अजमेर की अपनी खूबियां हैं। किसी प्रसिद्ध व्यक्ति ने यहां का दौरा करके बताया कि यहां ज्यादातर कर्मचारी वर्ग है। उनमें से कुछ टायर्ड हैं तो कुछ रिटायर्ड। उसका कहना था कि जब रिटायर्ड ही कुछ नहीं कर पा रहे हैं तो टायर्ड क्या करते होंगे। यह सोचने की बात हैं ? यह भी अजमेर का सौभाग्य है कि जहां गर्मियों में और जगह के लोग दिन में एक बार खुशी मनाते हैं कि चलो आज तो बिजली नहीं गई इत्यादि, वही यहां के लोग दिन में दो-दो बार खुशियां मनाते हैं। एक बार तब जब कि पानी आ जाता है और दूसरी बार तब जब बिजली नहीं जाती है। वर्ना महंगाई के इस दौर में दो-दो बार खुशियां मनाने को कहां मिलती हैं ? 'बड़े भाग यहां मानस तनु पावा!Ó
अजमेर की ही यह खूबी है कि यहां हर साल गर्मियों में होटलों एवं रेस्टोरेन्ट्स में तख्तियां लग जाती हैं, जिस पर लिखा होता है 'कृपया पानी मांग कर शर्मिन्दा न करेंÓ। कहीं कहीं लिखा होता है 'दो कप चाय के साथ एक गिलास पानी फ्रीÓ। जगह-जगह लगे हैन्डपम्प पर लिखा होगा 'काम लायक नहींÓ। हास्य सम्राट काका हाथरसी ने कभी विभिन्न शहरों पर पैरोडिय़ां लिखी थीं। उसी तर्ज पर काफी समय पहले किसी ने साठ के दशक में अजमेर के एक छोटे से हिस्से की सैर की थी। जरा आप भी उसके साथ घूमिये:-
'गोयल आए सोच कर, चलो चलें अजमेर,
दो दिनों की छुटटी में, कर लेंगे कुछ सैर,
कर लेंगे कुछ सैर, ज्योंहि गाडी से उतरा,
गन्दा पाया स्टेशन, जो साफ न सुथरा,
किसी तरह ले सामान, बाहर को आया
मदार गेट की भीड को, धक्का-मुक्की करते पाया
दौड़ाई नजर, न कोई मदारी देखा,
बस किसी ने फल खाकर, किसी पर छिलका फैंका,
आगे बढ़ा मैं, जिधर पुरानी मंडी,
नई-नई किताबों की देखी डन्डी पर डन्डी
दिखी वहां से ही, ऊंची प्याउ गोल,
सिखा रही सेठों को, तोल-बोल औÓ मोल,
मुड़ा जो बांये हाथ को, मिला नया बाजार,
पूछा तो मालूम हुआ, क्या कहते हो यार ?
क्या कहते हो यार, यह नया नहीं है,
सबसे ऑल्ड मार्केट यही है !
है जाली संसार यह, देख-देख कर जी,
कहे घी मंडी जिसे, वहां न कोई घी,
वहां न कोई घी, खजाना गली में आए,
देखी जो असलियत तो बहुत पछतायें,
छोड़ निराशा को, मैं पहुंचा नला बाजार,
देखकर विस्मित हुआ, कहां पहुंचा मैं यार ?
कहां पहुंचा मैं यार, वहां न नला पाया,
थी बाजू में नालियां, यहां भी धोखा खाया,
पार कर दरगाह को, पहुंचा अन्दरकोट,
हुई खूब लड़ाइयां, लेकर जिसकी ओट
लेकर जिसकी ओट, मैं ढ़ाई दिन के झौंपड़े पर आया,
झौंपड़े के स्थान पर, महज एक खंडहर पाया।
भई लोगों क्यों हमको बहकाते हो,
सस्ती कोटड़ी को लाखन कोटड़ी बताते हो ?
