शनिवार, 2 अप्रैल 2011

दिल्ली का नाम ढिली या दलदली क्यों न कर दिया जाए!

इक्कीसवी सदी में देश को उन्नत देशों की श्रेणी में शुमार कराने के लिए कई तरह के बदलाव किए जा रहे हैं। लोगों के रहन-सहन और पहनावे में भी बदलाव हो रहे हैं। नये पैदा होने वाले बच्चों के नामों में परिवर्तन हो रहे हैं। इसीकड़ी में प्रान्तों, शहरों एवं जिलों के नाम बदलने की कार्यवाही भी हो रही है। मसलन बडे शहरों में बम्बई का नाम बदलकर मुम्बई कर दिया गया, मद्रास का नाम चेन्नई हुआ और अच्छे-खासे कलकत्ता का नाम कोलकाता हो गया तो सुझाव है कि दिल्ली को ही क्यों छोडा जाए? इसने किसी का क्या बिगाड़ा है?
वैसे भी कुछ लोगों को देश की रोटी-रोजी की समस्याओं से ध्यान हटाने के लिए प्रान्तीयता अथवा मंदिर-मस्जिद का मुद्धा उठाना ज्यादा ठीक लगता है तो कुछ को महंगाई, बेकारी, गरीबी तथा विकास जैसी ज्वलंत समस्याओं से लोगों का ध्यान बंटाने के लिए गांवों, शहरों के नाम बदलने का नुस्खा ज्यादा कामयाब नजर आता है। इसलिए अधिक बुद्धिमान लोगों ने सबसे पहले देश के चारों महानगरों के नाम बदलने का बीड़ा उठाया है। पहले बम्बई का नम्बर आया। बम्बई के 'रिमोट कन्ट्रोलÓ से एक रोज उनके सांध्य दैनिक में फरमान आया कि बम्बई का नाम बदल कर मुंबई करो। अत: बम्बई मुम्बई हो गई। एक ही झटके में न केवल मराठी मानुस का बल्कि सबका कल्याण हो गया। देश की व्यापारिक राजधानी का व्यापार भी बढ़ गया, सब को नौकरी भी मिल गई और महंगाई भी कम हो गई। कुछ समय बाद नम्बर आया मद्रास का। कुछ लोगों को इस नाम में अंग्रेजियत की बू आती थी, अत: इसका नाम बदलकर चेन्नई कर दिया गया। हुई न यह कमाल की बात ? रातों रात सारे देश के लोगों को तमिल का ज्ञान हो गया और गरीब झुग्गी-झोपडी वालों एवं मछुआरों की समस्याएं हल हो गईं। बाकी चीजें मुफत में बंटेंगी, वह अलग से। फिर कलकत्ता की बारी आई और भद्र लोगों ने वहां की राज्य सरकार की नाक में दम कर दिया कि इसे कोलकाता बनाओ वरना प्रगति की दौड़ में हम पीछे रह जायेंगे। मरता क्या न करता? राज्य सरकार ने केन्द्र को लिखा और कलकत्ता कोलकाता हो गया। इस दौड़ में बंगलोर वाले कैसे पीछे रहते। उन्होंने भी बंगलोर का नाम बदल कर बंगालुरू कर लिया और अब उड़ीसा ने अपना नाम बदला है कि इसे ओडीसा कहो। इससे न केवल यहां का पिछड़ापन बल्कि कालाहांडी जैसे जिलों की घोर गरीबी भी दूर हो जायेगी। उधर मध्यप्रदेश में भोपाल वाले मांग कर रहे हैं कि राजा भोज की नगरी भोपाल को अब भोजपाल कहो। अब दिल्ली की बारी है। आजकल हिन्दी इंगलिश की मिक्स भाषा हिंगलिश का जमाना है। किसी ने सुझाव दिया बताते हैं कि इसका नाम 'ढिल्लीÓ रख दिया जाए। इस सुझाव देने वाले के अपने तर्क हैं। उसका कहना है कि नामकरण यथा नाम तथा गुण होना चाहिए यानि जो हर काम में ढिलाई बरते वह 'ढिल्लीÓ। हम आए दिन देखते हैं कि हमारी सरकार चाहे गरीबी-बेकारी मिटाने का सवाल हो, चाहे महंगाई कम करने का और चाहे आतंकवादियों या नक्सलवादियों से निबटने का प्रश्न हो, यह ढि़लाई से चलती है। नहीं तो क्या कारण है कि इतना सब कुछ होने के बाद भी अभी तक अफजल और कसाब को हम मेहमान की तरह पाल रहे हैं? चारों तरफ भ्रष्टाचार का बोलबाला है, नित नए घोटाले सामने आ रहे हैं और जो इनको रोक सकते हंै, वे कह रहे हैं कि 'मैं मजबूर हंूÓ इसलिए इसको 'ढिल्लीÓ कहने में क्या हर्ज है? कहते हंै कि काने को काना कह दिया तो कोई जुर्म नही है। आप चाहे तो किसी वकील से सलाह करके देख लें, बशर्तें कि वह इसके लिए आपसे कोई भारी भरकम फीस न ऐंठ ले। कुछ लोगों की राय है कि आज कल देश के राजनीतिक पटल पर दलों के दलदल का जो दृश्य है, उसको देखते हुए देश की राजधानी का नाम 'दलदलीÓ होना चाहिए, जबकि कुछ की राय है कि जब कतिपय लोगों ने इसको दाल समझ कर दल दिया है तो क्यों नही इसका नाम 'दलीÓ रखा जाए? एक इंगलिश अखबार के विद्वान पाठक ने इसे विश्व का तीसरा सबसे प्रदूषणयुक्त शहर बताते हुए इसका नाम 'डैडलीÓ रखने का सुझाव दिया है। वैसे इस विषय में खोज हेतु कई विशेषज्ञ भी लगे हुए हैं। एक और नाम जोरों से चर्चा में है। वह नाम है 'देलीÓ, अर्थात इसके जिसने दे ली, उसने दे ली। अब उसका कुछ नहीं हो सकता। इतिहास बताता है कि कई आक्रमणकारी आएं और इसके दे के, मार के, चले गए। संसद और फिर मुम्बई के ताज होटल पर हमला इसकी ताजा मिसाल है। वे आए और दे के, मार के, चले गये। इस विषय में एक दिलचस्प किस्सा है। कुछ लोग देश में हो रहे नित नए घोटालों पर, चांदनी चौक में, एक चाटवाले के ठेले के पास चर्चा कर रहे थे। एक का कहना था कि लोग देश को ऐसे लूट रहे हैं, जैसे चगेंज खां, नादिर खां, तैमूर लंग इत्यादि ने दिल्ली को लूटा था। तो इनकी बातें सुन रहे चाट वाले ने कहा- बाबूजी! यह दिल्ली बसी ही लुटियन जोन पर है, तो लुटेगी नहीं तो और क्या होगा?
नाम तो और भी कई हैं लेकिन एक सुझाव है कि क्यों नहीं इसके लिए मंत्रियों के एक अध्यन दल का गठन कर दिया जाए या इसे किसी न्यायिक कमीशन को सौंप दिया जाए जो करोड़ों रुपए खर्च करके दस-बीस साल में अपनी रिपोर्ट सरकार को दे दें।
यह व्यंग्य लेख सेवानिवृत्त इंजीनियर श्री शिवशंकर गोयल ने भेजा है। उनका संपर्क सूत्र है-फ्लेट नं. 1201, आई आई टी इंजीनियर्स सोसायटी, प्लाट नं. 12, सैक्टर न.10, द्वारका, दिल्ली- 75

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