सोमवार, 10 अक्तूबर 2011

ऐसा था हमारा मोहल्ला !

यह षहर षुरू षुरू में मुख्यरूप से थोक तेलियान और थोक मालियान में बंटा हुआ
था जिसके चारों तरफ देहलीगेट, आगरागेट, मदारगेट इत्यादि हैं. वैसे होने को यहां कई
पोल भी है जैसे सर्राफापोल, खटोलापोल, सुदामापोल इत्यादि लेकिन इतना होने के बावजूद
पोल के मामले में यह जयपुर से उन्नीस हीे है जहां चांदपोल, सूरजपोल तो है ही एक साथ
तीन-तीन पोल यानि त्रिपोलियां भी है ओैर इसीलिए विषेषज्ञों का तो यहां तक कहना था कि
इसी ‘पोलेल’ की अधिकता की वजह से ही जयपुर इस षहर से राजधानी बनने की दौड में
बाजी मार गया. खैर,
बसावट के मामलें में कालांतर में जाने किस मानसिकता के वषीभूत होकर यहां के
लोगों ने अपने आपको अलग अलग सम्प्रदायों एवं जातिगत रिहायषी क्षेत्रों में बंाट लिया
और अपने मोहल्लों के नाम रख लिए माली मोहल्ला, सरावगी मोहल्ला, मोची मोहल्ला, गोधा
गुवाडी इत्यादि. यहां तककि एक जगह तो गधा गुवाडी तक है हालांकि वहां गधों के साथ
साथ आदमी भी रहते है आप चाहे तो जाकर देख सकते हेैं. कहते है कि एक बार वहां
किसी ने यह बोर्ड भी टांग दिया था ‘यहां गधें रहते है’ जिसे कुछ लोगांे द्वारा एतराज करने
पर तत्कालीन नगर परिषद ने उसे हटवाया. ऐसी ही दिल्ली में एक स्थान पर सरे आम
लिखा है ‘यहां हाथी रहते है’ कौन नही जानता कि दिल्ली-जयपुर में हाथी रहते है चाहे
सफेद हो या किसी और रंग के क्या फर्क पडता है ? हाथी तो हैंइसी
षहर के एक मोहल्लें में मुझे भी रहने का ‘सौभाग्य’ मिला. उस जमाने में ऐसी
जगह रहने का सबसे बडा फायदा यह था कि पास-पडौस में न केवल तांक-झांक बल्कि
उनकी बातें सुनने का भी मौका मिल जाता था. घरकी छोटी से छोटी घटना भी पास पडौस
से छिपती नही थीहमारें
इसी मोहल्लें में कई दिलचस्प व्यक्ति रहा करते थे. उनमें से एक
सोहनलालजी भी थे. वह परिवार नियोजन के खिलाफ थे. वह कोई छोटा मोटा काम करके
अपनी गृहस्थी चलाते थे. उनका बडा लडका भी पढने लिखने में कम ही ध्यान देता था.
एक बार की बात है कि हमारें मोहल्लें में सरकारी कर्मचारियों का कोई दल कोई जानकारी
जुटाने आया. उन्होंने पूछताछ के दौरान सोहनलालजी के लडके से कहा कि आपके पिताजी
कहां है उन्हें बुलाओ. इस पर लडके ने अपने पिताजी को, जो सामने हथाई पर बैठे ताष
खेल रहे थे, बुलाने के लिए आवाज लगाई ‘ऐ मेरे बाप ! यहां आ’ यह सुनकर दल के
लोगों को अच्छा नही लगा उन्होंने लडकें को समझाया कि अपने पिताजी को ऐसे नही बोलते
हेैं. उन्हें तमीज से बुलाते हैं. इस पर लडके ने पुनः आवाज लगाई ‘ऐ मेरे बाप ! तमीज से
यहां आ’ यह सुनकर सभी आगंतुक मुस्कराने लगे.