यह तो अजमेर के एक छोटे से हिस्से की बात थी। इसके अलावा भी अजमेर के कई स्थान हैं, जो अपनी विशेषता लिए हुए हैं। मसलन आप जिलाधीश कार्यालय यानि कलेक्टरी को ही लें। यहां कई सरकारी कार्यालय हैं। वहां कभी-कभी अजमेर की विशेषता के अनुरूप हास्य-विनोद की छोटी-मोटी घटनाएं होती रहती हैं। काफी समय पहले की बात है। एक बार एक आदमी वहां आया और तोप के लाइसैंस हेतु आवेदन दिया। जब उससे पूछा गया कि वह तोप का क्या करेगा ? उसने तोप का लाइसैंस क्यों मांगा है ? तो उसने कहा कि जब मैंने चार एकड़ जमीन मांगी तो दो बीघा जमीन मिली, जब लड़की की शादी में दो बोरी शक्कर मांगी तो दस किलो शक्कर मिली, इसलिए मैंने तोप के लाइसैंस हेतु अप्लाई किया है तो रिवाल्वर का लायसैंस तो मिल ही जायेगा। कर्मचारी उसकी बुद्धिमता के आगे हक्के-बक्के रह गए। एक बार वहां एक ग्रामीण व्यक्ति आया और एक कर्मचारी से पूछा कि यहां डबल पेमेंट डिपार्टमेंट कहां पर है ? तो चाय पीते हुए कर्मचारी के कुछ समझ नहीं आया कि ऐसा कौन सा डिपार्टमेंट है, जहां सरेआम डबल पेमेंट होता है। मुस्कराते हुए उसने अपने साथी से इस बाबत पूछा तो उसने कुछ देर सोच कर बताया कि हो न हो यह डवलपमेंट डिपार्टमेंट के बारे में ही पूछ रहा होगा। उसने उसको बताया कि सामने की मंजिल में ऊपर की तरफ है। लोक सेवा आयोग से चयनित होकर एक नवयुवक ट्रेनिंग हेतु कलेक्टरी आया। उसे एसडीएम साहब ने बताया कि हमने शहर में धारा 144 लगाई है, आप भी जाकर स्थिति देख कर आओ और मुझे बताओ। वह गया और लौट कर आकर उसने एसडीएम साहब को कहा कि आप 144 धाराओं की बात करते हैं, मुझे तो वहां एक भी धारा दिखाई नहीं दी। सारा शहर सूखा पड़ा है।
कलेक्टरी के पास ही सिविल लाइन्स है और उससे थोड़ा आगे पुलिस लाइन्स। और दोनों के बीच यानि कि 'बिटविन दी लाइन्सÓ में काजी का नाला बहता है। एक बार की बात है कि कुछ अखबारों में ताजमहल पर अपना वारिसाना दावा ठोकने वाले के बारे में पढ़ कर और अपने पड़ौसी वकील साहब के बार-बार उकसाने पर मोहम्मद हुसैन काजी नामक व्यक्ति ने अदालत में इस नाले पर अपनी मिल्कियत का दावा करने की ठान ली। बताते हंै कि उनके पड़ौसी वकील साहब ने तो काजी जी को यहां तक विश्वास दिला दिया था कि जब गुजरात में एक अदालत से एक वकील साहब ने राष्ट्र्पति तक के नाम वारंट इश्यू करवा दिया तो इस नाले पर 'स्टेÓ लेना कौन सी बड़ी बात है ?
