सोमवार, 2 मई 2011

घर का भेदी लंका ढावै !

हमारे पुरखे कोई भी कहावत यों ही नहीं बना गए। हर एक कहावत अपना महत्व रखती है। अब आप इस कहावत को ही लें, जिसमें कहा गया है, 'घर का भेदी लंका ढावैÓ अर्थात अपना भेद जानने वाला, मसलन विभीषण ही लंका के पतन में मदद करता है। इस कहावत का ही परिणाम है कि आज तक कोई भी व्यक्ति अपने बच्चे का नाम विभीषण नहीं रखता।
इतना ही नहीं सारे भारत में विभीषण का कोई स्मारक अथवा मंदिर भी दिखाई नहीं देगा। हां, अलबत्ता धनुशकोड़ी, रामेश्वरम में, एक सुनसान वीरान जगह, जो तीन तरफ समुद्र से घिरी है, उपेक्षित पड़ा छोटा सा विभीषण का स्थान जरूर है। वैसे रामायण के अनुसार विभीषण ऋषि पुलस्त्यजी की ही संतान एवं रावण के छोटे भाई थे। हनुमानजी महाराज जब सीता माता की खोज में लंका का चक्कर लगाते हैं तो विभीषण का घर देख कर बरबस उनके मुंह से निकल पडता है:-
'लंका निसिचर निकर निवासा,
यहां कहां सज्जन कर वासा।Ó -रामचरितमानस सुन्दरकांड
अर्थात यहां तो सब जगह राक्षस ही राक्षस हैं, यहां सज्जन, अर्थात सही, सच बात बोलने वाला, कहां से आ गया? और इसी वजह से वह स्वयं पहल कर विभीषण से मिलते हैं:-
'एहि सन हठि करिहउं पहिचानी,
साधु ते होइ न कारज हानि.Ó -सुन्दरकांड
हनुमानजी सरीखे ज्ञानी-ध्यानी विभीषण को सज्जन एवं साधु मानते हैं। बाद में दोनों में सुखद एवं उपयोगी वार्तालाप होता है। तदोपरांत रावण द्वारा जब विभीषण का अपमान किया जाता है तो वह यह कह कर राम से मिलने लंका से चल देते हैं:-
'रामु सत्य संकल्प प्रभु, सभा कालबस तोरि, मैं रघुवीर सरन अब, जाउं देहु जनि खोरि।Ó -सुन्दरकांड
और यही विभीषण जब रामजी के पास आते हैं तो सुग्रीव द्वारा विपरीत टिप्पणी के बावजूद वह उन्हें अपने साथ ले लेते हैं और संक्षिप्त वार्तालाप के बाद यह कहते हुए राज तिलक कर देते हैं कि यद्यपि तुम्हारी इच्छा नहीं है, लेकिन मैं तुम्हें लंका का राज देता हूं-
'जदपि सखा तब इच्छा नाही,
मोर दरसु अमोघ जग माही,
अस कहि राम तिलक तेहि सारा,
सुमन वशिष्ट नभ भई अपारा।Ó -सुन्दर कांड 48
यहां तक तो विभीशण के गुणों का बखान किया गया है, लेकिन जैसे ही वह अपने भाई के वध हेतु रामचन्द्रजी को उसकी नाभि कुंड का रहस्य बता देते हैं तो पहले रावण का और अंतत: लंका का पतन हो जाता हैं-
नाभिकुंड पियूश बस याकें,
नाथ जियत रावनु बल ताकें।Ó -लंका कांड 101.3
और इसी कारण से आज तक विभीषण के बारे में उपरोक्त कहावत कही-सुनी जाती रही है। लेकिन कलियुग में इस कहावत को एक मंत्रीजी ने तब चरितार्थ कर दिया जब उन्होंने पाली, राजस्थान में अपने ही कुनबे, दल की आपातकाल में घटित कुछ बातों का रहस्य आम जनता को उगल दिया। लोगों का कहना है कि अगर रहस्य उगलना ही था तो उन्हें चाहिये था कि दिल्ली में बैठे अपने कुनबे के बड़े बड़े महारथियों, वजीरों से कहते कि विदेशी बैंकों में किस-किस का कितना धन है, वह भेद उगलो या जिन्होंने बैंकों से उधार लेकर लोगों का धन हड़प लिया और फिर अपनी कम्पनियों के नाम बदल लिए, वह रहस्य उजागर करो, टैक्स चोरों के नाम बताओ, इतने बडे बडे घोटालें क्यों हो रहे हैं, यह राज खोलो, हार्वर्ड में पढ़े हुए और विश्व बैंक में काम के अनुभवी मंत्रियों एवं योजना आयोग के पदाधिकारियों के होते हुए महंगाई और बेरोजगारी क्यों बढ रही है, यह बताओ। कृषि की विकास दर तो आपके समय में पहले ही गिर ही रही थी, अब औद्योगिक विकास दर भी क्यों नीचे जा रही है? भ्रष्टाचार क्यों फैलता जा रहा है? नित नए घोटाले क्यों उजागर हो रहे हैं? यह सब लोगों को बताओ, लेकिन यह सब तो बतायेंगे नहीं, बीच में ही आपातकाल के 'राजÓ बताने लग गए। इसका नतीजा यह होगा कि लंका तो ढ़हेगी जब ढ़हेगी, फिलहाल तो उन मंत्रीजी का पद भी गया और कद भी गया और लोगों को यह कहने का और मौका मिल गया कि 'घर का भेदी लंका ढ़ावै।
यह व्यंग्य लेख सेवानिवृत्त इंजीनियर श्री शिवशंकर गोयल ने भेजा है। उनका संपर्क सूत्र है-फ्लेट नं. 1201, आई आई टी इंजीनियर्स सोसायटी, प्लाट नं. 12, सैक्टर न.10, द्वारका, दिल्ली-75

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