एक बार बडी मजेदार घटना हुई. चौराहें पर एक पुलीसवाला सोहनलालजी को पीट
रहा था और वह हंस रहे थे. जब वह पुलीसवाला चला गया तो लोगों उनसे पूछा कि
पुलीसवाला आपको पीट रहा था और आप हंस रहे थे तो उन्होंने जवाब दिया कि वह मुझे
मोहनलाल समझकर पीट रहा था जबकि मेरा नाम तो सोहनलाल हैंसोहनलालजी
के पास ही घनष्यामजी रहते थे जो वैसे तो रेलवे के कैरिज कारखाने
के ब्लैकस्मिथ षॉप-लौहार खाना-में काम करते थे लेकिन उन्हें किषोरावस्था से ही पहलवानी
का षौक था. अपनी युवावस्था में वह दौलतबाग के पास स्थित केलकी बगीची में दंडबैठक,
कुष्ती इत्यादि के लिए जाया करते थे. इलाके में तो उनका रौब था ही रेलवे सप्ताह के
दौरान भी वह कई ईनाम वगैरह जीतते रहते थे. एक बार की बात हेै कि वह सांयकाल
अपने घर में दाल-रोटी खा रहे थे. दाल में कंकड आ जाने की वजह से कड-कड की
आवाजें आ रही थी. जब रसोई में खाना बना रही उनकी पत्नि ने यह आवाजें सुनी तो वह
वही से ही बोली कि क्या दाल में कंकड ज्यादा हेै तो पहलवान साहब ने मिमियाते हुए
जवाब दिया कि ‘नही, नही, ज्यादा तो दाल ही हेै’. बीबी के सामने और क्या बोलते ?
षहर में षुरू से ही पानी की किल्लत थी. यह तो भला हो वाटर वर्क्सवालों का जो
गर्मियों में चार-पांच रोज के अंतराल से ओैर बाकी दिनों में दो-तीन रोज के अंतराल से
अलसुबह ही पानी की सप्लाई दे दिया करते थे. इस विषय में विभाग के अपने तर्क थेगर्मिय
ों में कम पानी देने के बारें में उनका कहना था कि चूंकि अक्सर इन दिनों लेडीज
अपने पीहर और बच्चें अपने ननिहाल जाने का प्रोग्राम बनालेते है लेकिन जैसेही उन्हें पता
लगता था कि इस षहर में पानी का तोडा है तो वह यहां आने में कतराने लगते थे. इससे
‘मेहमान से भगवान बचायें’ वाली लोकाक्ति अपने आप चरितार्थ होजाती थी, रहा सवाल
अलसुबह उठाकर पानी देने का तो इस पर विभागका तर्क था कि इससे एक पंथ दो काज
वाली कहावत सिद्ध होती हैं. आप पानी भी भर सकते है और बीबी के साथ धर के
कामकाज में भी हाथ बंटा सकते हैंमोहल्लें
में सरकारी नल लगाा हुआ था जहां आए दिन पानी भरते समय झगडें-
टन्टें होते रहते थे. एक बार की बात है कि एक नवयुवती और एक वृद्धा के बीच तू तू-मैं
मैं होगई. वृद्धा ने युवती को ललकारा कि मेरे से ज्यादा करेगी तो तेरी षादी उस फकीर से
करवा दूंगी, जो संयोग से उधर से निकल ही रहा था. यह सुनकर वह फकीर ठहर गया.
खैर, लोगों ने बीच बचाव करके झगडा तो निबटा दिया. जब अधिकांष लोग चले गए तो
उस फकीर ने आकर उस वृद्धा से पूछा कि मांई मेैं रूकू या चला जाउॅ ?