सिविल लाइन्स के पास ही पहाड़ी पर बजरंग गढ़ है। यह दौलतबाग उर्फ सुभाष बाग के एक छोर पर है। यह मशहूर एवं पुज्यनीय जगह है। इसके नीचे तलहटी पर ठेले- खोंमचे वाले खड़े रहते हैं। इन ठेले-खोंमचे वालों की विशेषता है कि जो चीज शहर में दस रुपए की मिलती है, वही चीज यहां आपको पन्द्रह रुपए में मिलेगी। आखिर आपकी श्रद्धा को भुनाने का अवसर और कहां मिलेगा। पास ही भिखारियों का जमघट लगा रहता है। उन पर भी अजमेर की हंसी का रंग चढ़ा हुआ है। चंद उदाहरण आपकी खिदमत में पेश हैं:-
ज्यादातर भिखारियों की जगह निश्चित होती है और वे वहीं बैठ कर भीख मांगते हैं। एक बार मैं बजरंग गढ़ के नीचे ऐसी ही जगह से गुजर रहा था तो मैंने क्या देखा कि एक भक्त ने भिखारी को एक रुपया दिया। इस पर वह मोबाइलधाारी बोला कि पिछले दो मंगलवार के एरियर यानि बकाया भी रहते हैं। मैं यह सुनकर दंग रह गया। एक बार मैं उधर से निकल रहा था कि एक भिखारी मेरे पास आया और दस रुपए मांगने लगा। मैंने नमस्कार की मुद्रा बनाई और आगे बढ़ गया तो उसने मेरा पीछा किया और बोला कि पांच रुपए ही दे दो। मैंने उसे कहा कि माफ करो बाबा और आगे बढ़ गया, लेकिन वह फिर भी नहीं माना और कहा कि अच्छा दो रुपए दे दो, लेकिन मैं आगे बढ़ता ही गया तो अंत में वह एक रुपए मांगने लगा, लेकिन मैंने जब वह भी नहीं दिया तो बोला क्या किसी सरकारी दफतर में अफसर हो ? मैं उसके सटीक अंदाज का कायल हो गया। वैसे सरकारी अफसर की पहचान होने का एक और उदाहरण आपको बताता हूं। यह घटना भी बजरंग गढ़ के नीचे जहां कभी धोबी घाट हुआ करता था, वहीं की है और काफी पुरानी है। हुआ यह कि एक आदमी धोबी घाट पर दलदल में फंस गया और अपने बचाव हेतु जोर-जोर से चिल्लाने लगा, जिसे सुन कर वहां काफी भीड़ इकट्ठा हो गई। भीड़ में से कुछ लोग लम्बे-लम्बे बांस ले आए और उस व्यक्ति की तरफ करते हुए चिल्लाने लगे 'देना-देनाÓ यानि तुम्हारा हाथ देना, ताकि बांस को पकड़ सकें, लेकिन उस व्यक्ति ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया। धीरे-धीरे वह आदमी दलदल में ज्यादा फंसता चला गया और पानी उसकी नाक तक आ गया। इतने में ही एक बुद्धिमान व्यक्ति उधर से निकला और लोगों से पूछा कि माजरा क्या है ? किसी जानकार ने बताया कि फंला डिपार्टमेंट का सरकारी अफसर है और दलदल में फंस गया है। हम काफी देर से चिल्ला रहे हैं 'देना-देनाÓ लेकिन इसका कोई नतीजा नहीं निकल रहा है। इस पर उस व्यक्ति ने मुस्कराते हुए कहा कि अब तुम 'देना-देनाÓ की बजाय 'लेना-लेनाÓ पुकारो। लोगों ने वही किया और इतना सुनते ही उस डूबते हुए शख्स ने लपक कर बांस पकड़ लिया और लोगों ने उसे खींच कर बाहर निकाल लिया। तभी क्लियर भी हो गया कि सरकारी अफसरकी पहचान कैसे होती है ?
