम्मीद में
बेचैनी पीछा नहीं
छोडती

मुझे हक तो नहीं फिर भी नाराज़ हूँ

मुझे हक तो नहीं
फिर भी नाराज़ हूँ
तुमसे
रिश्तों की दुहाई दूं
या जो वक़्त साथ गुजारा
उसकी याद दिलाऊँ
वजह कुछ भी हो
तुम जानती हो तुम्हारी
रुसवाई वाजिब नहीं
मेरी वफाई पर कोई
दाग नहीं
तुमने ही उकता कर
किनारा कर लिया
इलज़ाम बेरुखी का
लगा दिया हम पर
ये भी ना सोचा कभी
तुम्हारे खातिर ही तो
हम खामोश रहते थे
बदनाम ना हो जाओ
इसलिए मिलने की
कोशिश नहीं करते थे


नहीं जानता मैं चाहता क्या हूँ

नहीं जानता
मैं चाहता क्या हूँ
नए लोगों से मिलता हूँ
उन्हें अपना बनाना
चाहता हूँ
पुरानों को अपने साथ
रखना चाहता हूँ
नए जब पुराने हो जाते
चेहरे साफ़ दिखने लगते
मुझे सवालों से घेरते
सच कह देता हूँ
सच पूछ लेता हूँ
चेहरे से पर्दा हटाने की
कोशिश में मुझसे
रुष्ट हो जाते हैं
खुद से लड़ता हूँ
खुद को समझाता हूँ
निरंतर सोचता हूँ
कैसे अपने साथ रखूँ ?
जितना मनाता हूँ
उतना ही दूर होता
जाता हूँ
असली चेहरे को
पहचानने लगता हूँ
नहीं जानता
मैं चाहता क्या हूँ


हँसमुखजी थे पान के शौक़ीन (हास्य कविता)

हँसमुखजी थे
पान के शौक़ीन
खाते थे
पांच मिनिट में तीन
पीक से भर कर
मुंह हो जाता गुब्बारा
होठ हो जाते लाल
कर रहे थे बात दोस्त से
ध्यान था कहीं ओर
किस्मत थी खराब
पूरे जोर से मारी
उन्होंने पीक की पिचकारी
बगल से जा रही थी
एक भारी भरकम नारी
पीक पडी उसकी साड़ी पर
महिला गयी भड़क
पहले तो दी गालियाँ
फिर चप्पल लेकर दौड़ी
डरते डरते हँसमुखजी ने
दौड़ लगाई सरपट
पैर पडा केले के छिलके पर
फ़ौरन गए रपट
महिला ने भी दे दना दन
मारी चप्पल पर चप्पल
कर दिया मार मार कर
हाल उनका बेहाल
हाथ जोड़ कर पैर पकड़ कर
माफी माँगी
और छुड़ाई जान
कान पकड़ कर कसम खाई
जीवन भर अब नहीं
खाऊंगा पान

डा.राजेंद्र तेला,"निरंतर"
"GULMOHAR"
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