जब देष में जनगणना होने लगी तो हमारे मोहल्लें का भी नम्बर आया. सबसे पहले
वह लोग नुक्कडवालें प्रभुदयालजी के मकान पर पहुंचे. उन्होंने उनसे स्वयं के नाम-धाम के
बाद पूछा कि आपके कितने बच्चें है ? तो प्रभुदयालजी ने बताया कि मेरे तीन बच्चें हैेंदलवालों
ने पूछा कि लडके कितने है ? तो उन्होंने जवाब दिया कि तीन है तो दल वालों ने
फिर पूछा कि लडकियां कितनी है ? इसपर प्रभुदयालजी फटी फटी आंखों से उन्हें देखने लगे
और धीरे से कहा कि तीनों लडके ही हैंइसके
बाद वह लोग चौथमलजी के घर गए तो संयोग से उन्हें चौथमलजी के पिताजी
मिल गए. कर्मचारियों ने नाम वगैरह के बाद उनकी उम्र पूछी तो उन्होने 55 साल बताईजनगण्
ाना के दल में षामिल मास्’साब को थोडा षक हुआ. उन्होंने पिछली जनगणना का
रिकार्ड देखा और बुजुर्ग से कहा अंकलजी ! पिछली जनगणना में भी आपने अपनी उम्र 55
वर्ष ही बताई थी और आज भी आप अपनी उम्र 55 ही बता रहे हेै इस पर बुजुर्ग ने
जवाब दिया कि इतनी महंगाई और आकंठ भ्रष्टाचार में डूबे इस माहौल में पिछले 10 वर्ष
का जीना भी क्या जीना था ? सुनकर सभी कर्मचारी चुप्पी साध गए.
इतनाही नही जब दलवालें घर-बार की भी जानकारी लेने लगे मसलन मकान किस
चीज का बना है, छत किसकी बनी है ? इत्यादि, तो बुजुर्ग ने पूछा कि दीवार और छतों की
जानकारी लेकर सरकार क्या करने जा रही है ? कर्मचारियों ने तो इस प्रष्न का कोई
समुचित उत्तर नही दिया लेकिन घर के अंदर से चौथमलजी की माताजी की आवाज आई
कि मंदिर में पंडितजी अक्सर कहते रहते हेै कि भगवान जब देता है तो छप्पर फाडकर देता
है षायद इसी बात को ध्यान में रखकर सरकार जानकारी इकटठा कर रही होगी कि किस
किसके घर पर आसानी से फटने लायक छप्पर है ताकि सनद रहे और वक्त बेवक्त काम
आए.
मोहल्लें में ही पास के एक और घर में जब जनगणनावालें घुसे तो गृहणी खाना बना
रही थी. एक कर्मचारी ने उससे पूछताछ षुरूकी
... आपके पति क्या काम करते है ?
...वो प्रेस का काम करते है...
बहनजी ! क्या वह किसी अखबार से जुडे हुए हैं ?
...पढते तो वह कई अखबार है लेकिन यहां नही पढते. किसी पानवालें या नाई की
दुकान पर जाकर पढते है. कभी कभी पडौस की आटेकी चक्कीवालें से भी मांगकर ले आते
है. किस से जुडे है यह मुझे पता नही.
तब जनगणना करनेवाले कर्मचारी ने कहा कि षायद आप मेरा मतलब नही समझी, आपके
पति प्रेस का क्या काम करते है जरा खुलासा बताइयेइस
बात पर गृहणी कहने लगी, अभी पिछली 26 जनवरी को बच्चों के जिद्ध करने
पर जब हम स्टेडियम में परेड देखने गए तो जल्दी ही चले गए. वहां झन्डारोहण के स्थान
के पास ही अलग से बने एक स्थान पर कुर्सियां लगी हुई थी और एक पुटठे पर लिखा
हुआ था ‘प्र्रेसेस’ अतः हम दोनांे अपने बच्चों सहित उन कुर्सियों पर बैठ गए ओैर बैठते
वक्त मेरे पति ने मुझसे यह भी कहा था कि देखो असली आजादी तो अब आई है. अपने
प्रेस का धंधा करनेवालों के लिए सरकार ने आगे ही आगे अलगसे बैठने के लिए कुर्सियां
तक बिछाई हैजनगण्
ानावाला तब भी कुछ नही समझा, सिर खुजाता हुआ बोलाः-
...कही आपके पति किसी प्रिन्टिग प्रेस में तो नही है ?