बजरंग गढ़ के दूसरी ओर आनासागर है, जिसकी पाल पर जहांगीर ने बारहदरी बनवाई। इसके एक छोर पर खामखां के तीन दरवाजे बने हुए हैं। यह पता नहीं कि इनको खामखां नामक आदमी ने बनवाया था या चूंकि यह खामखां बने हुए हैं, इसलिए इनको यह नाम दिया गया है। वैसे यह इतिहास के विद्याार्थियों के शोध का विषय हो सकता है क्योंकि देश में पहले से ही कई खामखां की बातों पर शोध होते रहते हैं। बजरंगगढ़ से कुछ ही दूर सूचना केन्द्र का चौराहा है। कहते हैं कि देश इक्कीसवीं सदी से गुजर रहा है और हमारे प्रधानमंत्री और ऑक्सफोर्ड एवं हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में पढ़ी -लिखी उनकी टीम का दावा है कि देष आर्थिक उन्नति में छलांगें लगा रहा है। लेकिन उनमें से कोई यह नहीं बता पा रहा है कि लू, शीत लहर और बाढ़ से मरने वालों की संख्या हर साल क्यों बढ़ती जा रही है? कुल जनसंख्या का तीस प्रतिशत से अधिक का हिस्सा अभी भी गरीबी की सीमा रेखा से नीचे क्यों है ? सिर पर मैला ढोने की प्रथा का कब अंत होगा ? अर्थशास्त्र के धुरन्धर विद्वानों की मंडली की नाक के नीचे इतना भ्रष्टाचार क्यों पनप रहा है ? नित नये घोटालें क्यों उजागर हो रहे हैं ? नीरा राडिया जैसे बिचौलिए और कितने हैं ? बेकारी और महंगाई क्यों बढ रही है ? ऐसे सभी यक्ष प्रश्न अब सरोवर के किनारे नहीं सूचना केन्द्र के पास आम जनता इन नेताओं को पूछ रही है, जो पिछले 64 साल से देश चला रहे हैं। मजे की बात है कि बीच में जो 6 साल इंडिया शाइनिंग वाले आए थे, उन्होंने भी क्या निहाल किया ? 'वही ढ़ाक के तीन पातÓ । सूचना केन्द्र पर इस बाबत कोई सूचना नहीं है। आप चाहे तो पूछ कर तसल्ली कर लें।
सूचना केन्द्र से आगे चलेंगे तो आपको आगरा गेट की सब्जी मंडी दिखाई देगी। यहंा के लोग भी अजमेर के अन्य वाशिन्दों की तरह जिन्दादिल हैं। गाहे बगाहे सब्जी खरीदने वालों से उनकी नोक झोंक होती ही रहती है। आखिर क्या करें ? रोज का काम है। यह तब की बात है जब केन्द्रीय सरकार जगह-जगह बिक्री में 'वैट सिस्टमÓ लागू कर रही थी। कुछ स्थानों पर यह लागू हो गया था और कुछ पर लोग आनाकानी कर रहे थे। ऐसे में ही एक बार मैं सब्जी मंडी में पहुंचा। कुछ देर भाव ताव करने के बाद जब मैंने दुकानदार को पैसे दे दिए और फल-सब्जी मंागें तो दुकानदार ने बिना तोले ही अंदाज से उठा-उठा कर सामान देना शुरू कर दिया। इस पर मैंने ऐतराज किया तो वह बोला, साहब हमारे यहां अभी वेट सिस्टम लागू नहीं हुआ है, इसलिए हम चीजों को बिना वेट किये ही देते हैं। अब आप ही बतायें, मैं क्या कहता? आजकल सब्जी मंडी में दुकानदार आपको ज्यादा भाव ताव नहीं करने देते और अगर आप करने की जुर्रत करते हैं तो अपने जवाब से आपको निरूत्तर कर देते हैं। जैसे कि पिछले दिनों मेरे साथ हुआ। मैं सब्जी मंडी में केले खरीद रहा था, तो मैंने केले वाले से पूछा, भाई जान! केले कैसे दिए ? बीस के रुपए के पांच, वह बोला। मैंने कहा, कुछ कम करो, तो वह बोला कोई बात नही, बीस रुपए के चार ले जाओ। इतना सुनने के बाद उसका ऑरीजिनल ऑफर मानने के अलावा मेरे पास चारा ही क्या था? यह बात भी नहीं है कि इस मार्किट में ग्राहक हर दम सब कुछ अच्छा ही खरीदने आते हैं। यह तो मौके-मौके की बात है। पिछले चुनाव के दिनों मे, जब-जब भी पब्लिक मिटिंग होती थी, यहां अच्छे टमाटर पन्द्रह रुपए किलो और सड़े हुए टमाटर पच्चीस रुपए किलो तक बिक गए थे। और वह भी कहीं-कहीं तो एडवान्स पैसा देने पर भी उपलब्ध नहीं थे। ऐसा इसलिए होता है कि यह मार्किट जनता की नब्ज के साथ चलता है। सब्जीमंडी के पास ही आगरा गेट है। इसका आगरा से इतना ही संबंध है कि कभी-कभी यहां एक ठेले वाला आगरे के पेठे बेचते हुए मिल जायगा जो 'आगरे का पेठा, बाप खाएं और बेटाÓ की आवाजें लगा कर इन्हें बेचता हैं, वरना आजकल तो घर-घर में यह हो रहा है कि जो बाप खाता है, वह बेटा पसंद नहीं करता और जो बेटा खाता है वह बाप नहीं खाना चाहता।
खैर ख्वाजा की दरगाह भी मशहूर जगह है। दुनियाभर के जायरीन यहां सजदा करने आते हैं। दरगाह के बाहर फकीरों का जमावड़ा लगा रहता है। एक बार की बात है कि मैं वहां से निकल रहा था तो मैंने देखा कि एक फकीर ने एक जायरीन से कहा कि ऐ सेठ! दस का नोट दो। जायरीन ने जेब से दो रुपए निकाल कर उसे देने की कोशिश की तो फकीर बोला कि दो नहीं दस रुपए चाहिए। इस पर जायरीन ने उसे कहा कि जब इस शहर का नगर निगम ही यहां आने वाले जायरीन से दो रुपए लेता है तो आपको दो रुपए लेने में क्या एतराज है ? इस बात पर फकीर ने गुस्सा दिखाते हुए कहा कि आपने मुझे क्या नगर निगम की तरह गया गुजरा समझ रखा है ? दरगाह इलाके में आपको कई झोला छाप डाक्टर भी मिल जायेंगे। एक बार मेरी भेंट एक कान के तथाकथित डाक्टर से हो गई। वह अंदरकोट के पास फुटपाथ पर बैठा था। पूछने पर उसने बताया कि मैं कानों का मैल भी निकालता हूं और कान का इलाज भी करता हूं। मैंने उससे कहा कि तू सबके कानों के मैल निकालता है, सरकार के कान का मैल क्यों नहीं निकालता ? इतनी महंगाई, इतनी बेकारी, इतने घोटाले और इतना भ्रष्टाचार, फिर भी वह कान में मैल डाले बैठी हुई है। वह मेरी बात सुन कर मुस्कराने लगा। इतने में ही वहां एक आदमी आया और बोला कि मुझे कम सुनाई देता है, इसका सस्ते में सस्ता इलाज का क्या लोगे ? उसने बताया कि 100 रुपए लगेंगे और आपकी समस्या हल हो जायेगी। वह व्यक्ति सामने ही बैठ गया। उस डाक्टर ने उससे 100 रुपए लेकर एक कागज पर एक स्लिप बनाई, जिस पर लिखा था 'कृपया जोर से बोलो, मुझे ऊंचा सुनाई देता है।Ó और यह स्लिप उसे देते हुए कहा कि इसे अपनी कमीज के पीछे टांग लेना, आपको कोई दिक्कत नहीं आयेगी।