नही नही, गृहणी बोली, वह तो पांचवी फेल हैतो
क्या हुआ ? कर्मचारी बोला, हो सकता है वहां कम्पोजिंग का काम करते हो ?
वह बोली:-
वे तो एक दुकान पर काम करते हैदुकान
पर ? यह सुनकर कर्मचारी का माथा ठनका. बोला, दुकान पर कौनसी प्रेस का काम
करते है ? उसने अपने अल्प ज्ञान का परिचय दियावह
बोली:-
...कपडों पर प्रैस करते हैतब
कर्मचारी को समझ आई ओैर वह बोला:-
...अच्छा, अच्छा, कपडों पर प्रैस करते है. ठीक, बिलकुल ठीक, लेकिन यह बताइये कि
कौनसी प्रैस करते हैे, कोयले की प्रैस, स्टीम प्रैस या इलैक्ट्कि प्रैस ? ताकि हम अपने
कॉलम में यह बात भर सकें. कर्मचारी ने बात को संवारने की कोषिष की.
तब गृहणी बोली:-
...कोयलें की प्रैस काम में लेते है ओैर रात-विरात कभी भी घर आते है तो उन्हें कोई
पुलीसवाला अथवा अन्य व्यक्ति टोकता नही है क्योंकि पडौस के षर्माजी की ही तरह, जो
कि प्रिटिंग प्रेस में काम करते है, इन्होंने भी अपनी साईकिल पर एक तख्ती टांग रखी है,
उस पर लिखा रहता है ‘प्र्रेसेस’
मुस्कराते हुए जनगणनावालें, इतना नोट करके, अगले घर की तरफ चल पडेइनके
पडौस में ही रामस्वरूपजीवर्मा टेलर मास्टर का मकान था. मदारगेट पर ऐवन
टेलर के नामसे उनकी दुकान थी. वह षर्ट एक्सपर्ट कहलाते थे. मास्टर साहब को अपने
धन्धें पर बडा फक्र था और हो भी क्योंन, उनका कहना थाकि इसी धन्धें की खातिर वह
चौथी क्लास फेल होते हुए भी मास्टर कहलाते है और उनकी अनपढ पत्नि मास्टरनी. उनके
पडौसी सुखरामजी का लडका जब पांचवी क्लास में तीसरीबार फेल होगया तो उसके पिताजी
ने उसे मास्टरजी की दुकान पर बैठा दिया कि औेर कुछ नही तो यह काम ही सीख जायेगा
तो दाल-रोटी तो खा लेगा. षुरू-षुरू में वह काज-बटन करने लगा. कई रोज बाद जब
सुखरामजी ने मास्’साब से अपने लडके के बारे में पूछा तो मास्’साब ने बताया आप फिक्र
ना करे अभी वह जेब काटना सीख गया है अगले महीने मैं उसे गला काटना सिखा दूंगाय
ह सुनकर सुखरामजी एक बार तो चकरा गए, वह सोचने लगे कि क्या उनका लडका अब
यही काम करेगा ?
इसी मोहल्लें में कुछ आगे की तरफ भैंरूजी का प्रसिद्ध मंदिर था. उसके पुजारीजी
बडे सिद्धहस्त थे. उनके पडौस में रामनाथजी के जब पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई तो उन्होंने
पुजारीजी से बच्चें के ग्रह-नक्षत्र के बारें में बातकी. पुजारीजी ने बताया कि बच्चा ‘मूलों’
अर्थात मूलनक्षत्र में हुआ है अतः विषेष हवन-जप इत्यादि करवाना पडेगा औेर बच्चें की
षक्ल सूरत एवं जंम कुंडली देखते हुए उन्होंने यह गूढ रहस्य उजागर किया कि यह पूर्व
जंम में संकटमोचककी सेना में रहा होगा, अतः इसका नाम कपि रखना उचित होगा. माता
पिता मान गए और सब उसे इसी नामसे पुकारने लगेइसी
मोहल्लें में कालीचरणजी भी रहते थे. लोगों का अनुमान था कि जब स्वर्ग में
विधाता रंगरूप बांट रहा था तब वह षायद लाईन में पीछे की तरफ होंगे. एक तो काला
रंगरूप और उपर से खुदका बनाया हुआ थुलथुल षरीर, वह एक विषेष आकृति के धनी
थे. हमारी इस कॉलोनी में एक डाकौत हर षनिवार को तेल मांगने आया करता था. एक
षनिवार की बात है डाकौत उनके घर के बाहर तेलदान हेतु ‘षनिमहाराज, षनिमहाराज’ की
आवाजें लगा रहा था. काफी देर तक जब उसकी कोई सुनवाई नही हुई तो उसने जोर2 से
आवाजें देना षुरू कर दिया. इतने में कालीचरणजी घर के बाहर आए और डाकौत को
झिडकते हुए कहा ‘क्यों आधे घन्टें से दिमाग खा रहा है, कहतो दिया कि आरहा हंू, आरहा
हूं’. इस स्वीकृति के बाद डाकौत आगे क्या बोलता ?
इस घटना के काफी समय बाद की बात हैं. पुष्कर में मेरे एक मित्र जयचन्द्रजी है
पेषे से वकील हैं. एक बार वह मेरे यहां आए हुए थे. हम ड्ाइंगरूम में बैठे हुए थे. षायद
सावन-भादों का महीना थातभी
बाहर एक ठेलेवाला जामुन बेचता हुआ निकला. वह ‘कालें कालें पुष्करवालें’ की
आवाजें लगाा रहा था. संयोग की बात है कि वकील साहब का रंग एकदम साफ है, उन्हें
यह बात नागवार गुजरी और वह बाहर निकले और उस ठेलेवालें से बहस करने लगे कि
तुम पुष्करवालों को काला कैसे कह रहे हो ? वकीलसाहब की बात ठीक भी है. इसी
काले-गोरे को लेकर एक कवि की उडान देखिये वह दुनियां के मालिक को क्या उलाहना
देरहा है:-
‘भगवान म्है भी कोनी,
अकल को भोंरोंकिन्नै
ही बणा दियो कालो,
अर किन्नै ही गोरों.’
सन सत्तर के दषक में टीवी का आगमन हुआ. पहले ब्लैक एन्ड वाइट और फिर
रंगीन. उन्ही दिनों की बात है. एक रोज मैं पडौसी के साथ उनके ड्ाइंगरूम में बैठा टीवी
देख रहा था. कोई कार्यक्रम चल रहा था. कुछ देर बाद समाचार आने लगे. इतने में किसी
कामसे उन सज्जन के बेटे की बहू फिर वहां आई और इस बार उसने झट से घूंघट
निकाल लिया. पहले तो मैं यह समझा कि मुझे ‘रैस्पैक्ट’ देने हेतु उसने ऐसा किया है
लेकिन फिर बाद में मैंने सोचा कि ऐसा ही था तो इसके पहले भी वह जब यहां आई थी
उसे ऐसा करना चाहिए था. मुझे असंमजस में देख पडौसी ने मेरी षंका का समाधान किया
और बताया कि समाचारवाचक बहू के मामाष्वसुर लगते हेै, उन्हीं से घूंघट किया हैं.