कचहरी रोड यहां की मशहूर सडक है। यहां आपको कई व्यवसायी ऐसे भी मिल जायेंगे जो आपकी हैसियत देखकर ही आपसे चार्ज करेंगे। नजर के चश्मे वाले की दुकान की बात है। नजर टैस्ट के बाद ग्राहक को कहा गया कि लैन्स की कीमत 300 रुपए है और जब देखा गया कि उस पर कीमत का ज्यादा असर नहीं हुआ है तो तुरन्त कहा गया कि यह एक लैन्स की है, दो के हुए 600 रुपए, परन्तु फिर भी उस पर कोई ज्यादा असर नहीं हुआ तो बताया गया कि फ्रेम के 500 रुपए अलग से होंगे। वह बेचारा हामी भरता गया। कई डैन्टिस्ट भी हैं। एक जगह एक मरीज गया तो डाक्टर साहब ने कहा कि दांतों को देखने की फीस 100 रुपए होगी। मरीज ने अपने दांत दिखाये। जब वह पेमेंट करने लगा तो डाक्टर साहब ने 300 रुपए मांगे। इस पर उस व्यक्ति ने कहा कि आपने तो अपनी फीस 100 रुपए बताई थी और अब आप 300 रुपए मांग रहे हैं तो डाÓक साहब ने कहा कि आपके दांत देखने के 100 रुपए और उस दौरान आपके चिल्लाने से मेरे दो पेशेन्ट भाग गए तो 200 रुपए उनके।
शहर का पड़ाव भी अपना विशेष महत्व रखता है। कभी देश विभाजन के समय यहां शरणार्थी बंधुओं ने पड़ाव डाला था। तभी से इसे पड़ाव कहते आए हैं। लेकिन अब यहां अनाज मंडी है। और उस पर यूपीए सरकार की मेहरबानी से महंगाई ने 'पड़ावÓ डाल रखा है। यहां के लोग भी खुशमिजाज हैं। एक बार मैं वहां से गुजर रहा था कि मेरे एक जानकार दुकानदार ने आवाज लगाई, गोयल साहब, चावल ले जाओ। मैंने उसे मना करते हुए कहा कि नहीं भाई नहीं चाहिये। वह फिर बोला सरजी! ले जाओ, सस्ते हैं। मैंने जिज्ञासावश पूछ लिया, क्या भाव हैं ? वह बोला, एक रुपए दर्जन। यह सुनते ही मैं गरदन झुकाए झुकाए आगे बढ़ गया।
पास ही चक्कर है। सुन कर आप भी चक्कर खा गए न? लेकिन यही नाम है इस जगह का। यहां आपको हर किसी बात के लिए चक्कर ही लगाने पड़ेंगे। चाहे पानी का बिल जमा कराना हो, चाहे सब्जी लेनी हो और चाहे किसी वकील साहब से मिलना हो। कहते हैं कि अपने चुनाव चिन्ह 'चक्करÓ की वजह से जनता पार्टी ने अपना चुनाव कार्यालय यहीं खोला था, लेकिन एन वक्त पर जनता ने चक्कर दे दिया।
पास ही रावण की बगीची है। कहते हैं कि काफी अर्से से दो जातियों में इसकी मिल्कियत को लेकर देवस्थान विभाग में विवाद चल रहा है। कुछ लोगों का तो यहां तक कहना है कि यह विवाद मुगलों के समय से ही है, जबकि कुछ इसे अंग्रजों के समय का बताते हैं। जिस दिन तारीख होती है उस रोज बैठने से पहले ही अगली तारीख की बातें होने लगती है। इस से भी ज्यादा दिलचस्प बात यह है कि इसमें रावण को या उसके किसी वंशज अथवा अनुयायी को पार्टी नहीं बनाया गया है, जबकि उनकी कोई कमी नही है। बाढ़ै खल बल चोर जुआरा, पर धन पर दारा।Ó दोनों ही पक्षों का रावण से कोई लेना-देना नहीं है, फिर भी वर्षों से वकीलों की जेबें भर रहे हैं। ऊपर मैंने अजमेर के कुछ ही स्थानों का जिक्र किया है। बाकी फिर कभी बतऊंगा।
यह व्यंग्य लेख सेवानिवृत्त इंजीनियर श्री शिवशंकर गोयल ने भेजा है। उनका संपर्क सूत्र है-फ्लेट नं. 1201, आई आई टी इंजीनियर्स सोसायटी, प्लाट नं. 12, सैक्टर न.10, द्वारका, दिल्ली- 75, मो. 9873706333
aapne Ajmer ki sirf burai hi burai ki he. waha kuch aachai bhi he wo aap bhul gaye. Very Bad. sir har vastu ke saat (+) or (-) hota he sirf dekhne ki baat hoti he.
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