ऐसे मोहल्लों में पडौसियों में आपस में आए दिन ही खूब कलह झगडें इत्यादि होते
रहते है जिनमें महिलाएं भी बढचढकर हिस्सा लेती हैं. यह उन दिनों की बात है जब
फुटबाल के विष्वकप के मैच चल रहे थे. एक दिन सुबह सुबह ही मेरी पत्नि घर से बाहर
जाने लगी तो मैंने उससे पूछा कि कहां जारही हो ? तो उसने जवाब दिया कि मंदिर के
पासवाली पडौसन को उसकी औकात बताने जा रही हूं. इसपर मैंने उसे कहा कि कल
तुम्हारे बीच झगडा हो रहा था वह बडी मुष्किल से छुडाया था और आज फिर तुम झगडने
चलदी, इस पर वह बोली कि ‘कल सेमीफाइनल था और आज फाइनल हैं.’ मैंने सोचा
आखिर मैच से हम कुछ तो सीखते ही हैंहमारे
मोहल्लें के पासही एक छोटा-मोटा मार्केट था. वहां दुकानों के साथ साथ कुछ
ठेलें खोमचेवालें भी खडे रहते थे. एक बार की बात है कि दो ठेलेवालों में खडे होने के
स्थान को लेकर झगडा होगया. इनमें से पहलेवाले का कहना था कि मैं इस स्थान पर काफी
समय से खडा होता आया हूं चाहो तो चौकी के पुलीसवालें से पूछलो जो हर हफते सब
ठेलेवालों के पास आता हेैं. जबकि दूसरें ठेलेवाले का कहना था कि यह मेरे खडे होने की
जगह हैं. मेरे यहां नगर परिषद का कारिन्दा आकर रसीद भी काटता है और उपर से
अपनी चौथ भी लेजाता हैं, मैं उससे पुछवा सकता हूं. इतना सुनकर पहलेवाले ने सबको
चैलेंज किया और कहा कि आप चाहो तो सीबीआई से इसकी जांच करवालो, यह जगह
मेरी ही हैंमोहल्लें
के नुक्कड के एक घर पर ‘वर्मा एन्ड वर्मा ऐडवोकेटस’ का बोर्ड लगा रहता
था. पास में ही सफाई कर्मचारी कूडा डालते थे. वहां दो सूअर सोते रहते थे. वकील
साहब कई बार उन्हें भगाते रहते थे लेकिन वह ऐसे ढीठ थे कि फिर वही आकर
लेट जाते थे. थकहार कर एक रोज वकील साहब नगर परिषद गए और अपनी
समस्या बताई और पूछाकि वे बार बार मेरें घर के बाहर आकर ही क्यों बैठते हैउन्होंने
यहां तक दावा किया कि उन्हें इसमें विदेषी षडयंत्र की बू आती है, यह भी
हो सकता है कि इसमें आईएसआई का हाथ हो.
षहर की खूबियों में कमी रह जायेगी अगर मैं यहां के बंदरों, खासकर लालमुंह के
बंदरों के बारें में आपको नही बताउॅ. नगर के घने इलाकें में उनका बहुत उत्पात था, था
क्या अब भी हैं. आए दिन तोडफोड करना, सूखते हुए कपडें लेजाना यहां तककि फ्रिज
खोलकर सामान लेजाना तक षामिल हैं. षायद वह सोचते होंगे कि जब हमारें वंषज फ्रिज
इत्यादि का फायदा उठा रहे है तो हम ही इस सुविधा से वंचित क्यों रहे ? एक बार उनके
उत्पात से तंग आकर पडौसके अग्रवाल साहब नगरपरिषद गए और स्वास्थ्य अधिकारी से
गुस्सें में बोले कि मैं रोज 2 ही इतने बंदरों का उधम सहन नही कर सकता. इस पर
स्वास्थ्य अधिकारी ने कहा कि अच्छा, आप यह बतायें कि आप कितने बंदरों का उधम सह
सकते है, हम उतने बंदर छोडकर बाकी का इंतजाम करते हैं.
ऐसी थी हमारे मोहल्लें की महिमा ! चंद घटनाएं आपको बताई हैं ताकि सनद रहे
और वक्त बेवक्त काम आएं
-ई. शिव शंकर गोयल,
फ्लैट न. 1201, आई आई टी इंजीनियर्स सोसायटी,
प्लाट न. 12, सैक्टर न.10, द्वारका, दिल्ली- 75.
मो. 9873706333

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें